भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता और धर्म पर निबन्ध |Essay on Communalism and Religion in Indian Politics in Hindi!

प्रस्तावना:

भारत को हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है । अक्सर कहा जाता है कि भारत में धर्म-निरपेक्षवाद का भविष्य अंधकारमय है । यह एक विवादास्पद विषय है ।

किन्तु पक्ष में जो तर्क दिया जाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण में धर्म सबसे बडी बाधा है, उसमें कोई दम नहीं । यह कहना अधिक सही हौगा कि सबसे बड़ी बाधा आजादी के बाद प्रचलित होती जा रही भ्रष्ट राजनीति है ।

चिन्तनात्मक विकास: अपने मजहब में गहरी आस्था रखना ”साम्प्रदायिकता” नहीं है । मजहब की आजादी तो हर मनुष्य का एक मौलिक अधिकार है । भारत के संविधान ने इस अधिकार को स्वीकारा है । साम्प्रदायिकता का अर्थ है, ”मजहब का हौवा खडा करके लोगों की भावनाओं को भड़काना और ‘राष्ट्रीयता’ के बजाए ‘मजहबी उन्माद’ फैलाना ।”

कट्टरपंथी ताकतें राष्ट्र को एकता व प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने से रोकती हैं । वास्तव में भारत में साम्प्रदायिकता का उदय एवं विकास ब्रिटिश शासकों द्वारा किया गया । धर्म एवं जाति के नाम पर सभी लोगों में ईर्ष्या-द्वेष एवं भेदभाव साम्प्रदायिकता को जन्म देते हैं ।

परिणामस्वरूप देश में हिंसात्मक घटनाएं प्रतिदिन होती रहती हैं । यह वर्तमान समय की एक विकट समस्या है जिसने समुचित राष्ट्रीय विकास के समस्त मार्ग अवरूद्ध कर दिये हैं । इससे देश की आन्तरिक शान्ति एवं एकता ही नहीं अपितु समूचे विश्व की शान्ति भी भंग होती है ।

उपसंहार:

स्वभाव से ही राजनीति सारे देश पर अपना प्रभाव डालती है । इस, कारण यह कहना सही होगा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य राजनीति की प्रकृति से जुड़ा है । यदि स्वच्छ राजनीति का प्रचलन होगा और सभी दल राष्ट्रीय मुद्दों को ईमानदारी से उठाएंगे तब धर्मनिरपेक्षता का भविष्य निश्चय ही उज्जवल होगा ।

किन्तु यदि ये दल द्वेष एवं बंटवारे की राजनीति का खेल खेलते रहेंगे, तो उनके वोट बैंक भले ही सुनिश्चित हो जाएंगे, परन्तु धर्मनिरपेक्षवाद और देश का भविष्य अंधकार में ही डूबा रहेगा । हमारा देश इक्कीसवीं सदी में उन्नत रूप में प्रवेश करेगा या विनष्ट दशा में, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम इस समस्या से किस प्रकार निपटते हैं ।

साम्प्रदायिकता से तात्पर्य किसी धर्म एवं भाषा से है जिसमें किसी समूह विशेष के हितों पर बल दिया जाता है और इन हितों को राष्ट्रीय हितों से अधिक प्राथमिकता दी जाती है । उस समूह मे पृथकता की भावना पैदा की जाती है और उसे प्रोत्साहन दिया जाता है ।

पारसियों, बौद्धो, जैनियों तथा ईसाईयों के अपने-अपने संगठन हैं, साथ ही वे अपने सदस्यों के हितों की साधना में लिप्त रहते हैं, किन्तु ऐसे संगठनो को प्राय: साम्प्रदायिक नहीं कहा जाता क्योंकि इनमें पृथकता की भावना नहीं होती है ।

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इसके विपरीत, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग एवं अन्य कुछ संस्थाओं को साम्प्रदायिक कहा जा सकता है क्योंकि वे धार्मिक अथवा भाषा समूहों के अधिकारों तथा हितों को राष्ट्रीय हितों से सर्वोपरि रखते हैं । विसेंट स्मिथ के अनुसार एक सामुदायिक व्यक्ति या व्यक्ति समूह वह है जो कि प्रत्येक धार्मिक अथवा भाषायी समूह को एक ऐसी पृथक् सामाजिक तथा राजनीतिक इकाई मानता है, जिसके हित अन्य समूहों से पृथक् होते हैं और उनके विरोधी भी हो सकते हैं ।

