पशु उत्पीड़न की समस्या पर निबंध | Essay on The Problem of Animal Abuse in Hindi!

भारत के महान् नेता एवं स्वतंत्रता सेनानी पंडित जवहाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानी’ में हमारे यहाँ के घरेलू पशुओं के बारे में एक सटीक टिप्पणी की है ।

भारत के गाँवों में घूमते हुए उन्होंने गाय, बैल, भैंस आदि पशुओं को अत्यंत दयनीय दशा में देखा । उन्होंने कहा ”एक ऐसे देश में जहाँ जीवमात्र के प्रति दया और परोपकार की बातें बढ़-चढ़कर कही जाती हैं वहाँ घरेलू पशुओं के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता । उन्हें अत्यंत गंदे स्थानों में रखा जाता है तथा उनके खाने-पीने की व्यवस्था भी ठीक नहीं है ।”

सचमुच हमारे वचनों, हमारे विचारों का संबंध हमारे कर्मों से नहीं है । गाय को माता कह भर देने से ही गौ जाति की उन्नति नहीं हो जाती और शायद इसीलिए बूढ़ी गाएँ कसाईखानों तक पहुँच जाती हैं । रेलू पशुओं की सेवाओं का आकलन करें तो ये मानव के लिए नितांत अखाद्‌य जैसे – घास, भूसा, चोकर, पुआल, गेहूँ की डंठल, पेड़ों की पत्तियाँ, फलों के छिलके आदि खाकर भी हमारी विभिन्न प्रकार से सेवा करते हैं ।

गाय और भैंस अमृत तुल्य दूध देकर हमारे शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाते हैं । बैल व भैंस कृषि की रीढ़ माने जाते हैं, ट्रैक्टरों के निर्माण से पहले तक खेतों की जुताई तथा वस्तुओं की ढुलाई का पूरा दारोमदार इन्हीं पर था ।

रेगिस्तानों में ऊँट का विकल्प आज तक नहीं ढूँढ़ा जा सका है । घोड़े इक्कों में आज भी जुतते हैं, धोबियों के लिए गदहों की उपयोगिता सदियों से बनी हुई है । गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि पशुओं का गोबर इतना अच्छा प्राकृतिक खाद है कि इसकी तुलना किसी भी अन्य खाद से नहीं की जा सकती ।

हिंदुओं की पूजा में भी गोबर का प्रयोग होता है, ग्रामीण अपने आँगन की लिपाई गोबर से ही किया करते हैं । भेड़ ऊन के एकमात्र अच्छे स्त्रोत हैं । हमारे देश का संपूर्ण चमड़ा उद्‌योग इन पशुओं के बलबूते ही चलता है । मांस और अंडों की संपूर्ण उपलब्धता घरेलू पशु-पक्षियों पर निर्भर करती है ।

पशु-उत्पीड़न कोई नई समस्या नहीं है । सदियों मे पशुओं के साथ बुरा व्यवहार होता आया है । इतिहास की पुस्तकों से पता चलता है कि मानव का पहला साथी कुत्ता बना क्योंकि इसकी स्वामिभक्ति पर आज तक किसी प्रकार का संदेह नहीं व्यक्त किया गया है । जैसे-जैसे मानव घर बसाकर रहने लगा, उसे खेती करने की आवश्यकता हुई वैसे-वैसे पशुओं का महत्व भी बढ़ता गया ।

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आर्य संस्कृति में गौ-जाति का बड़ा महत्व था, जिसके पास जितनी अधिक गाएँ होती थीं वह उतना ही प्रतिष्ठित और संपन्न माना जाता था । ऋषि-मुनि भी गौ पालते थे, वनों में घास की उपलब्धता प्रचुर थी । समय के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताओं का विस्तार हुआ, तब उन्होंने गाय, भैंस, बैल, बकरी, ऊँट, घोड़ा, गदहा, कुत्ता आदि पशुओं को पालना आरंभ किया ।

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युद्‌ध के मैदानों में घोड़ों और हाथियों की उपयोगिता अधिक थी, अत: राजे-महाराजे इन पशुओं को बड़ी संख्या में पालते थे । मशीनीकृत वाहनों के आविष्कार के पहले घोड़ा सबसे तेज गति का संदेशवाहक था । चाहे वस्तुओं की दुलाई हो अथवा मनुष्यों की हमारे घरेलू पशु इसके एकमात्र साधन थे । ग्रामीण भारत में बैलगाड़ियों की उपयोगिता आज भी बरकरार है ।

