निरक्षरता: सामाजिक-कोढ़ पर निबन्ध | Essay on Illiteracy As Socio–Leprosy in Hindi!

प्रस्तावना:

विकास का सम्बंध केवल कल-कारखाने, बांधों और सड़कों के बनाने से ही नहीं है, बल्कि इसका सम्बंध बुनियादी तौर पर मानव जीवन से है जिसका लक्ष्य है लोगों की भौतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उन्नति ।

साक्षरता मानव के विकास का अत्यन्त आवश्यक अंग है । यह अपनी बातों को दूसरों तक पहुंचाने का, नवीन जानकारी लेने का और ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान का अनिवार्य साधन है । वस्तुत: साक्षरता व्यक्ति की उन्नति और राष्ट्रोत्थान की प्रथम शर्त है ।

चिन्तनात्मक विकास:

वी सदी के लिए भारत को अपनी तैयारी के सत्य ही एक महाशक्ति के रूप में अपने आपको स्थापित करने के लिए पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करना अत्यावश्यक है । किसी भी विकासशील समाज की तरह भारत भी लम्बे समय से प्रशासन के शासनतन्त्र को सुचारु रूप से चलाने हेतु एक चुस्त और उपादेय शिक्षा नीति और प्रणाली को लेकर व्यथित रहा है ।

निरक्षरता हर राष्ट्र एवं समाज के लिए एक भयंकर अभिशाप है । देश की समस्त समस्याओं की जड़ है । आजादी के 50 वर्ष बाद भी हम पूर्ण साक्षरता अभियान में सफल नहीं हो सके हैं । अन्य देशों की तुलना में भारत में निरक्षरता अत्यधिक है । इसका कारण है राष्ट्रीय आय का बहुत कम भाग शिक्षा पर व्यय किया जाता है ।

निरक्षरता को दूर करने के लिये एक ठोस राष्ट्रीय शिक्षा नीति की भारत में जरूरत थी । इस दृष्टि से, भारत में अनेक कार्यक्रम बनाये गये; जैसे, प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम, ग्रामीण प्रकार्यवादी साक्षरता कार्यक्रम, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन आदि ।

परन्तु निरक्षरता उच्चन हेतु इन प्रयासों को विशेष सफलता नहीं मिली क्योंकि देश में विद्यमान अन्य जटिल समस्यायें इनकी सफलता में बाधक बन रही थीं । अत: आवश्यकता महसूस की गई- स्वयंसेवी संगठनों के प्रयासों की एवं इस क्षेत्र में अधिकाशिक स्कूली एवं विश्वविद्यालयी छात्रों की । वर्तमान में यह सभी मिल-जुलकर देश से निरक्षरता के कलंक को मिटाने हेतु प्रयासरत हैं । इस दृष्टि से शिक्षा को सर्वव्यापी बनाया जा रहा है ।

उपसंहार:

राष्ट्र एवं समाज से यदि सभी समस्याओं का अन्त करना है तो एक मात्र प्रभावशाली उपाय हैं-निरक्षरता उच्चन । आज देश निरक्षरता के कारण ही अन्य देशों की तुलना में पिण्‌ड हुआ है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि सभी इस दिशा की ओर प्रयासरत एवं चिन्तित हैं । आज आवश्यकता युद्धस्तर पर अभियान चलाने की है ।

गुरुकुल, षिकुल और विद्यादान महाकल्याण वाली अवधारणाओं वाले देश भारत में आज इक्कीसवीं सदी के दरवाजे पर दस्तक देते हुये भी हम अगर ‘निरक्षरता उन्तुलन’ अथवा ‘साक्षरता अभियान’ जैसी आधारभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति पर राष्ट्रीय बहस-मुबाहसे की बात और मांग कर रहे हों तब हमारी स्थिति का दिवालियापन सहज ही समझा जा सकता है ।

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निरक्षरता को भारत में स्वाधीनता से पूर्व भी विकास में बाधक माना गया है और आज भी । निरक्षरता समाप्त होने पर ही भारत एक संगठित राष्ट्र बन सकता है और अपने नागरिकों को उच्च कोटि का जीवन प्रदान कर सकता है । अत: आवश्यक है कि शिक्षा को साधारण रूप से और निरक्षरता को विशेषरूप से देश की विकास प्रक्रिया में उच्च प्राथमिकता दी जाये और ऐसा किया भी गया है ।