ऐसे ही व्यक्तियों अथवा व्यक्ति समूह की विचारधारा को सम्प्रदायवाद या सम्प्रदायिकता कहा जाएगा । साम्प्रदायिक संगठनों का उद्देश्य शासको के ऊपर दबाव डालकर अपने सदस्यों हेतु अधिक सत्ता, प्रतिष्ठा तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त करना होता है ।

मानव इतिहास में सदैव धर्म-के नाम पर विवाद उठते रहते है । धर्म की दृष्टि से भारत विशेष रूप से हतभाग्य रहा है । स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय अग्रेजों ने भारत में अपना शासन बनाए रखने के लिए धार्मिक भेद-भावों का विशेष लाभ उठाया ।

अग्रेजी शासनकाल में साम्प्रदायिक भावनऔं को राजनीतिक रूप मिलने का एक कारण यहाँ प्रतिनिधि या निर्वाचित सस्थाओं की स्थापना थी । अग्रेज लोग प्रतिनिधित्व का अर्थ अलग-अलग समूहों, वर्गौ, हितों, क्षेत्रों, संस्थाऔं और सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व समझते थे ।

उन्होंने भारत के अनेक सम्प्रदायों और जातियों की समस्या को इनके स्वाभाविक् अस्तित्व बोध और एक-दूसरे की आपस की वैमनस्यता की समस्या समझा और उसका उपाय अलग-अलग धार्मिक समूहों को पृथक्-पृथक् प्रतिनिधित्व देने में समझा ।

भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या हरित शासन की समकालिक है । अंग्रेजों ने भारत में ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनायी ताकि वे हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाते रहें और भारत पर अपनी हुकूमत चलाते रहें ।

अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत में हिन्दू-मुस्लिम शासकों और नवाबों के हाथों में सत्ता थी । ईस्ट इण्डिया कम्पनी उनसे डरती थी । फलस्वरूप उन्होंने हिन्दुऔं की सहायता और सहानुभूति प्राप्त करने की कोशिश की ।

प्लासी के युद्ध के पश्चात् जब कंपनी के हाथ में शासन सत्ता आने लगी तो उसने मुसलमानों के प्रति सौतेला व्यवहार किया और हिन्दुऔं को नौकरियों में प्रोत्साहन देकर मुसलमोनों के प्रति उपेक्षा की नीति अपनायी । ‘बहाबी आन्दोलन’ के रूप में मुस्लिम असन्तोष व्यक्त हुआ ।

अत: अंग्रेजों ने मुसलमानों के विरूध और दमन की नीति अपनायी । कुछ समय पश्चात् हिन्दुओं के विकास, उन्नति और आधुनिकीकरण की कबढ़ती हुई प्रवृत्ति से अंग्रेज डरने लगे ।  अब उन्होंने मुसलमानों से मित्रता की चातुर्यपूर्ण नीति अपनायी। इसके परिणामस्वरूप ‘मुहमंडन-एंग्लो औरियण्टल डिफेंस एसोसिएशन’ की स्थापना हुई ।

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सन् 1905 में कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया ताकि मुसलमानों की राजभक्ति प्राप्त कर सकें और उन्हें प्रसन्न कर सकें । बंगाल का विभाजन ‘फूट डालो और शासन करो’ की कुटिल नीति का ही परिणाम था । भारत में सर्वप्रथम धर्म एवं साम्प्रदायिक विभेद का कारण अंग्रेज ही थे । धीरे-धीरे साम्प्रदायिकता की भावना भारत में अपनी जड़े मजबूत करती गई ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है लेकिन फिर भी भारतीय राजनीति में आज भी साम्प्रदायिकता की समस्या बराबर बनी हुई है क्योंकि भारत में अनेक जातियों तथा अनेक धर्मो से सम्बंधित लोग निवास करते हैं । प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने-अपने धर्म की रक्षा करने में लगे रहते हैं तथा धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों को प्रभावित करते रहते है ।

