भारत में आश्रम प्रणाली पर निबंध | Essay on Ashrama System in India (Varna) in Hindi.

हिन्दू सामाजिक संगठन की दूसरी महत्वपूर्ण संस्था आश्रमों की है जो वर्ण के साथ सम्बन्धित है । आश्रम मनुष्य के प्रशिक्षण की समस्या से सम्बद्ध है जो संसार की सामाजिक विचारधारा के सम्पूर्ण इतिहास में अद्वितीय है । हिन्दू व्यवस्था में प्रत्येक मनुष्य का जीवन एक प्रकार के प्रशिक्षण तथा आत्मानुशासन का है ।

इस प्रशिक्षण के दौरान उसे चार चरणों से होकर गुजरना पड़ता है । ये प्रशिक्षण की चार अवस्थायें हैं । ‘आश्रम’ शब्द की उत्पत्ति ‘श्रम’ धातु से है जिसका अर्थ है परिश्रम या प्रयास करना । इस प्रकार आश्रम वे स्थान है जहाँ प्रयास किया जाये ।

मूलत: आश्रम जीवन की यात्रा में एक विश्राम स्थल का कार्य करते हैं, जहाँ आगे की यात्रा के लिये तैयारी की जाती है । जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है । प्रभु ने मोक्ष प्राप्ति की यात्रा में आश्रमों को विश्रामस्थल बताया है ।

आश्रम व्यवस्था के मनोवैज्ञानिक-नैतिक आधार पुरुषार्थ हैं जो आश्रमों के माध्यम से व्यक्ति को समाज के साथ सम्बद्ध कर उसकी व्यवस्था तथा संचालन में सहायता प्रदान करते हैं । एक ओर जहाँ मनुष्य आश्रमों के माध्यम से जीवन में पुरुषार्थों के उपयोग करने का मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है तो दूसरी ओर व्यवहार में वह समाज के प्रति इनके अनुसार जीवनयापन करता हुआ अपने कर्तव्यों को पूरा करता है ।

प्रत्येक आश्रम जीवन की एक अवस्था है जिसमें रहकर व्यक्ति एक निश्चित अवधि तक प्रशिक्षण प्राप्त करता है । महाभारत में वेद-व्यास ने चारों आश्रमों को ब्रह्मलोक पहुँचने के मार्ग में चार सोपान निरूपित किया है । भारतीय विचारकों ने चतुराश्रम व्यवस्था के माध्यम से प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के आदर्शों में समन्वय स्थापित किया है ।

आश्रमों की उत्पत्ति के समय के विषय में मतभेद है । रिज डेविड्‌स जैसे कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आश्रमों का प्रचलन बुद्ध के बाद अथवा त्रिपिटकों की रचना के पश्चात् हुआ होगा क्योंकि इनमें उनका उल्लेख नहीं मिलता है । किन्तु यह मत असंगत लगता है ।

कारण कि उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में हम आश्रमों का यत्र-तत्र उल्लेख प्राप्त करते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तीरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण आदि में इनका उल्लेख है । जाबालोंपनिषद् में हम सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख प्राप्त करते हैं ।

ऐसा प्रतीत होता है कि आश्रमों की कल्पना उपनिषद् काल में ही हो चुकी थी किन्तु सूत्रकाल तक आते-आते यह व्यवस्था समाज में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो गयी । स्मृतिकाल में विभिन्न आश्रमों के विधि-विधान निर्धारित किये गये । लगता है कि चारों आश्रमों का विधान भी एक साथ नहीं हुआ होगा ।

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प्रारम्भ में मात्र दो आश्रम थे- ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ । तत्पश्चात् वानप्रस्थ तथा अन्तोगत्वा सन्यास आश्रम का विधान किया गया होगा । सन्यास की उत्पत्ति निश्चयत: अवैदिक श्रमण विचारधारा के प्रभाव से हुई थी । सूत्रकाल तक समाज में आश्रम व्यवस्था पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो चुकी थी ।