साक्षरता की क्या परिभाषा है ? साक्षर कौन है ? वह व्यक्ति ‘साक्षर’ है जो किसी भाषा को पढ व लिख सकता है । भारत के जनगणना आयोग ने 1991 में ऐसे व्यक्ति को ‘साक्षर’ माना है जो किसी भारतीय भाषा को ‘समझ के साथ’ पढ़ और लिख सकता है रकि केवल पढ़ और लिख सकता है ।

वे जो पढ़ सकते हैं परन्तु लिख नहीं सकते, साक्षर नहीं हैं । एक व्यक्ति को साक्षर मानने के लिए स्कूल में औपचारिक शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक नहीं है । सन 1968 में शिक्षा सम्बंधी राष्ट्रीय नीति का प्रस्ताव पारित किया गया जिसके अन्तर्गत शिक्षा के पुनर्निर्माण सम्बंधी सुझाव दिए गये थे ।

इसमें ये मानक सम्मिलित किये गए थे- (1) प्रणाली में इस प्रकार का परिवर्तन जिससे कि उसका व्यक्तियों के जीवन से अधिक निकट का संबंध हो, (2) शिक्षा के अवसरों को बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयास, (3) सब चरणों पर शिक्षा की गुणवत्ता को बढाने के लिए सतत प्रयास, (4) विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास पर बल और (5) नैतिक और सामाजिक मूल्यों का संवर्धन ।

1986 में शिक्षा की नीति पर बल दिया गया और सभी के लिए शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने के प्रावधान पर जोर दिया गया था । शिक्षा के क्षेत्र में पचास के दशक में कुछ उन्नति अवश्य हुई । मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की संख्या 1951 में 2.31 लाख थी ।

1991 में 7.55 लाख हो गई । साक्षरों की संख्या में तीन गुने से अधिक वृद्धि हुई अर्थात् 1951 में 16.7 प्रतिशत से 1991 में 52.11 प्रतिशत की वृद्धि हुई । सम्पूर्ण जनसंख्या को ध्यान में रखते हुये 1991 में साक्षरता दर 42.94 प्रतिशत थी, जिसकी तुलना में 1981 में 36.23 प्रतिशत और 1971 में 29.48 प्रतिशत थी ।

अब शिक्षा सुविधाओं को परिमाणात्मक बनाने के साथ-साथ उसे गुणात्मक बनाने पर भी विशेष बल दिया जाता है । 1976 में शिक्षा का एकमात्र दायित्व राज्यों का था । केन्द्र सरकार केवल उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा का समन्वय और मानदण्डों का निर्धारण ही किया करती थी ।

1976 में संवैधानिक संशोधन के द्वारा शिक्षा का दायित्व राज्यों एवं केन्द्र दोनों पर हो गया और 1985 तक 15 से 35 आयु समूह में निरक्षरता के उन्तुलन एवं सम्पूर्ण प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति पर जोर दिया गया । एक ओर समाज की सहभागिता की योजना बनाई गई और दूसरी ओर ‘ऑपरेशन ब्लेक बोर्ड’ का कार्यक्रम प्राथमिक स्कूलों में मूल सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु क्रियान्वित किया गया ।

वर्तमान समय में खुली शिक्षा प्रणालियों एवं अनौपचारिक शिक्षा प्रणालियों को सभी स्तरों पर प्रोत्साहित किया जा रहाग्है, किन्तु फिर भी जनसंख्या वृद्धि की तुलना में निरक्षरता को समाप्त करने में अधिक प्रगति नहीं हो सकी है । 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की पूरी जनसंख्या के 47.89 प्रतिशत व्यक्ति अथवा लगभग 40.4 करोड़ व्यक्ति निरक्षर हैं ।

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आज स्वाधीनता के 50 वर्षो बाद भी निरक्षरता उन्तुलन में किये गये प्रयास विशेष सफल नहीं रहे, बल्कि यह संख्या निरन्तर बढ़ रही है और शताब्दी के अन्त तक ससार में सर्वाधिक निरक्षरों की संख्या अपने देश में होगी ।

