भारतीय इतिहास पर निबंध | Essay on Indian History in Hindi language!

Essay # 1. भारतीय इतिहास का भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geographical Background of Indian History):

हिमालय पर्वत के दक्षिण तथा हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित एशिया महाद्वीप का विशाल प्रायद्वीप भारत कहा जाता है । इसका विस्तृत भूखण्ड, जिसे एक उपमहाद्वीप कहा जाता है, आकार में विषम चतुर्भुज जैसा है ।

यह लगभग 2500 मील लम्बा तथा 2000 मील चौड़ा है । रूस को छोड़कर विस्तार में यह समस्त यूरोप के बराबर है । यूनानियों ने इस देश को इण्डिया कहा है तथा मध्यकालीन लेखकों ने इस देश को हिन्द अथवा हिन्दुस्तान के नाम से सम्बोधित किया है ।

भौगोलिक दृष्टि से इसके चार विभाग किये जा सकते हैं:

(i) उत्तर का पर्वतीय प्रदेश:

यह तराई के दलदल वनों से लेकर हिमालय की चोटी तक विस्तृत है जिसमें कश्मीर, काँगड़ा, टेहरी, कुमायूँ तथा सिक्किम के प्रदेश सम्मिलित हैं ।

(ii) गंगा तथा सिन्धु का उत्तरी मैदान:

इस प्रदेश में सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियाँ, सिन्ध तथा राजस्थान के रेगिस्तानी भाग तथा गंगा और यमुना द्वारा सिंचित प्रदेश सम्मिलित हैं । देश का यह भाग सर्वाधिक उपजाऊ है । यहाँ आर्य संस्कृति का विकास हुआ । इसे ही ‘आर्यावर्त’ कहा गया है ।

(iii) दक्षिण का पठार:

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इस प्रदेश के अर्न्तगत उत्तर में नर्मदा तथा दक्षिण में कृष्णा और तुड्गभद्रा के बीच का भूभाग आता है ।

(iv) सुदूर दक्षिण के मैदान:

इसमें दक्षिण के लम्बे एवं संकीर्ण समुद्री क्षेत्र सम्मिलित हैं । इस भाग में गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के उपजाऊ डेल्टा वाले प्रदेश आते हैं । दक्षिण का पठार तथा सुदूर दक्षिण का प्रदेश मिलकर आधुनिक दक्षिण भारत का निर्माण करते हैं । नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ, विन्धय तथा सतपुड़ा पहाड़ियों और महाकान्तार के वन मिलकर उत्तर भारत को दक्षिण भारत से पृथक् करते हैं ।

इस पृथकता के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत आर्य संस्कृति के प्रभाव से मुक्त रहा, जबकि उत्तर भारत में आर्य संस्कृति का विकास हुआ । दक्षिण भारत में एक सर्वथा भिन्न संस्कृति विकसित हुई जिसे ‘द्रविण’ कहा जाता है । इस संस्कृति के अवशेष आज भी दक्षिण में विद्यमान हैं ।

प्रकृति ने भारत को एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई प्रदान की है । उत्तर में हिमालय पर्वत एक ऊंची दीवार के समान इसकी रक्षा करता रहा है तथा हिन्द महासागर इस देश को पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण से घेरे हुए हैं । इन प्राकृतिक सीमाओं द्वारा बाह्य आक्रमणों से अधिकांशत: सुरक्षित रहने के कारण भारत देश अपनी एक सर्वथा स्वतन्त्र तथा पृथक् सभ्यता का निर्माण कर सका है ।

भारतीय इतिहास पर यहाँ के भूगोल का गहरा प्रभाव-पड़ा है । यहां के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अलग कहानी है । एक ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत हैं तो दूसरी ओर नीचे के मैदान हैं, एक ओर अत्यन्त उपजाऊ प्रदेश है तो दूसरी ओर विशाल रेगिस्तान है । यहाँ उभरे पठार, घने वन तथा एकान्त घाटियाँ हैं । एक ही साथ कुछ स्थान अत्यन्त उष्ण तथा कुछ अत्यन्त शीतल है ।

विभिन्न भौगोलिक उप-विभागों के कारण यहाँ प्राकृतिक एवं सामाजिक स्तर की विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं । ऐसी विषमता यूरोप में कहीं भी दिखायी नहीं देती हैं । भारत का प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र एक विशिष्ट इकाई के रूप में विकसित हुआ है तथा उसने सदियों तक अपनी विशिष्टता बनाये रखी है ।

इस विशिष्टता के लिये प्रजातीय तथा भाषागत तत्व भी उत्तरदायी रहे हैं । फलस्वरूप सम्पूर्ण देश में राजनैतिक एकता की स्थापना करना कभी भी सम्भव नहीं हो सका है, यद्यपि अनेक समय में इसके लिये महान शासकों द्वारा प्रयास किया जाता रहा है । भारत का इतिहास एक प्रकार से केन्द्रीकरण तथा विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों के बीच निरन्तर संघर्ष की कहानी है ।

देश की विशालता तथा विश्व के शेष भागों से इसकी पृथकता ने अनेक महत्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न किये है । भारत के अपने आप में एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई होने के कारण भारतीय शासकों तथा सेनानायकों ने देश के बाहर साम्राज्य विस्तृत करने अथवा अपनी सैनिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार भारत में ही किया ।

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सुदूर दक्षिण के चोलों का उदाहरण इस विषय में एक अपवाद माना जा सकता है । अति प्राचीन समय से यहाँ भिन्न-भिन्न जाति, भाषा, धर्म, वेष-भूषा तथा आचार-विचार के लोग निवास करते हैं । किसी भी बाहरी पर्यवेक्षक को यहाँ की विभिन्नतायें खटक सकती हैं ।

परन्तु इन वाह्य विभिन्नताओं के मध्य एकता दिखाई देती है जिसकी कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता । फलस्वरूप ‘विभिन्नता में एकता’ (Unity in Diversity) भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता बन गयी है । देश की समान प्राकृतिक सीमाओं ने यहाँ के निवासियों के मस्तिष्क में समान मातृभूमि की भावना जागृत किया है । मौलिक एकता का विचार यहाँ सदैव बना रहा तथा इसने देश के राजनैतिक आदर्शों को प्रभावित किया ।

यद्यपि व्यवहार में राजनैतिक एकता बहुत कम स्थापित हुई तथापि राजनैतिक सिद्धान्त के रूप में इसे इतिहास के प्रत्येक युग में देखा जा सकता है । सांस्कृतिक एकता अधिक सुस्पष्ट रही है । भाषा, साहित्य, सामाजिक तथा धार्मिक आदर्श इस एकता के प्रमुख माध्यम रहे हैं । भारतीय इतिहास के अति-प्राचीन काल से ही हमें इस मौलिक एकता के दर्शन होते हैं ।

महाकाव्य तथा पुराणों में इस सम्पूर्ण देश को ‘भारतवर्ष’ अर्थात् भारत का देश तथा यहाँ के निवासियों को ‘भारती’ (भरत की सन्तान) कहा गया है । विष्णुपुराण में स्पष्टत: इस एकता की अभिव्यक्ति हुई है- “समुद्र के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में जो स्थित है वह भारत देश है तवा वहाँ की सन्तानें ‘भारती’ हैं ।”

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प्राचीन कवियों, लेखकों तथा विचारकों के मस्तिष्क में एकता की यह भावना सदियों पूर्व से ही विद्यमान रही है । कौटिल्यीय अर्थशास्त्र में कहा गया है कि-“हिमालय में लेकर समुद्र तक हजार योजन विस्तार वाला भाग चक्रवर्ती राजा का शासन क्षेत्र होता है ।” यह सर्वभौम सम्राट की अवधारणा भारतीय सम्राटों को अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रेरणा देती रही है ।

भारतीयों की प्राचीन धार्मिक भावनाओं एवं विश्वासों से भी इस सारभूत एकता का परिचय मिलता है । यहाँ की सात-पवित्र नदियाँ- गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु तथा कावेरी, सात पर्वत- महेन्द्र, मलय, सह्या, शक्तिमान, ऋक्ष्य, विन्ध्य तथा पारियात्र तथा सात नगरियों- अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवन्ति, पुरी तथा द्वारावती, देश के विभिन्न भागों में बसी हुई होने पर भी देश के सभी निवासियों के लिये समान रूप से श्रद्धेय रही हैं ।

वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का सर्वत्र सम्मान है तथा शिव और विष्णु आदि देवता सर्वत्र पूजे जाते है।, यद्यपि यहीं अनेक भाषायें है तथापि वे सभी संस्कृत से ही उद्भूत अथवा प्रभावित है । धर्मशास्त्रों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था भी सर्वत्र एक ही समान है । वर्णाश्रम, पुरुषार्थ आदि सभी समाजों के आदर्श रहे है ।

प्राचीन समय में जबकि आवागमन के साधनों का अभाव था, पर्यटक, धर्मोपदेशक, तीर्थयात्री, विद्यार्थी आदि इस एकता को स्थापित करने में सहयोग प्रदान करते रहे है । राजसूय, अश्वमेध आदि यज्ञों के अनुष्ठान द्वारा चक्रवर्ती पद के आकांक्षी सम्राटों ने सदैव इस भावना को व्यक्त किया है कि भारत का विशाल भूखण्ड एक है । इस प्रकार विभिन्नता के बीच सारभूत एकता भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता बनी हुई है ।

Essay # 2. भारतीय इतिहास का नृजातीय तत्व (Ethnicity of Indian History):