आज राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति करने हेतु तथा चुनाव में वोट प्राप्त करने के लिए विभिन्न धर्मो या सम्प्रदायों का सहारा लेते हैं । मुसलमानों में पृथक्करण की भावना भी साम्प्रदायिकता का कारण बनी है, इसीलिए वे अपने आपको राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित नहीं कर पाए ।

अनेक मुस्लिम नेताओं ने इस बात का आश्वासन दिया कि वे समय-समय पर राजनीतिक दलों का सहयोग देंगे एवं समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता एवं आर्थिक न्याय को बनाए रखेंगे परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि अनेक मुस्लिम नेता चाहते हैं कि मुस्लिम धर्म के हितों की रक्षा के लिए उन्हें पृथक् रूप से राजनीति में भाग लेना चाहिए ।

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स्वाधीनता से पूर्व एवं पश्चात् मुसलमान आर्थिक रूप से पिछड़े हुये रहे हैं । शैक्षिक दृष्टि से भी पिछड़े होने के कारण सरकारी नौकरियों, व्यापार एवं उद्योग-धंधों में उनकी स्थिति सुधर नहीं पाई है जिससे उनका मनोबल गिरा है और उनमें असन्तोष बढा है ।

फलत: इस असन्तोष ने उग्र रूप धारण कर हिंसा का रूप ले लिया और जब कभी भारत मे हिन्दू-मुस्लिम तनाव की कोई छुट-पुट घटना हो जाती है तो पाकिस्तानी रेडियो एवं समाचार पत्र इसको तूल देने का प्रयास करते हैं तथा भारत सरकार की आलोचना करते है।

भारत में हिन्दू-सम्प्रदाय से सम्बंधित ऐसे लोग हैं जो इस बात का प्रचार करते हैं कि भारत इन्दुओं का देश है । अत: इस देश पर उन्हीं का अधिकार है । इन संगठनों पर हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विशेष रूप से प्रभाव रहा है ।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मुसलमानों हा कट्टर विरोधी है । इस प्रकार के विचार साम्प्रदायिकता की भावना उत्पन्न करते हैं । साम्प्रदायिक रंगों का एक अन्य कारण सरकार एवं प्रशासन की उदासीनता भी है । अत: स्वतन्त्रता के बाद मी साम्प्रदायिकता कम नहीं हुई अपितु इसमें वृद्धि ही हुई है, किन्तु इस विषय में स्थिति विभिन्न क्षेत्रों एवं नगरों मे भिन्न-भिन्न है ।

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रत्ना नायडू के शब्दों में, ”ऐसे नगर जिनमें बडे साम्प्रदायिक उपद्रव हुये हैं, दो प्रकार के है । इनमें एक प्रकार के नगर वे है जो औद्योगिक नगर हैं और दूसरे प्रकार के वे जो दस्तकारी एवं उद्योगों के नगर हैं तथा जो उद्योग एवं व्यापार के आधुनिक केन्द्रों के रूप में विकसित होने का प्रयत्न कर रहे हैं ।

प्रथम वर्ग के उदाहरण जमशेदपुर, राउरकेला, आदि हैं और दूसरे वर्ग के उदाहरण मुरादाबाद, अलीगढ़, अहमदाबाद, बनारस आदि हैं । वास्तव में साम्प्रदायिकता की भावना को फैलाने वाले तत्व राजनीतिक दल ही हैं ।”  आजकल साम्प्रदायिक घटनाओं के पीछे विदेशी हाथ होने की शंका व्यक्त की जा रही है । हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों की धार्मिक भावनाओं का आज दुरूपयोग किया जा रहा है, यह दर्शाने के लिए कि एक सम्पद्राय दूसरे को नष्ट करने पर उतारू है, उनके रीति-रिवाजों एवं व्यवहारों में अन्तर को उछाला जा रहा है ।

