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प्राग्मौर्य युग में मगध सम्राटों का अधिकार-क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों तक विस्तृत नहीं हो पाया था । जिस समय मध्य भारत के राज्य मगध-साम्राज्य की विस्तारवादी नीति का शिकार हो रहे थे, पश्चिमोत्तर प्रदेशों में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था का वातावरण व्याप्त था ।

यह क्षेत्र अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था जिनमें कम्बोज, गन्धार एवं मद्र प्रमुख थे । इन प्रदेशों में कोई ऐसी सार्वभौम शक्ति नहीं थी जो परस्पर संघर्षरत राज्यों को जीतकर एकछत्र शासन के अन्तर्गत संगठित कर सकती । यह सम्पूर्ण प्रदेश एक ही समय विभाजित एवं समृद्ध था ।

ऐसी स्थिति में विदेशी आक्रान्ताओं का ध्यान भारत के इस भू-भाग की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही था । परिणामस्वरूप देश का यह प्रदेश दो विदेशी आक्रमणों का शिकार हुआ । इनमें पहले आने वाले परसिया के हखामनी नरेश थे ।

1. हखामनी (पारसीक) आक्रमण (Hakimni (Parseek) Invasion):

i. साइरस द्वितीय (558-529 ईसा पूर्व):

छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य कुरुष अथवा साइरस द्वितीय (Cyrus II) नामक एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने ईरान से हखामनी साम्राज्य की स्थापना की । उसने शीघ्र ही अपने को पश्चिमी एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक बना लिया । उसके साम्राज्य की पूर्वी सीमा भारत का स्पर्श करने लगी ।

इस समय पश्चिमोत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थितियों उसकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये उपर्युक्त अवसर प्रदान कर रही थीं । अत: वह भारतीय अभियान के लिये प्रस्तुत हुआ । साइरस ने निश्चित रूप से भारत के किन प्रदेशों को जीता था, यह ठोस प्रमाणों के अभाव में ज्ञात नहीं है ।

इस विषय में क्लासिकल (यूनानी-रोमिय) लेखकों के विवरण ही हमारे ज्ञान के एकमात्र साक्ष्य हैं । इन लेखकों में जेनोफोन (Xenophon), टेसियस (Ctesias), स्ट्रेबो (Strabo) तथा एरियन (Arian) प्रमुख हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय ईरान से भारत आने के दो मार्ग थे ।

पहला मार्ग जेड्रोसिया के विशाल रेगिस्तान से होकर आता था जबकि दूसरा बैक्ट्रिया, सोग्डियाना तथा काबुल घाटी होते हुए सिन्धु नदी तक पहुँचता था । सिकन्दर के जल सेनाध्यक्ष नियार्कस के विवरण से जो एरियन तथा स्ट्रैबो द्वारा सुरक्षित हैं- हमें ज्ञात होता है कि साइरस ने जेड्रोसिया के रेगिस्तान से होकर भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया था परन्तु उसे विनाशकारी असफलताओं का सामना करना पड़ा । मार्ग में उसकी सम्पूर्ण सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी तथा केवल सात सैनिकों के साथ वह जान बचाकर भागा ।

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मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि- ‘काबुल घाटी के मार्ग से हिरेक्लीज, डायोनिसस तथा सिकन्दर को छोड़कर, किसी अन्य विदेशी शक्ति द्वारा न तो भारतीय कभी जीते ही गये ओर न ही उन्होंने अपने को युद्ध में ही फंसाया । यद्यपि पारसीकों ने हिड्रक (क्षुद्रक) सैनिकों को भाड़े पर लड़ने के लिये बुलाया था तथापि पारसीकों ने स्वयं कभी भी भारत पर आक्रमण नहीं किया ।’

इस प्रकार नियार्कस तथा मेगस्थनीज इस मत के हैं कि साइरस ने कभी भी भारत पर आक्रमण नहीं किया । परन्तु इस प्रकार के निष्कर्ष से सहमत होना कठिन है । संभव है सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखकों ने अपने सेनानायक के महत्व को बढ़ाने के उद्देश्य से साइरस की सफलताओं की जान-बूझ कर उपेक्षा की हो ।

इस सम्बन्ध में दूसरी विचारणीय बात यह है कि ये यूनानी लेखक सिन्धु को भारत की पश्चिमी सीमा पर मानते हैं । यह संभव है कि साइरस ने सिन्धु के पश्चिम में स्थित भारत के सीमावर्ती क्षेत्र की विजय की हो । रोमन लेखक प्लिनी के विवरण से ज्ञात होता है कि साइरस ने कपिशा नगर को ध्वस्त किया । ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी प्रारम्भिक असफलता से साइरस निराश नहीं हुआ और उसने दूसरी बार काबुल घाटी की ओर से भारत पर आक्रमण किया । इस बार पारसीक नरेश को कुछ सफलता मिली ।

एरियन एक दूसरे स्थान पर हमें बताता है कि सिन्धु तथा काबुल नदियों के बीच स्थित भारतीय प्राचीन समय में असीरियनों तथा मीडियनों और बाद में पारसीकों के अधीन थे । उन्होंने पारसीक नरेश साइरस को कर दिया । इन प्रदेशों में अष्टक तथा अश्वक नामक भारतीय जनजातियाँ निवास करती थीं । उन्होंने साइरस की अधीनता स्वीकार की ।

जेनोफोन ‘साइरस की जीवनी’ (साइरोपेडिया) में लिखता है कि- ‘साइरस ने बैक्ट्रियनों तथा भारतीयों को जीतकर अपने विशाल साम्राज्य के अधीन कर लिया तथा अपना प्रभाव क्षेत्र एरिथ्रियन सागर (हिन्द महासागर) तक विस्तृत कर लिया । भारत के किसी राजा ने साइरस के पास उपहारों के साथ अपना एक दूत भेजा था ।’

इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि काबुल घाटी पर साइरस का अधिकार था । इस प्रकार साइरस ईरान तथा भारत के मध्यवर्ती प्रदेशों को जीतने में सफल हुआ । इस सम्बन्ध में एडवर्ड मेयर का निष्कर्ष सबसे अधिक तर्कसंगत लगता है-‘साइरस ने हिन्दूकुश तथा काबुल चाटी, विशेष रूप से गन्धार की भारतीय जनजातियों को जीत लिया था । दारा स्वयं सिन्धु नदी तक आया था ।’

साइरस ने 558 ईसा पूर्व से 529 ईसा पूर्व तक शासन किया । उसकी मृत्यु कैस्पियन क्षेत्र में डरबाइक नामक एक पूर्वी जनजाति के विरुद्ध लड़ते हुए हुई । उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र कम्बुजीय अथवा केम्बिसीज द्वितीय (529-522 ई. पू.) उसके साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ । वह गृह-युद्धों में ही उलझा रहा और उसके समय में पारसीक साम्राज्य का विस्तार भारत की ओर नहीं हो सका ।

ii. दारा प्रथम (522-486 ईसा-पूर्व):

दारा प्रथम के समय से भारत के पारसीक आधिपत्य के विषय में हमारा ज्ञान अपेक्षाकृत अधिक हो जाता है । दारा के शासन-काल के तीन अभिलेखों-बेहिस्तून, पर्सिपोलिस तथा नक्श-ए-रुस्तम-से भारत-पारसीक सम्बन्ध के विषय में महत्वपूर्ण सूचना मिलती है ।

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बेहिस्तून अभिलेख (लगभग 520-518 ईसा पूर्व) में उसके साम्राज्य के 23 प्रान्तों का उल्लेख हुआ है । इनमें शतगु तथा गदर के नाम मिलते हैं परन्तु भारत का नाम नहीं है । पर्सिपोलिस (लगभग 518-515 ईसा पूर्व) तथा नक्श-ए-रुस्तम (लगभग 515 ईसा पूर्व) के लेखों में ‘हिंदू’ का उल्लेख उसके साम्राज्य के एक प्रान्त के रूप में हुआ है ।

