पूंजीवाद का बुनियदि चरित्र पर निबंध | Essay on Basic Characteristics of Capitalism in Hindi!

अमेरिका की आर्थिक मंदी ने एक बार फिर पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया । लेकिन इस बार मंदी का प्रभाव उतना व्यापक नहीं था जितना 1929 की आर्थिक मंदी के समय । इसका कारण यह है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का दबदबा पहले से घटा है ।

इस विवाद में जाने के बदले यह जानना ठीक रहेगा कि आर्थिक उतार-चढ़ाव इतिहास के परिप्रेक्ष्य में क्यों कर महत्त्वपूर्ण होता गया है । आर्थिक उतार-चढ़ाव कोई नयी परिघटना नहीं है । पूंजीवाद के पहले की अर्थव्यवस्थाओं में उतार-चढ़ाव आते रहे, मगर उनका चरित्र आज की तुलना में काफी अलग रहा । पहली भिन्नता उनकी व्यापकता को लेकर रही ।

पूंजीवाद से पहले की अर्थव्यवस्थाओं में उनका प्रभाव सीमित क्षेत्रों में ही रहा, क्योंकि न तो बाजार स्थानिकता की सीमा लांघ सके थे और न ही आवागमन के साधनों और सूचनाओं के अभाव में ऐसा संभव था । दूसरी भिन्नता उतार-चढ़ाव से कारणों से जुड़ी थी ।

उत्पादन पर प्राकृतिक कारणों जैसे अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप, ओलावृष्टि, हिमपात, टिड्‌डी दल के हमले, महामारियों, फसलों और पशुओं की बीमारियों आदि का सबसे अधिक प्रभाव होता था । इनके कारण उत्पादन घटता था, जबकि इनके न आने या बाढ़ द्वारा उपजाऊ मिट्‌टी लाने से उत्पादन बढ़ता था । इसके अलावा बाहरी हमलों और शासकों के उत्पीड़न का भी काफी प्रभाव होता था । साफ है कि प्राकृतिक कारणों से उतार-चढ़ाव में थोड़ी बहुत नियमितता आती थी ।

पूंजीवाद के उदय के साथ ही बाजार का विस्तार हुआ । कार्ल पोलान्यी की दृष्टि से देखें तो बाजार समाज के अधीन नहीं रहा, बल्कि समाज पर हावी हो गया । आवागमन के साधनों के विस्तार और सूचना के क्षेत्र में हुई तरक्की के फलस्वरूप लोग दूरी के बावजूद उत्पादन, मांग, कीमत आदि की जानकारी के कारण पहले से कहीं अधिक व्यापार करने लगे । फिर भी आर्थिक उतार-चढ़ाव और व्यापार-चक्र का प्रभाव कुछ खास नहीं रहा ।

अर्थव्यवस्था के पूंजीवाद की ओर संक्रमण के साथ ही व्यापार चक्र एक नियमित परिघटना के रूप में उभरा । इसकी ओर सबसे पहले अंग्रेज अर्थशास्त्री सर विलियन पेट्‌टी ने सत्रहवीं शताब्दी में इशारा किया । उनके अनुसार व्यापार चक्र समय विशेष के दौरान राष्ट्रीय आय में उतार-चढ़ाव के रूप में प्रकट होता है । सरकारी नीतियों के जरिए स्थिरता लाई जा सकती है । पेट्‌टी की इन्हीं बातों को कालक्रम में माल्थस, जॉन स्टुअर्ट मिल, कार्ल मार्क्स और रेगनार फिशक ने आगे बढ़ाया ।

ध्यान रहे कि बहुत जमाने तक कई पूंजीवाद-समर्थक अर्थशास्त्री व्यापार चक्र के लिए व्यवस्था को दोषी नहीं मानते थे, उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी के एक बड़े अर्थशास्त्री विलियन स्टेनले जेवंस ने 1884 में ‘सन स्पॉट सिद्धांत’ रखा, जिसके अनुसार व्यापार चक्र सूर्य के धबों के साथ जुड़ा है । इन धबों के उदय और बदलते आकार-प्रकार से पृथ्वी का मौसम प्रभावित होता है, जिससे कृषि उत्पादन पर गहरा असर पड़ता है । इस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था पर आर्थिक उतार-चढ़ाव की जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती ।

कहना न होगा कि उतार-चढ़ाव की बात को तो लोगों ने मान लिया है और सूर्य के धबों वाले सिद्धांत को कूड़े में फेंक दिया है । अनेक लोगों ने व्यापार चक्र की अवधि और तीव्रता का ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत किया है । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण निकोलाई कोद्रातियेफ का है उन्होंने अठारहवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी के आरंभ तक की अमेरिकी, ब्रिटिश और फांसीसी थोक कीमतों और ब्याज दरों का अध्ययन कर यह रेखांकित किया कि व्यापार चक्र के कारण आर्थिक क्रियाकलाप शिखर पर जाकर फिर न्यूनतम स्तर पर नियमितता के साथ पहुंचते हैं ।