स्मृतिकाल में विभिन्न आश्रमों के नियम निर्धारित किये गये । ए. एल. बाशम की धारणा है कि हिंदू समाज में आश्रम आदर्श रूप में थे तथा व्यवहार में इनका पालन कम ही हुआ । किन्तु यह विचार उचित नहीं लगता । हिन्दू शास्त्रकारों ने इस बात पर सदा बल दिया कि चारों आश्रमों का पालन क्रमशः किया जाना चाहिए ।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में लिखता है कि- ‘राजा का यह कर्तव्य है कि वह प्रजा से वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करवाये । इनके उल्लंघन से समाज में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती है तथा संसार का नाश होता है । वर्णाश्रम नियमों के पालन से संसार की उन्नति होती है ।’

इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्णाश्रम धर्म का आचरण न केवल समाज में संतुलन बनाये रखने, अपितु उसकी उन्नति के लिये भी अभीष्ट था । किन्तु धर्मशास्त्रों द्वारा प्रतिपारित चतुराश्रम व्यवस्था के नियमों का पालन प्राचीन इतिहास के सभी काली में समान रूप से किया गया हो ऐसी बात नहीं है ।

पूर्वमध्यकाल तक आते-आते हम इसमें कुछ परिवर्तन पाते हैं । इस काल के कुछ पुराण तथा विधि ग्रन्थ यह विधान करते हैं कि कलियुग में दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य पालन तथा वानप्रस्थ में प्रवेश से बचना चाहिए । बाल विवाह के प्रचलन के कारण भी ब्रह्मचर्य का पालन कठिन हुआ होगा ।

शंकर तथा रामानुज दोनों ने इस बात का उल्लेख किया है कि साधनों के अभाव तथा निर्धनता के कारण अधिकांश व्यक्ति आश्रम व्यवस्था का पालन नहीं कर पाते थे । इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन इतिहास के अन्तिम काल तक आते-आते यह व्यवस्था कुछ विशेष कुलों तक ही सीमित रह गयी थी ।

आश्रमों का पुरुषार्थों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है । ब्रह्मचर्य में धर्म प्रमुख रहता है । यहाँ धर्म की पूरी शिक्षा मिलती है । इसके द्वारा ब्रह्मचारी अर्थ और काम पर नियंत्रण स्थापित करते हुए जीवनयापन करता है । मोक्ष का महत्व भा इसी समय वह जान लेता है ।

गृहस्थाश्रम में अर्थ तथा काम प्रधान साध्य होते हैं । यहाँ मनुष्य धर्मानुसार उनका उपभोग करता है । धर्म, अर्थ एवं काम के उच्छृंखल उपयोग को रोकने में सहायक होता है । वानप्रस्थ में धर्म तथा मोक्ष साध्य होते हैं और प्रथम स्थान धर्म का रहता है ।

सन्यास आश्रम में मोक्ष एकमात्र साध्य होता है तथा धर्म इसी में विलीन हो जाता है । वस्तुतः मोक्ष को प्रत्येक आश्रम में जीवन के चरम लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाता है । प्रत्येक आश्रम में व्यक्ति तथा समाज के परस्पर सम्बन्ध एवं कार्य अलग-अलग होते हैं ।

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प्रथम आश्रम में समाज व्यक्ति की देखभाल करता है जबकि द्वितीय अवस्था में व्यक्ति समाज की देख-भाल करता है । अब वह सामाजिक सम्पत्ति का न्यासी बन जाता है । तृतीय अवस्था में व्यक्ति की स्थिति परिवार तथा समाज के सलाहकार के रूप में मानी जाती है । अन्तिम आश्रम संन्यास में व्यक्ति का समाज के प्रति दायित्व बिल्कुल समाप्त हो जाता है । तृतीय तथा चतुर्थ आश्रम में समाज के कर्त्तव्य भी क्रमशः घटते हुए समाप्त हो जाते हैं ।

हिन्दू धर्मशास्त्र मनुष्य की आयु सौ वर्ष मानते हैं तथा प्रत्येक आश्रम के निमित्त पच्चीस-पच्चीस वर्ष की अवधि निर्धारित करते हैं ।

विभिन्न आश्रम तथा उनके दौरान पालन किये जाने वाले आचारों का विवरण निम्न प्रकार से हैं:

1. ब्रह्मचर्य आश्रम:

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यह प्रथम आश्रम है जिसका अर्थ है- ‘ब्रह्म के मार्ग पर चलना ।’ यह विद्याध्ययन का काल है जिसका प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता है । बालक गुरु के समीप रहकर अध्ययन करता है । वहाँ उसकी दिनचर्या अत्यन्त कठोर एवं पवित्र होती थी । प्राचीन ग्रन्थों में ब्रह्मचारी के जीवन का वर्णन मिलता है ।

गुरुकुल में रहकर उसे वेदाध्ययन करना पड़ता था । यहाँ उसका पुरुषार्थ केवल धर्म होता था । उसकी सभी क्रियायें धर्म के अनुकूल होती थीं । विद्यार्थी गुरु की निष्ठापूर्वक सेवा करता था तथा भिक्षावृत्ति द्वारा अपना निर्वाह करता था । वह सूर्योदय के पूर्व उठता था, दिन में तीन बार स्नान करता तथा प्रातः एवं सायंकाल संध्या करता था ।

वह केवल दो बार भोजन ग्रहण करता था । उसके लिये नृत्य, गान, सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग, स्त्री की ओर देखना, उसकी चिन्ता करना तथा उसका स्पर्श, सब कुछ वर्जित था । वह सदाचार एवं सच्चरित्रता का पालन करता था । उसका पूरा जीवन साधना का जीवन था ।

प्रत्येक ब्रह्मचारी को जनेऊ, मेखला एवं दण्ड धारण करना पड़ता था । प्रत्येक वर्ण के ब्रह्मचारी के लिये अलग-अलग मेखला निर्धारित थी । ब्राह्मण ब्रह्मचारी मूंज की, क्षत्रिय लौह खंड से युक्त मूंज की तथा वैश्य ऊन की मेखला धारण करता था ।

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महाभारत में वर्णन मिलता है कि ब्रह्मचारी का जीवन सभी धर्मों में श्रेष्ठ तथा आदर युक्त होता है जिसका अनुसरण करने वाले परमपद को प्राप्त करते हैं । अर्थशास्त्र में ब्रह्मचारी के कर्तव्य ‘वेदाध्ययन, अग्नि अभिषेक, भिक्षावृत्ति तथा उसके अभाव में गुरुपुत्र अथवा ज्येष्ठ ब्रह्मचारी की सेवा करना’ बताया गया है ।

भिक्षावृत्ति का विधान इस उद्देश्य से किया गया था कि विद्यार्थी में नम्रता का भाव जागृत हो सके । गृहस्थ का भी कर्तव्य था कि वह द्वार पर आये हुए ब्रह्मचारी को भिक्षा दिये बिना वापस न करें तथा उसका सत्कार करें ।

ब्रह्मचारी दो प्रकार के कहे गये हैं:

(i) उपकुर्वाण:

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ये ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त होने पर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे । वे गुरु को अपने सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देते थे तथा उसकी आज्ञा पाकर गृहस्थ जीवन में पदार्पण करते थे ।

(ii) नैष्ठिक:

ये जीवन-पर्यन्त गुरु के पास रहकर विद्याध्ययन करते थे । उन्हें ‘अन्तेवासी’ कहा जाता था । मनुस्मृति में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति ब्रह्मलोक में जाते हैं । याज्ञवल्क्य के अनुसार उनका पुनर्जन्म नहीं होता है । अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् ब्रह्मचारी स्नान करता था ।

यह अध्ययन के अन्त का सूचक था । तत्पश्चात् वह ‘स्नातक’ कहा जाता था तथा अगले आश्रम में प्रवेश के योग्य बन जाता था । ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते समय ‘समावर्तन’ नामक संस्कार सम्पन्न होता था । इस समय तक वह पच्चीस वर्ष की आयु पूरी कर लेता था ।

ब्रह्मचर्य आश्रम में रहने की अवधि प्रायः बारह वर्ष तक मानी जाती थी । कुछ विद्यार्थी आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे । उपनिषदों एवं संहिता ग्रन्थों में ऐसे व्यक्तियों के नाम मिलते हैं जिन्होंने दीर्घ काल तक वेदाध्ययन किया था ।