इनसे स्पष्ट है कि शतगु, गदर तथा हिंदु दारा के साम्राज्य में सम्मिलित थे तथा हिंदु साम्राज्य की सबसे पूर्वी सीमा पर स्थित था । ये तीनों ही स्थान सिन्धु घाटी में स्थित थे । शतगु से तात्पर्य ‘सप्त सिन्धु’ से है जो आधुनिक पंजाब के पास स्थित रहा होगा जिसे सात नदियों की भूमि कहा जाता है ।

गदर से तात्पर्य गन्धार से है । प्राचीन भारतीय साहित्य से ज्ञात होता है कि यह निचली काबुल घाटी के पास स्थित था । दारा के समय में संभवतः इसके अन्तर्गत हिंदूकुश का क्षेत्र भी सम्मिलित हो गया था । ‘हिंदु’ से तात्पर्य सिन्धु से है जो प्राचीन काल से लेकर आज तक निचली सिन्धु घाटी का नाम रहा है ।

इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि दारा ने भारत के इस भाग को 518 ईसा पूर्व के आस-पास जीत लिया था । ऐसा प्रतीत होता है कि शतगु (सप्त सिन्धु) तथा गदर (गन्धार) के प्रदेश, जिनका उल्लेख बेहिस्तून अभिलेख में हुआ है, साइरस के समय से ही पारसीक साम्राज्य के अंग थे ।

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हर्जफेल्ड का विचार है कि ये प्रान्त मीडियन साम्राज्य के थे तथा उसी की विजय के समय साइरस का इनके ऊपर अधिकार हो गया था । इस अभिलेखीय प्रमाण की पुष्टि यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के विवरण से भी होती है । वह हमें बताता है कि भारत दारा के साम्राज्य का बीसवाँ प्रान्त था । यह सबसे बनी आवादी वाला प्रदेश था और यहाँ से दारा को उसके सम्पूर्ण राजस्व का तीसरा भाग कर के रूप में प्राप्त होता था । यह धनराशि 360 टैलेण्ट स्वर्ण-चूर्ण के बराबर थी ।

हेरोडोटस ने यह भी लिखा है कि दारा ने 517 ईसा पूर्व में अपने नौ सेनाध्यक्ष स्काईलैक्श की अध्यक्षता में एक जहाजी बेड़ा सिन्धु नदी के मार्ग का, जहाँ वह समुद्र में गिरती है, पता लगाने के लिये भेजा था । ‘यह बेड़ा पकतीत’ (पठान) प्रदेश के कैस्पाटीरस नगर (संभवतः गन्धार में स्थित) के पूर्व की ओर, नदी के बहाव की ओर रवाना हुआ तथा समुद्र (हिन्द महासागर) तक जा पहुंचा ।

समुद्र के पश्चिम की ओर बढ़ते हुए वे 30 महीने की यात्रा के वाद ऐसी जगह पर पहुँचे जहाँ से मिस्र का राजा फोनेशियनों को लीबिया की यात्रा पर भेज रहा था । जब वे यात्रा से वापस लौटे तब दारा ने भारतीय भागों पर अधिकार कर लिया तथा समुद्र का उपयोग किया ।

इस विवरण से ऐसा पता चलता है कि स्वयं दारा ने सिन्धु नदी की निचली घाटी, जहाँ वह समुद्र में गिरती है, को जीता था । हेरोडोटस के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दारा के साम्राज्य में सम्पूर्ण सिन्धु घाटी का प्रदेश सम्मिलित हो गया तथा पूर्व की ओर उसका विस्तार राजपूताना के रेगिस्तान तक था ।

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संभवतः इसमें पंजाब का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित था । प्रसिद्ध ईरानी इतिहासकार घिर्शमन के अनुसार दारा का यह अभियान राजनैतिक तथा प्रशासनिक दोनों ही कार्यवाही थी और संभवतः यह आर्थिक उद्देश्यों से भी प्रेरित था जो सदैव उसकी योजनाओं की प्रेरणा का काम करते थे ।

इस प्रकार दारा की विजयों ने समस्त सिन्धु घाटी को एकता के सूत्र में आबद्ध कर भारत का सम्पर्क पाश्चात्य जगत से जोड़ दिया । दारा प्रथम का शासनकाल भारत में पारसीक आधिपत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है । उसके उत्तराधिकारियों ने अपने साम्राज्य की पूर्वी सीमा इससे आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं किया और वे दारा द्वारा जीते हुए प्रदेशों को सुरक्षित करने में ही संलग्न रहे ।

iii. क्षयार्ष अथवा जरक्सीज (Xerxes) (लगभग 486-465 ईसा पूर्व):

दारा प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जरक्सीज पारसीक-साम्राज्य का शासक बना । पर्सिपोलिस से प्राप्त उसके एक लेख में भारत के तीनों प्रदेशों- गन्धार, शतगु तथा सिन्धु का स्पष्ट रूप से उल्लेख हुआ है । इससे प्रकट होता है कि उसने अपने पिता के भारतीय साम्राज्य को सुरक्षित रखा । पर्सिपोलिस लेख से यह भी पता चलता है कि अहुरमज्दा की इच्छा से उसने देवताओं के मन्दिरों को गिरवा दिया तथा उसकी पूजा बन्द किये जाने का आदेश दिया था ।

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क्लासिकल लेखकों के विवरण से पता चलता है कि यूनान के विरुद्ध अपने युद्ध में उसने भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी की सहायता प्राप्त की थी । ये सैनिक गन्धार तथा सिन्ध के प्रदेशों से गये थे । उन्होंने अत्यन्त वीरतापूर्वक युद्ध किया तथा पर्याप्त यश अर्जित किया ।

हेरोडोटस ने भारतीय सिपाहियों की वेष-भूषा का वर्णन इस प्रकार किया है- ”भारतीय सैनिकों के वस्त्र सूती थे । उनके कन्धों पर धनुष, बाँस की कमानियाँ तथा तौर लटक रहे थे । तीरों के नोक लोहे से मढ़े गये थे ।” परन्तु जरक्सीज यूनानियों द्वारा परास्त किया गया । 465 ईसा पूर्व के लगभग वह अपने किसी अंगरक्षक द्वारा मार डाला गया ।

जरक्सीज के उत्तराधिकारी तथा पारसीक साम्राज्य का विनाश:

जरक्सीज की मृत्यु के पश्चात् उसके तत्कालिक उत्तराधिकारी क्रमशः अर्तजरक्सीज प्रथम एवं द्वितीय हुये । पर्सिपोलिस के दक्षिणी मकबरे के ऊपर कुछ लेख प्राप्त होते हैं । कलात्मक आधार पर यह मकबरा अर्तजरक्सीज प्रथम (465-425 ईसा पूर्व) अथवा अर्तजरक्सीज द्वितीय (405-359 ईसा पूर्व) के काल का माना जाता है ।

यहाँ सम्राट के सिंहासन के पास करदाताओं के चित्र अंकित हैं । तीन चित्रों के ऊपर क्रमशः सत्तागिडाई, गन्धार तथा सिन्ध अंकित हैं । यह इस बात का सूचक है कि पूर्व की ओर हखामनी साम्राज्य यथावत बना हुआ था । अर्तजरक्सीज के राजवैद्य टेसियस ने लिखा है कि उसने भारतीय राजाओं द्वारा सम्राट को भेजे गये कुछ उपहारों को स्वयं देखा था ।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अर्तजरक्सीज प्रथम तथा द्वितीय ने दारा प्रथम द्वारा निर्मित साम्राज्य को सुरक्षित बनाये रखा । पारसीकों का अन्तिम सम्राट दारा तृतीय (360-330 ईसा पूर्व) के नाम से विख्यात है । एरियन हमें बताता है कि दारा तृतीय के आवाहन पर यूनानी विजेता सिकन्दर के विरुद्ध आरबेला के युद्ध (331 ईसा पूर्व) में सिन्धु के पूर्वी तथा पश्चिमी भागों के सैनिकों ने उसकी मदद की थी ।