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आदि काल से ही भारत में विभिन्न जातियाँ निवास करती थीं जिनकी भाषाओं, रहन-सहन, सामाजिक-धार्मिक परम्पराओं में भारी विषमता थीं । भारत में नृजातीय तत्वों की पहचान प्रधानत: भौतिक, भाषाई तथा सांस्कृतिक लक्षणों पर आधारित है । नृतत्व विज्ञान मानव की शारीरिक बनावट के आधार पर उसकी प्रजाति का निर्धारण करता है ।

इसके दो प्रधान मानक है:

i. सिर सम्बन्धी

ii. नासिका सम्बन्धी

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हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि प्राचीन जनजाति में लम्बे तथा चौड़े दोनों ही सिरों वाले लोग विद्यमान थे जैसा कि प्राचीन कंकालों एवं कपालों से इंगित होता है । भारत में प्रागैतिहासिक मानवों के प्रस्तरित अवशेष अत्यल्प है किन्तु नृतत्व एवं भाषा विज्ञान की सहायता से यहाँ रहने अथवा आव्रजित होने चाली प्रजातियों तथा भारतीय संस्कृति के विकास में उनके योगदान का अनुमान लगाया गया है । बी॰ एस॰ ने प्रागैतिहासिक अस्थिपंजरों का अध्ययन करने के उपरान्त यहाँ की आदिम जातियों को छ भागों में विभाजित किया है ।

a. नेग्रिटो

b. प्रोटोआस्ट्रलायड

c. मंगोलियन

d. मेडीटरेनियन (भूमध्य सागरीय)

e. पश्चिमी ब्रेक्राइसेफलम

f. नार्डिक ।

भाषाविदों ने उपयुक्त प्रजातियों को चार भाषा समूहों के अन्तर्गत समाहित किया है:

1. अस्टिक

2. द्रविडियन

3. इण्डो-यूरोपीयन

4. तिब्बतो-चायनीज

इनका विवरण इस प्रकार है:

a. नेग्रिटो:

यह भारत की सबसे प्राचीन प्रजाति थी । अब यह स्वतन्त्र रूप से तो कहीं नहीं मिलती लेकिन इसके तत्व अण्डमान निकोवार, कोचीन तथा त्रावनकोर की कदार एवं पलियन जनजातियों, असम के अंगामी नागाओं, पूर्वी बिहार की राजमहल पहाड़ियों में बसने वाली बांगड़ी समूह तथा ईरुला में देखे जा सकते हैं ।

ये नाटे कद, चौड़े सिर, मोटे होंठ, चौड़ी नाक तथा काले रंग के होते हैं । इनकी प्रमुख देन धनुष-बाण की खोज एवं आदिवासियों में मिलने वाले कुछ धार्मिक आचारों तथा दो-चार शब्दों तक सीमित है । हदन का विचार है कि बट-पीपल पूजा, मृतक की आत्मा और गर्भाधान सम्बन्धी मान्यता, स्वर्ग पथ पर दानवों की पहरेदारी सम्बन्धी विश्वास आदि नेग्रिटो प्रभाव से ही प्रचलित हुए ।

b. प्रोटोआस्ट्रलायड:

ये भारतीय जनसंख्या के आधारभूत अंग थे तथा उनकी बोली आस्तिक भाषा समूह की थी । इसका कुछ उदाहरण आदिम कबीलों की मुण्डा बोली में आज तक पाया जाता है । तिन्वेल्ली से प्राप्त प्रागैतिहासिक कपालों में इस प्रजाति के तत्व मिलते है ।

संस्कृत साहित्य में उल्लिखित ‘निषाद’ जाति इसी वर्ग की है । ये छोटे कद, लम्बे सिर, चौड़ी नाक, मोटे होंठ, काली-भूरी आंखें, घुंघराले बाल एवं चाकलेटी त्वचा वाले होते हैं । अधिकांश दक्षिणी भारत तथा मध्य प्रदेश की कुछ जनजातियों में इस प्रजाति के लक्षण पाये जाते हैं ।

इन्हें मृदभाण्ड बनाने तथा कृषि का ज्ञान था । चावल, कदली, नारियल, कपास आदि का ज्ञान था । मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व में विश्वास, धार्मिक कार्यों में ताम्बूल, सिन्दूर और हल्दी का प्रयोग, लिंगोपासना, निछावर प्रथा का प्रारम्भ, चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार तिथिगणना, नाग, मकर, हाथी, कच्छप आदि की पूजा का प्रारम्भ भारतीय संस्कृति को इस प्रजाति की प्रमुख देन स्वीकार की जाती है ।

c. मंगोलायड:

ये छोटी नाक, मोटे होंठ, लम्बे-चौड़े सिर, पीले अथवा भूरे चेहरे वाले होते थे । इस जनजाति में पूर्व की ओर से भारत में प्रवेश किया । इस प्रजाति के तत्व मीरी, नागा, बोडो, गोंड, भोटिया तथा बंगाल-असम की जातियों में मिलते है । इनकी भाषा चीनी-तिब्बती समूह की भाषा से मिलती है ।

संभवत: मंगोल जाति के प्रभाव से ही भारतीय संस्कृति में तंत्र, वामाचार, शक्ति-पूजा एवं कुछ अश्लील धार्मिक कृत्यों का आविर्भाव हुआ । मोहेनजोदड़ो की कुछ छोटी-छोटी मृण्मूर्तियों तथा कपालों में इस जाति के शारीरिक लक्षण दिखाई देते है ।

d. मेडीटरेनियन (भूमध्य-सागरीय):

इस प्रजाति की तीन शाखायें भारत में आई तथा अन्तर्विवाह के फलस्वरूप परस्पर घुल-मिल गयीं । मिश्रित रूप से उनके वंशज बड़ी संख्या में भारत में विद्यमान हैं । इनकी एक शाखा कन्नड, तमिल, मलयालम भाषा-भाषी प्रदेश में, दूसरी पंजाब तथा गंगा की ऊपरी घाटी में तथा तीसरी सिन्ध, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाये जाते हैं ।

सामान्यत: भूमध्यसागरीय प्रजाति का सम्बन्ध द्रविड़ जाति से बताया जाता है । इसके अस्थि-पञ्जर सैन्धव सभ्यता में भी मिलते हैं । ये लम्बे सिर, मध्यम कद, चौड़े मुँह, पतले होंठ, घुँघराले बाल, भूरी त्वचा वाले होते है । इनकी प्रमुख देन है-नौ परिवहन, कृषि एवं व्यापार-वाणिज्य, नागर सभ्यता का सूत्रपात आदि ।

कुछ विद्वान् द्रविडों को ही सैन्धव सभ्यता का निर्माता मानते है किन्तु यह संदिग्ध है । भाषाविदों का विचार है कि भारत में भारोपीय भाषा में जो परिवर्तन दिखाई देता है वह भूमध्यसागरीय अथवा द्रविड़ सम्पर्क का ही परिणाम था ।

e. पश्चिमी ब्रेकाइसेफलस:

इनकी भी तीन शाखायें है- अल्पाइन, डिनारिक तथा आर्मीनायड । यूरोप में अल्पस पर्वत के समीपवर्ती क्षेत्र में रहने के कारण इस प्रजाति को अल्पाइन कहा जाता है । गुजरात, बिहार, उत्तर तथा मध्य भारत में यह प्रजाति पाई जाती है ।

ये चौड़े कन्धे, गहरी छाती, लम्बी व चौड़ी टाँग, चौड़ा सिर, छोटी नाक, पीली त्वचा वाले होते है । इनकी डिनारिक शाखा बंगाल, उड़ीसा, काठियावाड़, कन्नड़ तथा तमिल भाषी क्षेत्र में रहती है । तीसरी शाखा आर्मीनायड है जिसके तत्व मुम्बई के पारसियों में दिखाई देते है । भारतीय संस्कृति को इनका योगदान स्पष्ट नहीं है ।

f. नार्डिक:

इस प्रजाति को आर्यों का प्रतिनिधि तथा हिम सभ्यता का जनक माना जाता है । ये लम्बे सिर, श्वेत व गुलाबी त्वचा, नीली आँखें, सीधे एवं घुंघराले वाली वाले लक्षणों से युक्त थे । सर्वप्रथम यह प्रजाति पंजाब में वसी होगी तथा वहाँ से धीरे- धीरे देश के अन्य भागों में फैल गयी । किन्तु ‘आर्य’ वस्तुत एक भाषिक पद है जिससे भारोपीय मूल की एक भाषा-समूह का पता चलता है । यह नृवंशीय पद नहीं है । अत: आर्य आव्रजन की धारणा भ्रामक है ।

Essay # 3. भारतीय इतिहास के प्रजाति की परिकल्पना (Species Hypothesis of Indian History):

कुछ विद्वानों की मान्यता है कि भारत में सभ्यता का जन्म नहीं हुआ, यहाँ तो बाहर से ही लोग आये और बस गये । संस्कृत भारत की भाषा नहीं थी, यह तो मध्य एशिया से भारत में आई थी । मैक्समूलर तथा सर विलियम जोन्स के अनुसार ‘आर्य’ प्रजाति भारत की नहीं थी । उन्हीं के अनुकरण पर कुछ तथाकथित भारतीय प्रगतिवादी इतिहासकारों ने आयी को घुमक्कड़, तथा आक्रमणकारी सिद्ध कर दिया । द्रविड़ों को भी भूमध्यसागरीय माना गया ।