साक्षरता दर में अखिल भारतीय कोटिक्रम गे, केरल का प्रथम स्थान है और उसके बाद मिजोरम, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, नागालैण्ड, मणीपुर, गुजरात, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, पंजाब, सिक्किम, कर्नाटक, हरियाणा, असम, उडीसा और मेघालय आते हैं । दूसरी ओर निम्नतम साक्षरता दर से बिहार प्रथम स्थान पर है और इसके बाद राजस्थान, अरुणाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और आध्र प्रदेश आते हैं ।

यद्यपि भारत में साक्षरता दर 1981 में 43.56 प्रतिशत से बढ़कर 1991 में 52.11 प्रतिशत हो गई, फिर भी अचर पदों में निरक्षरों की संख्या 1951 में 29.42 करोड़ से बढ़कर 1991 में 48.19 करोड़ हो गई । निरक्षरता की दृष्टि से भारत अन्य देशों की तुलना में अत्यन्त पिछड़ा हुआ है ।

इसका कारण यह भी है कि यहाँ पर शिक्षा पर होने वाला व्यय अन्य देशों की तुलना में कम है । 1981 से कुल वार्षिक बजट का 12 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय होता था जबकि 1991 में यह बढ्‌कर 3.7 प्रतिशत हो गया । अमेरिका में 19.9 प्रतिशत, जापान में 19.6 प्रतिशत, रूस में 11.2 प्रतिशत और फ्रास में 17.8 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय किया जाता है । हमारे देश में महिलाओं में निरक्षरता की समस्या और भी भयंकर है ।

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भारत में 1991 में 24.76 करोड़ महिलाएं निरक्षर थीं । निरक्षरता की 52.0 प्रतिशत पुरुषों की 36.14 की तुलना में आज महिलाओं में 60.58 है । शहरी क्षेत्रों में महिला निरक्षरता 52.0 प्रतिशत है जबकि पुरुषों में 34.0 प्रतिशत है । ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की 59.0 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं की निरक्षरता दर 82.0 प्रतिशत है ।

बच्चों में भी निरक्षरता की स्थिति इतनी ही बुरी है । 6 से 14 वर्ष के आयु-समूह में भारत में 15.3 करोड़ बच्चे हैं । इनमें से लगभग 80 प्रतिशत बच्चे स्कूलो में दाखिल हैं । फिर भी 2.8 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो स्कूल नहीं जाते । अन्य प्रान्तों की तुलना में हिन्दी क्षेत्र में निरक्षरता अधिक है ।

हमारे देश के निरक्षर व्यक्तियों का पांचवीं हिस्सा इस हिन्दी क्षेत्र में मिलता है । इस क्षेत्र के चार राज्यों-राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश को प्रोफेसर अशिश बोस ने ‘बिमारु क्षेत्र’ का नाम दिया है । 1961 में जब ‘बिमार क्षेत्र’ में साक्षरता दर 20.65 प्रतिशत थी, तब राष्ट्रीय स्तर पर यह 28.30 प्रतिशत थी । इसका एक बड़ा कारण यह है कि इन क्षेत्रों में निर्धनता एवं निरक्षरता में काफी घनिष्ठ सम्बंध है ।

इन राज्यों के गाँवों की स्थिति और अधिक गम्भीर है । राष्ट्रीय साक्षरता मिशन ने जो साक्षरता अभियान का लक्ष्य जनसंख्या बनाया है उसका केवल 13.81 प्रतिशत इन ‘बिमारु क्षेत्र’ में है । चूंकि साक्षरता का आर्थिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है । अत: इन क्षेत्रों में साक्षरता कार्यक्रमों को अधिक महत्व दिया जाना अति आवश्यक है ।

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उपरोक्त सभी तध्यो से स्पष्ट है कि निरक्षरता अवश्य ही एक अभिशाप है और इसका उन्तुलन किया जाना अति आवश्यक है । इस दृष्टि से लोकसभा ने 1986 में शिक्षा की राष्ट्रीय नीति को स्वीकृति प्रदान की । उसने एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली बनाने का प्रयास किया जिसमें निर्धारित किया गया कि; (i) पाठ्‌यक्रम का एक ऐसा ढांचा जोकि सारे देश में शिक्षा के विभिन्न चरणों के अन्त में योग्यता में समानता स्थापित करे, (ii) समाज और संस्कृति के समाकलनात्मक पहलू को सुदृढ करें, और (iii) एक मूल्य व्यवस्था को स्थापित करे जो समतावादी, प्रजातान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए आवश्यक है ।