इससे ऐसा लगता है कि इस समय तक इन प्रदेशों पर पारसीकों का प्रभुत्व कायम रहा । किन्तु आर. सी. मजूमदार इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं । उनके अनुसार दारा तृतीय की सेना के भारतीय सैनिक भाड़े पर लिये गये थे और इससे सिन्धु घाटी के ऊपर पारसीक आधिपत्य सूचित नहीं होता है । आरबेला के युद्ध में सिकन्दर ने दारा तृतीय को बुरी तरह परास्त कर उसकी विशाल सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । इसी पराजय के साथ ही भारत से पारसीक आधिपत्य की समाप्ति हुई ।

पारसीक आक्रमण का प्रभाव:

भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में पारसीक आधिपत्य किसी न किसी रूप में लगभग दो शताब्दियों तक बना रहा । राजनैतिक दृष्टि से उसका देश पर कोई ठोस प्रभाव नहीं पड़ा तथा उत्तरी भारत उससे पूर्णतया अप्रभावित रहा । परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से भारत पर उसने महत्वपूर्ण प्रभाव डाले ।

पारसीक शासन में भारत एवं पश्चिम एशिया के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त हुआ । भारतीय विद्वान एवं दार्शनिक पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित हुए । स्काइलैक्स जैसे यूनानी भारत की यात्रा पर आये तथा हेरोडोटस और टेसियस जैसे इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थों के लिये महत्वपूर्ण सूचनायें एकत्रित की ।

आर. एस. शर्मा के अनुसार ईरानियों के माध्यम से ही यूनानियों को भारत की महान सम्पदा के विषय में ज्ञात हुआ जिसे प्राप्त करने के लोभ में कालान्तर में यहाँ सिकन्दर ने आक्रमण किये । व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में भी इस आक्रमण ने महत्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये ।

स्काइलैक्स ने भारत से पश्चिमी देशों, तक एक समुद्री मार्ग की खोज की । भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों में गये और उन्होंने प्रभूत धन अर्जित किया । इसका परिणाम शीघ्र ही समृद्धि के रूप में सामने आया । पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में मिलने वाले ईरानी सिक्कों से ईरान के साथ भारत के व्यापार होने की पुष्टि हो जाती है ।

पारसीक सम्पर्क के फलस्वरूप भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में खरोष्ठी नामक एक नई लिपि का जम हुआ जो ईरानी अरामेइक लिपि से उत्पन्न हुई थी । भारत के पश्चिमी प्रदेश (सिन्ध, गन्धार आदि) पारसीकों के प्रत्यक्ष शासन में थे । अत: यहाँ अरामेइक लिपि प्रचलित थी ।

मौर्य शासक अशोक के दो अभिलेखों-मनसेहरा तथा शाहबाजगढ़ी में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग मिलता है । इन प्रदेशों की भाषायें भी पारसीक भाषा से प्रभावित हुई तथा ‘दिपि’ (राजाज्ञा) तथा ‘निपिष्ट’ (लिखित) जैसे शब्द देश में प्रयुक्त होने लगे । अशोक के लेखों में इनसे मिलते-जुलते शब्द लिपि एवं लिखित प्राप्त होते हैं ।

ईरानी सिक्के ‘सिग्लोई’ पश्चिमोत्तर प्रान्त में प्रचलित थे । मौर्य शासन के विभिन्न तत्वों पर पारसीक प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है । मौर्य सम्राटों ने पारसीक नरेशों की दरवारी शान-शौकत तथा कुछ परम्पराओं का अनुकरण किया ।

सम्राट के जन्म दिन पर केश-प्रक्षालन की प्रथा ईरान से ग्रहण की गयी थी । इसी प्रकार ईरान में दण्ड की एक विधि के रूप में सिर मुड़ा देने की प्रथा थी । कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा बौद्ध ग्रन्थ महावंश दोनों में ही इस प्रकार से दण्ड दिये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के पाटलिपुत्र के राजप्रासाद में अनेक पारसीक तत्व देखे जा सकते हैं । पाटलिपुत्र की खुदाई में विशाल स्तम्भों वाले भवन के अवशेष मिले हैं । इस स्तम्भ-मण्डप की प्रेरणा एवं उसकी सामान्य डिजाइन दारा के शत स्तम्भ-मण्डप से ली गई प्रतीत होती है ।

सम्भव है अशोक ने शिलाओं पर शासनादेश खुदवाने की शैली दारा प्रथम के लेखों से ही ग्रहण की हो, क्योंकि दारा तथा अशोक के लेखों की प्रारम्भिक पंक्तियाँ एक जैसी हैं । दारा के लेख ‘सम्राट दारा इस प्रकार कहता है…… (थातियदारयवहुश्क्षयथिय) से प्रारम्भ होते हैं ।

इसी प्रकार अशोक के अभिलेखों की प्रारम्भिक पंक्ति है- ‘देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है (देवानांपियदसि लाजा आह) ।’ कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्ययुगीन स्तम्भों पर घण्टाशीर्ष की कल्पना तथा उनकी चमकदार पालिश भी फारसी स्तम्भों से ही ग्रहण की गई है ।

किन्तु वासुदेव शरण अग्रवाल इस मत से असहमत हैं । उनके अनुसार अशोक के स्तम्भ सपाट तथा एक ही पाषाण को तराश कर बनाये गये थे । इसके विपरीत फारसी स्तम्भ गड़ारीदार तथा अनेक पाषाण खण्डों को जोड़कर बने थे । फारसी स्तम्भों के आधार पर चौकी बनी होती थी, जबकि अशोक के स्तम्भों में यह नहीं मिलती ।

पुनश्च फारसी स्तम्भों में घण्टाकृति नीचे जबकि भारतीय स्तम्भों में ऊपर है । इन्हें पूर्णकलश अथवा मंगलकलश का प्रतीक कहा जा सकता है । पारसीकों की क्षत्रप शासन-प्रणाली का विकास भारत में शक-कुषाण युग में पर्याप्त रूप से हुआ ।

कुछ इतिहासकार भारत में मुद्राओं के प्रचलन तथा पाषाण-स्थापत्य में भी पारसीक प्रेरणा देखते हैं । किन्तु प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्वाधान में कौशाम्बी में की गयी खुदाइयों में जो अवशेष मिले हैं उनके आधार पर यह मत अमान्य हो जाता है । यहाँ से लेखरहित सांचे में ढली हुई ताम्र मुद्रायें मिली हैं जिनकी तिथि नवीं शताब्दी ईसा पूर्व की हैं । यह भारत में सिक्कों की प्राचीनता को पारसीक शासन के बहुत पहले ही सिद्ध करता है ।

इसी प्रकार यहाँ के राजमहल के अवशेष यह सिद्ध करते हैं कि भारत में पाषाण-भवन बुद्ध काल में ही बनने लगे थे । यह भी उल्लेखनीय है कि कच्छ क्षेत्र में स्थित धौलावीर नामक सैन्धव स्थल की खुदाई में पालिशदार श्वेत पाषाण खण्ड मिलते हैं जिनका उपयोग स्तम्भों के रूप में किया गया था ।

कोटडीजी तथा कालीवंगन के प्राक्-सैन्धव स्थलों से दुर्गीकरण के साक्ष्य मिल चुके हैं । इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में पाषाण निर्मित भवन अति प्राचीन काल से ही अस्तित्व में थे तथा पत्थरों पर पालिश करने की कला से भी लोग सुपरिचित थे । इसका स्रोत ईरान अथवा कहीं और ढूंढ़ना तर्कसंगत नहीं होगा । इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से पारसीक आक्रमण ने भारतवर्ष पर अनेक महत्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये ।