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सन् 1929-32 के दौरान अमेरिका में आये संकट ने हल्की मंदी, मंदी और फिर महामंदी का रूप धारण कर लिया और सोवियत संघ और नाजी जर्मनी को छोड़ कर पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया । भारत में कृषि उत्पादों की कीमतें धराशायी होने के कारण किसान पैसे की तंगी से लगान नहीं चुका पाए, जिससे उन्हें अपनी जोतों से बेदखल किया जाने लगा । इसी के विरोध में बाबा रामचंद्र ने अवध और स्वामी सहजानंद ने बिहार में किसानों को लामबंद किया ।

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महामंदी के आने पर फ्रेंच अर्थशास्त्री ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया कि ‘पूर्ति अपनी मांग स्वयं पैदा कर लेती है ।’ आप निवेश कर उत्पादन बढ़ाते जाइए, मांग अपने आप पैदा होती जायेगी और संकट दूर रहेगा । इस सिद्धांत के धराशायी होने के बाद केस के इस कथन को लोगों ने माना कि प्रभावकारी मांग की मात्रा स्वत-उत्पादन की मात्रा के अनुकूल नहीं हो सकती । प्रभावकारी मांग की मात्रा के कम होने की दशा में सरकार की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है ।

वह हस्तक्षेप कर रोजगार और आय के अवसर बढा कर प्रभावकारी मांग में वृद्धि करे, जिससे बाजार में अनबिके माल की समस्या न रहे । केंस के इस नुस्खे को अपना कर अमेरिका सहित समस्त पूंजीवादी विश्व संकट मुक्त हो सका । इसी नुस्खे पर रूजवेल्ट का ‘न्यू डील’ आधारित था । केंस के शिष्यों ने व्यापार चक्र की वैज्ञानिक समझदारी सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत की ।

उनके अनुसार व्यापार चक्र औद्योगिक पूंजीवाद में सन्निहित है । वह प्रकृति की देन नहीं हैं जिन देशों ने अपना औद्योगीकरण शुरू किया और जो देश उनके संपर्क में आये वहां आय और रोजगार की मात्रा में उतार-चढ़ाव देखे जाने लगे । ऐतिहासिक दृष्टि से ये उतार-चढ़ाव दीर्घकालीन आर्थिक संवृद्धि के दौरान ही होते हैं । संवृद्धि के लिए उत्तरदायी शक्तियों और उतार-चढ़ाव लाने वाली ताकतों के परस्पर संबंधों का अध्ययन पूरी समझदारी के लिए आवश्यक है ।

किसी व्यक्ति की आय हो या राष्ट्र की, वह दो भागों में विभक्त होती है: उपभोग- व्यय और बचत । आमतौर से बचत को निवेश किया जाता है यानी उत्पादन कार्य में लगाया जाता है । उपभोग-व्यय आमतौर से चालू वर्ष की आय पर आधारित होता है जबकि निवेश ऋण विगत राशि पर निर्भर होता है । अगर चालू आय बढ़ रही है तो उपभोग-व्यय बढ़ेगा यानी मात्रा को पूरा करने के लिए उत्पादन बढ़ाने की जरूरत होती है जिसके लिए निवेश में वृद्धि की जाती है ।

संक्षेप में, उतार-चढ़ाव दो कारकों के परस्पर संबंधों के परिणाम होते हैं । ये हैं: गुणक (मल्टीप्लायर) और त्वरक (एक्सीलरेटर) सरल शब्दों में कहें तो निवेश के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय बढ़ती है । अगर वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन बढ़ाया जाता है तो मजदूरी, मुनाफाब्याज और लगान के रूप में श्रम, उद्यम, पूंजी और भूमि प्रदान करने वालों को आय मिलती है, जिसे वे उपभोग पर खर्च करते हैं यानी बाजार में उन्हीं वस्तुओं और सेवाओं को खरीदते हैं ।

चूंकि वे अपनी आय का संपूर्ण उपभोग पर नहीं खर्च करते, बल्कि कुछ भाग बचत करते हैं इसलिए मांग की कुल मात्रा उपभोग-व्यय के अनुसार तय होती है । अगर बचत की पूरी राशि निवेश कर दी जाती है तो बाजार में उपभोग वस्तुओं और उत्पादक वस्तुओं की संपूर्ण मात्रा बिक जायेगी और कोई समस्या नहीं होगी । पर ऐसा नहीं होता । लोग कई कारणों से ऐसा नहीं करते । उदाहरण के लिए, अगर यह धारणा फैल जाये कि कोई वस्तु भविष्य में सरती होने वाली है तो हम तत्काल उसे न खरीद कर प्रतीक्षा करेंगे । इसका उलटा भी हो सकता है ।

