कहां हैं संविधान के मूल्य पर निबंध | Essay on Moral Value of Constitution in Hindi!

भारत को आजाद हुए छह दशक से ऊपर हो गये हैं और अपने को गणतंत्र घोषित किये साठ वर्ष । इस संदर्भ में यह देखना उचित होगा कि हम जिन लक्ष्यों को लेकर चले थे उन्हें प्राप्त करने में कहां तक सफल हुए हैं ।

भारतीय संविधान के प्रारंभ में ‘प्रीएम्बुल’ या उद्देशिका दी गयी है जिसमें स्पष्ट तौर पर लक्ष्यों का उल्लेख है । कहा गया है कि भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया जायेगा ।

साथ ही सब नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, चिंतन, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा-अर्चना की आजादी, हैसियत और अवसर की समानता तथा व्यक्ति की प्रतिष्ठा और देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने के लिए भाईचारे की गारंटी की जायेगी ।

उद्देशिका के अनुरूप हमारे यहां एकल नागरिकता की व्यवस्था है यानी धर्म, लिंग जाति, भाषा, रंग और निवास स्थान के आधार पर भेदभाव वर्जित है । वर्ष 1976 में बयालीसवें संशोधन के जरिए समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को परस्पर जोड़ कर देश में समतामूलक समाज बनाने का लक्ष्य रखा गया, जिससे शोषण और उत्पीड़न समाप्त हो ।

लोगों को अपनी इच्छा के अनुसार धर्म मानने या न मानने और अपने धार्मिक विचारों के प्रचार की छूट दी गयी । यह स्पष्ट कर दिया गया कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा । राजकीय संस्थानों में किसी धर्म विशेष को न तरजीह दी जायेगी और न ही उसके परिसर में मंदिर, चर्च आदि का निर्माण होगा । राज्य द्वारा पूरी तरह या अशत: वित्तपोषित शिक्षण संस्थानों में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी ।

राज्य विरासत में मिली क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने का प्रयास करेगा जिससे देश की क्षेत्रीय अखंडता मजबूत बने और अलगाव की भावना न पनपे । साथ ही समाज में व्याप्त हर प्रकार की विषमता मिटाने के प्रयास होंगे । दलितों, जनजातियों, स्त्रियों आदि को सशक्त बनाने के लिए विशेष प्रावधान किये जायेंगे जिनमें छात्रवृतियां, नौकरियों में कोटा और लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण शामिल होंगे ।

अगर हम उपर्युक्त लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में हुई प्रगति का जायजा लेने से पहले कुछ बातों की ओर ध्यान दें तो अच्छा रहेगा । आर्थिक विकास का मुख्य आधार आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी है, हालांकि वह पर्याप्त नहीं है । उसके फलीभूत होने के लिए धर्मनिरपेक्षता, बुद्धिवाद और समाजवाद आवश्यक है । धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि समाज अपना ध्यान परलोक और अलौकिक विषयों को छोड़ इहलोक पर केंद्रित करे ।

अत: राज्य और समाज के कार्य व्यापार में धर्म की कोई भूमिका न हो । धर्म व्यक्ति के निजी जीवन तक सीमित रहे । जहा कहीं भी आधुनिक आर्थिक विकास की प्रक्रिया आगे बड़ी है वहां धर्म की सार्वजनिक जीवन में भूमिका कमजोर हुई है । अंधविश्वास घटा है और लोगों ने लौकिक परिघटनाओं को तर्क और बुद्धि के जरिए समझने की कोशिश की है ।

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तार्किकता के आधार पर ही उत्पादन के साधनों, प्रक्रियाओं और संगठन को यथासंभव कुशल बना कर वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन अधिकतम करने की कोशिश की जाती है । यूरोप में रेनेसां और रिफॉर्मेशन के जमाने से अंधविश्वास और जादू-टोने के खिलाफ संघर्ष छिड़ा । गैलीलियो, न्यूटन आदि वैज्ञानिकों और वालेयर, रूसो, हल, लीक आदि दार्शनिकों और आगे चल कर चार्ल्स डारविन ने बुद्धिवादी विचारों को काफी बढ़ावा दिया ।

इसके परिणामस्वरूप धर्म और चर्च का दबदबा घटा । लोगों में प्रकृति के रहस्यों और नियमों को जानने और समझने में दिलचस्पी पैदा हुई । पश्चिमी यूरोप में वैज्ञानिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए इतनी भूख जागी कि उन्हें पाने के लिए राष्ट्रीय सीमाओं को लाघा गया ।