शैक्षणिक परिवर्तन, असमानताओं को कम करना, प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण, प्रौढ शिक्षा और वैज्ञानिक एवं शिल्प वैज्ञानिक अनुसंधान जैसे उपायों पर विशेष बल दिया गया । राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में यह व्यवस्था की गई कि सभी छात्रों को बिना लिंग, जाति और स्थान आदि का भेदभाव किए बिना समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है तथा देश के समस्त भागों में 10 +2 +3 शिक्षा अनिच्छा को लागू किया गया ।

14 वर्ष की आयु तक सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पद्धति को प्राथमिकता प्रदान की गई । निरक्षरता के उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय शैक्षणिक नीति ने यह प्रस्ताव रखा कि 15 से 35 आयु समूह में प्रौढ़ और सतत शिक्षा का विशाल कार्यक्रम विभिन्न माध्यमो के द्वारा कार्यान्वित किया जायेगा ।

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विभिन्न माध्यम हैं: (क) सतत शिक्षा के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में केन्द्रों की स्थापना, (ख) मालिकों और सरकार की सम्बंधित एजेन्सियों द्वारा श्रमिकों की शिक्षा, (ग) रेडियो, दूरदर्शन और सिनेमा फिल्मों को व्यापक और सामूहिक शिक्षा का माध्यम बनाना, (घ) शिक्षा प्राप्त करने वाले समूहों और संगठनों का गठन करना, (ड) दूरवर्ती शिक्षा कार्यक्रम, और (च) स्व-शिक्षा में सहयोग का आयोजन ।

इस योजना ने अनेक व्यक्तियों को लाभान्वित किया है । साथ ही इस शताब्दी के अन्त तक त् सबको शिक्षा’ का लक्ष्य हासिल करने पर जोर दिया गया है । मुरव्य रूप से निरक्षरता उन्तुलन हेतु हमारे देश में तीन उपाय किये गए हैं; प्रथम, राष्ट्रीय प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम ।

द्वितीय, ग्रामीण प्रकार्यवादी साक्षरता कार्यक्रम । तृतीय, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन । राष्ट्रीय प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम 2 अक्तूबर, 1978 को शुरू किया गया था । इसका उद्देश्य निरक्षर व्यक्तियो को विशेष रूप से 15-35 आयु वर्ग के समूह में शिक्षा देना और साक्षरता के लिए प्रोत्साहित करना था । इसके कार्यक्रम हैं, लक्षित निरक्षर जनसंख्या को साक्षरता की प्रवीणताएं सिखलाना, उनका प्रकार्यवादी विकास, सरकार की नीतियों एवं कानूनों के विषय में उनमें जागरूकता उत्पन्न करना ।

इसके अन्तर्गत सियों, बच्चों व समाज के कमजोर वर्गो की शिक्षा पर विशेष बल दिया जा रहा है । सभी स्वयं सेवकों एवं विद्यार्थियों से कहा जा रहा है कि वह साक्षरता का संदेश फैलाएं एवं साक्षरता प्रदान करने का प्रयास करें ।

ग्रामीण प्रकार्यवादी साक्षरता कार्यक्रम प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम का ही उप-कार्यक्रम है । यह मई, 1986 में प्रारम्भ किया गया था और इसमें एन.एस.एस. और महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के अन्य छात्रों को ‘प्रत्येक एक पढ़ाओ’ के सिद्धान्त पर सम्मिलित किया गया था ।

यह एक व्यापक कार्यक्रम है । इसके अनेक चरण हैं; मास्टर प्रशिक्षकों जिन्हें विद्यार्थी स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण देना है, का चयन करना; ऐसे विद्यार्थी स्वयंसेवकों का, जो सच्चे और वास्तविक रूप से साक्षरता कार्य के प्रति प्रतिबद्ध हैं चयन करना और उन्हें प्रेरित और संगठित कुरना, 15-35 आयु वर्ग के साक्षर व्यक्तियों की पहचान करना जो किसी शिक्षा संस्था के पास रहे हों ।