इसी तरह निवेश व्यय के सिलसिले में भी होता है । बिना जटिल गणितीय प्रकिया में गये हम कह सकते हैं कि गुणक और त्वरक के परस्पर संबंध ऐसे नहीं होते कि मांग और पूर्ति में स्वत: संतुलन कायम हो । संतुलन के लिए जरूरी है कि सरकार ऐसे कार्यकम चलाए, जिससे उपभोक्ता-आय बड़े । उपभोक्ता आय बढ़ने से वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ेगी जिसके फलस्वरूप नए निवेश के जरिए उनकी पूर्ति बढ़ाने की कोशिश होगी ।

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कहना न होगा कि उपभोक्ता आय में वृद्धि से वस्तुओं और सेवाओं की मांग में वृद्धि गुणक प्रभाव और निवेश में निवल बढ़ोतरी द्वारा पूर्ति में वृद्धि त्वरक प्रभाव के द्योतक हैं । किसी भी व्यापार चक्र के चार दौर होते हैं । पहला तेजी या उत्कर्ष (बूम) का दौर है जब राष्ट्रीय उत्पादन और रोजगार के अवसर उच्चतम होते हैं ।

दूसरा दौर गिरावट या स्लंप का होता है जब माग में गिरावट से उत्पादन घटने लगता है और उपभोक्ता और उत्पादक, दोनों भविष्य के प्रति आशंकित होने लगते है । तीसरा हल्की मंदी या रिसेशन का दौर होता है जब आर्थिक संवृद्धि धीमी होने लगती है । उत्पादन में गिरावट स्पष्ट हो जाती है । बेरोजगारी तेजी से बढ़ती है । उत्पादक निवेश घटाते हैं क्योंकि बाजार में अनबिके माल की समस्या दिखने लगती है ।

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उपभोक्ता अपनी खरीदारी पर विराम लगाते हैं । चौथा दौर पुनरुत्थान या रिकवरी का होता है जब अर्थव्यवस्था पस्त-हिम्मती की स्थिति से निकल कर उठने की कोशिश करती है और अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो उत्कर्ष की स्थिति में पहुंच जायेगी । कहना न होगा कि यह कालचक्र बारंबार आता है, सिर्फ एक अंतर यह है कि विभिन्न दौरों का विस्तार हमेशा समान नहीं होता ।

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पूंजीवाद के समर्थकों की ओर से समय-समय पर यह दावा किया जाना अब भी जारी है कि व्यापार चक्र या आर्थिक उतार-चढ़ाव का जिक्र जरूरी है । कहा गया कि प्रतिद्वंद्वात्मक पूंजीवाद के स्थान पर एकाधिकारी पूंजीवादी आने से उत्पादन की अराजकता खत्म हो गयी और उत्पादकों की संख्या सिमट जाने से गलाघोंटू प्रतियोगिता नहीं रही और उत्पादन विनियमित हो गया । इस प्रकार एक तरह का केंद्रीय नियोजन होने से क्या, कितना कहां, कैसे, किनके लिए उत्पादन संबंधी निर्णय तरकीब से लिए जायेंगे इसलिए कोई संकट नहीं आयेगा ।

जॉन स्ट्रेची ने जोर दिया कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सब कुछ बदल गया । बर्ले और मिंस, गालब्रेथ, जेम्स बर्नहम आदि ने कहा कि चूंकि कंपनियों को शेयरधारकों का उनके प्रबंधन से कोई संबंध नहीं रहा, इसलिए उनके पुराने नजरिए की कोई प्रासंगिकता नहीं रही । पेशेवर प्रबंधक मुनाफे को अधिकतम बनाने के बदले उनकी सेहत और छवि पर ध्यान देते हैं । वे स्वयं वेतनभोगी होते हैं । इस प्रकार प्रबंधकीय क्रांति ने सब कुछ बदल दिया है ।

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप नयी अर्थव्यवस्था के उदय की बात की गयी जो उतार-चढ़ाव से मुक्त होगी । कुछ समय पहले सिटी ग्रुप के अर्थशास्त्री अजय कपूर और कुछ दूसरे लोग यह दावा करते देखे गये कि चूंकि उपभोग व्यय में धनपतियों का हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है इसलिए वस्तुओं और सेवाओं की मांग और उत्पादन का स्वरूप ऐसा हो गया है कि उतार- चढ़ाव की गुंजाइश बहुत कम रह गयी है ।

गालब्रेथ ने ‘इंडिस्ट्रियल स्टेट’ और ‘प्रतिकारी शक्तियों’ के उदय की बात कर पूंजीवाद के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन को रेखांकित किया था । उन्होंने कहा था कि अधिकतम मुनाफे की प्रासंगिकता समाप्त हो गयी है, जिससे पहले जैसी आपाधापी नहीं रह गयी है । जो भी हो यथार्थ ने उपर्युक्त दावों को मटियामेट कर दिया है और आवरण भले ही बदला हो पूंजीवाद का बुनियादी चरित्र अपरिवर्तित है ।

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