हमारे यहां ऐसी प्रवृत्ति देखने में नहीं आई । हमारे पुरातनपंथी पश्चिमी यूरोप को बर्बरों का इलाका मानते रहे । समुद्र पार करना निषिद्ध कर दिया गया । राजा राममोहन राय जैसे चद लोगों ने ही पोंगापंथ से परे जाकर आधुनिकीकरण की दिशा में कुछ करने की कोशिश की ।

वाल्तेयर ने अपनी पुस्तक ‘लेटर्स ऑन इंग्लैंड’ में अठारहवीं सदी के तीसरे दशक में इंग्लैंड में हो रहे परिवर्तनों का सजीव चित्रण किया है । वहा लोगों के जीवन मूल्यों और दृष्टिकोण में इतना भारी परिवर्तन हो गया था कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जुड़े लोगों को राजनेताओं और शाही परिवार के व्यक्तियों से अधिक सम्मान दिया जाने लगा था ।

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आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए उसमें आम आदमी की दिलचस्पी आवश्यक है पर यह तभी होगा जब आर्थिक विकास के प्रतिफल का न्यायोचित वितरण हो । इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि आदमी-आदमी में जन्मजात कोई असमानता नहीं होती । इसी समतावादी दृष्टिकोण को समाजवाद ने विकसित किया और वैज्ञानिक आधार प्रदान किया ।

हम अपने संविधान की उद्देशिका को उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में आसानी से समझ सकते हैं । खेद की बात है कि पिछले लगभग छह दशकों के दौरान हम उससे भटकते गये हैं । उदाहरण के लिए, धर्मनिरपेक्षता को ले । सोलह अगस्त, 2003 को बीबीसी टेलीविजन पर एक कार्यक्रम प्रसारित हुआ जिसका शीर्षक था ‘हिंदू नेशन’ । इस कार्यक्रम में कुछ प्रमुख भारतीयों ने रेखांकित किया कि धर्मनिरपेक्षता भारत की आर्थिक प्रगति और राजनीति में कारगर भूमिका नहीं निभा रही, क्योंकि वह आम जन की भावनाओं के अनुरूप नहीं है ।

ऐसा मानने वालों में मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी थे । दिग्विजय सिंह के अनुसार कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता को अपना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुकाबला करने में असमर्थ है, क्योंकि वह आम लोगों की धार्मिक भावनाओं से कटी हुई है । आडवाणी के अनुसार धर्मनिरपेक्षता ने हिंदुओं को अपने धर्म पर गर्व करने से वंचित कर दिया है । ये दोनों नेता, जो परस्पर विरोधी दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इस बात पर एकमत है कि धर्मनिरपेक्षता के आवरण में हिंदू धर्म को ही राज्य की नीति और नजरिए का आधार बनाया जाये ।

अब समाजवाद को लें । पिछले लगभग दो दशक से न राजकीय नीतियों में और न ही कांग्रेस के प्रस्तावों और उसके नेताओं के भाषण में यह शब्द दिख रहा है । यह लगभग मान लिया गया है कि सोवियत संघ के विघटन के साथ ही समाजवाद की प्रासंगिकता समाज हो गयी है । आज कहीं, कोई बुद्धिजीवी द्वारा यह कहते नहीं सुना जाता कि समाजवाद की परिकल्पना सदियों पुरानी है । समता मूलक समाज की चाह हमारे भक्तिकाल के कवियों में दिखती है । वह तुलसीदास की रामराज्य की कल्पना में भी है ।

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अंधविश्वास और धर्मांधता पर भक्तिकाल में काफी प्रहार हुए । बौद्ध धर्म ने जाति व्यवस्था और कर्मकांड को ठुकरा दिया । सिख धर्म और आर्य समाज ने भी उन पर करारा हमला किया । इन सबके बावजूद अंधविश्वास और धर्माधता में लगातार वृद्धि हो रही हैं एवं कर्मकांड को बढावा दिया जा रहा है । भाजपाई राज्य सरकारों ने उन्हें प्रोत्साहित किया है । मुरली मनोहर जोशी ने मानव संसाधन विकास मंत्री की हैसियत से ज्योतिष और तंत्र विद्या को पाठ्‌यक्रमों में घुसाने की कोशिश की ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी संस्थाओं और उससे प्रभावित राज्य सरकारों ने अल्पसंख्यक धर्मावलंबियों के प्रति घृणा और भेदभाव फैलाया है । धर्मातरण रोकने के नाम पर कानून बना कर उन पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाने की कोशिशें जारी हैं । उधर भूमि सुधार को ठीक से लागू न करने, करारोपण संबंधी कानूनों को उच्च आय वर्गो और संपत्तिवान लोगों के पक्ष में मोड़ने और निम्न आय वर्गों को मिलने वाली सब्सिडी में लगातार कटौती और सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को कमजोर बनाने से समाज में आर्थिक विषमताएं बढ़ी हैं ।