इलियट स्मिथ का तो कहना कि विश्व की समस्त सभ्यतायें मिस में जन्मा तथा वहीं से अन्य देशों में फैली थीं । किन्तु पश्चिमी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित ‘प्रजाति का सिद्धान्त’ अत्यन्त भयावह एवं कुटिलतापूर्ण है । यूरोपीय ईसाई मिशनरियों तथा विद्वानों ने भारत को सदा औपनिवेशिक दृष्टि से देखा ।

यह सिद्ध करने के लिये अनेक तर्क गढ़े गये कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अपना कोई वैशिष्ट्य नहीं है तथा ईसा के 2000 वर्ष पहले यूरोप तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियों ही भारत में विभिन्न मार्गों से आई तथा अपनी सभ्यता स्थापित किया ।

पाश्चात्य विद्वानों ने ‘आर्य’ तथा द्रविड शब्दों को प्रजाति तथा स्थानवाची माना जिसका प्रतिकार भारतीय विद्वानों ने नहीं किया । भारत तथा उसकी संस्कृति को जाति, प्रजाति, नृवंश, स्थान, भाषा, भूगोल आदि के आधार पर विभाजित करने का जो षड्‌यन्त्र अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये रचा था उसे ही प्रगतिवादी विद्वानों ने प्रायः मान्यता प्रदान कर दी तथा ‘संस्कृति’ शब्द की मूल अवधारणा को ही आयातित स्वीकार कर लिया गया ।

‘आर्य’ तथा ‘द्रविड़’ जैसे शब्द प्रजातिगत न होकर गुणवाचक है और इसी अर्थ में इनका प्रयोग वैदिक साहित्य में हुआ है । ‘आर्य’ का अर्थ है- बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न श्रेष्ठ पुरुष, स्वामी, विद्वान्, समाज का अग्रणी वर्ग आदि । इसी प्रकार द्रविड़ का अर्थ है- समृद्ध वर्ग, धन-धान्य से सम्पन्न व्यक्ति, ऐश्वर्यवान् पुरुष आदि । अत: इन शब्दों के आधार पर प्राचीन भारत में जाति, प्रजाति, नृवंश आदि की परिकल्पना करना उचित नहीं होगा ।

Essay # 4. भारतीय इतिहास जानने के साधन (Tools to know About Indian History):

भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवपूर्ण रहा है । परन्तु दुर्भाग्यवश हमें अपने प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये उपयोगी सामग्री बहुत कम मिलती है । प्राचीन भारतीय साहित्य में ऐसे ग्रन्थों का प्रायः अभाव-सा है जिन्हें आ आधुनिक परिभाषा में “इतिहास” की संज्ञा दी जाती है ।

यह भी सत्य है कि हमारे यहाँ हेरोडोटस, थ्यूसीडाइडीज अथवा लिवी जैसे इतिहास-लेखक नहीं उत्पन्न हुए जैसा कि यूनान, रोम आदि देशों में हुए । कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने यह आरोपित किया कि प्राचीन भारतीयों में इतिहास-बुद्धि का अभाव था ।

लोएस डिकिंसन (Lowes Dickinson) के अनुसार हिन्दू इतिहासकार नहीं थे । भारत में मनुष्य प्रकृति के समक्ष अपने को तुच्छ और असमर्थ पाता है । फलस्वरूप उसमें नगण्यता तथा जीवन की निस्सारता जन्म लेती है, उसे जीवन की अनुभूति एक भयानक दु:स्वप्न के रूप में होती है और दु:स्वप्न का कोई इतिहास नहीं होता है ।

विन्दरनित्स की मान्यता है कि भारतीयों ने मिथक, आख्यान तथा इतिहास में कभी भी स्पष्ट विभेद नहीं किया और भारत में इतिहास रचना काव्य रचना से ऊपर नहीं उठ सकी । मैकडानल्ड के अनुसार भारतीय साहित्य का दुर्बल पक्ष इतिहास है जिसका यहाँ अस्तित्व ही नहीं था ।

इसी विचारधारा का समर्थन एलफिन्स्टन, फ्लीट, मैक्समूलर, वी. ए स्मिथ जैसे विद्वानों ने भी किया है । 11वीं शती के मुस्लिम लेखक अल्वरूनी इससे मिलता-जुलता विचार व्यक्त करते हुए लिखता है- हिन्दू लोग घटनाओं के ऐतिहासिक कम की ओर बहुत अधिक ध्यान नहीं देते । घटनाओं के तिथिक्रमानुसार वर्णन करने में वे बड़ी लापरवाही बरतते है ।

किन्तु भारतीयों के इतिहास विषयक गान पर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा लगाया गया उपरोक्त आरोप सत्य से परे है । वास्तविकता यह है कि प्राचीन भारतीयों ने इतिहास को उस दृष्टि से नहीं देखा जिससे कि आज के विद्वान् देखते है । उनका दृष्टिकोण पूर्णतया धर्मपरक था ।

उनकी दृष्टि में इतिहास साम्राज्यों अथवा सम्राटों के उत्थान अथवा पतन की गाथा न होकर उन समस्त मूल्यों का संकलन-मात्र था जिनके ऊपर मानव-जीवन आधारित है । अतः उनकी बुद्धि धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थों की रचना में ही अधिक लगी, न कि राजनैतिक घटनाओं के अंकन में ।

तथापि इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना का भी अभाव था । प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से यह वात स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ के निवासियों में अति प्राचीन काल से ही इतिहास-बुद्धि विद्यमान रही । वैदिक साहित्य, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में अत्यन्त सावधानीपूर्वक सुरक्षित आचार्यों की सूची (वंश) से यह बात स्पष्ट हो जाती है ।

वंश के अतिरिक्त गाथा तथा नाराशंसी साहित्य, जो राजाओं तथा ऋषियों के स्तुतिपरक गीत है, से भी सूचित होता है कि वैदिक युग में इतिहास लेखन की परम्परा विद्यमान थी । इसके अतिरिक्त ‘इतिहास तथा पुराण’ नाम से भी अनेक रचनायें प्रचलित थी । इन्हें ‘पंचम वेद’ कहा गया है ।

सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग ने लिखा है कि भारत के प्रत्येक प्रान्त में घटनाओं का विवरण लिखने के लिये कर्मचारी नियुक्त किये गये थे । कल्हण के विवरण से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय विलुप्त तथा विस्मृत इतिहास को पुनरुज्जीवित करने की कुछ आधुनिक विधियों से भी परिचित थे ।

वह लिखता हैं- “वही गुणवान् कवि प्रशंसा का अधिकारी है जो राग-द्वेष से मुक्त होकर एकमात्र तथ्यों के निरूपण में ही अपनी भाषा का प्रयोग करता है ।” वह हमें बताता है कि इतिहासकार का धर्म मात्र ज्ञात घटनाओं में नई घटनाओं को जोड़ना नहीं होता । अपितु सच्चा इतिहासकार प्राचीन अभिलेखों तथा सिक्कों का अध्ययन करके विलुप्त शासकों तथा उनकी विजयों की पुन: खोज करता है ।

कल्हण का यह कथन भारतीयों में इतिहास-बुद्धि का सबल प्रमाण प्रस्तुत करता है । इस प्रकार यदि हम सावधानीपूर्वक अपने विशाल साहित्य की छानबीन करें तो उसमें हमें अपने इतिहास के पुनर्निर्माणार्थ अनेक महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होगी ।

साहित्यिक ग्रन्थों के साथ-साथ भारत में समय-सभय पर विदेशों से आने वाले यात्रियों के भ्रमण-वृत्तान्त भी इतिहास-विषयक अनेक उपयोगी सामग्रियों प्रदान करते है । इधर पुरातत्ववेत्ताओं ने अतीत के खण्डहरों से अनेक ऐसी वस्तुएँ खोज निकाली हैं जो हमें प्राचीन इतिहास-सम्बन्धी बहुमूल्य प्रदान करती हैं ।

अत: हम सुविधा के लिये भारतीय इतिहास जानने के साधनों को तीन शीर्षकों में रख सकते हैं:

(1) साहित्यिक साक्ष्य ।

(2) विदेशी यात्रियों के विवरण ।

(3) पुरातत्व-सम्बन्धी साक्ष्य ।

यहाँ हम प्रत्येक का अलग-अलग विवेचन करेंगे:

(1) साहित्यिक साक्ष्य:

इस साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्रियों का अध्ययन किया जाता है ।

हमारा साहित्य दो प्रकार का हैं:

(a) धार्मिक साहित्य,

(b) लौकिक साहित्य ।

धार्मिक साहित्य में ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेतर ग्रन्थों की चर्चा की जा सकती है । ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण तथा स्मृति ग्रन्थ आते है, जबकि बाह्मणेतर गुणों में बौद्ध तथा जैन साहित्यों से सम्बन्धित रचनाओं का उल्लेख किया जा सकता है । इसी प्रकार लौकिक साहित्य में ऐतिहासिक ग्रंथों, जीवनियां, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है ।

इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है:

I. ब्राह्मण साहित्य:

i. वेद:

वेद भारत के सर्वप्राचीन धर्म ग्रन्थ है जिनका संकलनकर्त्ता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास को माना जाता है । भारतीय परम्परा वेदों को नित्य तथा अपौरुषेय मानती है। वैदिक युग की सांस्कृतिक दशा के ज्ञान का एकमात्र सोत होने के कारण वेदों का ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है । प्राचीन काल के अध्ययन के लिये रोचक समस्त सामग्री हमें प्रचुर रूप में वेदों से उपलब्ध हो जाती है ।

