प्रेमचंद की साहित्य-यात्रा पर निबन्ध |Essay on Premchand’s Literature Journey in Hindi!

हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियों, विषय-वस्तुओं, रूप-विधानों और उपकरणों का अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि प्रेमचंद का कृतित्व असाधारण, क्रांतिकारी, यथार्थवादी और राष्ट्रीय जीवनधारा के अधिक निकट रहा है ।

प्रेमचंद के पूर्व के हिंदी साहित्य के अधिकांश संस्कार, आलंबन और उपकरण सामंती उच्च वर्ग की सीमाओं से घिरे हुए हैं । साहित्य का आलंब चाहे योद्धा हो या विलासी, धार्मिक हो या भक्त, ईश्वर हो या देवता-सबका जीवन व्यापार आदर्श और मर्यादाएँ सामंती उच्च वर्ग के विभिन्न स्तरों से ग्रस्त हैं ।

उनमें देश-काल के व्यवधानों से कुछ रूप भेद हो सकते हैं, किंतु सामान्य जनता, कृषकों तथा श्रमिकों को-साहित्य का आलंबन नहीं चुना गया, उनके जीवन-व्यापार से साहित्य में सजीवता नहीं पैदा की गई । प्रेमचंद ने मृग-जीवन से प्रेरणा लेकर सामान्य जनना और किसानों अन्त देहाती जीवन को अपने साहित्य का आलंब बनाया ।

उन्होंने भार की ८० प्रतिशत जनता की रकूवाणी को अपनी रुचनाओं से मुखरित किया । हिंदी साहित्य में सामान्य राष्ट्रीय जीवन को आधार बनाना, एक नया और क्रांतिकारी प्रेमचंद देख रहे थे कि उस समय का राष्ट्रीय आदोलन विदेशी शासन से राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करने का आंदोलन है, वर्ग-विभाजित समाज में श्रमिकों और किसानों का शोषण तो जारी रहेगा ।

इस आदोलन में, जो भी व्यक्ति विदेशी हुकूमत से लोहा लेने के लिए तैयार था, वह राष्ट्रीय आदोलन का एक अंग बन जाता था, फिर यह नहीं देखा जाता था कि वह किस वर्ग का है-शोषित है या शोषक । प्रेमचंद को यह कमी खटकी थी, अत: उन्होंने अपनी रचनाओं में राष्ट्रीय आदोलन की झांकियों के साथ-साथ, महाजनी सभ्यता और वर्ग-भेदजन्य शोषण के भी यथार्थ चित्र खींचे हैं ।

प्रेमचंद राजनीतिक स्वाधीनता के साथ-साथ शोषणविहीन किसान-मजदूरों के राज की कल्पना करते थे, इसीलिए उनकी कृतियों में राष्ट्रीय एकता का बहुत बड़ा आधार ‘वर्गविहीन शोषणविहीन’ समाज की रचना का स्वरूप देखने को मिलता है ।

प्रेमचंद ने जिस समय साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया था, उस समय की साहित्यिक परंपरा सामंती राष्ट्रीयता को अपने साथ भारतेंदु युग की विरासत के रूप में ग्रहण किए हुए नई पूँजीवादी राष्ट्रीयता के युग में प्रवेश कर रही थी ।

साहित्य की प्रवृत्ति, भावाधार और चिंतनधारा कहीं आदर्शवादी और कहीं रोमांटिक थी । आदर्शवाद पर सामंती राष्ट्रीयता का प्रभाव था और रोमांटिक भावधारा पर पूँजीवादी व्यक्ति वैचिज्य और वैयक्तिक असंतोष का प्रभाव था । उस समय की कविता में छायावादी ‘रोमांटिसिज्य’ का उदय हो रहा था और गद्य में आदर्शवादी सुधारवाद का ।