‘वाशिंगटन आम राय’ पर आधारित भूमंडलीकरण से राज्य की आर्थिक भूमिका घटती जा रही है । राजकीय क्षेत्र सिकुड़ रहा है । अनेक राजकीय उपक्रमों का निजीकरण हो गया है । हमारे यहां हर वैचारिक रंग की सरकार निजीकरण के प्रति समर्पित है । इस कारण नौकरियों से जुड़ी आरक्षण नीति निरर्थक साबित हो रही है । क्षेत्रीय विषमताएं बढ़ रही हैं । अधिकतर नये निवेश अपेक्षाकृत विकसित राज्यों में जा रहे हैं । बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड आदि राज्यों में पुरानी औद्योगिक इकाइयां बंद हो रही हैं और कोई नया निवेश नहीं आ रहा ।

देशी-विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए निवेशकों की शर्ते माननी पड़ रही है जिसका नतीजा सिंगुर और नंदीग्राम जैसा होगा । आयात के रास्ते से सभी बाधाओं को हटाने के कारण अनेक लघु उद्योग समाप्त हो गये हैं । अलीगढ़ का ताला उद्योग और बनारसी साड़ी उद्योग कुछ दशकों के बाद केवल इतिहास में रह जायेंगे । गांवों से दस्तकार विदा हो चुके हैं और जो बचे हैं वे जल्द ही जाने वाले हैं ।

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परिणाम है गांवों से शहरों की ओर पलायन । हिंदी भाषी राज्यों से लोग अपेक्षाकृत राज्यों में जा रहे हैं । पिछले कुछ वर्षों के दौरान मुंबई, पजाब और असम (असोम) में हिंदी भाषी लोगों पर जो हमले हुए हैं उनसे स्पष्ट है कि समान नागरिकता का लक्ष्य बेमानी होता जा रहा है ।

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आने वाले समय में क्षेत्रीय आर्थिक विषमता बढ़ेगी, क्योंकि अधिकतर निवेश समृद्ध और विकसित राज्यों में जायेगा जिससे रोजी-रोटी की खोज में पिछड़े राज्यों से लोग भारी सख्या में अन्य राज्यों में जायेंगे, नतीजतन तनाव और टकराव बढ़ेंगे ।

संसदीय लोकतंत्र खतरों से घिरता जा रहा है । हमारे कर्णधार सीधे चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने से डरते हैं । वे अप्रत्यक्ष चुनाव के जरिए विधान परिषद् और राज्यसभा में आकर सत्ता पर काबिज होते हैं । कानूनी तौर पर भले ही यह सही हो, मगर लोकतंत्र की भावना के विपरीत है । चुनाव में हारे हुए लोग पिछले दरवाजों से संसद में आते और मंत्री बनते हैं । यह लोकतंत्र को धता बताना है । आपराधिक तत्व अब धड़ल्ले से संसद और विधानमंडल में घुसते जा रहे हैं ।

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अनेक सासद और विधायक रिश्वतखोरी, तस्करी और हत्या के मामलों की गिरफ्त में है । इस तरह भारत को लोकतंत्र बनाने का सपना बिखरता जा रहा है । गांवों से शहरों की ओर पलायन से मलिन बस्तियों का तेजी से विस्तार हो रहा है । माफिया इन बस्तियों को अपने अड्‌डों के रूप में इस्तेमाल कर रहा है । ग्रेगरी डेविड रॉबर्ट्स का उपन्यास ‘शांताराम’ चौंकाने वाला है । माइक डेविस का ‘प्लानेट ऑफ स्लम्स’ मलिन बस्तियों के सभी आयामों का वर्णन कर आसन्न खतरों को इंगित करता है ।

भूमंडलीकरण के सैद्धांतिक आधार ‘वाशिंगटन आम राय’ ने भारतीय गणतंत्र की ‘संपूर्ण प्रभुसत्ता’ के दावे को कमजोर कर दिया है । अब राज्य अपने नागरिकों के हितों को सर्वोपरि रखकर नीतियां बनाने में सक्षम नहीं है । यह कथन गलत सिद्ध हो गया है कि भूमंडलीकरण के ज्वार से सब नावें ऊपर उठेंगी और सब लाभान्वित होंगे ।

अगर हमारे प्रबुद्ध साहित्यकार और विचारक गंभीरता से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों की विवेचना करें तो ही जनता को नई दिशा मिलेगी ।

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