सिनेमा में बदलते मूल्य-बोध पर निबन्ध | Essay on The Changing of Conscious Value in Cinema in Hindi!

सिनेमा वर्तमान सभ्यता का एक अनिवार्य अंग बन गया है । वर्तमान सिनेमा का प्रारंभ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है । विज्ञानियों का यह प्रयास रहा है कि किस प्रकार ऐसे प्रतिबिंब बनाए जाएँ जिनको कि इस प्रकार दिखाया जाए कि उनमें गति अनुभव हो ।

कैमरा, फोटोग्राफी इत्यादि का आविष्कार इसी प्रयास का फल है । डब्ल्यू.के.एल. डिस्कन ने अपने अथक प्रयासों से सन् १८९१ में एक ऐसी मशीन का आविष्कार किया था, जिसमें प्रतिबिंबों में गति का अनुभव होता था । इस मशीन का नाम ‘किनेटोस्कोप’ रखा गया ।

किनेटोस्कोप का प्रथम व्यावसायिक प्रदर्शन १४ अप्रैल, १८९४ को न्यूयॉर्क में किया गया था । फ्रांस के लुमियर बंधुओं-आगस्टे तथा लुईस ने इस आविष्कार की संभावनाओं को ध्यान में रखकर इसमें सुधार करके अधिक उपयोगी बनाने का प्रयास किया ।

इस सिद्धांत में मूवी कैमरा तथा प्रोजेक्टर के सिद्धांतों का समावेश करके एक ‘सिनेमेटोग्राफ’ का निर्माण किया गया, जिसके द्वारा स्कीन पर तसवीरों को चलते-फिरते देखा जा सकता था । लुमियर बंधुओं ने इसका सार्वजनिक प्रदर्शन २२ मार्च, १८९५ को लियोन (फ्रांस) में किया था ।

भारत में ७ जुलाई, १८९६ को बंबई के ‘वाट्‌सन होटल’ में लुमियर बंधुओं के सिनेमेटोग्राफ’ द्वारा ४०-४ ० मिनट के प्रतिदिन चार शो आयोजित किए गए थे । इस आयोजन के साथ ही भारत विश्व का तृतीय तथा एशिया का प्रथम देश बन गया था, जहाँ सिनेमा के आविष्कार के एक वर्ष के अंदर ही इसका प्रदर्शन हो गया था ।

सन् १८९७ में भारत में एक फिल्म ‘कोकोनट फेअर’ की एक विदेशी फोटोग्राफर ने सर्वप्रथम शूटिग की थी । बंगाली ऑपेरा ‘दी फ्लावर ऑफ पर्शिया’ में से एक नृत्य-दृश्य फिल्म के रूप में कलकत्ता में स्टार थिएटर में ९ फरवरी, १८९८ को प्रदर्शित किया गया था ।

फिल्मों के इन प्रदर्शनों से आकर्षित होकर भारत के एक व्यावसायिक फोटोग्राफर हरिश्चंद्र सखाराम भातवाद्रेकर (सावे दादा) ने एक मूवी कैमरा ग्रेट ब्रिटेन से मँगवाया था । इस केमरे से उनहोंने दो लघु फिल्मों का निर्माण किया था ।

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भारत में इन दो लघु फिल्मों के निर्माण के साथ ही फिल्म-निर्माण का प्रारंभ माना जाता है । विख्यात रंगकर्मी आर.जी. टार्नी तथा एनजी चित्रे द्वारा सुगठित पटकथा पर निर्मित भारत की पहली फिल्म ‘पुंडालिक’ १८ मई, १९१२ को बंबई के ‘कॉरोनेशन थिएटर’ में प्रदर्शित की गई थी । इसके फोटोग्राफर विदेशी थे ।

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भारतीय फिल्म-इतिहास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय तब आया, जब दादा साहेब फाल्के की पूर्ण स्वदेशी मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बंबई के कॉरोनेशन थिएटर में ३ मई, १९१३ को प्रदर्शन के लिए रिलीज हुई थी । बाद में इसे पूरे भारत में प्रदर्शित किया गया था । एक अनुमान के अनुसार सन् १९१३ से १९३४ तक लगभग १,३०० मूक फिल्मों का निर्माण हुआ था ।

१४ मार्च, १९३१ भारतीय फिल्म इतिहास में स्वर्णिम दिन माना जाता है क्योंकि उसी दिन भारत में निर्मित प्रथम बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ का प्रदर्शन बंबई में किया गया था । इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक आर्देशिर ईरानी थे । फिल्म के नायक मास्टर विट्‌ठल, नायिका जुबैदा तथा खलनायक पृथ्वीराज कपूर थे ।