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प्रेमचंद अपने पूर्व और समसामयिक साहित्य-प्रवाह में अपर्याप्तता, जीवन से असंपृक्तता और रूढ़ि के शिलाखंडों को देख रहे थे, साथ ही तूफान की गति से बदलती हुई तत्कालीन राष्ट्रीयता के आवरण में आच्छादित आर्थिक शोषण और वर्गभेद को देख रहे थे, इसीलिए उन्होंने अपने कथा-साहित्य के सृजन के लिए अपना दृष्टिकोण अपनाया, जिसका आधार जनता का सतत प्रवाही जीवन-दर्शन था, जिसमें असंतोष की आग, रूढ़ियों और भाव-रूढ़ियों की घुटन, जातीय परंपराओं के प्रति आस्था और बदलते हुए समय के नवनूतन के प्रति कौतूहलपूर्ण जिज्ञासा होती है ।

यद्यपि उनकी पहले की रचनाओं में काल्पनिक चित्रण और आदर्शवाद का प्रभाव है, तथापि उनका आतंरिक झुकाव सामाजिक यथार्थवाद की ओर था और ‘गोदान’ तक आते-आते उनका दृष्टिकोण संपूर्ण रूप से यथार्थवादी हो गया था ।

यद्यपि उन्होंने अपने प्रारंभ के उपन्यासों में समस्याओं को प्रस्तुत तो यथार्थवादी ढंग से किया है, तथापि उनका समाधान यांत्रिक आदर्शवादी है, जिसे राजनीतिक दृष्टि से ‘गांधीवादी’ प्रभाव भी कहा जा सकता है । र भी तमाम विसंगतियों और अंतर्विरोधों के समाधान में सामाजिक चेतना प्रबल है, वे व्यक्ति प्रयत्न नहीं, क्योंकि समाज से पलायन करके किसी हल को पेश करने की कोशिश प्रेमचंद ने नहीं की है ।

उन्होंने देश भर में व्याप्त समस्याओं के निराकरण को आदर्शवादी बनाने की यांत्रिक कोशिश नहीं की है-प्रेमचंद मूलत: यथार्थवादी रचनाकर थे, किंतु उन पर अपने युग के आदर्शवाद का प्रभाव था । मचंद ने अपनी रचनाओं में ग्रामीण जीवन को केंद्र में रखा है ।

उनके कथानकों के पात्र व्यक्ति न होकर, संपूर्ण भारतीय राष्ट्रीय जीवन के पात्र बन जाते हैं । ‘गोदान’ का नायक होरी अवध के एक गाँव का किसान है, किंतु वह केवल व्यक्ति नहीं, भारतीय किसान के जीवन का प्रतीक भी है, वह व्यक्ति होते हुए भी एक वर्ग है ।

उसके व्यष्टिगत जीवन से भारतीय कृषक की परंपराओं, सांस्कृतिक, विरासतों, उसकी रुढ़ियों और रीति-रिवाजों, उसकी कष्ट-कथाओं और अतृप्त अभिलाषाओं की समष्टिगत व्यापक अभिव्यक्ति मिलती है । होरी एक होते हुए भी अनेक रूप है ।

इसीलिए प्रेमचंद का कथा-साहित्य ग्रामीण कथानक पर आधारित होते हुए भी राष्ट्रीय जीवन का कथात्मक साहित्य है । प्रेमचंद ने ‘प्रेम पीयूष’ की भूमिका में लिखा है

”जिस देश के अस्सी फीसदी मनुष्य गाँवों में बसते हों, उसके साहित्य में ग्राम-जीवन का ही मुख्य रूप से चित्रित होना स्वाभाविक है । नका सुख राष्ट्र का सुख, उनका दुःख राष्ट्र का दुःख और उनकी समस्याएँ राष्ट्र की समस्याएँ हैं ।”

प्रेमचंद की राष्ट्रीयता को भी सही ढंग से इसी परिप्रेक्ष्य में देखा और समझा जा सकता है । धुनिक युग में प्रेमचंद साहित्य की प्रासंगिकता या सार्थकता का सवाल कई रूपों में उठाया गया है । वास्तव में, कोई भी पूर्ववर्ती रचना तभी सार्थक, प्रासंगिक और स्वीकार्य होती है, जब वह समकालीन जीवन और चिंतन को प्रभावित करती है ।