2. सिकन्दर का भारतीय अभियान (Alexander’s Indian Campaign):

हखामनी आक्रमण के पश्चात् पश्चिमोत्तर भारत एक दूसरे यूरोपीय आक्रमण का शिकार हुआ । यह महान यूरोपीय विजेता सिकन्दर के नेतृत्व में होने वाला मैसीडोन आक्रमण था जो पहले की अपेक्षा कहीं अधिक भयावह सिद्ध हुआ । सिकन्दर मैसीडीन के क्षत्रप फिलिप द्वितीय (359-336 ईसा पूर्व) का पुत्र था ।

पिता की मृत्यु के पश्चात् 20 वर्ष की अल्पायु में वह राजा बना । वह एक महत्वाकांक्षी शासक था । बचपन से ही उसकी इच्छा विश्व सम्राट बनने की थी । कहा जाता है कि विश्व-विजय करने की प्रेरणा उसे अपने पिता से ही प्राप्त हुई थी । उसमें अदम्य उत्साह, साहस तथा वीरता विद्यमान थी ।

मैसीडीन तथा यूनान में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद उसने दिग्विजय की एक व्यापक योजना तैयार की । इस प्रक्रिया में उसने एशिया माइनर, सीरिया, मिस्र, बेबीलोन, बैक्ट्रिया, सोग्डियाना आदि को जीता । 331 ईसा पूर्व में आरबेला के प्रसिद्ध युद्ध में दारा तृतीय के नेतृत्व में उसने विशाल पारसीक वाहिनी को परास्त किया । इस आश्चर्यजनक सफलता से सम्पूर्ण हखामनी साम्राज्य उसके चरणों में लोटने लगा ।

पश्चिमोत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ इस समय अराजकता के दौर से गुजर रही थीं । यह प्रदेश सिकन्दर की विजयी के लिये सर्वथा उपयुक्त था । अत: हखामनी साम्राज्य को ध्वस्त करने के पश्चात् 326 ईसा पूर्व के बसन्त के अन्त में एक विशाल सेना के साथ वह भारतीय विजय के लिये चल पड़ा ।

भारत के पश्चिमोत्तर भाग में इस समय अनेक छोटे-बड़े जनपद, राजतन्त्र एवं गणतन्त्र विद्यमान थे । पारस्परिक द्वेष एवं घृणा के कारण वे किसी भी आक्रमणकारी का संगठित रूप में सामना नहीं कर सकते थे । राजतन्त्र, गणतन्त्रों को समाप्त करना चाहते थे जबकि गणतन्त्रों के लिये राजतन्त्रों की सत्ता असह्य हो रही थी । डॉ. हेमचन्द्र रायचौधरी ने 28 स्वतन्त्र शक्तियों का उल्लेख किया है जो इस समय पंजाब तथा सिन्ध के प्रदेशों में विद्यमान थी ।

इनके नाम इस प्रकार हैं:

(1) आस्पेशियन- यह गणतन्त्रात्मक राज्य था जो काबुल नदी के उत्तर के पहाड़ी भागों में फैला हुआ था ।

(2) गुरेअन्स प्रदेश- यह गणराज्य आस्पेशियन तथा अश्वकों के राज्य के बीच स्थित था ।

(3) अस्सकेनोस राज्य- इससे अश्वकों के राज्य से तात्पर्य है । यह गणराज्य स्वात नदी के तट पर स्थित था तथा मेगासा (मसग) यहाँ की राजधानी थी ।

(4) नीसा- यह गणराज्य काबुल तथा सिन्धु नदियों के बीच स्थित था ।

(5) प्यूकेलाओटिस- यह संस्कृत के पुष्कलावती का रूपान्तर है । यहाँ राजतन्त्र था ओर यह पश्चिमी गन्धार (पेशावर जिला) में स्थित था ।

(6) तक्षशिला- तक्षशिला का राजतन्त्र सिन्धु तथा झेलम नदियों के बीच स्थित था । तक्षशिला प्राचीन गन्धार राज्य का पूर्वी भाग था । यह आजकल पाकिस्तान के रावलपिण्डी जिले में बसा हुआ है ।

(7) अरसेक्स राज्य- पाकिस्तान के हजारा जिले में स्थित यह राजतन्त्र तक्षशिला का ही एक भाग था । इसे संस्कृत में ‘उरशा’ कहा जाता है ।

(8) अभिसार- स्ट्रैबो ने तक्षशिला के उत्तर की ओर पहाड़ों के मध्यवर्ती प्रदेश को अभिसार कहा है । सम्भवत: यह प्राचीन कम्बोज राज्य का ही एक भाग था । यहाँ राजतन्त्र था ।

(9) पुरू राज्य- यह राजतन्त्र झेलम तथा चिनाब नदियों के बीच में स्थित था । इसमें प्राचीन कैकेय प्रदेश भी सम्मिलित था ।

(10) ग्लौगनिकाय प्रदेश- यह एक गणराज्य था जो चिनाब नदी के पश्चिम में वसा हुआ था ।

(11) गान्दारिम- यह राजतन्त्र था जो चिनाब और राबी नदियों के बीच स्थित था । यह गन्धार महाजनपद का ही पूर्वी भाग था । यहाँ पुरु का भतीजा राज्य करता था ।

(12) अद्रेस्ताई- यह गणराज्य राबी के पूर्व की ओर स्थित था । इसकी राजधानी “पिम्प्रमा” थी ।

(13) कथाई अथवा कैथियन्स- स्ट्रैबो ने इस राज्य को झेलम और चिनाब के बीच स्थित बताया है । यहाँ गणराज्य था ।

(14) सोफाइटम (सौभूति) राज्य- यह भी झेलम का तटवर्ती राजतन्त्र था ।

(15) फेगेला- यह राजतन्त्र राबी तथा व्यास नदियों के बीच में स्थित था ।

(16) सिबोई- यह गणराज्य था । सिबोई लोग झाग जिले के शोरकोट क्षेत्र के निवासी थे । उनका राज्य झेलम तथा चिनाब नदियों के संगम के नीचे बसा हुआ था ।

(17) अगलसोई- यह भी गणराज्य था । ये लोग सिबोई के ही पड़ोसी थे ।

(18) सूद्रक (क्षुद्रक)- व्यास नदी के तट पर बसा हुआ यह भी एक गणराज्य था ।

(19) मलोई (मालब)- राबी नदी के दोनों तटों पर मालवों का गणराज्य स्थित था । मालवों तथा क्षुद्रकों ने संगठित रूप से सिकन्दर का प्रतिरोध किया था ।

(20) आबस्टनोई (अम्बष्ठ)- इस गणराज्य के लोग चिनाब तथा सिन्धु नदियों के संगम के ऊपर निवास करते थे ।

(21-22) जाथ्रोयी और ओसोडिओई- ये दोनों ही गणराज्य थे । एरियन ने इनका साथ-साथ उल्लेख किया है । ये दोनों राज्य चिनाब व राबी तथा सिन्धु और चिनाब नदियों के बीच के भाग में फैले हुए थे ।

(23-24)- सोद्राई और ममनोई- ये दोनों ही गण जातियाँ थी । उनका राज्य उत्तरी सिन्धु, बहावलपुर तथा सिन्धु की सहायक नदियों के संगम के नीचे स्थित था ।

(25) मोसिकनोम राज्य- यह राजतन्त्र था जिसमें वर्तमान सिन्धु का अधिकांश प्रदेश शामिल था ।

(26) आक्सीकनोम राज्य- यह भी राजतन्त्र था । कर्निघम के अनुसार यह लरखान के आस-पास स्थित था ।

(27) सम्बोस राज्य- यह मोसिकनोस का पड़ोसी राजतन्त्र था । दोनों एक-दूसरे के शत्रु थे ।

