स्वतंत्रता के पचास वर्षों में जो हमने नहीं सीखा!

किसी समय अपने अनुशासन, मर्यादा एवं गरिमा के लिये भारतवासियों का विश्व की समस्त सभ्यताओं में एक विशिष्ट व महत्वपूर्ण स्थान था । लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब हमारी सारी गरिमायें, मानवीयता, श्रेष्ठतम मानव मूल्य और परम्परायें विदेशी आक्रमणकारियों के छल-कपट और धूर्तता के चलते धूल-धूसरित होती चली गई और विश्व की एक महान सभ्यता से पल्लवित एवं पुष्पित यह देश असभ्यता, बर्बरता और क्रूरता का रंगमंच बन कर रह गया । इसकी सभ्यता को जडमूल से नष्ट किये जाने का कोई प्रयास बाकी नहीं छोड़ा गया । सामूहिक नरसंहारों ने शवों के ढेर लगा दिये, पाश्विकता के जो दृश्य इस देश की धरती ने देखे वे शायद ही कहीं और दिखाई दिये हों, शिक्षा संस्कृति के विश्व प्रसिद्ध केन्द्रों को खण्डहरों में बदल दिया गया। मानवीय ज्ञान के विपुल कोषों को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया । बुद्धिजीवियों को बीन बीन कर अकल्पनीय यातनाएँ दे-देकर मौत के घाट उतारा गया और यह सब एक बार नहीं इस धरती पर शताब्दियों तक बार-बार दोहराया गया। किन्तु यह इस देश की जिजीविषा ही थी, जैसा कि महान उर्दू कवि इकबाल ने कहा कि-

“यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गये जहाँ से,

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’’

अन्तत: पराधीनता के बादल छंटने प्रारम्भ हुये और 15 अगस्त 1947 को इस देश ने प्रात: का सूर्य स्वाधीनता के साथ देखा।

आज भारत की स्वतंत्रता को पचास वर्ष से अधिक हो चुके हैं। इन वषों में देश में औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति के चलते जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे हैं, लेकिन यह भी एक सत्य है कि हर परिवर्तन के अच्छे एवं बुरे दोनों ही प्रकार के परिणाम हमें प्राप्त होते हैं। आज की स्थिति में भारत के साथ विडम्बना यही है कि हमारे कर्णधारों ने सकारात्मक परिणामों को तो खूब उछाला और प्रचारित किया, लेकिन उनके नकारात्मक पहलुओं के प्रति शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति का अनुसरण किया, स्वतंत्रता के इन पचास वर्षों में भारत की सामाजिक मर्यादायें चकनाचूर होती जा रही हैं। आज माता-पिता आदर व श्रद्धा के नहीं, बल्कि आलोचना एवं दुर्व्यवहार के पात्र बने हुये हैं। गुरु-शिष्य परम्परा आज अक्सर मारपीट और गाली-गलौज के गर्त में डूबी नजर आती है। पतन का सर्वाधिक कुत्सित रूप महिलाओं के साथ होने वाले पाश्विक अत्याचारों व बलात्कारों के रूप में सामने आ रहा है। स्वतन्त्रता पूर्व इस देश में आम आदमी किस महिला को किसी रूप में देखता था और आज आजादी मिलने पर महिलाओं को निर्वस्त्र कर सड़कों, गलियों और बाजारों में सरेआम घुमाया जा रहा है। इस स्वतंत्रता के लिये जिन शूर वीरों ने अपने प्राणों की आहुतियाँ दीं यदि उन्होंने आजादी के इस स्वरूप की कल्पना की होती तो क्या वे आजादी चाहते? क्या इससे प्रमाणित नहीं होता कि हमने स्वतंत्रता का अर्थ ही नहीं सीखा और न ही समझा है।

स्वतंत्रता हासिल करने पर जिन उच्च आदर्शों की स्थापना हमें इस देश व समाज में करनी चाहिए थी, हम आज ठीक उनकी विपरीत दिशा में जा रहे हैं और भ्रष्टाचार, दहेज, मानवीय घृणा, हिंसा, अश्लीलता और कामुकता जैसे कि हमारी राष्ट्रीय विशेषतायें बनती जा रही हैं । स्वतन्त्रता पूर्व जहाँ नेताओं ने साम्प्रदायिकता का समूल नाश करने की ठानी थी, वहीं आज साम्प्रदायिकता तो क्या स्वार्थी नेताओं ने सवर्ण दलित, हिन्दी अहिन्दी, उत्तर-दक्षिण और भी न जाने कितनी खाइयाँ देशवासियों के बीच में पैदा कर दी हैं ।

