बंकिमचंद्र चटर्जी पर निबंध | Essay on Bankim Chandra Chatterjee in Hindi

1. प्रस्तावना:

बंकिमचन्द्र चटर्जी का हमारे देश के उन महान् साहित्यकारों में सर्वश्रेष्ठ स्थान है, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समूचे भारतवर्ष में स्वतन्त्रता एवं जागृति का ऐसा मन्त्र फूंका कि सारे भारतवासी वन्देमातरम् के जयघोष के साथ सर्वस्व बलिदान करने हेतु तैयार हो उठे ।

2. प्रारम्भिक जीवन:

स्वतन्त्रता क्रान्ति के अग्रदूत, वन्देमातरम् गीत के प्रणेता बंकिमचन्द्र का जन्म सन् 1838 को कोलकत्ता के निकट कांटालपाडा ग्राम में एक उच्च ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता श्री यादवचन्द्र चट्टोपाध्याय बंगाल के मेदिनापुर जिले के डिप्टी कलेक्टर थे ।

अत: बंकिम की प्रारम्भिक शिक्षा वहीं पर हुई । बचपन से ही उनकी रुचि संस्कृत के प्रति थी । अंग्रेजी के प्रति उनकी रुचि तब समाप्त हो गयी, जब उनके अंग्रेजी अध्यापक ने उन्हें बुरी तरह से डांटा था । पढ़ाई से अधिक खेलकूद में उनकी विशेष रुचि थी । वे एक मेधावी व मेहनती छात्र थे । 1858 में कॉलेज की परीक्षा पूर्ण कर ली । बी०ए० की परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए । पिता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने 1858 में ही डिप्टी मजिस्ट्रेट का पदभार संभाला ।

सरकारी नौकरी में रहते हुए उन्होंने 1857 का गदर देखा था, जिसमें शासन प्रणाली में आकस्मिक परिवर्तन हुआ । शासन भार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों में न रहकर महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया था । सरकारी नौकरी में होने के कारण वे किसी सार्वजनिक आन्दोलन में प्रत्यक्ष भाग नहीं ले सकते थे । अत: उन्होंने साहित्य के माध्यम से स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए जागृति का संकल्प लिया ।

3. महान् साहित्यकार बंकिमचन्द्र:

उस समय बंगला भाषा को प्राण प्रतिष्ठा दिलाने वाले बंकिम ही थे । बंकिम ने मासिक पत्रिका बंगदर्शन का सम्पादन किया । रवीन्द्रनाथ की एचनाएं इसी पत्रिका में प्रकाशित होती थीं । रवीन्द्र बाबू को महान् साहित्यकार बनाने का श्रेय उन्हें भी है । साहित्य प्रचार, देश सेवा नवलेखकों को प्रोत्साहन देने के विचार से उन्होंने बंगदर्शन का प्रकाशन जारी रखा ।

उनका पहला उपन्यास दुर्गेश नन्दिनी प्रकाशित हुआ । संस्कृत भाषा में प्रकाशित इस उपन्यास में अकबरयुगीन सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण है । उनका दूसरा उपन्यास कपाल कुण्डला एक काल्पनिक उपन्यास है, जिसमें कापालिकों के आचार-व्यवहार का चित्रण है ।

उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है-आनन्दमठ, जो तत्कालीन समय में देशभक्तों के गले का कण्ठहार था । इसमें देशभक्ति का ऐसा आदर्श था, जिससे प्रेरित होकर लाखों-करोड़ों नवयुवक देशभक्ति की राह पर निकल पड़े । इस उपन्यास की आड़ में भारतीय स्वतन्त्रता के युद्ध का शंखनाद भी किया गया ।

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आनन्दमठ के संन्यासी पात्र के माध्यम से वन्देमातरम् का जयघोष किया गया । वन्देमातरम् शीर्षक से लिखे इस गीत ने न केवल राष्ट्रीय गीत का गौरव हासिल किया, अपितु भारतवासियों के आजादी का पर्याय बन गया । अंग्रेजों के कब्जे से बचाने के लिए बंकिमचन्द्र ने इसकी कथा को प्रतीकात्मक रूप में चित्रित किया । इसके पश्चात मृणालिनी, विषवृक्ष, चन्द्रशेखर, इन्दिरा, राजसिंह आदि कई उपन्यास उन्होंने लिखे ।

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बंकिमचन्द्र की रचनाओं में जितने भी पात्र आये हैं, चाहे वे स्त्री हो या फिर पुरुष, उनका चरित्र उच्च, पवित्र और अनुकरणीय दिखलाया गया है । बंगाल की स्त्रियों को वीरता के भाव से ओतप्रोत बताकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान देने हेतु संकल्पित करने का कार्य सर्वप्रथम बंकिम ने ही किया । अपनी एक महत्त्वपूर्ण रचना कृष्णचरित्र में उन्होंने धर्म तत्त्व का उच्चतम आदर्श कृष्ण के माध्यम से प्रस्तुत किया ।

4. देशभक्त बंकिमचन्द्र:

बंकिमचन्द्र एक महान् साहित्यकार ही नहीं, वरन् एक देशभक्त भी थे । देशभक्ति एवं मातृभूमि के प्रति उनकी सेवा भावना ने ही उनके साहित्यकार व्यक्तित्व को पूर्णता दी । आनन्दमठ के माध्यम से देश के कोने-कोने में देशभक्ति व वन्देमातरम् का जयघोष करने वाले बंकिम एक महान देशभक्त थे । उनकी देशभक्ति एवं स्वाभिमान का उदाहरण कर्नल डफिन पर काले भारतीय का अपमान करने के एवज में दावा ठोकना था । उस अधिकारी को उन्होंने माफी मांगने पर मजबूर कर दिया था ।

सरकारी नौकरी पर रहते हुए बंकिम ने बड़खोली गांव पर धावा बोलने वाले अंग्रेज लुटेरों का दमन किया । उनमें से 25 को काला पानी, एक को फांसी की सजा तक सुनायी । इसके एवज में मिलने वाली जान से मारने की धमकी से वे जरा भी भयभीत नहीं हुए । अपनी योग्यता और सूझबूझ से वे हमेशा अंग्रेजों का विरोध करते हुए देशभक्ति के लिए समर्पित रहे ।

5. उपसंहार:

निश्चित रूप से यह कहना होगा कि बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने वन्देमातरम् के माध्यम से राष्ट्रीयता के जो जागृति भरे संस्कार गुलाम भारतीयों को दिये, उनके लिए भारतवासी उनके सदा ऋणी रहेंगे । ऐसे साहित्यसेवी, देशसेवी, सच्चे भारतीय का देहावसान सन् 1894 को बहुमूत्र की बीमारी से हुआ ।

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