वेदों की संख्या चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद । इनमें ऋग्वेद न केवल भारतीय आयी की अपितु समस्त आर्य जाति की प्राचीनतम् रचना । इस प्रकार यह भारत तथा भारतेतर प्रदेशों के आर्यों के इतिहास, भाषा, धर्म एवं उनकी सामान्य संस्कृति पर प्रकाश डालता है । विद्वानों के अनुसार आयी ने इसकी रचना पंजाब में किया था जब वे अफगानिस्तान से लेकर गंगा-यमुना के प्रदेश तक ही फैले थे । इनमें दस मण्डल तथा 1028 सूक्त है ।

ऋग्वेद का अधिकांश भाग देव-स्तोत्रों में भरा हुआ है और इस प्रकार उसमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मिलती है । परन्तु इसके कुछ मन्त्र ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करते है । जैसे, एक स्थान पर “दस राजाओं के युद्ध” (दाशराज्ञ) का वर्णन आया है जो भरत कबीले के राजा सुदास के साथ हुआ था । यह ऋग्वैदिक काल की एकमात्र महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है ।

यह युद्ध आयी के दो प्रमुख जनों- पुरु तथा भरत के बीच हुआ था । भरत जन का नेता सुदास था जिसके पुरोहित वशिष्ठ थे । इनके विरुद्ध दस राजाओं का एक सध था जिसके पुरोहित विश्वामित्र थे । सुदास ने रावी नदी के तट पर दस राजाओं के इस संघ को परास्त किया और इस प्रकार वह ऋग्वैदिक भारत का चक्रवर्ती शासक बन बैठा ।

सामवेद तथा यजुर्वेद में किसी भी विशिष्ट ऐतिहासिक घटना का वर्णन नहीं मिलता । ‘साम’ का शाब्दिक अर्थ है गान । इसमें मुख्यत: यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मन्त्रों का संग्रह है । इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जा सकता है । यजुर्वेद में यज्ञों के नियमों एवं विधि-विधानों का संकलन मिलता है ।

जबकि अन्य वेद पद्य में हैं, यह गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व रस बात में है कि रस में सामान्य मनुष्यों के विचारों तथा अंधविश्वासों का विवरण मिलता है । इनमें कुल 731 मन्त्र तथा लगभग 6000 पद्य हैं । इसके कुछ मन्त्र ऋग्वैदिक मन्त्रों से भी प्राचीनतर है ।

पृथिवीसूक्त इसका प्रतिनिधि सूक्त माना जाता है । इसमें मानव जीवन के सभी पक्षों-गृह निर्माण, कृषि की उन्नति, व्यापारिक मार्गों का गाहन, रोग निवारण, समन्वय, विवाह तथा प्रणय-गीतों, राजभक्ति, राजा का चुनाव, बहुत सी वनस्पतियों तथा औषधियों आदि का विवरण दिया गया है ।

कुछ मन्त्रों में जादू-टोने का भी वर्णन है जो इस बात का सूचक है कि इस समय तक आर्य- अनार्य संस्कृतियों का समन्दय हो रहा था तथा आयी ने अनायों के कई सामाजिक एवं धार्मिक रीति रिवाजों एवं विश्वासों को ग्रहण कर लिया था । अथर्ववेद में परीक्षित को कुरुओं का राजा कहा गया है तथा कुरु देश की समृद्धि का अच्छा चित्रण मिलता है । इन चार वेदों को “संहिता” कहा जाता है ।

ii. ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद:

संहिता के पश्चात् ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों का स्थान है । इनसे उत्तर वैदिक कालीन समाज तथा संस्कृति के विषय में अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है । ब्राह्मण ग्रन्थ वैदिक संहिताओं की व्याख्या करने के लिए गद्य में लिखे गये हैं । प्रत्येक संहिता के लिये अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जैसे- ऋग्वेद के लिये ऐतरेय तथा कौषीतकी, यजुर्वेद के लिये तैत्तिरीय तथा शतपथ, सामवेद के लिये पंचविश, अथर्ववेद के लिये गोपथ आदि ।

इन ग्रन्थों से हमें परीक्षित के बाद और बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है । ऐतरेय, शतपथ, तैत्तिरीय, पंचविश आदि प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में अनेक ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं । ऐतरेय में राज्याभिषेक के नियम तथा कुछ प्राचीन अभिषिक्त राजाओं के नाम दिये गये है ।

शतपथ में गन्धार, शल्य, कैकय, कुरु, पंचाल, कोसल, विदेह आदि के राजाओं का उल्लेख मिलता है । प्राचीन इतिहास के साधन के रूप में वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के बाद शतपथ ब्राह्मण का स्थान है । कर्मकाण्डों के अतिरिक्त इसमें सामाजिक विषयों का भी वर्णन है । इसी प्रकार आरण्यक तथा उपनिषदों में भी कुछ ऐतिहासिक-तेल प्राप्त होते हैं, यद्यपि ये मुख्यत: दार्शनिक ग्रन्थ है जिनका ध्येय ज्ञान की खोज करना है । इनमें हम भारतीय चिंतन की चरम परिणति पाते हैं ।

iii. वेदांग तथा सूत्र:

वेदों को भली-भाँति समझने के लिये छ: वेदांगों की रचना की गयी- शिक्षा, ज्योतिष, कल्प, व्याकरण, निरुक्त तथा छन्द । ये वेदों के शुद्ध उच्चारण तथा यज्ञादि करने में सहायक थे । इसी प्रकार वैदिक साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सूत्र साहित्य का प्रणयन किया गया ।

श्रौत, गृह्या तथा धर्मसूत्रों के अध्ययन से हम यज्ञीय विधि-विधानों, कर्मकाण्डों तथा राजनीति, विधि एवं व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात करते है । ऋग्वेद से लेकर सूत्रों तक के सम्पूर्ण वैदिक वाङ्‌मय का काल ईसा पूर्व 2000 से लेकर 500 के लगभग तक: सामान्य तौर से स्वीकार किया जा सकता है ।

iv. महाकाव्य:

वैदिक साहित्य के बाद भारतीय साहित्य में रामायण और महाभारत नामक दो महाकाव्यों का समय आता है । मूलत: इन ग्रन्थों की रचना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुई थी तथा इनका वर्तमान स्वरूप क्रमश: दूसरी एवं चौथी शताब्दी ईस्वी के लगभग निर्मित हुआ था । भारत के सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में इन दोनों ही महाकाव्यों का अत्यन्त आदराणीय स्थान है । इनके अध्ययन से हमें प्राचीन हिंदू संस्कृति के विविध पक्षों का सुन्दर ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।

इन महाकाव्यों द्वारा प्रतिपादित आदर्श तथा मूल्य सार्वभौम मान्यता रखते है । रामायण हमारा आदि-काव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी । इससे हमें हिन्दुओं तथा यवनों और शकों के संघर्ष का विवरण प्राप्त होता है । इसमें यवन-देश तथा शकों का नगर, कुरु तथा मद्र देश और हिमालय के बीच स्थित बताया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों यूनानी तथा सीथियन लोग पंजाब के कुछ भागों में बसे हुये थे ।

महाभारत की रचना वेदव्यास ने की थी । इसमें भी शक, यवन, पारसीक, हूण आदि जातियों का उल्लेख मिलता है । इससे प्राचीन भारतवर्ष की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक दशा का परिचय मिलता है । राजनीति तथा शासन के विषय में तो यह ग्रन्थ बहुमूल्य सामग्रियों का भण्डार ही है । महाभारत में यह कहा गया है कि ‘धर्म’, अर्थ, काम तथा मोक्ष के विषय में जो कुछ भी इसमें है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है ।

परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इन अन्यों का विशेष महत्व नहीं है क्योंकि इनमें वर्णित कथाओं में कल्पना का मिश्रण अधिक है । महाकाव्यों में जिस समाज और संस्कृति का चित्रण है उसका उपयोग उत्तरवैदिक काल के अध्ययन के लिये किया जा सकता है ।

v. पुराण:

भारतीय ऐतिहासिक कथाओं का सबसे अच्छा क्रमबद्ध विवरण पुराणों में मिलता है । पुराणों के रचयिता लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं । इनकी संख्या 18 है । अधिकांश पुराणों की रचना तीसरी चौथी शताब्दी ईस्वी में की गयी थी । सर्वप्रथम पार्जिटर (Pargiter) नामक विद्वान् ने उनके ऐतिहासिक महत्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया गया था ।

अमरकोश में पुराणों के पाँच विषय बताये गये हैं:

(1) सर्ग अर्थात् जगत की सृष्टि,

(2) प्रतिसर्ग अर्थात् प्रलय के बाद जगत् की पुन सृष्टि,

(3) वंश अर्थात् ऋषियों तथा देवताओं की वंशावली,

(4) मन्वन्तर अर्थात् महायुग और

(5) वंशानुचरित अर्थात् प्राचीन राजकुलों का इतिहास ।

इनमें ऐतिहासिक दृष्टि से “वंशानुचरित” का विशेष महत्व है। अठारह पुराणों से केवल पाँच में (मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड, भागवत) ही राजाओं की वंशावली पायी जाती है । इनमें मत्स्यपुराण सबसे अधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक है । पुराणों की भविष्य शैली में कलियुग के राजाओं की तालिकायें दी गयी है ।

इनके साथ शैशुनाग, नन्द, मौर्य, शुड्ग, कण्व, आन्ध्र तथा गुप्त वंशों की वंशावलियां भी मिलती है । मौर्यवंश के लिये विष्णु पुराण तथा आन्ध्र (सातवाहन) वंश के लिये मत्स्य पुराण महत्व के है । इसी प्रकार वायु पुराण में गुप्तवंश की साम्राज्य सीमा का वर्णन तथा गुप्तों की शासन-पद्धति का भी कुछ विवरण प्राप्त होता है ।

सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अग्निपुराण का काफी महत्व है जिसमें राजतन्त्र के साथ-साथ कृषि सम्बन्धी विवरण भी दिया गया है । इस प्रकार पुराण प्राचीनकाल से लेकर गुप्तकाल के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का परिचय कराते हैं । छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के पहले के प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये तो पुराण ही एकमात्र स्रोत है ।

vi. धर्मशास्त्र:

धर्मसूत्र, स्मृति, भाष्य, निबन्ध आदि को सम्मिलित रूप से धर्मशास्त्र कहा जाता है । धर्मसूत्रों का काल सामान्यत: ई॰ पू॰ 500-200 के लगभग निर्धारित किया जाता है । आपस्तम्भ, बौद्धायन तथा गौतम के धर्मसूत्र सबसे प्राचीन है । धर्मसूत्रों में ही सर्वप्रथम हम वर्णव्यवस्था का स्पष्ट वर्णन प्राप्त करते है तथा चार वर्णों के अलग-अलग कर्त्तव्यों का भी निर्देश मिलता है ।

कालान्तर में धर्मसूत्रों का स्थान स्मृतियों ने ग्रहण किया । जहाँ धर्मसूत्र गद्य में है, वहीं स्मृति ग्रंथ पद्य में लिखे गये है । स्मृतियों में मनुस्मृति सबसे प्राचीन तथा प्रामाणिक मानी जाती है । बूलर के अनुसार इसकी रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य हुई थी ।

अन्य स्मृतियों में याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति, कात्यायन, देवल आदि की स्मृतियाँ उल्लेखनीय हैं । मनुस्मृति को शुंग काल का मानक ग्रन्थ माना जाता है । इसके अध्ययन से शुंगकालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दशा का बोध होता है । नारद स्मृति गुप्त-युग के विषय में महत्वपूर्ण सूचनायें प्रदान करती है । कालान्तर में इन पर अनेक विद्वानों द्वारा टीकायें लिखी गयीं ।

मनुस्मृति के प्रमुख टीकाकार भारुचि, मेघातिधि, गोविन्दराज तथा कुल्लूक भट्ट है । विश्वरूप, विज्ञानेश्वर तथा अपरार्क, याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रमुख टीकाकार है । इन टीकाओं से भी हम हिंदू-समाज के विविध पक्षों के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त करते हैं ।

II. ब्राह्मणेतर साहित्य:

i. बौद्ध ग्रन्थों:

बौद्ध ग्रन्थों में ‘त्रिपिटक’ जबसे महत्वपूर्ण है । बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी शिक्षाओं को संकलित कर तीन भागों में बांटा गया । इन्हीं को त्रिपिटक कहते हैं । ये हैं- विनयपिटक (संघ सम्बन्धी नियम तथा आचार की शिक्षायें), सुत्तपिटक (धार्मिक सिद्धान्त अथवा धर्मोंप्रदेश) तथा अभिधम्मपिटक (दार्शनिक सिद्धान्त) । इसके अतिरिक्त निकाय तथा जातक आदि से भी हमें अनेकानेक ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है ।

पाली भाषा में लिखे गये बौद्ध-अन्यों को प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का माना जाता है । अभिधम्मपिटक में सर्वप्रथम संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है । त्रिपिटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये बौद्ध संघों के संगठन का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हैं । निकायों में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त तथा कहानियों का संग्रह हैं । जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानी है । कुछ जातक ग्रन्थों से बुद्ध के समय की राजनीतिक अवस्था का परिचय भी मिलता है ।

इसके साथ ही साथ ये समाज और सभ्यता के विभिन्न पहलुओं के विषय में महत्वपूर्ण सामग्री प्रदान करते हैं । दीपवंश तथा महावंश नामक दो पाली गुणों से मौर्यकालीन इतिहास के विषय में सूचना मिलती है । पाली भाषा का एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थ नागसेन द्वारा रचित “मिलिन्दपण्हो” (मिलिन्द-प्रश्न) है जिससे हिन्द-यवन शासक मेनाण्डर के विषय ये सूचनायें मिलती है ।

इनके अतिरिक्त संस्कृत भाषा में लिखे गये अन्य कई बौद्ध ग्रन्थ भी हैं जो बौद्ध धर्म के दोनों सम्प्रदायों से सम्बन्धित है । हीनयान का प्रमुख ग्रन्थ ‘कथावस्तु’ है जिसमें महात्मा बुद्ध का जीवन चरित अनेक कथानकों के साथ वर्णित है । महायान सम्प्रदाय के ग्रन्थ ‘ललितविस्तर’, दिव्यावदान आदि है । ललितविस्तर में बुद्ध को देवता मानकर उनके जीवन तथा कार्यों का चमत्कारिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है ।

दिव्यावदान से अशोक के उत्तराधिकारियों से लेकर पुष्यमित्र शुंग तक के शासकों के विषय में सूचना मिलती है । संस्कृत बौद्ध लेखकों में अश्वघोष का नाम अत्यन्त ऊँचा है । इनकी रचनाओं का उल्लेख यथास्थान किया गया है । जहाँ ब्राह्मण ग्रन्थ प्रकाश नहीं डालते वहाँ बौद्ध ग्रन्थों से हमें तथ्य का ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।

ii. जैन-ग्रन्थ:

जैन साहित्य को ‘आगम’ (सिद्धान्त) कहा जाता है । जैन साहित्य का दृष्टिकोण भी बौद्ध साहित्य के समान ही धर्मपरक है । जैन ग्रन्थों में परिशिष्टपर्वन, भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इनसे अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है ।

जैन धर्म का प्रारम्भिक इतिहास ”कल्पसूत्र” (लगभग चौथी शती ई॰ पू॰) से ज्ञात होता है जिसकी रचना भद्रबाहु ने की थी । परिशिष्टपर्वन् तथा भद्रबाहुचरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की प्रारम्भिक तथा उत्तरकालीन घटनाओं की सूचना मिलती है । भगवतीसूत्र में महावीर के जीवन, कृत्यों तथा अन्य समकालिकों के साथ उनके सम्बन्धों का बड़ा ही रोचक विवरण मिलता है ।

आचारांगसूत्र जैन भिक्षुओं के आचार-नियमों का वर्णन करता है । जैन साहित्य में पुराणों का भी महत्वपूर्ण स्थान है जिन्हें ‘चरित’ भी कहा जाता है । ये प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश, तीनों भाषाओं में लिखे गये है । इनमें पद्‌मपुराण, हरिवंशपुराण, इत्यादि उल्लेखनीय है ।

जैन पुराणों का समय छठी शताब्दी से सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक निर्धारित किया गया । यद्यपि इनमें मुख्यत: कथायें दी गयी है तथापि इनके अध्ययन से विभिन्न काली की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दशा का थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।

III. लौकिक साहित्य:

लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रन्थों तथा जीवनियों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है जिनसे भारतीय इतिहास जानने में काफी मदद मिलती है । ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख ”अर्थशास्त्र” का किया जा सकता है जिसकी रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ कौटिल्य (चाणक्य) ने की थी । मौर्यकालीन इतिहास एवं राजनीति के ज्ञान के लिये यह ग्रन्थ एक प्रमुख स्रोत है । इससे चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन-व्यवस्था पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है ।

कौटिल्यीय अर्थशास्त्र के अनेक सिद्धान्तों को सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी में कामन्दक ने अपने “नीतिसार” में संकलित किया । इस संग्रह में दसवीं शताब्दी ईस्वी के राजत्व सिद्धान्त तथा राजा के कर्तव्यों पर प्रकाश पड़ता है । ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वाधिक महत्व कश्मीरी कवि कहर, हारा विरचित “राजतरंगिणी” को है । यह संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं के क्रमवद्ध इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है ।

इसमें आदिकाल से लेकर 1151 ई॰ के आरम्भ तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं का क्रमानुसार विवरण दिया गया है । कश्मीर की ही भांति गुजरात से भी अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ प्राप्त होते है जिनमें सोमेश्वर कृत रसमाला तथा कीर्तिकौमुद्री, मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणि, राजशेखर कृत प्रबन्धकोश आदि उल्लेखनीय है । इनसे हमें गुजरात के चौलुक्य वंश का इतिहास तथा उसके समय की संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।

इसी प्रकार सिन्ध तथा नेपाल से भी कई इतिवृत्तियां (Chronicles) मिलती हैं जिनसे वहाँ का इतिहास ज्ञात होता है । सिन्ध की इतिवृत्तियों के आधार पर ही “चचनामा” नामक ग्रन्थ की रचना की गयी जिसमें अरबों की सिन्ध विजय का वृत्तान्त सुरक्षित है ।

मूलत: यह अरबी भाषा में लिखा गया तथा कालान्तर में इसका अनुवाद खुफी के द्वारा फारसी भाषा में किया गया । अरब आक्रमण के समय सिन्ध की दशा का अध्ययन करने के लिये यह सर्वप्रमुख ग्राम्य है । नेपाल की वशावलियों में वहाँ के शासकों का नामोल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु उनमें से अधिकांश अनैतिहासिक हैं ।