इतनी सारी उपयोगिताओं के बावजूद पशुओं का उत्पीड़न मानवीय बुद्‌धिमत्ता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । घरेलू पशुओं को मल-मूत्र से संयुक्त कीचड़ में बैठने तथा खड़े होने के लिए विवश कर दिया जाता है । गाड़ियों में हाँके जाने वाले पशुओं को प्राय: इतनी निर्दयता से पीटा जाता है मानो वे निष्प्राण वस्तुएँ हों ।

पशुओं से काम तो भरपूर लिया जाता है लेकिन भोजन के नाम पर उनके समक्ष थोड़ी सी सूखी घास डाल दी जाती है । विपरीत मौसम में भी उन्हें खुले में रखा जाता है । बीमार पशु-पक्षियों के मामले में तो हमारी उपेक्षा और दयाहीनता पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है । गौ सेवा के व्रती अपना व्रत तोड़कर पशुओं को विभिन्न प्रकार से कष्ट पहुँचाते हैं ।

दो दशक पूर्व तक हमारे देश में दुग्ध उत्पादन की मात्रा प्रति व्यक्ति के हिसाब से बहुत कम थी क्योंकि हमारे पशु दुर्बल थे, इनकी नस्लें कमजोर थीं । विज्ञान के प्रभाव से पशुओं की नस्लें सुधारी गईं तब दूध का उत्पादन किसी सीमा तक बढ़ सका जिसे श्वेत क्रांति का नाम दिया गया ।

पहले की तुलना में आज दुधारू व अन्य घरेलू पशुओं का लालन-पालन कहीं अच्छे ढंग से होता है । बीमार पशुओं का इलाज आधुनिक वैज्ञानिक पद्‌धति से हो रहा है । यही कारण है कि दूध, दही, मक्खन, घी, मांस, अंडा आदि खाद्‌य वस्तुओं का उत्पादन कई गुणा बढ़ा है । परंतु घरेलू-पशुओं के उत्पीड़न की समस्या कई रूपों में आज भी बनी हुई है ।

यदि हम वन्य प्राणियों की चर्चा करें तो यहाँ भी मानवीय नासमझी और दयाहीनता के प्रमाण मिल जाते हैं । वनों का क्षेत्र सीमित रह जाने तथा वन्य प्राणियों के अंधाधुंध शिकार के कारण उनकी कई प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं । स्थिति की गंभीरता को देखते हुए वन्य पशुओं के शिकार को प्रतिबंधित किया गया तथा लुप्तप्राय जंतुओं के संरक्षण के लिए कई अभयारण्य बनाए गए ।

जनसंख्या में वृद्‌धि के परिणामस्वरूप खेती योग्य भूमि की अधिक आवश्यकता हुई तो वनों को साफ कर दिया गया । नतीजे में वन्य पशुओं के प्राकृतिक आवास नष्ट होते चले गए । प्रकृति के ये सुंदर जीव हमारे पर्यावरण के अहम् हिस्से हैं लेकिन मानव की क्रूरता एवं अदूरदर्शिता के कारण वन्य प्राणियों तथा जल पक्षियों के लिए जीना तक दुश्वार हो गया है ।

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मदारी भालुओं और बंदरों को पकड़कर उन्हें हर समय नचाते रहते हैं, उन्हें कुछ आदतें सिखाने के लिए कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है । वन्य पशुओं को सरकसों व चिड़ियाखानों में उनके प्राकृतिक आवास से दूर बुरी दशा में रखा जाता है । सँपेरे साँपों को कैदकर उन्हें यातनापूर्ण जीवन जीने के लिए विवश कर देते हैं । हालाँकि ऐसे सभी कार्य कानून की दृष्टि में पूर्णतया प्रतिबंधित हैं मगर व्यवहार में इस तरह का पशु उत्पीड़न अभी भी हो रहा है ।

पशु-पक्षियों के उत्पीड़न के कई पहलू हैं । जब हम अपने पिंजड़ेखाने में एक तोते को बंद रखते हैं तब यह एक अमानवीय कृत्य है । एक पक्षी की स्वच्छंद भावना इन पंक्तियों में व्यक्त हुई है:

हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजर बद् ना गा पाएँगे कनक तीलियों से टकराकर, पुलकित पंख टूट जाएँगे कहीं भली है कटुक निबोरी, कनक कटोरी की मैदा से

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हमारी तरह पशु-पक्षियों को भी अपनी स्वतंत्रता प्यारी होती है । पशु-पक्षी पृथ्वी की आहार-श्रुंखला को बनाए रखकर जहाँ मिट्‌टी को उर्वर बनाते हैं वहीं हमारा पर्यावरण भी संतुलित रहता है । अत: पशुओं का उत्पीड़न हर प्रकार से वर्जित होना चाहिए ।

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