अत: ऐसे मामलों का कोई स्थायी समाधान नहीं हो सकता । स्वयं लोगों को आपसी दुर्भावना को समाप्त करना होगा । “इस प्रकार भय, अविश्वास और दोनों समुदाय के बीच एक-दूसरे के प्रति सन्देह की भावना ही सांम्प्रदायिक वैमनस्य का मुख्य कारण है ।’’

जब सरकार समस्या के मूल कारणों की चर्चा करने के बजाय ‘विदेशी धन’ और ‘विदेशी हाथ’ की चर्चा करके ही संतुष्ट हो जाती हो तो समस्या का भयावह रूप धारण कर लेना स्वाभाविक ही है । साम्प्रदायिकता के कारण भारत में आज समाज को, राष्ट्रीय एकता एवं अनेक संगठनों को कितना खतरा पैदा हो गया है, इसका अनुमान भारत मे होने वाली प्रतिदिन की हिंसात्मक घटनाएं बता देती हैं ।

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भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता हेतु किसे दोषी ठहराया जाए यह एक प्रश्नचिन्ह ही है । वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता साम्प्रदायिकता का ही परिणाम है क्योंकि साम्प्रदायिकता ही ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है जो राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न करती हैं ।

यह राष्ट्रीय एकता की भी गम्भीर शत्रु है क्योंकि इसी के वशीभूत हो लोग अपने-अपने तुच्छ स्वार्थो एवं हितों के लिए संघर्ष करते हैं और देश में हिंसा, लड़ाई-झगड़े फैलाते हैं और परिणामस्वरूप लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है । शायद ही कोई ऐसा साम्प्रदायिक दंगा हुआ हो जिसमें कुछ व्यक्तियों की जाने न गयी हों । भारत एक बहुसम्प्रदायवादी देश है ।

यहाँ अनेक अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक व्यक्ति निवास करते हैं और इन्हीं के बीच जो साम्प्रदायिकता, झगडे और तनाव पैदा होते हैं तथा हिन्दू एवं मुसलमानों द्वारा अपने-अपने हितों के लिए सरकार से लड़ना एवं आपसी द्वेष और वैमनस्य फैलाना, राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु गंभीर खतरा पैदा कर देते हैं । फलत: इन सभी दुष्परिणामों के कारण देश की आर्थिक हानि होती है ।

न जाने कितनी दुकानें लूटी जाती है, कितनी ही राष्ट्रीय सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, कितने ही लोग कार्य नहीं कर पाते । इतना ही नहीं, साम्प्रदायिक दंगों पर काबू पाने के लिए अत्यधिक धन व्यय किया जाता है । आर्थिक उन्नति व औद्योगिक विकास मे बाधा पडती है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंधो पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है ।

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है किन्तु फिर भी भारतीय राजनीति को धर्म अथवा सम्प्रदाय विशेष रूप से प्रभावित किये हुये हैं । एक ओर धर्म प्रभाव एवं शक्ति अर्जित करने का माध्यम है तो दूसरी ओर इसके द्वारा राजनीति में तनाव पैदा होते हैं क्योंकि वर्तमान समय में धर्म के आधार पर राजनीतिक दलौं का निर्माण होता है तथा राजनीतिक दलौं को चुनाव के समय धर्म या सम्प्रदायों का समर्थन मिलता है ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति से वर्तमान समय तक धर्म और सम्प्रदाय ने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । स्वतन्त्र भारत में अधिकांश राजनीतिक दलों का गठन धर्म व सम्पद्राय के आधार पर हुआ है, जैसे हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, अकाली दल आदि ।

इन साम्प्रदायिक दलों ने राजनीति मे धर्म को विशेष महत्व दिया है । आज राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति करने के लिए तथा चुनाव मे वोट प्राप्त करने के लिए विंभिन्न धर्मो व सम्प्रदायो का सहारा लेते हैं । वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक राजनीतिक दल का किसी न किसी सम्प्रदाय से सम्बंध अवश्य होता है । प्रोफेसर मॉरिस जोन्स के अनुसार “यदि साम्प्रदायिकता को संकुचित अर्थ में लिया जाए, अर्थात् कोई राजनीतिक पार्टी किसी विशेष धार्मिक समुदाय के राजनीतिक दावों की रक्षा के लिए बनी हो तो कुछ पार्टियां ऐसी हैं जो