(28) पटलेन (पाटल)- यह राजतन्त्र सिन्धु नदी के डेल्टा में बसा हुआ था । पाटल इसकी राजधानी थी । यूनानी लेखकों के अनुसार यहाँ स्पार्टा के समान ही “द्वैराज्य-प्रथा” थी ।

सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखकों ने इन राज्यों के बीच पारस्परिक शत्रुता का उल्लेख किया है । कर्टियस हमें बताता है कि तक्षशिला के राजा आम्भी तथा कैकयनरेश पोरस में शत्रुता थी । एरियन के अनुसार पोरस और अबीसेयर्स ने मिलकर मालव तथा क्षुद्रकों पर आक्रमण किया था । पोरस तथा उसके भतीजे के सम्बन्ध खराब थे । सम्बोस और मोसिकनोस एक-दूसरे के शत्रु थे । इस आपसी घृणा एवं संघर्ष के वातावरण ने सिकन्दर का कार्य सरल बना दिया ।

सिकन्दर का सिन्धु को प्रस्थान:

हखामनी साम्राज्य का विनाश करने के पश्चात् सिकन्दर ने उसके सबसे पूर्वी भाग में स्थित बल्ख (बैक्ट्रिया) के प्रान्त में एक उपनिवेश की स्थापना की । इसी स्थान से उसने भारतीय विजय के लिये कूच किया । बल्ख से चलकर काबुल के मुख्य मार्ग से होते हुए उसने हिंदूकुश पर्वत पार किया ।

वह एलेक्जोन्ड्रिया पहुँचा जहाँ के क्षत्रप को उसने कुशासन के आरोप में पदच्युत कर उसके स्थान पर एक नये क्षत्रप की नियुक्ति की । यहाँ से सिकन्दर ने निकैया को प्रस्थान किया । यह भारत का सबसे निकटवर्ती प्रदेश था । निकैया में सिकन्दर से तक्षशिला के राजा आम्भी के नेतृत्व में एक दूतमण्डल मिला जिसने उसे सहायता का पूर्ण आश्वासन दिया ।

तक्षशिला के राजा ने सिकन्दर को बहुमूल्य वस्तुएं तथा हाथी भेंट किये । किसी भारतीय नरेश द्वारा अपने देश के प्रति विश्वासघात किये जाने का लिखित इतिहास में यह पहला दृष्टान्त है । हिन्दूकुश के उत्तर में शशिगुप्त नामक एक अन्य भारतीय नरेश ने सिकन्दर की अधीनता स्वीकार की तथा उसकी सहायता का वचन दिया ।

इस भारतीय देशद्रोहियों द्वारा आश्वस्त हो जाने के पश्चात् सिकन्दर ने आगे प्रस्थान किया । उसने अपने सेना को दो भागों में विभक्त किया । एक भाग को उसने हेफेस्तियान तथा पेर्डियस नामक अपने दो सेनापतियों के नेतृत्व में काबुल नदी के किनारे-किनारे खैबर दर्रे से होते हुए सिन्धु नदी तक पहुँचने का आदेश दिया ।

दूसरे भाग का नेतृत्व स्वयं ग्रहण कर उसने कुनार तथा स्वात नदी घाटी के पर्वतीय दुर्गम क्षेत्रों में युद्ध किया । प्रथम सैन्य-दल को मार्ग में पुष्कलावती (पश्चिम गन्धार) के शासक अष्टक (अस्टीज = हस्ति) के भीषण अवरोध का सामना करना पड़ा ।

तीस दिनों तक युद्ध करने के बाद यह भारतीय राजा अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिये लड़ता हुआ मारा गया । उसका राज्य को सौंपकर यह सैन्य-दल सिन्धु नदी पर पहुंच गया । सिकन्दर जिस सेना का नेतृत्व कर रहा था उसे कपिशा तथा तक्षशिला के बीच में बसी हुई अनेक स्वाधीनताप्रिय तथा लड़ाकू जन-जातियों से युद्ध करना पड़ा ।

एरियन ने इन पर्वतीय क्षेत्र की जातियों को अस्पेशियन, गौरियन तथा अस्सकेनिया कहा है । सर्वप्रथम कुनार घाटी के अस्पेशियनों से उनका युद्ध हुआ । ये कड़े प्रतिरोध के बाद हरा दिये गये । इसके पश्चात् वह नीसा की ओर बढ़ा । नीसा जाति ने बिना युद्ध के ही सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अपने को यूनानियों का वंशज बताया ।

तत्पश्चात् गौरियनों के प्रदेश को जीतते हुए सिकन्दर ने अश्वकों के राज्य में प्रवेश किया जिनकी राजधानी मसग में थी । भीषण प्रतिरोध के पश्चात् वे परास्त हुए । यूनानी लेखकों के विवरण से पता चलता है कि इस राज्य की स्त्रियों ने पुरुषों की मृत्यु के बाद युद्ध किया था । सिकन्दर ने इस नगर की सभी स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया ।

मसग के बाद वाजिरा (बिर-कोट) तथा ओरा (उदग्राम) को जीतता हुआ सिकन्दर पुष्कलावती आया जहाँ उसकी दूसरी सेना ने पहले से ही अधिकार कर रखा था । सिन्धु नदी के पश्चिमी प्रदेशों को उसने एक प्रान्त (क्षत्रपी) में संगठित किया तथा निकोनोर को वहाँ का क्षत्रप नियुक्त किया ।

फिलिप के नेतृत्व में एक सैनिक जत्था पुष्कलावती में रख दिया । पुष्कलावती तथा सिन्धु के बीच स्थित सभी छोटे-छोटे प्रदेशों को जीतकर उसने निचली काबुल घाटी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली । सिन्धु पार करने के पूर्व कुछ स्थानीय सहायकों की मदद से सिकन्दर ने एओर्नोस (Aornus) के सुदृढ़ गढ़ पर कब्जा कर लिया ।

यहाँ उसने शशिगुप्त को शासक नियुक्त किया । इस स्थान से सिकन्दर वर्तमान ओहिन्द के समीप सिन्धु नदी के तट पर आया जहाँ उसके सेनापतियों ने पहले से ही नावों का पुल बना रखा था । यहाँ एक महीने विश्राम करने के पश्चात् 326 ईसा पूर्व के बसन्त में यूनानी-विजेता ने सिन्धु नदी पार कर भारत-भूमि पर कदम रखे ।

सिन्धु नदी के पार सिकन्दर की गतिविधियां:

सिन्धु नदी पार करने के बाद तक्षशिला के शासक आम्भी, जिसका राज्य सिन्धु तथा झेलम नदियों के बीच फैला था, ने अपनी पूरी प्रजा तथा सेना के साथ सिकन्दर के सम्मुख आत्म-समर्पण कर दिया तथा अपनी राजधानी में सिकन्दर का भव्य स्वागत किया ।

तक्षशिला में एक दरबार लगा जहां पास-पड़ोस के अनेक छोटे-छोटे राजाओं ने सिकन्दर के सामने बहुमूल्य सामग्रियों के साथ आत्म-समर्पण किया । इस प्रकार तक्षशिला में खुशियाँ मनाते हुए सिकन्दर ने झेलम तथा चिनाब के मध्यवर्ती प्रदेश के शासक पोरस (पुरु) से आत्म-समर्पण की माँग की ।

पोरस जैसे स्वाभिमानी राजा के लिये यह शर्त अपने गौरव तथा मर्यादा के विरुद्ध लगी । उसने यह कहला भेजा कि वह यूनानी विजेता के दर्शन रणक्षेत्र में ही करेगा । यह सिकन्दर को खुली चुनौती थी । अत: वह युद्ध के लिए तैयार हुआ ।

झेलम (वितस्ता) का युद्ध:

पोरस तथा सिकन्दर की सेनायें झेलम नदी के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों पर आ डटी । बरसात के कारण झेलम नदी में बाढ़ आ गयी थी । अत: सिकन्दर के लिए नदी पार करना कठिन था । दोनों पक्ष कुछ दिनों तक अवसर की प्रतीक्षा करते रहे ।

अंत में एक रात जब भीषण वर्षा हुई, सिकन्दर ने धोखे से अपनी सेना को झेलम नदी के पार उतार दिया । उसके इस कार्य से भारतीय पक्ष स्तम्भित रह गया । पोरस की सेना बड़ी विशाल थी । एरियन के अनुसार इस सेना में चार हजार वरिष्ठ अश्वारोही, तीन सौ रथ, दो सौ हाथी तथा तीस हजार पैदल सिपाही थे ।

सर्वप्रथम पोरस ने अपने पुत्र के नेतृत्व में 2,000 सैनिकों को सिकन्दर का सामना करने तथा उसका मार्ग अवरुद्ध करने के लिये भेजा । परन्तु यूनानी सैनिकों के सामने वे नहीं टिक सके तथा उसका पुत्र मारा गया । अब पोरस सिकन्दर के साथ अन्तिम मुठभेड़ के लिये अपनी पूरी सेना के साथ मैदान में आ डटा ।

यह भारतीयों का दुर्भाग्य था कि प्रारम्भ से ही युद्ध उनके विरुद्ध रहा । पोरस के सैनिक विशाल धनुषों से युक्त थे । बरसात के कारण भूमि दल-दल हो जाने से उसके लिये धनुष को जमीन में टेक सकना असंभव-सा हो गया । पोरस की सेना के विशालकाय हाथी यूनानी सेना के तीव्रगामी घोड़ों के सामने नहीं टिक सके ।

युद्ध का परिणाम सिकन्दर के पक्ष में रहा । बहुत शीघ्र पोरस की विशाल सेना तितर-बितर हो गई । उनके सैनिक भाग निकले तथा अनेक मौत के घाट उतार दिये गये । परन्तु साढ़े छ: फुट का लम्बा जवान पोरस विशालकाय हाथी पर सवार हो अन्त तक लड़ता रहा ।

जब विजय की समस्त आशायें क्षीण हो गयीं तो उसने युद्ध-भूमि से अपने हाथी मोड़ दिये । इसे प्रत्यावर्तित होते हुए देखकर सिकन्दर ने तक्षशिला के राजा आम्भी को आत्म-समर्पण के संदेश के साथ पोरस के पास भेजा । देश-द्रोही आम्भी को देखते ही घायल पोरस की भुजायें एक वार पुन: फड़क उठी तथा उसका वध करने के निमित्त उसने अपनी शेष शक्ति से उसके ऊपर भाले का अन्तिम प्रहार किया । सौभाग्यवश आम्भी बच गया ।

इस प्रकार का दृश्य एक प्रसिद्ध सिक्के पर अंकित है जिसके मुख भाग पर भागते हुये हाथी के पीछे घुड़सवार (आम्भी ?) का चित्र तथा बर्छा फेंककर बार करते हुए हाथी पर सवार (पोरस) का चित्र अंकित मिलता है तथा पृष्ठ भाग पर जियस देवता की वेष-भूषा में वज्र धारण किये हुए सिकन्दर का चित्र अंकित है ।

आम्भी के वापस लौटने के बाद सिकन्दर ने दूसरा दूत-मंडल पोरस को मनाने के लिये भेजा । इसमें पोरस का मित्र मेरुस भी था । उसके प्रयास से पोरस आत्म-समर्पण के लिये राजी हो गया तथा उसने अपने को यूनानी सेना के हवाले कर दिया ।

वह यूनानी सेना द्वारा वन्दी बना लिया गया तथा घायलावस्था में सिकन्दर के सामने लाया गया । उसके शरीर पर नौ धाव थे । सिकन्दर ने पोरस की वीरता की प्रशंसा की तथा पूछा, ”तुम्हारे साध कैसा बर्ताव किया जाये ?” पोरस ने बड़ी निर्भीकता एवं गर्व के साथ उत्तर दिया- “जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है ।”

इस उत्तर को सुनकर सिकन्दर बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने पोरस को न केवल उसका राज्य ही लौटाया, अपितु उसके राज्य का उससे भी अधिक विस्तार कर दिया । प्लूटार्क के अनुसार इसमें 15 संघ राज्य, उनके पाँच हजार बड़े नगर तथा अनेक ग्राम थे ।

इस प्रकार पोरस की पराजय भी जय में परिणत हो गई । इसके पश्चात सिकन्दर ने युद्ध में वीरगति पाने वाले सैनिकों का अन्त्येष्टि संस्कार किया तथा यूनानी देवताओं की पूजा की । उसने दो नगरों की स्थापना की ।

पहला नगर रणक्षेत्र में ही विजय के उपलक्ष्य में बसाया गया और उसका नाम “निकैया” (विजयनगर) रखा गया । दूसरा नगर झेलम नदी के दूसरे तट पर उस स्थान पर बसाया गया जहाँ सिकन्दर का प्रिय घोड़ा ‘बउकेफला’ मरा था । घोड़े के नाम पर इस नगर का नाम भी ‘बउकेफला’ रखा गया ।

झेलम के बाद के युद्ध:

झेलम के युद्ध में पोरस को परास्त करने के पश्चात् सिकन्दर ने चिनाब नदी के पश्चिमी तट पर स्थित ‘ग्लौचुकायन-राज्य’ पर आक्रमण किया । इस राज्य को जीतकर पोरस के राज्य में मिला दिया गया । इसी बीच अश्वकों के प्रदेश में विद्रोह उठ खड़ा हुआ तथा यूनानी क्षत्रप निकानोर मौत के घाट उतार दिया गया ।

सिकन्दर ने एलेक्जोन्ड्रिया तथा तक्षशिला के क्षत्रपों-टाइरेसपेस तथा फिलिप-को विद्रोह को दबाने का आदेश दिया । उनकी मदद के लिये ईरान से थ्रेसियन सेनायें भी आ पहुँचीं । विद्रोहियों को दबा दिया गया । इसके पश्चात् सिकन्दर ने चिनाब नदी पार कर ‘गान्दारिस’ राज्य में प्रवेश किया ।

यहाँ पोरस का भतीजा ‘छोटा पुरु’ शासन करता था । वह अपना राज्य छोड़कर भाग गया तथा सिकन्दर ने चेनाब और रावी नदियों के बीच के उसके राज्य पर अधिकार कर लिया । वह सम्पूर्ण क्षेत्र पोरस के राज्य में मिला दिया गया । इसके बाद सिकन्दर ने राबी नदी पार किया तथा गणजातियों पर आक्रमण कर दिया ।

अद्रेष्टाई (आद्रिज) लोगों ने आत्म-समर्पण कर दिया तथा सिकन्दर ने उसकी राजधानी ‘पिम्प्रमा’ पर अधिकार कर लिया । इसके आगे कथाई (कठ) गणराज्य था । कठ गणजाति के लोग पंजाब के सबसे अधिक लड़ाकू योद्धाओं में थे । एरियन उनके साहस की प्रशंसा करता है ।

उनकी राजधानी संगल में थी । उन्होंने सिकन्दर का कड़ा प्रतिरोध किया तथा अपनी राजधानी के चारों और रथों का घेरा बना लिया । अन्ततः पोरस की मदद से सिकन्दर ने उन्हें परास्त किया । उनका नगर ध्वस्त कर दिया गया तथा कठों की सामूहिक हत्या कर दी गयी ।

यूनानी विवरण के अनुसार 17,000 व्यक्ति मारे गये तथा 70,000 बन्दी बना लिये गये । इन गणजातीय प्रदेशों को भी पोरस के अधीन कर दिया गया । इसके बाद सिकन्दर ने सौभूति तथा फेगेला नामक दो राजाओं से उपहार प्राप्त किया जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी । यहाँ से सिकन्दर व्यास नदी के तट पर आया ।