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इन पचास वर्षों पर यदि हम समाज की दृष्टि से नजर डालें तो हमें एक ही महत्वपूर्ण उपलब्धि नजर आती है और वह है समाज मे ग्रामों से नगरों की ओर पलायन की तथा एकल परिवारों की स्थापना की प्रवृत्ति, लेकिन इसके कारण संयुक्त परिवारों का जो विघटन प्रारम्भ हुआ उसके कारण सामाजिक मूल्यों को भीषण क्षति पहुँच रही है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संयुक्त परिवारों को तोड़ कर हम सामाजिक अनुशासन से निरन्तर उछूंखलता और उद्दंडता की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं। अपने समाज में व्याप्त बुराइयों एवं दुर्बलताओं का निराकरण करने के स्थान पर हमने जो मूल्य सदियों की पराधीनता के बावजूद बचे भी रह गये थे, उन्हें भी ध्वस्त करना सीख लिया है।

आज यह समझ पाना कठिन हो गया है कि इस देश की राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है अथवा यहाँ अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है। संसद और राज्यों की विधानसभाओं में नित्यप्रति उपस्थित होने वाले दृश्यों से न केवल आम आदमी हताश और हतप्रभ है बल्कि दुनिया के समक्ष अपमानित होने को भी विवश है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के स्वामी होने का तो हमें दम्भ है, लेकिन क्या यह विडम्बना नहीं है कि इन पचास वर्षों में हमने सामान्य लोकतन्त्रीय आचरण भी नहीं सीखा है। देश में सत्ता के शीर्ष पर बैठे भ्रष्टाचारियों के काले कारनामे, सार्वजनिक धन का शर्मनाक हद तक दुरुपयोग, सार्वजनिक भवनों व अन्य सम्पत्तियों को बपौती मानकर निर्लज्यता पूर्ण उपभोग, आखिर ये सब किस प्रकार का आदर्श हमारे समक्ष उपस्थित कर रहे हैं। सत्ता केन्द्रों पर आसीन व्यक्तियों की भ्रष्टता और निर्लज्यता तक ही बात सीमित होती तो भी गनीमत थी, लेकिन एक व्यक्ति के सत्ता प्राप्त करते ही उसके परिवारजनों से लेकर दूर-दूर तक के रिश्तेदार संबंधी भी अपने को ” सैयाँ भये कोतवाल ” की स्थिति में मानने लगते हैं। यही कारण है कि आज निरंकुशता और भ्रष्टाचार को भारत का राष्ट्रीय चरित्र कहना असंगत नहीं लगता है। आज राष्ट्रीय चरित्र के नाम पर इसके अतिरिक्त कुछ शेष बचा ही नहीं है। ” यथा राजा तथा प्रजा ” के अनुरूप आज किसी को राष्ट्र अथवा समाज की कोई चिन्ता नहीं है । जो जहाँ जिस स्थिति में है वहीं लूट-खसोट में अपनी क्षमता एवं सामर्थ्य के अनुसार लगा हुआ है । आदर्शों के मुखौटे लगा कर हर व्यक्ति मनमानी पर उतारू है । वास्तविकता तो यह है कि आज ईमानदार व्यक्ति सिर्फ वही है जिसे बेईमानी करने का अवसर ही नहीं मिला हो । विगत पचास वर्षो की स्वतन्त्रता में हमने मनसा वाचा कर्मणा, कैसी भी ईमानदारी नहीं सीखी है।