2. गृहस्थाश्रम:

ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद मनुष्य गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था जिसकी अवधि 25 वर्ष से लेकर 50 वर्ष के लगभग तक मानी गयी है । प्राचीन ग्रन्थों में गृहस्थाश्रम की काफी प्रशंसा की गयी है तथा इसे सभी आश्रमों का स्रोत बताया गया है ।

इसी आश्रम में रहकर मनुष्य त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ एवं काम का एक साथ उपयोग करते हुए मोक्ष प्राप्ति के योग्य बनता है । मनुस्मृति में कहा गया है कि जिस प्रकार सभी प्राणी वायु के सहारे जीवित रहते हैं उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थाश्रम के सहारे जीवन प्राप्त करते हैं । तीनों आश्रमों का भारवहन करने के कारण यह श्रेष्ठ हैं ।

जिस प्रकार सभी छोटी-बड़ी नदियाँ समुद्र में आश्रय पाती हैं उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ में आश्रय पाते हैं । पुराणों तथा महाभारत में भी गृहस्थ आश्रम की प्रशंसा की गयी है तथा उसे सर्वश्रेष्ठ बताया गया है । जो लोग गृहस्थाश्रम का त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लेते थे, प्राचीन धर्मग्रन्थ उनकी निन्दा करते हैं । गृहस्थाश्रम सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति करने का उपयुक्त अवसर प्रदान करता था । यहाँ रहते हुए मनुष्य अपने तथा परिवार के भरण-पोषण के निमित्त धर्मानुकूल अर्थसंग्रह करता था ।

अर्थशास्त्र में गृहस्थ के निम्नलिखित कर्तव्य बताये गये हैं:

(i) अपने धर्म के अनुकूल जीविकोपार्जन करना ।

(ii) विधिपूर्वक विवाह करना ।

(iii) अपनी विवाहिता पत्नी से ही सम्पर्क रखना ।

(iv) देवताओं, पितरों, भृत्यों आदि को खिलाने के वाद बचे हुए अन्न को ग्रहण करना ।

मनुस्मृति में गृहस्थ के दस धर्मों का उल्लेख मिलता है, अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, ज्ञान, विद्या, सत्य तथा क्रोध न करना । यथाशक्ति दान देना तथा आये हुए अतिथि का सत्कार करना भी उसके कर्तव्य थे ।

गृहस्थाश्रम में मनुष्य को विभिन्न संस्कारों का अनुष्ठान करना पड़ता था जो जन्म से लेकर मृत्यु तक चलते थे । विवाह संस्कार के साथ उसका गृहस्थाश्रम में पदार्पण होता था तथा तत्पश्चात् वह अन्य संस्कारों को सम्पन्न करता था । इसी आश्रम में मनुष्य तीन ऋणों से मुक्ति प्राप्त करता था जिनका विधान धर्मग्रन्थों में हुआ है ।

ये ऋण हैं:

(a) देव ऋण- ऐसी मान्यता थी कि व्यक्ति के जन्म के समय उसके ऊपर देवी-देवताओं की महती कृपा रहती है, अत: उसका कर्त्तव्य है कि वह देवताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें । इससे मुक्ति तमी संभव थी जब मनुष्य यथाशक्ति यज्ञों का अनुष्ठान करें ।

(b) ऋषि ऋण- विधिपूर्वक वेदों का अध्ययन करने से ऋषि ऋण से मुक्ति मिल जाती थी ।

(c) पितृ ऋण- धर्मानुसार सन्तानोत्पन्न करके व्यक्ति पितृ-ऋण से मुक्ति पाता था ।

उपर्युक्त तीनों ऋणों से उऋण होना मनुष्य का परम कर्तव्य माना गया था । मनुस्मृति में स्पष्टतः कहा गया है कि जो व्यक्ति तीनों ऋणों से मुक्ति प्राप्त किये बिना मोक्ष की इच्छा रखता है वह नरक का अधिकारी होता है ।

पंच महायज्ञ:

गृहस्थाश्रम में रहते हुए मनुष्य को पाँच महायज्ञों का भी अनुष्ठान करना पड़ता था । ये यज्ञ लौकिक तथा पारलौकिक सुख एवं शान्ति के लिये आवश्यक माने गये थे ।

इनका विवरण निम्नलिखित है:

(I) ब्रह्म यज्ञ:

इसमें वेदों का अध्ययन किया जाता था । इस यज्ञ के माध्यम से व्यक्ति प्राचीन विद्वान् ऋषियों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता था ।

(II) पितृ यज्ञ:

यह मृत पितरों की शान्ति हेतु किया जाता था । इसमें पितरों को तर्पण, श्राद्ध आदि किया जाता था ।

(III) देव यज्ञ:

इसमें देवताओं का पूजन, बलि, घृत आदि से अग्नि में हवन आदि किया जाता था । ऐसी मान्यता थी कि व्यक्ति को भौतिक सुख देवताओं की अनुकम्पा से ही प्राप्त होते हैं । अत: यह आवश्यक था कि मनुष्य उनको पूजा द्वारा प्रसन्न रखे । ऐसा विश्वास था कि अग्नि में जो आहुति दी जाती थी उसे देवता स्वयं उपस्थित होकर ग्रहण करते थे ।

(IV) भूत यज्ञ:

इसमें समस्त प्राणियों को बलि प्रदान की जाती थी । बलि भाग को अग्नि में न डालकर सभी दिशाओं में रख दिया जाता था ताकि सभी प्राणी उसे ग्रहण कर सकें । इस यज्ञ के माध्यम से विनाशकारी भूत-प्रेतों को सन्तुष्ट करने का भी प्रयास किया जाता था ।

(V) मनुष्य यज्ञ:

इसे नृयज्ञ अथवा अतिथि यज्ञ भी कहा गया है । इसमें आगन्तुक अतिथियों का सेवा-सत्कार किया जाता था । अतिथि की यथाशक्ति सेवा करना तथा उसे भोजन प्रदान करना प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्तव्य माना गया है । विष्णु पुराण में आख्यात है कि- ‘यदि कोई गृहस्थ किसी अतिथि का सत्कार किये बिना लोटा देता है तो उसके समस्त पुण्य समाप्त हो जाते है ।’

अतिथि को देवता बताया गया है (अतिथि देवो भव) । अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि अतिथि न केवल गृहस्थ के यहाँ भोजन ग्रहण करता है, अपितु उसके पापों का भी भक्षण करता हैं । बौद्धायन के अनुसार अतिथि चाहे प्रिय हो या अप्रिय, उसका आदर-सत्कार करने वाला व्यक्ति स्वर्ग लोक का भागी होता है ।

इस प्रकार तीन ऋण तथा पाँच महायज्ञ गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति को लौकिक तथा पारलौकिक सुख प्रदान करने वाले थे । इनके माध्यम से व्यक्ति वैयक्तिक उन्नति तो करता ही था, साथ ही साथ वह समाज के प्रति अपने दायित्वों का भी धर्मपूर्वक निर्वाह करता था ।

गृहस्थाश्रम में धर्मसंगत आचरण करता हुआ मनुष्य अर्थ एवं काम की प्राप्ति एवं उपभोग करता था । मानव-जीवन के विविध उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये गृहस्थाश्रम ही कर्म-भूमि थी । यह साधना किसी अन्य आश्रम में संभव नहीं थी । इसी कारण प्राचीन धर्म ग्रन्थ गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं ।

किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राचीन शास्त्रकारों की दृष्टि में अन्य आश्रम गौण थे । वस्तुतः गृहस्थ आश्रम सामाजिक कर्तव्यों के पालन की दृष्टि से ही सर्वोत्तम माना गया है अन्यथा प्रत्येक आश्रम का हिंदू जीवनदर्शन में अपना महत्व था ।

ज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से ब्रह्मचर्य एवं व्यक्तिगत मोक्ष प्राप्ति की दृष्टि से सन्यास आश्रम का सर्वाधिक महत्व था । प्रभु का विचार है कि प्राचीन हिन्दू शास्त्रकार यह समझते थे कि सामान्य व्यक्ति के लिये यह संभव नहीं है कि वह क्रमानुसार चारों आश्रमों का पालन कर सकता ।