स्पष्ट रूप से अपने को साम्प्रदायिक कहती हैं जैसे मुस्लिम लीग जो भारत में सिर्फ दक्षिण भारत में रह गयी है और जो मालाबार भोपला समुदाय के बल पर केवल केरल में ही शक्तिशाली है, सिक्खों की अकाली पार्टी जो सिर्फ पंजाब में ही है, हिन्दू महासभा जो सिद्धान्त रूप मे एक अखिल भारतीय पार्टी है, किन्तु मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और उसके आस-पास के इलाकों में शक्तिशाली है।’’

जनसंघ दल के विषय मे मॉरिस जोन्स लिखते हैं, “जब तक कट्टरता की मनोवृत्ति से पूर्ण आर.एस.एस. जिसमें हिन्दू सांस्कृतिक जोश और सैन्यवादी ट्रेनिंग दोनों का संयोग है जनसंघ की आड में जुटकर काम करता रहेगा, तब तक साम्प्रदायिकता इस पार्टी का एक महत्वपूर्ण पहलू बनी रहेगी ।’’

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दूसरी ओर व्यापक अर्थ में इसका अर्थ सम्पूर्ण हिन्दू समाज के ही भीतर किसी सामाजिक-धार्मिक समुदाय के साथ संबध के रूप में लिया जाए तो सभी पार्टियों में किसी न किसी रूप में यह भावना अवश्य विद्यमान होती है ।

कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं रही है । केरल में ईसाई समुदाय के साथ कांग्रेस का ऐसा गठजोड रहा है कि इसे संकुचित दृष्टि से भी साम्प्रदायिकता कहा गया है । आज भारतीय राजनीति में धार्मिक संगठन शक्तिशाली दबाव समूहों की भूमिका निभा रहे हैं ।

ये धार्मिक संगठन शासन की नीतियों को समय-समय पर प्रभावित करते रहते है और अपने हितों के अनुकूल निर्णय पारित करवाने का प्रयत्न करते रहते है । उदाहरणार्थ, मुस्लिम धार्मिक संगठनों जैसे जमायते इस्लामी, उलमा-ए-हिन्द अमारते शरिया ने सरकारी नीतियों को प्रभावित कर अपने हितों में तीन महत्वपूर्ण बातों को मनवाया-प्रथम, उर्दू को संवैधानिक संरक्षण दिया गया ।

द्वितीय, अलीगढ विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक स्वरूप स्थापित किया जाए । तृतीय, मुस्लिम निजी कानून से सम्बन्धित कोई परिवर्तन न किया जाए । इसके विपरीत हिन्दू धार्मिक संगठन सरकारी नीतियों को प्रभावित करने में सफल नहीं हो पाए, जिस कारण हिन्दुओं की आपत्ति व आलोचनाओं के बावजूद भी सरकार ने हिन्दू कोड बिल पारित कर दिया ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जो धार्मिक संगठन सरकारी नीतियो को प्रभावित करने में सफल हो जाते है वे अपने हित मे कानून पारित करवा सकते हैं । भारतीय राजनीति में कई बार अप्रत्यक्ष रूप से धर्म के आधार पर पृथक् राज्यों की माँग की गई है । उदाहरण के लिए पजाब का विभाजन धर्म के आधार पर ही हुआ था । अभी भी पजाब धर्म के आधार पर ही ‘खालिस्तान’ की माँग कर रहा है ।

नागालैण्ड के ईसाईयों ने भी धर्म के आधार पर ही पृथक् राज्य की माँग की थी । राज्यो की राजनीति में भी धर्म और धार्मिक समुदायों ने अनेक तरह से प्रभाव डाला है, इसके अतिरिक्त धर्म एवं साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता के लिए भी घातक माने जाते हैं । देश का विभाजन धार्मिक मतभेदों के कारण ही हुआ था और आज भी विघटनकारी तत्व सक्रिय है ।