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प्रेमचंद का लेखन आज भी प्रासंगिक और सार्थक है, यद्यपि यह बात सत्य है कि ग्राम-समाज के अंत: एवं बाह्य संबंधों और स्थितियों की पहचान में प्रेमचंद अपनी रचना के अंत में प्राय: एक उपदेशक की मुद्रा बना लेते हैं, इसीलिए व्यवस्था के खिलाफ गुस्से से भरे हुए उनके पात्र या तो आश्रमवासी हो जाते हैं या फिर निष्क्रिय हो जाते हैं ।

परंतु क्या पात्रों के आश्रमवासी हो जाने से प्रेमचंद की प्रासंगिकता संदिग्ध हो जाती । प्रेमचंद का रचना-काल स्वाधीनता-संग्राम का काल भी है । इस कालखंड पर महात्मा गांधी का प्रभाव अधिक गहरा हो गया था । धीजी ने न केवल भारतीय राजनीति को प्रभावित किया था, प्रत्युत हमारा सामाजिक जीवन भी गांधीवादी चिंतन से प्रभावित हो गया था ।

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गांधीजी केवल राजनीतिक जागरण नहीं चाहते थे, बल्कि एक राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण के प्रयास में भी तत्पर थे । मारे राष्ट्रीय चरित्र के लिए त्याग, सदाशयता, परोपकार जैसी सद्‌वृत्तियों की आवश्यकता होती है । राजनीतिक स्तर पर राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण का जैसा प्रयास गांधीजी ने किया है, साहित्य के स्तर पर वैसा ही प्रयास प्रेमचंद ने किया है ।

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इसलिए प्रेमचंद का लेखन सामाजिक संघर्षों और अंतर्द्वंद्वों के साथ-साथ राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण का लेखन भी है । यह लेखन अपने समय की समझ और चिंतन के साथ पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है । क्या आज ऐसे राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता नहीं है ? राष्ट्रीय चरित्र को ही ‘सामूहिक चरित्र’ कहा जाता है ।

यह सामूहिक चरित्र क्रांतिकारी परिस्थितियों का निर्माण करता है । प्रेमचंद के उपन्यासों में इसी सामूहिक चरित्र के निर्माण का प्रयास किया गया है । क्या ऐसा लेखन कभी अप्रासंगिक हो सकता है ?  वास्तव में, प्रेमचंद का लेखन उन सभी लेखनों से अधिक प्रासंगिक है, जो केवल रचनात्मक स्तर पर क्रांतिकारी परिस्थितियों का संसार खड़ा करते हैं । जो वामपंथी या जनवादी लेखक अपनी राजनीतिक पक्षधरता के कारण हमारे सामाजिक जीवन की पहचान में रीत गए हैं ।

उनकी रचनाएँ उनकी राजनीतिक पक्षधरता पानी पर तैरते हुए तेल की तरह बिलकुल अलग-अलग रह गई है । इसलिए अपनी आक्रामक और संत-विरोधी मानसिकता के बावजूद वामपंथी या जनवादी लेखन संकटापन्न मानवसमाज की पहचान में प्रेमचंद से अधिक सफल नहीं हुआ है ।

प्रेमचंद के लेखन की सार्थकता और प्रासंगिकता इस बात में है कि उन्होंने देश के मध्यमवर्गीय चरित्र को उसकी विस्तृतता और वास्तविकता में देखने का प्रयास किया है । रतीय मध्यवर्ग का चरित्र बड़ा ही जटिल और विभाजित है, वह प्रत्येक परिवर्तनकारी शक्ति को सहयोग का आश्वासन देता है और पारस्परिक विचारधारा की रक्षा भी करना चाहता है ।

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सामाजिक जीवन-यापन में वह उच्च वर्ग के निकट पहुँचना चाहता है, किंतु आर्थिक विपन्नता के कारण वह गुस्से से भरा होता है । उसकी आक्रोशमय मुद्रा तो सर्वहारा की है, किंतु भोगवादी आकांक्षा उच्च वर्ग से मेल खाती है ।

प्राय: प्रेमचंद की सभी रचनाओं में मध्यमवर्गीय चरित्र को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया गया है । मध्यवर्ग की संशयशील मानसिकता की पहचान में प्रेमचंद एकरस हो गए हैं । सलिए इस वर्ग के चरित्र की परख शायद उनकी रचनाओं में नहीं हो पाई है ।