अत: उन्होंने यह उचित ही व्यवस्था दी कि केवल गृहस्थाश्रम में रहने वाला व्यक्ति भी, यदि तीनों ऋणों से उऋण होकर पुरुषार्थों का शास्त्रोक्त ढंग से पालन करें, तो मोक्ष प्राप्त कर सकता है । यही कारण है कि हिन्दू समाजशास्त्रियों ने गृहस्थाश्रम की अत्यधिक प्रशंसा की है ।

3. वानप्रस्थ आश्रम:

गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों को भली-भांति पूरा कर लेने के उपरान्त मनुष्य वानप्रस्थ में प्रवेश करता था । वह अपने कुल, गृह तथा ग्राम को छोड़कर वन में जाता तथा वहाँ निवास करते हुए अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित करता था । कुछ ग्रन्थों में वानप्रस्थ के लिये ‘वैखानस’ शब्द का प्रयोग मिलता है ।

मनुस्मृति में कहा गया है कि जब मनुष्य के सिर के बाल सफेद होने लगे, उसके शरीर पर झुर्रियाँ पड़ जायें तथा वह पौत्रों का मुंह देख ले तब उसे वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए । इसका उद्देश्य विद्या, तपस्या की वृद्धि एवं शरीर की शुद्धि बताया गया है (विद्या तपोविवृद्धयर्थशरीरस्यशुद्धये) ।

प्राचीन ग्रन्थों में वानप्रस्थी की दिनचर्या का विवरण प्राप्त होता है । तदनुसार उसे केवल कन्दमूल फल ही खाना होता था । मिठाई तथा मांस उसके लिये निषिद्ध थे । अत्यन्त भूखे होने पर भी वह गाँव में उत्पन्न कन्द फल को ग्रहण नहीं कर सकता था । वह मृगचर्म अथवा वृक्ष की छाल पहनता था, पेड़ के नीचे भूमि तल पर शयन करता तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था ।

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उसे समस्त भौतिक सुखों का त्याग करना पड़ता था । यहाँ पर उसे पंच महायज्ञों का अनुष्ठान करना होता था । उसका समय वेदों, उपनिषदों आदि के अध्ययन तथा तपस्या करने में व्यतीत होता था । इस प्रकार जीवन यापन करने से उसके शरीर की शुद्धि तथा आत्मा का उत्कर्ष होता था ।

वानप्रस्थ आश्रम में अध्ययन एवं ध्यान मुख्य साध्य थे । यहाँ व्यक्ति राग-द्वेष से रहित होकर सभी के प्रति मैत्री भाव रखता था । यद्यपि वह दान लेने का अधिकारी नहीं था तथापि उसका यह कर्तव्य था कि वह सभी के प्रति दानशील बना रहे ।

महाभारत में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य, क्षमा, शौच, वानप्रस्थी के सनातन धर्म होते हैं जिनका पालन करने पर वह स्वर्ग लोक की प्राप्ति करता है । इस प्रकार वानप्रस्थी की दिनचर्या अत्यन्त कठोर थी । वह कायाक्लेश का जीवन व्यतीत करता हुआ धीरे-धीरे अपने चित्त को सांसारिक मोह जाल से हटाता तथा अन्ततोगत्वा अपने को पूर्णतया निर्लिप्त कर लेता था । वानप्रस्थ आश्रम की आयु प्रायः पचास से पचहत्तर वर्ष की होती थी । शास्त्रोक्त विधि से इसके नियमों का पालन करते हुए यदि व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी तब भी वह मोक्ष को प्राप्त होता था ।

4. सन्यास आश्रम:

यदि मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम को सफलतापूर्वक पार कर लेता और जीवित बच जता था तो वह अन्तिम आश्रम सन्यास में प्रवेश करता था । कुल्लूक भट्ट तथा विज्ञानेश्वर जैसे टीकाकारों ने व्यवस्था दी है कि मनुष्य गृहस्थ आश्रम से सीधे सन्यास आश्रम में प्रवेश कर सकता है । कुछ विद्वान् इस आश्रम की उत्पत्ति पर अवैदिक विचारधारा का प्रभाव पाते हैं । प्राचीन ग्रन्थों में सन्यासी के लिये परिब्राजक, यति, भिक्षु आदि का प्रयोग मिलता है ।