मन्त्रिमण्डल निर्माण में भी धार्मिक आधार पर प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता प्रदान की जाती है । केन्द्र एवं राज्यों मे मन्त्रिमण्डल बनाते समय हमेशा इस बात को ध्यान में रखा जाता है कि प्रमुख सम्प्रदायी और धार्मिक विश्वासी वाले व्यक्तियों को उनमें प्रतिनिधित्व मिल जाए । केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल मे अल्पसख्यकों जैसे मुसलमानों, सिक्खों, ईसाईयों को हमेशा प्रतिनिधित्व दिया जाता है ।

भारत में चुनाव के समय विभिन्न राजनीतिक दल एवं उनके नेता धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर वोट मांगते हैं । वोट बटोरने के लिए मठाधीशों, इमामी, पादरियों और साधुओं के साथ सांठ-गांठ की जाती है । अत: यही कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति मे धर्म एवं साम्प्रदायिकता का प्रभाव बढने से धर्मनिरपेक्ष राजनीति के विकास का मार्ग अवरुद्ध हुआ है ।

भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करने का लक्ष्य यह था कि धर्म को राजनीति से पृथक् रखा जाए लेकिन व्यवहार में धर्म का प्रभाव भारतीय जनता पर छाया हुआ है । आज भी राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र मे धर्म के आधार पर भेदभाव किया जाता है । वास्तव में आज धर्म और सम्प्रदाय राजनीति का शोषण करने लगे हैं ।

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साम्प्रदायिकता मानवता हेतु गम्भीर अभिशाप है और भारत जैसे देश मे तो यह और भी घातक है, क्योंकि भारत विविध धर्मों का देश है । साम्प्रदायिकता को दूर किया जा सकता है यदि सरकार ध्यान रखे कि देश में कोई भी एसा कार्य न होने पाए जिससे कि साम्प्रदायिकता बढे, सर्वत्र इस भावना को प्रोत्साहन दिया जाए कि सब धर्मों के लोग मिल-जुलकर रोज मौन प्रार्थना करें, शिक्षा एवं शिक्षण संस्थाओं में आध्यात्मिक मूल्यों एवं आदर्शों का समावेश किया जाए, किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र में बहुमत के आधार पर कोई प्रवृत्ति पैदा न की जाए, सरकार को भी हमेशा इस प्रकार के कानूनों का निर्माण करना चाहिए जो सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू हों ।

जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय एवं भाषा के आधार पर किसी के साथ भी भेदभाव न किया जाए, विभिन्न सम्प्रदाय सरकार से अपने विशेष प्रतिनिधित्व की मांग करते हैं । सरकार को इन सबके इस प्रभाव को केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर ठुकराना होगा तथा भाषा के आधार पर भी सरकार को अपनी नीति ठीक करनी होगी ।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि हम भारतीय हैं, हमे इस बात पर गर्व है क्योंकि यहाँ विभिन्न धर्मों एवं जातियों के लोग रहते हैं । इसीलिए भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है जिससे कि धर्म को राजनीति से हटाया जाए, किन्तु धर्म का प्रभाव व्यावहारिक रूप से भारतीय जनता के मन-मस्तिष्क से नहीं मिट पाया है ।

आज भी राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में धर्म के आधार पर भेदभाव किये जाते हैं । राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल धर्म एवं सम्प्रदाय को राजनीतिक सफलता के लिए एक साधन के रूप मे अपनाते रहे है । साम्प्रदायिक झगडे भले ही छुटपुट और स्थानीय हों, लेकिन उनसे देश की बदनामी होती है और उसका लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष स्वरूप कलंकित होता है क्योंकि साम्प्रदायिकता का उद्देश्य संकुचित हितो की रक्षा करना होता है ।

अत: राष्ट्रीय नेताओं पर यह दायित्व है कि वे समुदाय के सीमित तथा राष्ट्र के बृहत्तर हितो के मध्य सन्तुलन स्थापित करें, समुदाय को राष्ट्र में बदलें । भविष्य मे यह आशा व्यक्त की जा सकती है कि राजनीतिक चेतना एवं लोकतान्त्रिक आदर्शो एवं मूल्यो में वृद्धि होने से देश में धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप भी निखरता जाएगा ।

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