अर्द्ध-ऐतिहासिक रचनाओं में पाणिनि की अष्टाध्यायी, कात्यायन का वार्त्तिक, गार्गीसंहिता, पतंजलि का महाभाष्य, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस तथा कालिदासकृत मालविकाग्निमित्र आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पाणिनि तथा कात्यायन के व्याकरण-ग्रन्थों से मौर्यो के पहले के इतिहास तथा मौर्ययुगीन राजनीतिक अवस्था पर प्रकाश पड़ता है । पाणिनि ने सूत्रों को समझाने के लिए जो उदाहरण दिये है उनका उपयोग सामाजिक-आर्थिक दशा के ज्ञान के लिये भी किया जा सकता है ।

इससे उत्तर भारत के भूगोल की भी जानकारी होती है । गार्गीसंहिता, यद्यपि एक ज्योतिष-अन्य है तथापि इससे कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है । इसमें भारत पर होने वाले यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है जिससे हमें पता चलता है कि यवनों ने साकेत, पंचाल, मधुरा तथा कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) पर आक्रमण किया था । पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे । उनके महाभाष्य से शुंगों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है ।

मुद्राराक्षस से चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में सूचना मिलती है । कालिदास कृत ‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक शुंगकालीन राजनीतिक परिस्थितियों का विवरण प्रस्तुत करता है । ऐतिहासिक जीवनियों में अश्वधोषकृत बुद्धचरित, बाणभट्ट का हर्षचरित, वाक्पति का गौड़वहो, विल्हण का विक्रमाड्कदेवचरित, पद्यगुप्त का नवसाहसाड्कचरित, सन्ध्याकर नन्दी कृत “रामचरित” हेमचन्द्र कृत ”कुमारपालचरित” (द्वयाश्रयकाव्य) जयानक कृत “पृथ्वीराजविजय” आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।

“बुद्धचरित” में गौतम बुद्ध के चरित्र का विस्तृत वर्णन हुआ है । “हर्षचरित” से सम्राट हर्षवर्धन के जीवन तथा तत्कालीन समाज एवं धर्म-विषयक अनेक महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती है । गौडवहो में कन्नोजनरेश यशोवर्मन् के गौड़नरेश के ऊपर किये गये आक्रमण एवं उसके बध का वर्णन है । विक्रमाड्कदेवचरित में कल्याणी के चालुक्यवंशी नरेश विक्रमादित्य षष्ठ का चरित्र वर्णित है । नवसाहसाँकचरित में धारानरेश मुञ्ज तथा उसके भाई सिन्धुराज के जीवन की घटनाओं का विवरण है ।

रामचरित से बंगाल के पालवंश का शासन, धर्म एवं तत्कालीन समाज का ज्ञान होता है । आनन्दभट्ट कृत बल्लालचरित से सेन वंश के इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है । कुमारपालचरित में चौलुक्य शासकों-जयसिंह सिद्धराज तथा कुमारपाल का जीवन चरित तथा उनके समय की घटनाओं का वर्णन है ।

पृथ्वीराजविजय से चाहमान राजवंश के इतिहास का ज्ञान होता है । इसके अतिरिक्त और भी जीवनियां है जिनसे हमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री मिल जाती है । राजशेखरकृत प्रबन्धकोश, बालरामायण तथा काव्यमीमांसा- इनसे राजपूतयुगीन समाज तथा धर्म पर प्रकाश पड़ता है ।

उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत से भी अनेक तमिल ग्रन्थ प्राप्त होते है जिनसे वहाँ शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के काल का इतिहास एवं संस्कृति का ज्ञान होता है । तमिल देश का प्रारम्भिक इतिहास संगम-साहित्य से ज्ञात होता है ।

नन्दिक्कलम्बकम्, कलिंगत्तुपर्णि, चोलचरित आदि के अध्ययन से दक्षिण में शासन करने वाले पल्लव तथा चोल वंशों के इतिहास एवं उनकी संस्कृति का ज्ञान होता है । कलिंगत्तुपर्णि में चोल सम्राट कुलीतुंग प्रथम की कलिंग विजय का विवरण सुरक्षित है ।

तमिल के अतिरिक्त कन्नड़ भाषा में लिखा गया साहित्य भी हमें उपलब्ध होता है । इसमें महाकवि पम्प द्वारा रचित ‘विक्रमार्जुन विजय’ (भारत) तथा रन्न कृत ‘गदायुद्ध’ विशेष महत्व के हैं । इनसे चालुक्य तथा राष्ट्रकूट वंशों के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है ।

(2) विदेशी यात्रियों के विवरण:

भारतीय साहित्य के अतिरिक्त समय-समय पर भारत में आने वाले विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास जानने में पर्याप्त मदद मिलती है । इनमें से कुछ ने तो भारत में कुछ समय तक निवास किया और अपने स्वयं के अनुभव से लिखा है तथा कुछ यात्रियों ने जनश्रुतियों एवं भारतीय ग्रन्थों को अपने विवरण का आधार बनाया है । इन लेखकों में यूनानी, चीनी तथा अरबी-फारसी लेखक विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

I. यूनानी-रोमन (क्लासिकल) लेखक:

यूनान के प्राचीनतम लेखकों में टेसियस तधा हेरोडोटस के नाम प्रसिद्ध है । टेसियस ईरान का राजवैद्य था तथा उसने ईरानी अधिकारियों द्वारा ही भारत के विषय में जानकारी प्राप्त की थी । परन्तु उसका विवरण आश्चर्यजनक कहानियों से परिपूर्ण होने के कारण अविश्वसनीय हो गया है । हेरोडोटस को ‘इतिहास का पिता’ कहा जाता है ।

उसने अपनी पुस्तक ‘हिस्टोरिका (Historica) में पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के भारत-फारस के सम्बन्ध का वर्णन किया है । उसका विवरण अधिकांशत अनुभूतियों तथा अफवाहों पर आधारित है । सिकन्दर के साथ आने वाले लेखकों में नियार्कस, आनेसिक्रिटस तथा आरिस्टोबुलस के विवरण अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय हैं । चूँकि रन लेखकों का उद्देश्य अपनी रचनाओं द्वारा अपने देशवासियों को भारतीयों के विषय में बताना था, अत: इनका वृत्तान्त यथार्थ है ।

सिकन्दर के पश्चात् के लेखकों में तीन राजदूतों-मेगस्थनीज डाइमेकस तथा डायीनिसियस के नाम उल्लेखनीय है जो यूनानी शासकों द्वारा पाटलिपुत्र के मौर्य दरवार में भेजे गये थे । इनमें भी मेगस्थनीज सर्वाधिक प्रसिद्ध है । वह सेल्युकस ‘निकेटर’ का राजदूत था तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था । उसने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक में मौर्ययुगीन समाज एवं संस्कृति के विषय में लिखा है ।

यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है तथापि इसके कुछ अंश उद्धरण के रूप में एरियन, स्ट्रेबी, जस्टिन आदि लेखकों की कृतियों में प्राप्त होते है । ‘इण्डिका’ वस्तुतः यूनानियों द्वारा भारत के सम्बन्ध दे शप्त शनराशि में सबसे अमूल्य रत्न है ।

डाइमेकस (सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत) बिन्दुसार के दरबार में तथा डायोनिसियल (मिस्र नरेश टालमी फिलेडेल्फस का राजदूत) अशोक के दरबार दे आया था । अन्य अन्यों में ‘पेरीप्लस ऑफ द इरिथ्रयन-सी’, टालमी का भूगोल, प्लिनी का ‘नेचुरल हिन्दी’ आदि का भी उल्लेख किया जा सकता है । पेरीप्लस का लेखक 80 ई. के लगभग हिन्द महासागर की यात्रा पर आया था ।

उसने उसके बन्दरगाहों तथा व्यापारिक वस्तुओं का विवरण दिया है । प्राचीन भारत के समुद्री व्यापार के ज्ञान के लिये उसका विवरण बड़ा उपयोगी है । दूसरी शताब्दी ईस्वी में टालमी ने भारत का भूगोल लिखा था । प्लिनी का ग्रन्थ प्रथम शताब्दी ईस्वी का है । इससे भारतीय पशुओं, पेड़-पौधों, खनिज पदार्थों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है ।

II. चीनी-लेखक:

प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में चीनी यात्रियों के विवरण भी विशेष उपयोगी रहे हैं। ये चीनी यात्री बौद्ध मतानुयायी थे तथा भारत में बौद्ध तीर्थस्थानों की यात्रा तथा बौद्ध धर्म के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिये आये थे। वे भारत का उल्लेख ‘यिन्-तु’ (Yin-tu) नाम से करते हैं ।

इनमें चार के नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं- फाहियान, सुंगपुन, हुएनसांग तथा इत्सिग । फाहियान, गुप्तनरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375-415 ई.) के दरबार में आया था । उसने अपने विवरण में मध्यदेश के समाज एवं संस्कृति का वर्णन किया है । वह मध्यदेश की जनता को चुखी एवं समृद्ध बताता है ।

सुंगयुन 518 ई. में भारत में आया और उसने अपने तीन वर्ष की यात्रा में बौद्ध ग्रन्धों की प्रतियाँ एकत्रित कीं । चीनी यात्रियों में सवाधिक महत्व हुएनसाग अथवा युवानच्चाग का ही है जो महाराज हर्षवर्द्धन के शासन काल में (629 ई. का लगभग) यहाँ आया था । उसने 16 वर्षों तक यहाँ निवास कर विभिन्न स्थानों की यात्रा की तथा नालन्दा विश्वविद्यालय में 6 वर्षों तक रहकर शिक्षा प्राप्त की ।

उसका भमण वृत्तान्त ‘सि-यू-की’ नाम से प्रसिद्ध है जिसमें 138 देशों का विवरण मिलता है । इससे हर्षकालीन भारत के समाज, धर्म तथा राजनीति पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है । उसके मित्र ढीली ने ‘हुएनसांग की जीवनी’ लिखी है जो हर्षकालीन भारत की दशा के ज्ञान के लिये एक प्रमुख स्रोत है ।