सिकन्दर का प्रत्यावर्तन:

व्यास नदी सिकन्दर के उत्कर्ष का चरम बिन्दु सिद्ध हुई । यहाँ एक विचित्र घटना घटित हुई । उसकी सेना में विद्रोह हो गया तथा उसके सैनिकों ने और आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया । उनका उत्साह भंग हो चुका था तथा हिम्मत टूट चुकी थी । सिकन्दर ने अपने सैनिकों के बीच एक जोशीला भाषण दिया तथा नाना प्रकार के प्रलोभनों द्वारा उन्हें प्रेरित करने का प्रयास किया ।

परन्तु उसके सारे प्रयास निष्फल रहे और उसके सैनिकों की हिम्मत फिर न बँध सकी । सिकन्दर स्वयं बड़ा लज्जित हुआ और शर्म के मारे वह तीन दिनों तक अपने शिविर में ही पड़ा रहा । अंततोगत्वा उसने सैनिकों की वापसी का आदेश दे दिया ।

सिकन्दर के सैनिकों के उत्साह-भंग के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी बताये जाते हैं:

(1) उन्हें स्वदेश छोड़े हुए बहुत दिन बीत चुके थे, अत: उन्हें घर की याद सता रही थी ।

(2) निरन्तर युद्धों में व्यस्त रहने के कारण वे थक गये थे । गर्मी, वर्षा तथा बीमारियों के कारण उनमें से अनेक मृत्यु के शिकार हो चुके थे तथा अनेक दुर्बल एवं अपंग हो गये थे । ऐसी परिस्थिति में उनका हतोत्साहित हो जाना स्वाभाविक ही था ।

(3) झेलम के युद्ध में यद्यपि सिकन्दर की विजय हुई थी तथापि भारतीय सैनिकों ने यूनानियों के छक्के छुडा दिये थे । प्रत्येक स्थान पर उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था । पुन: व्यास नदी के पूर्व की ओर नन्दों का शक्तिशाली साम्राज्य था । यूनानियों ने नन्दों की वीरता, सम्पत्ति तथा समृद्धि के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था । अत: वे उनके साथ किसी प्रकार की टक्कर लेने के लिये तैयार नहीं थे ।

निराश सिकन्दर जिस मार्ग से आया था उसी मार्ग से वापस लौटने का निश्चय किया । इसके पूर्व उसने यूनानी देवताओं की स्मृति में व्यास नदी के तट पर अपनी पूरी विजय की सीमा अंकित करने के लिये 12 विशाल वेदियाँ बनवाई तथा उनकी विधिवत् पूजा की ।

उसने व्यास तथा झेलम नदी के बीच का सम्पूर्ण प्रदेश पोरस के अधिकार में छोड़ दिया । आम्भी को झेलम के पश्चिमी तथा अभिसार को अर्सेस राज्य के साथ कश्मीर के भू-भाग में उसने शासन करने का अधिकार दिया । सिकन्दर ने चिनाब नदी पार की तथा झेलम तट पर आया ।

यहाँ उसे मालव तथा क्षुद्रक गणों के संगठित प्रतिरोध का सामना करना पड़ा । इस संघ के पास एक विशाल सेना थी । उन्होंने डटकर सिकन्दर का मुकाबला किया और सिकन्दर को बुरी तरह से घायल कर दिया । परन्तु मालव लोग परास्त हुये । उनके राज्य के सभी नर-नारी तथा बच्चे मौत के घाट उतार दिये गये ।

मालवों के पतन के बाद क्षुद्रकों ने भी हथियार डाल दिये और उनका संघ भंग कर दिशा गया । यहाँ सिकन्दर का प्रतिरोध कुछ अन्य गणराज्यों ने भी किया । व्यास तथा चिनाब नदियों के संगम के आस-पास शिवि तथा अगलस्स जातियाँ निवास करती थीं । शिवि लोगों ने बिना किसी युद्ध के ही आत्म-समर्पण कर दिया परन्तु अगलस्स जाति ने एक विशाल सेना के साथ उसका सामना किया ।

उन्होंने अपनी स्त्रियों तथा बच्चों को आग में झोंक दिया तथा स्वयं लड़ते-लड़ते मारे गये । दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब में अम्बष्ठ, क्षतृ तथा वसाति नामक छोटे-छोटे गणराज्य थे । उन्होंने भी सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली ।

अपनी विजय के अंतिम दौर में सिकन्दर ने पंजाब की नदियों के संगम के नीचे सिन्धु नदी के निचले भागों को जीता । यहाँ की राजनीतिक व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी । सर्वप्रथम सोग्डोई के राजा ने आत्मसमर्पण किया । इसके बाद उसने मुषिक राज्य पर आक्रमण किया ।

यहाँ के राजा ने भी साधारण प्रतिरोध के वाद उसकी अधीनता स्वीकार कर ली । इसी समय मुषिक राज्य के पड़ोसी एक पहाड़ी प्रदेश के शासक सम्बोस ने भी सिकन्दर को अपना राजा मान लिया । परन्तु निचली सिन्धु घाटी के ब्राह्मणों का शक्तिशाली राज्य था ।

ब्राह्मणों ने सिकन्दर का सबसे प्रबल प्रतिरोध किया । उन्होंने विदेशियों का विरोध करना जनता का धर्म बताया तथा जिन राजाओं ने सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, उसकी निन्दा करते हुए उन्हें देशद्रोही करार किया । फलस्वरूप मुषिकनरेश मुषिकनोस तथा उसके पड़ोसी राजा आक्सीकनोस ने यूनानी दासता का जुआ अपने कन्धों से उतार फेंका ।

परन्तु सभी विद्रोही परास्त किये गये तथा उनमें से अनेक की हत्या कर दी गई । इसके बाद सिकन्दर पाटल पहुँचा जहाँ सिन्धु नदी दो धाराओं में विभक्त होती है । डियोडोरस के अनुसार स्पार्टा के ही समान यहाँ दो राजाओं का शासन (द्वैराज्य) था तथा कुलवृद्धों की एक सभा द्वारा उसका संचालन होता था ।

यूनानियों के आगमन का समाचार सुनते ही यहाँ के नागरिकों ने नगर खाली कर दिया तथा सिकन्दर ने उस पर पूर्ण अधिकार कर लिया । यहाँ उसने एक नयी क्षत्रपी बनाई जिसका शासक (क्षत्रप) पिथोन को नियुक्त किया । यह सिकन्दर की अन्तिम विजय थी ।

325 ईसा पूर्व के सितम्बर माह में सिकन्दर ने पाटल से यूनान को प्रस्थान किया । जेड्रोसिया के रेगिस्तानी भागों से होता हुआ वह बेबीलोन पहुँचा । इसके दो वर्ष पश्चात् (323 ईसा पूर्व के लगभग) इसी स्थान में उसकी जीवन-लीला समाप्त हुई ।

आक्रमण का प्रभाव:

भारतवर्ष पर सिकन्दर के आक्रमण के प्रभाव के विषय में विद्वानों में गहरा मतभेद रहा है । सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखक इस आक्रमण को बहुत बड़ी घटना मानते हैं । प्लूटार्क लिखता है कि यदि सिकन्दर का आक्रमण न होता तो बड़े-बड़े नगर नहीं बसते ।

जूलियन के अनुसार सिकन्दर ने ही भारतीयों को सभ्यता का पाठ पढ़ाया । उसके आक्रमण का उद्देश्य ही सभ्यता का प्रचार-प्रसार था । इसके विपरीत अनेक विद्वानों ने इस आक्रमण को नितान्त महत्वहीन घोषित किया है जिसका भारत के तत्कालीन जन-जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।