सन्यास आश्रम का मूल लक्ष्य परम पद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता था । इस अवस्था में व्यक्ति पूर्णतया निर्लिप्त होकर अपना मन परमात्मा के चिन्तन में लगाता था । वह अपने पास कुछ भी नहीं रखता था तथा समस्त रागद्वेष, मोहमाया आदि से विरत होकर एकाकी भ्रमण करता था ।

अपने निर्वाह के लिये वह दिन में मात्र एक बार भिक्षा माँग सकता था । उसे अपनी इन्द्रियों पर कठोर नियंत्रण रखना पड़ता था । इसके लिये समभाव होना, किसी प्राणी से कभी द्वेष न करना तथा काम, क्रोध, लोभादि कुप्रवृत्तियों का पूर्णतया त्याग कर देना अनिवार्य था ।

महाभारत में विवृत है कि ‘सन्यासी को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, बह्मचर्य, संतोष, पवित्रता, अपरिग्रह, तप, स्वाध्याय, ईश्वरध्यान आदि में लीन रहना चाहिए ।’ उसके लिये निरन्तर भ्रमण करते रहने तथा एक स्थान पर स्थायी रूप से न टिकने का आदेश था ।

वह ग्राम में एक रात तथा नगर में पाँच रातों तक ही ठहर सकता था । मनुस्मृति में कहा गया है कि शारीरिक रूप से स्वस्थ्य होने पर भी सन्यासी को भ्रमणशील रहना चाहिए । यह विधान शायद इसलिये था कि एक स्थान पर स्थायी वास करने से व्यक्ति पुन: सांसारिक माया जाल में आबद्ध हो जावेगा ।

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इस प्रकार कठोर तपस्या एवं कायाक्लेश का जीवन व्यतीत करते हुए सन्यासी के समस्त पाप नष्ट हो जाते थे तथा वह परमपद को प्राप्त कर लेता था । प्राचीन भारतीय समाज में सन्यासियों का बड़ा ही सम्मान था । यूनानी तथा मुसलमान लेखक भी उनके ज्ञान एवं साधना-शक्ति की प्रशंसा करते हैं ।

कुछ भारतीय सन्यासियों थे अपनी ज्ञान-शक्ति से सिकन्दर को भी प्रभावित किया था । भारतीय समाज में सन्यासी प्रायः ब्राह्मण वर्ग के ही होते थे । महाभारत में ब्राह्मण को सन्यासी का पर्यायवाची माना गया है । सन्यास आश्रम की अवधि प्रायः पचहत्तर वर्ष से सौ वर्ष तक मानी गयी थी ।

चारों आश्रमों का विधान केवल ‘द्विज’ के लिये था जबकि ‘शूद्र’ के लिये केवल गृहस्थाश्रम बताया गया है । इस प्रकार आश्रम व्यवस्था का विधान प्राचीन हिन्दू शास्त्रविदों ने व्यक्ति तथा समाज दोनों के सर्वाड्गीण विकास के लिये किया था ।

व्यक्ति के भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग इन आश्रमों द्वारा प्रशस्त होता था जहाँ प्राप्त प्रशिक्षण के आधार पर व्यक्ति अपने जीवन में आचरण करता था । अत: यह उचित ही कहा गया है कि आश्रम मानव जीवन की पाठशालायें हैं ।

आश्रमों के ही माध्यम से व्यक्ति अपने सामाजिक कर्तव्यों के विषय में जानकारी प्राप्त करता था तथा व्यावहारिक जीवन में तदनुसार आचरण करता था । पुरुषार्थों का संतुलित एवं नियंत्रित उपभोग करते हुए वह समाज का उपयोगी सदस्य बन जाता था । हिन्दू जीवन पद्धति की यह अपनी व्यवस्था थी जो विश्व के किसी अन्य देशों के समाज में दुष्प्राप्य है ।

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