अनियंत्रित विकास बनाम मानवीय आवश्यकताएं पर निबंध | Essay on Uncontrolled Development Versus Human Needs in Hindi!

महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि आप किसी देश की प्रगति का जायजा लेना चाहते हैं तो यह देखना चाहिए कि उस देश का निर्धनतम व्यक्ति कितनी सीढ़ियां चढ़ा है? यह अवसर मात्र अर्थव्यवस्था ही नहीं, अपितु अन्य क्षेत्रों में भी वस्तुस्थिति के आकलन का है ।

अनेक ‘उदार’ कदम उठाने के कारण कभी चार प्रतिशत रही भारत की विकास दर आज दोगुनी से अधिक हो गई । एक समय था जब इस दर को हिंदू विकास दर की संज्ञा दी जाती थी और हिकारत भरी निगाह से देखा जाता था ।

यदि गांधीजी का मापदंड लागू किया जाये तो भारत धनी है, परतु असमान भी है । भारत में लखपतियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है, फिर भी आम आदमी ने नाम मात्र की प्रगति की है । सरकारी रिपोर्टों में कहा गया है कि 70 प्रतिशत लोग दयनीय हालात में जीवनयापन कर रहे हैं । नवीनतम नेशनल सैंपल सर्वे बताता है कि देहात में लोग आठ रूपये से बारह रूपये प्रतिदिन आय में गुजर-बसर कर रहे हैं । रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद से यह राशि आधी रह गयी है ।

ग्रामीण चक्रवृद्धि ब्याज वाला ऋण अदा नहीं कर सकते, क्योंकि वे नकदी फसल की अर्थव्यवस्था के मकड़जाल में फंस गये हैं, जो बराबर के झटके नहीं झेल पाती । कर्ज न चुका पाने के कारण बनी अपमानजनक स्थिति को कोई भी सम्मानित व्यक्ति नहीं झेल पाता । मध्यम वर्ग के बच्चे तक किसी रेस्टोरेंट में एक शाम को उतना ही खर्च कर डालते हैं, जितना एक ग्रामीण परिवार 365 दिनों में खर्च कर पाता है ।

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जहां तक सरकार का सवाल है, वह भारतीय किसानों से विश्व बाजार के चौथाई मूल्य पर अच्छी क्वालिटी का गेहूं खरीदने के बजाय सड़े-गले गेहूं के आयात को वरीयता देती है । केंद्रीय सतर्कता आयोग आवश्यकता से अधिक भाव पर खरीदे गये 23 लाख टन गेहूं के आयात की जांच कर रहा है । गेहूं की गुणवत्ता के परीक्षणों के बाद यह जानकर हर व्यक्ति हैरान रह गया कि आयातित गेहूं सभी परीक्षणो में फेल रहा ।

गांधीजी ने वचन दिया था कि स्वतंत्र भारत में किसी भी व्यक्ति की आंखों में आंसू नहीं होंगे । 64 वर्ष बाद भी देश की अधिसंख्य आबादी लाचारी और भूख के कारण रो रही है । जवाहरलाल नेहरू के समाजवाद और गांधी की आत्मनिर्भरता में हुए टकराव ने भारत को असमान शहरी प्रगति और क्षत-विक्षत उन्नति की खिचड़ी प्रदान की है । ये नरम राज्य के नहीं, अपितु दिग्भ्रमित राज्य के संकेत हैं ।

मनमोहन सरकार की नव-उदार आर्थिक नीति ने आम आदमी को हाशिए पर धकेल दिया है-चाहे वह लघु उद्योग में कार्यरत हो अथवा खुदरा व्यापार में । सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम लागू किया है, जिससे एक ग्रामीण को हर वर्ष एक सौ दिन काम दिया जा सके ।

यह योजना भी भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो चुकी है । जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने कहा था कि 85 प्रतिशत धनराशि अपेक्षित जन तक नहीं पहुंच पाती । पिछले दिनों उनके पुत्र राहुल गांधी ने कहा कि 95 प्रतिशत राशि बीच में कहीं खो जाती है । जो भी हो, ग्रामीण रोजगार योजना ने लोगों को अपनी आवश्यकताओं के प्रति सजग तो किया ही है ।