बच्चे किसी भी देश के भावी नागरिक होते हैं। आज इस देश के बच्चों की क्या स्थिति है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। सभी को यह बात अच्छी तरह ज्ञात है कि भारत में वर्तमान शिक्षा प्रणाली लार्ड मैकाले द्वारा भारत की आने वाली पीढ़ियों को गुमराह करने और गुलाम बनाये रखने के लिये लागू की गई थी । आजादी के पचास वर्षो के बाद भी उसी शिक्षा के प्रति भारत सरकार की प्रतिबद्धता को देखते हुए सन्देह होने लगता है कि यह वास्तव में एक स्वतन्त्र देश की ही सरकार है, या ब्रिटेन की छाया सरकार । आज भारत में एक प्रतिशत लोग भी अंग्रेजी का प्रयोग नहीं करते हैं लेकिन सर्वत्र भारतीय भाषाओं का तिरस्कार करके अंग्रेजी का थोपा जाना इस सन्देह को और बढ़ा देता है कि आज भी भारत के शासन में ब्रिटिश सरकार का कितना हस्तक्षेप और प्रभाव रहता है। पूरे देश में बच्चों के बस्ते के बढ़ते बोझ पर चिन्ता व्यक्त की जा रही है, किन्तु इस सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती । यह धूर्त मैकाले की शिक्षा प्रणाली का ही दुष्परिणाम है कि प्रति वर्ष देश में करोड़ों बेरोजगार उत्पन्न हो रहे है, लेकिन शिक्षा प्रणाली को अंग्रेजी नीति के परे रखना कर्णधारों को स्वीकार ही नहीं है। इससे भी आगे बढ्‌कर देखें तो कूड़े के ढेर में कुछ ढूंढते हुए बच्चे हमारे तंत्र की चरम विफलता के प्रमाण के रूप में मिलते हैं, जिनके लिये न शिक्षा उपलब्ध है, न भोजन और न वस्त्र, यहाँ तक कि कोई बालकोचित काम भी हम उन्हें नहीं दे पाते हैं। दूसरी तरफ अंग्रेजी स्कूलों के नाम पर फाईव स्टार होटलों की भांति सुविधायुक्त स्कूलों की लाइनें लगाई जा रही हैं । स्वतंत्रता के इन पचास वर्षों में हम अपनी भाषा भी तो नहीं सीख सके हैं ।

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जब हमने 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की तो लालकिले और दिल्ली को वह दृश्य देखे हुए सौ साल भी नहीं बीते थे जब एक 80 वर्षीय वृद्ध मुसलमान बादशाह के पीछे करोड़ों हिन्दुस्तानी कट मरने के लिये आ जुटे थे, जिनमें कोई परस्पर भेदभाव या वैमनस्य शेष नहीं था। उनके लिये देश की स्वतन्त्रता ही साध्य थी और बहादुरशाह जफर का नेतृत्व उसका साधन। बेगम जीनत महल और अजीमुल्ला खाँ भी न तो केवल मुसलमानों की आजादी के लिये लड़ रहे थे और न ही केवल मुसलमानों के साथ। लक्ष्मीबाई अगर दुश्मनों पर कहर बरपा करने के लिये गौस बखा पर निर्भर थीं तो उनका यह शूरवीर तोपची हिन्दुस्तान के लिये रानी के एक इशारे पर मर मिटने को उतारु था। लगभग एक शताब्दी बाद भी कर्नल शहनवाज खाँ के लिये नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम क्या अहमियत रखता था और नेताजी के लिये शहनबाज खाँ का महत्व कितना था, हम सभी को मालूम है। अशफाकउल्ला ने वीरगति का वरण मुसलमानों के लिये ही नहीं किया था न चन्द्रशेखर और भगतसिंह केवल हिन्दुओं की स्वतन्त्रता के लिये शहीद हुये थे। फिर इतनी साम्प्रदायिकता कब और किन लोगों ने पैदा की कि देश का बंटवारा अनिवार्य बन गया, आज हमें शेष बचे हुए भारत की ” एकता ” के लिये भी बार-बार याद दिलाने की जरूरत पड़ रही है। आजादी के ये पूरे पचास साल हमने देश की जनता को एकता अखंडता की घुट्‌टी पिलाते हुए निकाल दिये, लेकिन फिर भी हम इतनी-सी बात सीख नहीं सके हैं।

आज स्वतन्त्रता प्राप्ति के पचासवें वर्ष के हजारों उत्सव और आयोजन किये जा रहे हैं स्वतंत्रता की स्वर्ण जयन्ती की चारों तरफ धूम है, लेकिन हमें केवल ऐसी चकाचौंध और शोर-शराबे में ही नहीं गुम हो जाना चाहिये, बल्कि अपनी इस अमूल्य स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये पूरी तरह सजग और सतर्क बनने की भी चेष्टा करनी चाहिये । हमने इन पचास वर्षों में और इससे पूर्व में जो गलतियाँ की हैं, उनसे सबक लेनी चाहिये । शान्त और स्थिर मन व मस्तिष्क से भविष्य की योजनाये एवं रणनीतियाँ समूचे विश्व के परिप्रेक्ष्य में तैयार करनी होंगी । क्योंकि अपने आप में मस्त रहने और आवश्यकता से अधिक रक्षात्मक रहने के कारण ही हमें पराधीनता की भीषण यातनाएं सहनी पड़ी हैं । इसलिये हमें अपने अवगुणों को त्याग कर राष्ट्र व समाज को सुदृढ़ एवं सुखमय बनाने की दिशा में अग्रसर होना चाहिए । एक बार पुन: प्रमुख यंही उभर कर सामने आता है कि हमें अतीत की गलतियों से सबक सीखना होगा जो अब तक हम नहीं सीख सके है ।

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