विद्यार्थी स्वयंसेवकों एवं निरक्षर व्यक्तियों के बीच सम्बंध स्थापित करना और प्रत्येक स्वयंसेवक का कार्यक्षेत्र नियत करना; स्कूलों के वरिष्ठ अध्यापकों और प्रधानाध्यापकों द्वारा विद्यार्थी स्वयंसेवकों के कार्यक्रम को मानीटर करवाना; विभिन्न विकास विभागों अथवा एजेंसियों से इस प्रकार समन्वय स्थापित करना कि उनके अधिकारी उस स्थान पर जायें जहाँ स्वयंसेवक साक्षरता प्रदान कर रहा है, सीखने वाले को साक्षरता के लाभ बताएं, चार्ट, पोस्टर और अन्य सामग्री उनको उपलब्ध कराएं और उनर्क वास्तविक कठिनाइयों की पहचान करें; निरक्षरों को पुस्तकालयों और वाचनालयों के माध्यम उत्तर-साक्षरता गतिविधियां प्रदान करें ।

जनसंचार माध्यमों द्वारा कार्यक्रम की सूचना और समर्थ दिया जाना और उसके व्यापक प्रभाव का विश्वविद्यालय के प्रौढ़ और सतत शिक्षा विभागों मूल्यांकन करना अत्यधिक जरूरी है । प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में एक व्यापक कार्यक्रम बनाया गया जो राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के न से जाना जाता है ।

यह मई, 1988 में शुरू किया गया । इसका लक्ष्य था कि प्रकार्यवादी साक्षर 15-35 आयु समूह के आठ करोड़ निरक्षरों को प्रदान की जाये । तीन करोड़ को 1990 तक पांच करोड़ अन्य को 1995 तक । इसके अतिरिक्त यह मिशन श्रमिक विद्यापीठ और 16 संसाधन केन्द्र विभिन्न राज्यों में श्रमिकों को शिक्षा देने और कार्यक्रम को तकनीकी संसाधन सहार प्रदान करने हेतु कार्यरत हैं । निरक्षरता उन्मूलन के यह कार्यक्रम 1965 तक सफल नहीं हो सके थे क्योंकि उस समय देश खाने, रोजगार और स्वावलम्बन की समस्याओं से जूझ रहा था ।

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जनॅसंख्या वृद्धि के कारण भी निरक्षरों की संख्या में काफी वृद्धि हुई । यह सभी कार्यक्रम अभी तक स्थितियों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं ला पाये हैं । इनकी असफलता के कुछ अन्य कारण भी हैं, जैसे; इन कार्यक्रमों की निर्धारित अवधि लम्बी है ।

इसकी अवधि छह महीने है । लोग बीच में ही प्रोग्राम छोड देते है । अत: इसकी अवधि दो महीने रखनी चाहिए । निर्धारित किए गए साक्षरता प्रतिमान भी बहुत ऊँचे हैं । अंकगणित को लिखने व पढ़ने से पृथक् कर दो महीने बाद सिखाया जाना चाहिए इत्यादि ।

साथ ही देश को निक्रियता से बाहर निकालने के लिए विद्यार्थी शक्ति को भी काम में लेना अत्यधिक आवश्यक है । अत: यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सरकार अकेले ही निरक्षरता को दूर नहीं कर सकती । इसको प्रभावी बनाने के लिए स्वयंसेवी संगठनों, विद्यार्थी एवं स्वयं बच्चों के माता-पिताओं को प्रभावशाली एवं सक्रिय भूमिका निभानी होगी ।

सीखने वालों और सिखाने वालों को निपुण प्रयास करने होंगे और इन सभी में प्रेरणाओं का समावेश किया जाना अत्यन्त आवश्यक है तभी इस समस्या से निजात पाई जा सकती है । इस दृष्टि से वर्तमान निरक्षरता उन्मूलन अभियान में धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों तथा पर्यावरण के संरक्षण पर भी बल दिया गया है । मद्यनिषेध, शांति व सांप्रदायिक सदभाव के प्रसार का भी भारी दायित्व उठा लिया गया है ।

यही नहीं बालपोषण और मातृत्व की शिक्षा का भी इसमें समावेश है । उत्साहवर्द्धक तथ्य यह है कि निरक्षरता उन्तुलन अभियान में विभिन्न आयु वर्गो के छात्र-छात्राओं की भी भागीदारी बढ़ रही है । आज दस लाख विद्यार्थी इस अभियान से सम्बद्ध हैं ।

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