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सरकार को सूचना अधिकार अधिनियम का श्रेय भी दिया जाना चाहिए । इससे अनेक द्वार खुल गये हैं, यद्यपि सरकार और खासतौर पर राज्य सरकारें अभी भी सूचना प्राप्त करने की प्रक्रिया में अड़ंगे लगा रही है । इस अधिनियम ने सरकारी फाइलों से जानकारी उपलब्ध कराई । इससे सही निर्णय लेने में अनिच्छा का भांडा भी फूट गया है, लेकिन इस क्षेत्र में भी लंबित आवेदनों का गट्‌ठर लगता जा रहा है ।

ग्रामीण भारत के लोग धन और रोजगार की कमी से ही ग्रस्त नहीं है । उनके अभावों की एक लंबी सूची है । वे सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं से वंचित हैं । स्कूलों के टीचर गैर-हाजिर रहते हैं । सड़कें कम हैं और ऊबड़-खाबड़ हैं । राजनेता, पुलिस और नौकरशाही से मिलीभगत कर माफिया फल-फूल रहे हैं । फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मध्यम वर्ग का विस्तार हुआ है और करीब 25 करोड़ लोग, जो यूरोप की कुल आबादी से अधिक है, इस श्रेणी में आ गये हैं ।

एक दुःखद पहलू यह है कि भारतीय उद्यमी उत्पादन क्षेत्र को तिलांजलि देकर व्यापारी बनते जा रहे है । अनेक उद्यमी चीन से माल मंगा रहे हैं, जो बंधुआ मजदूरों का देश है । भारत की अर्थव्यवस्था में उत्साह-उमंग तो है, किंतु नीतियों का नियम इस तरह नहीं होता कि अतिरिक्त उत्पादन को आबादी की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपलव्य कराया जा सके । रियायतें निचले तबकों को दी जानी चाहिए ।

सरकार की वर्तमान रणनीति विकास दर को बनाए रखने की है । हालांकि यह धनिकों को और अधिक धनी और निर्धनों को और अधिक निर्धन बना रही है । विकास का उद्देश्य लाभ का उदारता से बटवारा होना चाहिए था, ताकि सामान्य जन भी लाभान्वित हो पाते । स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह ने भारत को एक पूंजीवादी समाज में बदलने का निश्चय कर लिया है ।

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उन्हें यह अहसास नहीं है कि पूंजीवाद, समाजवाद अथवा कोई भी अन्य वाद समाज की भलाई में है, इसके एक भाग के विकास में नहीं । इस बात से आघात लगता है कि पैसे वाले अपने वैभव का प्रदर्शन करने में जरा भी नहीं झिझकते । कुछ नेता सार्वजनिक तौर पर बड़ी तडक-भड़क से अपना जन्मदिन मनाते हैं । ऐसे आयोजनों में करोड़ों रूपये फूंक दिये जाते हैं ।

भारत के सामने अब भी अनेक सवाल खड़े हैं-राज्य बनाम जन, शहरी बनाम ग्रामीण, अनियंत्रित विकास बनाम मानवीय आवश्यकताएं, अंधा कानून बनाम प्राकृतिक न्याय । यदि अधिसंख्य लोगों की कीमत पर मात्र मुट्ठी भर लोग ही लाभान्वित होते हैं तो यह भी एक प्रकार का विकास ही है, पर इसमें निर्धनता बनी रहती है ।

भारत में बड़े-बड़े फार्म हो सकते हैं । विशाल औद्योगिक गृह, प्रयोगशालाएं और भवन भी हो सकते है किंतु यदि इस प्रक्रिया में देश अपनी आत्मा ही बेच बैठा अथवा असमानताएं पनपती रहीं तो स्वाधीनता सेनानियों द्वारा संजोए गये सपने साकार रूप नहीं ले सकेंगे ।

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जिस राष्ट्र में विषमताएं हों, वहां लोकतंत्र का कायम रहना ही मुश्किल हो सकता है । लोगों की संबद्धता, सहभागिता और विश्वास ही लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत बनाता है । असमानताएं लोकतंत्र को कमजोर और लोगों को हताश, निराश करती है । गरीब देश में पूंजीवादी उपाय कारगर नहीं हो पाते ।

मनमोहन सरकार जो विकल्प पेश कर रही है वे विकल्प ही नहीं हैं । यह तो मात्र शोषण है । वास्तविक समस्याओं का सामना कर पाने में हम पर्याप्त सक्षम अथवा विवेकशील नहीं हैं । हम फिर असफल साबित हुए है । एक अन्य बजट और अर्थव्यवस्था के आकलन की कसरत अकारथ गई । हम यह स्वीकार करने से क्यों डरते है कि अमीरों के विरूद्ध संघर्ष में हममें प्रतिबद्धता का अभाव है?

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