उनके अनुसार सिकन्दर आँधी की तरह आया और चला गया । इतिहासकार विन्सेन्ट स्मिथ सिकन्दर के आक्रमण का प्रभाव बताते हुए लिखते हैं- भारत अपरिवर्तित रहा । युद्ध के घाव शीघ्र भर गये । जब धीर बैलों तथा उन्हीं के समान धीर किसानों ने अपना परिश्रम प्रारम्भ किया, तो ध्वस्त खेत एक बार फिर लहलहा उठे ।

वे स्थान जहाँ लाखों युद्ध में मारे गये थे फिर उमड़ते हुए जन-समुदाय से भर गये । भारत का यूनानीकरण नहीं हुआ । वह अपना शानदार पृथकता का जीवन व्यतीत करता रहा और मेसोडोनियन झंझावत के प्रवाह को शीघ्र भूल गया । कोई भारतीय लेखक-हिन्दू, बौद्ध अथवा जैन-सिकन्दर के आक्रमण और उसकी कृतियों का लेशमात्र भी संकेत नहीं करता ।

यद्यपि इतिहासकार का यह कथन सत्य है कि भारत का यूनानीकरण नहीं हुआ, तथापि इस आधार पर ऐसा नहीं माना जा सकता है कि सिकन्दर के आक्रमण का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । राजनीतिक तथा सांस्कृतिक, दोनों ही दृष्टियों से इसका भारत पर कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा था । सिकन्दर के आगमन के पूर्व पश्चिमोत्तर भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था । सिकन्दर ने उन्हें विजित कर इन भागों में राजनीतिक एकता की स्थापना की ।

उसने इस सम्पूर्ण प्रदेश को चार प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त किया:

(1) प्रथम प्रान्त सिन्धु के उत्तरी तथा पश्चिमी भागों में बनाया गया । पहले इसका क्षत्रप निकानोर था किन्तु उसकी हत्या के बाद सिकन्दर ने फिलिप को इस प्रान्त का क्षत्रप बना दिया ।

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(2) द्वितीय प्रान्त में सिन्धु तथा झेलम के बीच का भू-भाग सम्मिलित किया गया और इसे तक्षशिला के शासक आम्भी के अधीन कर दिया गया ।

(3) तृतीय प्रान्त में झेलम नदी के पूर्वी भाग सम्मिलित थे तथा इसका विस्तार व्यास नदी तक था । यह सबसे बड़ा प्रान्त था इसे पोरस के अधीन रखा गया । एरियन के अनुसार इसमें दो हजार नगर थे ।

(4) चतुर्थ प्रान्त सिन्धु नदी के निचले भाग में स्थापित किया गया । यहाँ का क्षत्रप पिथोन को बनाया गया ।

अपने इस कार्य द्वारा सिकन्दर ने अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय एकता को प्रोत्साहन दिया । कालान्तर में चन्दगुप्त मौर्य ने बड़ी आसानी से इन प्रदेशों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया । इस प्रकार- ‘यदि पूर्वी भारत में उग्रसेन महापद्‌म मगध के सिंहासन पर चन्द्रगुप्त मौर्य का अग्रज रहा, तो पश्चिमोत्तर भारत में सिकन्दर स्वयं उस सम्राट का अग्रदूत था ।’

सिकन्दर के आक्रमण के फलस्वरूप भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्ध और दृढ़ हुए । सिकन्दर के आक्रमण के परिणामस्वरूप पश्चिमोत्तर भारत में अनेक यूनानी उपनिवेश स्थापित हो गये, जैसे- निकैया, बउकेफला, सिकन्दरिया (सिन्ध तथा चिनाब नदियों के संगम पर), सोग्डियन-सिकन्दरिया (सिन्ध तथा पंजाब की नदियों के संगम के नीचे) आदि ।

इन उपनिवेशों के माध्यम से भारत तथा यूनान एक-दूसरे के घनिष्ठ संपर्क में आये तथा दोनों के बीच आवागमन के लिये समुद्री तथा स्थलीय मार्ग खुल गये । इससे लोगों का भौगोलिक ज्ञान और अधिक विस्तृत हो गया । अनेक भारतीय व्यापारी यूनान गये तथा यूनानी व्यापारी भारत आये ।

इस व्यापारिक आदान-प्रदान से व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई । व्यापारिक सम्पर्क की वृद्धि के फलस्वरूप भारत में यूनानी मुद्राओं के अनुकरण पर ‘उलूक शैली’ के सिक्के ढाले गये । इस प्रकार भारतीय मुद्रा-निर्माण कला का विकास हुआ ।

पश्चिमी एशिया तथा भारत के बीच होने वाले व्यापारिक सम्पर्क ने नगरीकरण की प्रक्रिया को तीव्रतर कर दिया । सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस आक्रमण ने अनेक महत्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये । यूनानी शासन-पद्धति से भारतीय शासन-पद्धति प्रभावित हुई ।

इस समय से साम्राज्यिक (शाही) व्यवस्था हिन्दू-राज्यतन्त्र का स्थायी तत्व बन गई । यह यूनान का ही प्रभाव था । कला एवं ज्योतिष के क्षेत्र में भारतीयों ने यूनानियों से बहुत कुछ सीखा । निहार रंजन राय के अनुसार मौर्य स्तम्भों के शीर्षकों को मण्डित करने वाली पशु-आकृतियों पर यूनानी कला का ही प्रभाव था ।

ADVERTISEMENTS:

कालान्तर में पश्चिमोत्तर प्रदेशों की गंन्धार-कलाशैली, यूनानी कला के प्रभाव से ही विकसित हुई थी । अनेक यूनानी, भारतीय दार्शनिकों के सम्पर्क में आये तथा यहाँ के दर्शन से प्रभावित हुए । यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस पर भारतीय दर्शन का प्रभाव स्पष्ट है ।

सिकन्दर के अभियान से यूरोप में भारत के विषय में जानकारी अधिक हुई । सिकन्दर के साथ कई लेखक तथा इतिहासकार भारत आये । उन्होंने तत्कालीन भारत की राजनैतिक दशा के विषय में लिखा । उनके ग्रन्थ कालान्तर में इतिहास के पुनर्निमाण में सहायक बने ।

रोमिला थापर के अनुसार- ‘सिकन्दर के आक्रमण का सर्वाधिक उल्लेखनीय परिणाम न राजनीतिक था, न सैनिक । उसका महत्व इस बात में निहित है कि वह अपने साथ कुछ ऐसे यूनानियों को लाया था जिन्होंने भारत के विषय में अपने विचारों को लिपिबद्ध किया और वे इस काल पर प्रकाश डालने की दृष्टि से मूल्यवान है ।’

कुछ विद्वानों का विचार है कि सिकन्दर तथा उसके उत्तराधिकारियों ने भारत के अतिरिक्त हखामनी साम्राज्य के सभी क्षेत्रों का यूनानीकरण कर दिया था तथा यहाँ से पारसीक कलाकारों और अधिकारियों को भारत की ओर खदेड़ दिया । वे भारत में बस गये तथा मौर्य साम्राज्य एवं शासन के विविध पक्षों को उन्होंने प्रभावित किया ।

इस प्रकार पारस्परिक बौद्धिक आदान-प्रदान से दोनों देशों के ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई । परन्तु इन प्रभावों के बावजूद भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मूल पूर्णतया अप्रभावित रहा । भारतीय संस्कृति के ऊपर यूनानी प्रभाव के विषय में अंग्रेजी कवि मैथ्यू आरनाल्ड की अग्रलिखित पंक्तियाँ वस्तुतः उल्लेखनीय है- पूर्व (भारत) झंझा (विदेशी आक्रमण) के सामने धीर-गम्भीर घृणा के साथ नतमस्तक हुआ, सेना के गर्जन के निकल जाने के बाद वह (भारत) पुन: विचार-सागर में निमग्न हो गया ।

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