इस फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही भारतीय फिल्म-उद्योग का परिदृश्य ही बदल गया था । बोलती फिल्मों के निर्माण में प्रतिस्पर्द्धा प्रारंभ हो गई थी । एक वर्ष में ही बाईस फिल्में हिंदी में, तीन फिल्में बंगला में और एक-एक फिल्म तमिल तथा तेलुगु में निर्मित हुई थीं ।

दादा साहेब फाल्के को ‘भारतीय सिनेमा का पितामह’ कहा जाता है । बॉम्बे टाकीज की सन् १९३६ में बनी फिल्म ‘अछूत कन्या’ भारतीय सिनेमा की पहचान है । अशोक कुमार तथा देविका रानी की जोड़ी ने इस फिल्म से अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की थी ।

ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माता सोहराब मोदी की सन् १९३९ में बनी फिल्म ‘पुकार’ तथा सन् १९४१ में बनी फिल्म ‘सिकंदर’ के संवाद वर्षो तक लोगों की जबान पर चढ़े रहे । ही. शांताराम ने सन् १९३९ में ‘आदमी’ तथा सन् १९४१ में ‘पड़ोसी’ फिल्में बनाकर सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के निराकरण का प्रयास किया ।

चालीस के दशक की महत्त्वपूर्ण फिल्म थी- ‘किस्मत’ जिसमें अशोक कुमार ने ‘एंटीहीरो’ की छवि को जन्म दिया था । यह परंपरा आज तक हिंदी फिल्मों में अपना प्रभाव बनाए हुए है । चालीस का दशक हिंदी-फिल्मों में गीत, संगीत का युग रहा । फिल्मों की यह परंपरा निरंतर चलती रही, जिसमें एक-से-एक उच्चकोटि की फिल्मों का निर्माण हुआ था ।

सन् १९५७ में महबूब खान ने ‘मदर इंडिया’ बनाई थी, जिसने अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की थी । रंगीन फिल्मों के प्रचलन से फिल्मों का आकर्षण और बढ़ गया था । शम्मी कपूर की नवीन अभिनय-शैली की अनेक फिल्में, जैसे- ‘जंगली’, ‘कश्मीर की कली’ आदि का निर्माण हुआ ।

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गौतम घोष की ‘पार’ (१९८४) केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ (१९८४), सुखवंत चड्‌ढा की ‘एक चादर रैली सी’ (१९८५) आदि फिल्में अपने अलग किस्म की फिल्में हैं । सन् १९९७४-५ में सिप्पी द्वारा बनाई गई फिल्म ‘शोले’ ने फिल्मी दुनिया के सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे ।

इसके बाद भारतीय सिनेमा में मसाला फिल्मों की भरमार हो गई । इन फिल्मों में सेक्सी नृत्यों का समावेश होता चला गया । वर्तमान में सिनेमा में आए नए कलाकारों में नृत्य के नाम पर कामसूत्र की तमाम भाव-भंगिमाओं को परदे पर दिखाने की स्पर्द्धा चल पड़ी है ।

अश्लील लोकगीत और लोकनृत्यों को फिल्मों में दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे हिंदी-फिल्मों का स्तर निरंतर गिरता चला रहा है । यही कारण है कि आज की फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है । इस प्रकार वर्तमान में भारतीय फिल्मों पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । भारतीय अभिनेत्रियों में कला-प्रदर्शन कम और अंग-प्रदर्शन की होड़ अधिक लग गई है ।

फिल्मों में यथार्थ कम होता जा रहा है । परिणामस्वरूप कला-फिल्मों का निर्माण कम हो गया है । घटिया फिल्मों के दौर में कुछ फिल्में भारतीय सिनेमा की अस्मिता को बनाए रखने का प्रयास कर रही हैं । फिल्मों में आई इन बुराइयों के कारण ही वर्तमान फिल्मों के कलात्मक स्वरूप को आघात पहुँचा है तथा सामाजिक समस्याएँ अछूती रह गई हैं । इससे युवा वर्ग पर कुप्रभाव पड़ता है ।

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उचित तो यह होगा कि फिल्में शिक्षाप्रद और मनोरंजक हों, जिनका समाज पर स्वस्थ प्रभाव पड़े । सिनेमा जनशिक्षा का सशक्त माध्यम है । इसमें सभी को प्रभावित करने की असीम क्षमता है । अत: फिल्म-निर्माताओं को व्यावसायिकता के साथ समाज के प्रति अपने दायित्व का भी निर्वाह करना चाहिए ।

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