भारतीय संस्कृति के इतिहास में हुएनसांग ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इत्सिग सातवीं शताब्दी के अन्त में भारत आया था । उसने अपने विवरण में नालन्दा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा अपने समय के भारत की दशा का वर्णन किया है । परन्तु वे हुएनसांग के समान उपयोगी नहीं हैं ।

अन्य चीनी लेखकों में मात्वान लिन् तथा चाऊ-जू-कूआ का उल्लेख किया जा सकता है । मा त्वान लिन् के विवरण से हर्ष के पूर्वी अभियान के विषय में कुछ सूचना मिलती है । चाऊ-जू-कृआ चोल इतिहास के विषय में कुछ तध्य प्रस्तुत करता है ।

III. अरबी लेखक:

अरब व्यापारियों तथा लेखकों के विवरण से हमें पूर्वमध्यकालीन भारत के समाज एवं संस्कृति के विषय में जानकारी होती है । ऐसे लेखकों में अल्बरूनी का नाम सर्वप्रसिद्ध है । उसका जन्म 973 ई॰ में ख्वारिज्म (खीवा) में हुआ धा । उसका पूरा नाम अबूरेहान मुहम्मद इब्न अहमद अल्बरूनी था । प्रारम्भ में उसने साहित्य तथा विज्ञान का अध्ययन किया एवं इन विद्याओं में निपुणता हासिल की ।

उसकी विद्वता से प्रभावित होकर ख्वारिज्म के ममूनी शासक ने उसे अपना मन्त्री नियुक्त कर दिया । 1017 ई॰ में गजनी के सुल्तान महमूद ने ख्वारिज्म पर आक्रमण किया तथा उसे जीत लिया । अनेकों लोग बन्दी बनाये गये जिनमें अल्बरूनी भी एक था । महमूद उसकी योग्यता से अत्यन्त प्रभावित हुआ तथा उसने उसे राजज्योतिषी के पद पर नियुक्त कर दिया ।

भारतीय तथा यूनानी दोनों ही पद्धतियों से उसने ज्योतिष का अध्ययन किया तथा निपुणता प्राप्त की । गणित, विज्ञान एवं ज्योतिष के साथ ही साथ अल्बरूनी अरबी, फारसी एवं संस्कृत भाषाओं का भी अच्छा ज्ञाता था । वह महमूद गजनवी के साथ भारत आया था ।

किन्तु उसका दृष्टिकोण महमूद से पूर्णतया भिन्न था और वह भारतीयों का निन्दक न होकर उनकी बौद्धिक सफलताओं का महान् प्रशंसक था । भारतीय संस्कृति के अध्ययन में उसकी गहरी दिलचस्पी थी तथा गौता से वह विशेष रूप से प्रभावित हुआ । भारतीयों के दर्शन, ज्योतिष एवं विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान की वह प्रशंसा करता है ।

अल्बरूनी सत्य का हिमायती तथा अपने विचारों का पक्का था । उसने भारतीयों से जो कुछ सुना उसी के आधार पर उनकी सभ्यता का विवरण प्रस्तुत कर दिया । अपनी पुस्तक “तहकीक-ए-हिन्द” (भारत की खोज) में उसने यहां के निवासियों की दशा का वर्णन किया है । इससे राजपूतकालीन समाज, धर्म, रीति-रिवाज, राजनीति आदि पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है ।

ज्ञात होता है कि उसके समय में ब्राह्मण धर्म का बोल-बाला था तथा बौद्ध धर्म का अस्तित्व समाप्त हो गया था । अपने विवरण में वह बौद्ध धर्म का बहुत कम उल्लेख करता है । हिंदू समाज में प्रचलित वर्णव्यवस्था का उल्लेख भी वह करता है तथा बताता है कि ब्राह्मणों को समाज में सबसे अधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था । पेशावर स्थित कनिष्क विहार का भी वह विवरण देता है ।

अल्बरूनी का विवरण चीनी यात्रियों के विवरण की भाँति उपयोगी नहीं है क्योंकि उसे भारत में भ्रमण करने का बहुत कम अवसर प्राप्त हुआ । उसके समय में बनारस तथा कश्मीर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे किन्तु वह इन स्थानों में भी नहीं जा सका ।

अल्बरूनी के अतिरिक्त अल-बिलादुरी, सुलेमान, अल मसऊदी, हसन निजाम, फरिश्ता, निजामुद्दीन आदि मुसलमान लेखक भी हैं जिनकी कृतियों से भारतीय इतिहास-विषयक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है । इब्नखुर्दद्‌ब (नवीं शती) के ग्रन्थ ‘किलबुल-मसालिक वल ममालिक’ में भारतीय समाज तथा व्यापारिक मार्गों का विवरण दिया गया है । अबूजैद ने भारत में सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का वर्णन किया है । अल मसूदी के ग्रन्थ ‘मुरुजुज जहब’ में भारतीय समाज का चित्रण है ।

मीर मुहम्मद मसूम के तारीख-ए-सिन्द अथवा तारीक-ए-मसूमी से सिन्ध देश का इतिहास (अरब आक्रमण के समय का) ज्ञात होता है । यह अरब आक्रमण के कारणों तथा मुहम्मद बिन कासिम की सफलताओं पर भी प्रकाश डालता है । शेख अब्दुल हसन कृत ‘कमिल-उत-तवारीख’ से मुहम्मद गोरी के भारतीय विजय का वृतान्त ज्ञात होता है । मिनहासुद्दीन के तबकात-ए-नासिरी में भी मुहम्मद गोरी की हिन्दुस्तान विजय का प्रामाणिक विवरण सुरक्षित है ।

उपर्युक्त लेखकों के अतिरिक्त तिब्बती बौद्ध लेखक तारानाथ (12वीं शतीं) के ग्रन्थों -कंग्युर तथा तंग्युर-से भी भारतीय इतिहास की कुछ बातें ज्ञात होती है । किन्तु उसके विवरण ऐतिहासिक नहीं लगते । वेनिस का प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो तेरहवीं शती के अन्त में पाण्ड्य देश की यात्रा पर आया था । उसका वृत्तान्त पाण्ड्य इतिहास के अध्ययन के लिये उपयोगी है ।

(3) पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य:

पुरातत्व वह विज्ञान है जिसके माध्यम से पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदाई कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है । प्राचीन इतिहास के ज्ञान के लिये पुरातात्विक प्रमाणों से बहुत अधिक सहायता मिलती है । ये साधन अत्यन्त प्रामाणिक है तथा इनसे भारतीय इतिहास के अनेक अन्ध-युगों (Dark-Ages) पर प्रकाश पड़ता है । जहाँ साहित्यिक साक्ष्य मौन है वही हमारी सहायता पुरातात्विक साक्ष्य करते है ।

पुरातत्व के अन्तर्गत तीन प्रकार के साक्ष्य आते हैं:

(I) अभिलेख

(II) मुद्रा

(III) स्मारक

इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है:

(I) अभिलेख:

प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में अभिलेखों से बड़ी मदद मिली है । अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व साहित्यिक साक्ष्यों से अधिक है । ये अभिलेख पाषाण- शिलाओं, स्तम्भों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं एवं प्रतिमाओं आदि पर खुदे हुये मिले है । सबसे प्राचीन अभिलेखों में मध्य एशिया के बोघजकोई से प्राप्त अभिलेख है ।

यह हित्ती नरेश सप्पिलुल्युमा तथा मितन्नी नरेश मतिवजा (Mativaja) के बीच सन्धि का उल्लेख करता है जिसके साक्षी के रूप में वैदिक मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्य (अश्विनी) के नाम मिलते है । यह लगभग 1400 ई॰ पू॰ के है तथा इनसे ऋग्वेद की तिथि ज्ञात करने में सहायता मिलती है ।

पारसीक नरेशों के अभिलेख हमें पश्चिमोत्तर भारत में ईरानी साम्राज्य के विस्तार की सूचना देते हैं । परन्तु अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें अशोक के शासन काल से ही मिलने लगे हैं । अशोक के अनेक शिलालेख एवं स्तम्भ-लेख देश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त होते है । अभिलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा, उसके धर्म तथा शासन नीति पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है ।

देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर जैसे एक चोटी के विद्वान् ने केवल अभिलेखों के आधार पर ही अशोक का इतिहास लिखने का सफल प्रयास किया है । अशोक के बाद भी अभिलेखों की परम्परा कायम रही । अब हमें अनेक प्रशस्तियाँ मिलने लगती हैं जिनमें दरबारी कवियों अथवा लेखकों द्वारा अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा के शब्द मिलते है ।

यद्यपि ये प्रशस्तियाँ अतिरंजित हैं तथापि ऐसे इनसे सम्बन्धित शासकों के विषय में हमें अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं । ऐसे लेखों में खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, शकक्षत्रप रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख, गुप्तसम्राट समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ-लेख, मालवनरेश यशोधर्मन् का मन्दसोर अभिलेख, चालुक्यनरेश पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल का अभिलेख, प्रतिहारनरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध है ।

इनमें से अधिकांश लेखों से तत्सबंधी राजाओं के सैनिक अभियानों की सूचना मिलती है । जैसे, समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ-लेख में उसकी विजयी का विशद विवरण है । ऐहोल का लेख हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध का विवरण देता है । ग्वालियर लेख से गुर्जर-प्रतिहार शासकों के विषय में विस्तृत सूचनायें प्राप्त होती है ।