भारतीय राष्ट्रीय जीवन में मध्यमवर्गीय चरित्र का विशिष्ट महत्त्व है । इस वर्ग की उपेक्षा करके इस देश में रचा जानेवाला कोई साहित्य स्थायी या प्रासंगिक नहीं हो सकता । मचंद इस बात को अच्छी तरह समझते थे, इसलिए उनके उपन्यास- ‘गबन’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ में मध्य वर्ग के चरित्र को ही आधार बनाया गया है ।

प्रेमचंद का समूचा लेखन आदर्श से यथार्थ की यात्रा का लेखन है । आदर्श उनके लेखन का बाह्य कलेवर है तथा यथार्थ जीवन-शक्ति है । यथार्थ के अभाव में आदर्श अग्राह्य हो जाता है और आदर्श से होकर यथार्थ तिरष्कृत हो जाता है इसलिए प्रेमचंद ने आदर्श और यथार्थ के समीकरण से सामाजिक जीवन की पहचान की है और उसे अपने उपन्यासों में स्थान दिया है ।

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प्रेमचंद की पूर्ववर्ती रचनाएँ आदर्श के गहरे रंग से प्रारंभ होती हैं, पर ‘गोदान’ और कफन’ तक आते-आते वे यथार्थवादी रंग में पूरी तरह लगा जाती हैं । यह सही है कि प्रेमचंद की पूर्ववर्ती रचनाएँ भी सामाजिक यथार्थ से जुड़ी हुई और परवर्ती रचनाएँ भी आदर्शवाद से एकदम पृथक् नहीं है ।

प्रेमचंद अपने को राष्ट्रीय सामाजिक जीवन से संपृक्त करके ही रचना करते थे । यह उनकी लेखकीय जागरूकता का प्रमाण है । राष्ट्रीय और सामाजिक दृष्टि से ऐसा जागरूक लेखन कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकता । मचंद के साहित्य में राष्ट्रीय उत्कर्ष का संस्कार जुड़ा हुआ है, किंतु भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों में होनेवाले सांस्कृतिक विनिमय और राजनीतिक उद्योगों के समीकरण का प्रयास ‘नहीं’ के बराबर है ।

ग्राम और नगर के विविध वर्गों और प्रतिनिधियों के माध्यम से सामूहिक और राष्ट्रीय चरित्र को अभिव्यक्ति देने का यत्न है, पर देश में इतनी धाराएँ-अंतर्धाराएँ और विचार-आदर्शो की इतनी अनेकरूपता तथा राष्ट्रीय उद्योग का इतना फैलाव है कि प्रेमचंद-साहित्य में उसका समग्र चित्रण नहीं हो पाया है ।

प्रेमचंद-युग की अपनी सीमा थी; उसकी राष्ट्रीय चेतना एक विशिष्ट दिशा की ओर अग्रसर थी, उसमें वर्तमान युग के सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों की चेतना और संस्कार भी उतने ही तीखेपन के साथ नहीं उभरे हैं, जितने आज के युग के लिए अपेक्षित हैं, किंतु इसे हम प्रेमचंद की त्रुटि नहीं मान सकते और न यह मान सकते हैं कि उन्होंने सामाजिक चेतना की वास्तविकता को अस्वीकार किया है ।

इसे हम भारतीय सामाजिक स्थिति का अन्वेषण भी कह सकते हैं । भारतीय समाज और जीवन में वर्ण-संघर्ष अधिक व्यापक है । अन्य संघर्ष की अपेक्षा आर्थिक असंतुलन धर्म-रूढ़ि, जातीय और भाषाई संघर्ष अधिक घातक हैं, अत: जो लेखक राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण ऐसे लेखन को कम महत्त्व देता है, वह अपने समाज की समकालीन आवश्यकता की अवहेलना करता है । मचंद ने समय-सत्य और रचना-सत्य को एक साथ रखकर लेखन किया है इसलिए वे राष्ट्रीय जीवन के परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक और सार्थक हैं ।

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