गैर-सरकारी लेखों में यवन राजदूत हेलियाडोरस का बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुड़-स्तम्भ लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिससे द्वितीय शताब्दी ई. पू. में मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण मिलता है । कुछ अभिलेख मूर्तियों, ताम्रपत्रों आदि के ऊपर अंकित मिलते है । इनसे भी इतिहास विषयक अनेक उपयोगी सामग्रियाँ प्राप्त हो जाती है ।

मध्यप्रदेश के एरण से प्राप्त वाराह प्रतिमा पर हूणराज तोरमाण का लेख अंकित है जिससे उसके विषय में सूचनायें मिलती है । पूर्व मध्यकाल में शासन करने वाले राजपूतों के विभिन्न राजवंशों में से प्रत्येक के कई लेख मिलते है जिनसे सबंधित राजाओं की उपलब्धियों के साथ-साथ समाज एवं संस्कृति की भी जानकारी होती है ।

इनमें गुर्जर प्रतिहार वंश की जोधपुर तथा ग्वालियर प्रशस्ति, पालवंश का खालीमपुर, नालन्दा तथा भागलपुर के लेख, सेनवशी विजय सेन की देवपाड़ा प्रशस्ति, गहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र का कमौली लेख, परमार भोजदेव का वंसवर लेख तथा जयसिह की उदयपुर प्रशस्ति, चन्देल धंग का खजुराहो लेख, चेदि कर्ण का बनारस तथा यश कर्ण का जबलपुर ताम्रपत्र लेख, चाहमान विग्रहराज का दिल्ली शिवालिक स्तम्भ लेख आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं ।

राजपूत शासकों के अधीन सामन्तों के भी बहुसख्यक लेख मिलते है । पूर्व मध्य काल के बहुसंख्यक भूमि अनुदान-पत्र मिलतें है जिनसे प्रशासन के सामन्ती स्वरूप की सूचना मिलती है । दक्षिण भारत में शासन करने वाले पल्लव, चोल आदि प्रसिद्ध राजवंशों के भी अनेक लेख प्राप्त हुए है जिनसे उनके इतिहास की विस्तृत जानकारी मिलती है।

(II) मुद्रायें अथवा सिक्के:

अभीलेखों के अतिरिक्त प्राचीन राजाओं द्वारा डलवाये गये सिक्कों से भी प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है । यद्यपि भारत में सिक्कों की प्राचीनता आठवीं शती ईसा पूर्व तक जाती है तथापि ईसा पूर्व छठीं शताब्दी से ही हमें नियमित सिक्के मिलने लगते है । प्राचीनतम सिक्कों को ‘आहत सिक्के’ (Punch-Marked Coins) कहा जाता है ।

इन्हीं को साहित्य में ‘कार्षापण’, ‘पुराण’, ‘धरण’, शतमान’ आदि भी कहा गया है । ये अधिकांशतः चाँदी के टुकड़े है जिनपर विविध आकृतियाँ चिह्नित की गयी हैं। इन पर लेख नहीं मिलते । सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख लिखवाने का कार्य यवन शासकों ने किया । उन्होंने उत्तर में सोने के सिक्के चलवाये । साधारणतया 206 ई॰ पू॰ से लेकर 300 ई॰ तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओं की सहायता से ही होता है ।

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कुछ मुद्राओं पर तिथियाँ भी खुदी हुई हैं जो कालक्रम के निर्धारण में बड़ी सहायक हुई हैं । मुद्राओं से तत्कालीन आर्थिक दशा तथा सम्बन्धित राजाओं की साम्राज्य सीमा का भी ज्ञान हो जाता है । किसी काल में सिक्कों की बहुलता को देखकर हम यह निष्कर्ष निकालते है कि उसमें व्यापार-वाणिज्य अत्यन्त विकसित दशा में था ।

सिक्कों की कमी को व्यापार-वाणिज्य की अवनति का सूचक माना जा सकता है । पूर्व मध्य काल के प्रथम चरण में सिक्कों का अभाव सा है । इसी आधार पर यह काल आर्थिक पतन का काल माना गया है । इसके विपरीत द्वितीय चरण में सिक्कों के मिल जाने से हम निष्कर्ष निकालते है कि इस समय व्यापार-वाणिज्य का पुनरुत्थान हुआ, जिससे देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गया ।

प्राचीन भारत के गणराज्यों का अस्तित्व मुद्राओं से ही प्रमाणित होता है । मालव, यौधेय आदि गणराज्यों तथा पांचाल के मित्रवंशी शासकों के विषय में हम मुख्यत: सिक्कों से ज्ञान प्राप्त करते हैं । कभी-कभी मुद्रा के अध्ययन से हमें सम्राटों के धर्म तथा उनके व्यक्तिगत गुणों का पता लग जाता है ।

उदाहरणार्थ हम कनिष्क तथा समुद्रगुप्त की मुद्राओं को ले सकते है । कनिष्क के सिक्कों से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था । समुद्रगुप्त अपनी कुछ मुद्राओं पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है । इससे उसका संगीत-प्रेम प्रकट होता है’ भारत के इण्डों-बख्त्री (Indo-Bactrian) शासकों के विषय में हमें उनके सिक्कों से ही ज्ञात होता है । इण्डो-यूनानी तथा इण्डो-सीथियन शासकों के इतिहास के प्रमुख सोत सिक्के ही है ।

शकपह्लव युग की मुद्राओं से उनकी शासन-पद्धति का ज्ञान होता है । इनके लेखों से पता चलता है कि पह्लव राजा अपने गवर्नर के साथ शासन करते थे । समुद्रगुप्त तथा कुमारगुप्त की अश्वमेध शैली की मुद्राओं से अश्व-मेध यज्ञ की सूचना मिलती है । सातवाहन नरेश शातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससे ऐसा अनुमान लगाया गया है कि उसने समुद्र-विजय की थी । इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की व्याघ्रशैली की मुद्राओं से उसकी पश्चिम भारत (गुजरात-काठियावाड़) के शकों की विजय सूचित होती है ।

(III) स्मारक:

इसके अन्तर्गत प्राचीन इमारतें, मन्दिर, मूर्तियों आदि आती हैं । इनसे विभिन्न युगों की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का बोध होता है । इनके अध्ययन से भारतीय कला के विकास का भी ज्ञान प्राप्त होता है । मन्दिर, विहारों तथा स्तूपों से जनता की आध्यात्मिकता तथा धर्मानिष्ठा का पता चलता है ।

हड़प्पा और मोहेनजोदडों की खुदाइयों से पाँच सहस्र वर्ष पुरानी सैंधव सभ्यता का पता चला है । खुदाई के अन्य प्रमुख स्थल तक्षशिला, मथुरा, सारनाथ, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगृह, सांची और भरहुत आदि हैं । प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्वावधान में कौशाम्बी में व्यापक पैमाने पर खुदाई की गयी है । यहाँ से उदयन का राजप्रसाद एवं घोषिताराम नामक एक विहार मिला है ।

अतरंजीखेड़ा आदि की खुदाईयों से पता चलता है कि देश में लोहे का प्रयोग ईसा पूर्व 1000 के लगभग प्रारम्भ हो गया था । इसी प्रकार दक्षिण भारत के कई स्थानों से भी खुदाइयों की गई है । पाण्डिचेरी के समीप स्थित अरिकमेडु नामक स्थान की खुदाई से रोमन सिक्के, दीप का टुकड़ा, वर्तन आदि मिलते है जिनसे पता चलता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में रोम तथा दक्षिण भारत के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था ।

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पत्तडकल, चित्तलदुर्ग, तालकड, हेलविड, मास्की, ब्रह्मगिरि आदि दक्षिण भारत के कुछ अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं जहाँ से खुदाइयाँ हुई हैं । विभिन्न स्थानों से मापा सामग्रियों से प्राचीन इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है ।

देवगढ़ (झाँसी) का मन्दिर, भितर-गाँव का मन्दिर, अजन्ता की गुफाओं के चित्र, नालन्दा की बुद्ध की ताम्रमूर्ति आदि से हिन्दू कला एव सभ्यता के पर्याप्त विकसित होने के प्रमाण मिलते है । दक्षिण भारत से भी अनेक स्मारक प्राप्त होते है । तन्नोर का राजराजेश्वर मन्दिर द्रविड़ शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है ।

पल्लवकाल के भी कई मन्दिर प्राप्त किये गये है । खजुराहो तथा उड़ीसा से प्राप्त बहुसख्यक मन्दिर हिन्दू-वास्तु एवं स्थापत्य के उत्कृष्ट स्वरूप को प्रकट करते है । भारत के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक द्वीपों से हिन्दू संस्कृति से सम्बन्धित स्मारक मिलते हैं ।

इनमें मुख्य रूप से जावा का बोरोबुदुर स्तुप तथा कम्बोडिया के अंकोरवाट मन्दिर का उल्लेख किया जा सकता है । इसी प्रकार मलाया, बोर्नियो, बाली आदि में हिन्दू संस्कृति से सम्बन्धित अनेक स्मारक प्राप्त हये हैं ।

इनसे इन द्वीपों में हिन्दू संस्कृति के पर्याप्त रूप से विकसित होने के प्रमाण मिलते हैं । इस प्रकार भारतीय साहित्य, विदेशी यात्रियों के विवरण तथा पुरातत्व-इन तीनों के सम्मिलित साक्ष्य के आधार पर हम भारत के प्राचीन इतिहास का पुनर्निर्माण कर सकते है ।

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