लैटिन अमेरिका में महिलाओं का प्रभुत्व | Essay on Women’s Mastery in Latin America in Hindi!

पहले चिली फिर अर्जेन्टीना और अब ब्राजील में महिला राष्ट्रपति के चुने जाने के बाद कभी ‘पुरुष वर्चस्व’ संस्कृति के लिए कुख्यात लैटिन अमेरिका आज विकासशील राष्ट्रों को महिलाओं के राजनैतिक सशक्तीकरण के क्षेत्र में नया नेतृत्व दे रहा है । हालांकि क्रिस्टीना फर्नान्देस डे किर्चनर ने अर्जेन्टीना के नए राष्ट्रपति के रूप में अपने पति नेस्टर किर्चनर का स्थान लिया है, फिर भी उनके चुनाव को परिवारवाद के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए ।

क्रिस्टीना सीनेटर रह चुकी हैं और एक जुझारू नेता के रूप में पहचानी जाती हैं । मानवाधिकार और महिला समस्याओं पर उन्होने कई दशकों से काम किया है । साथ ही, सैनिक सरकार द्वारा मानवाधिकार हनन के पीड़ितों के समर्थन में उन्होंने कई अभियान चलाए हैं ।

कुछ लोग क्रिस्टीना की तुलना एवा पेरीन से करते हैं, जिन्होंने 40 और 50 के दशकों में अपने ग्लैमर से ‘प्रथम महिला’ के तौर पर अर्जेन्टीना के गरीब और कमजोर तबकों के बीच एक विशिष्ट स्थान बनाया था । हॉलीबुड ने ‘एवीता’ फिल्म बनाकर एवा पेरोन के चरित्र को शाश्वत बनाने की कोशिश की है । क्रिस्टीना की तुलना एवा से करना अनुचित होगा ।

वर्ष 2007 में अर्जेन्टीना के पड़ोसी राष्ट्र चिली में मिशेल बाकेलते राष्ट्रपति चुनीं गयीं । यह दक्षिण अमेरिका की पहली निर्वाचित महिला राष्ट्रपति बनीं । दक्षिणी अमेरिका के एक अन्य देश पेरू में लुरदेश फ्लोरेस महज बहुत कम वोटों से राष्ट्रपति चुनाव जीतने से वंचित रह गयीं । लगता है कि जिस प्रकार दक्षिण अमेरिका में एक के बाद एक वामपंथी सरकारें सत्तासीन हो रही हैं, उसी तरह वहां महिलाओं को राष्ट्रपति चुनने की होड़ लगी है ।

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पेराग्वे के राष्ट्रपति निकनीर दुआरते जिस प्रकार राष्ट्रपति चुनाव के लिए पूर्व शिक्षा मंत्री ब्लांका ओवेलार का खुला समर्थन कर रहे हैं, उसे देखते हुए उनका निर्वाचन तय लग रहा था । ऐसा माना जा रहा था कि कुछ अन्य देशों में भी महिलाएं आगामी चुनावों में अपने देश के सर्वोच्च पद तक पहुँच सकती हैं ।

लैटिन अमेरिका, खासकर दक्षिणी अमेरिका, में यह चमत्कार क्यो हो रहा है? इस नाटकीय बदलाव के पीछे कई कारण हैं । ऐसा नहीं है कि यह सब किसी शून्य में हो रहा है । 1991 में अर्जेन्टीना ने सर्वप्रथम महिला आरक्षण कानून बनाया ।

अब तक 13 अन्य लैटिन अमेरिकी राष्ट्रों ने अर्जेन्टीना के तर्ज पर इस तरह के कानून बनाए हैं, जिसमें यह निर्देश दिया गया है कि राजनैतिक दल महिलाओं के लिए 40 प्रतिशत सीटें आरक्षित करें । अर्जेंटीना ने महिला आरक्षण विधेयक 1991 में पास किया, जो निचले सदन के लिए था ।

2001 में इसी तरह का कानून सीनेट में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के लिए बनाया गया था । इन कानूनों की वजह से वहाँ आज निचले सदन में 35 प्रतिशत और सीनेट में 43 प्रतिशत महिलाएँ मौजूद हैं । दुनिया के सिर्फ नौ राष्ट्रों में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अर्जेन्टीना से ज्यादा है रवान्डा, स्वीडन, फिनलैंड, नॉर्वे, डेनमार्क, नीदरलैंड्‌स, स्पैन, क्यूबा और कोस्टारीका ।

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लैटिन अमेरिका के एक अन्य देश इक्वाडोर में 2006 के चुनाव के बाद सदन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 15 प्रतिशत से बढ्‌कर 25 प्रतिशत हो गया । यह प्रतिनिधित्व होन्डूरास में 2005 के चुनाव के बाद 55 प्रतिशत से उछल कर 23 प्रतिशत हो गया था । लैटिन अमेरिका के अनुभवो से भारत को सीखने की जरूरत है ।

लैटिन अमेरिका के जिन राष्ट्रों ने महिला आरक्षण कानून बनाए हैं, वहां संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व औसतन 20.3 प्रतिशत है, जबकि उन राष्ट्रों में जहाँ आरक्षण नहीं दिया गया है, यह प्रतिशत मात्र 13.7 है । 1995 और 2004 के बीच आरक्षण की व्यवस्था वाले राष्ट्रों में महिला प्रतिनिधित्व 9.5 प्रतिशत बढ़ा है जबकि गैर-आरक्षण वाले देशों में यह वृद्धि मात्र 2.9 प्रतिशत ही है ।

लैटिन अमेरिका की प्रांतीय विधायिकाओं में महिलाओं का प्रतिशत और भी ज्यादा है । स्थानीय निकायों में यह प्रतिशत सर्वाधिक है, हालांकि महिला मेयरों की सज्जा अभी भी बहुत कम है । स्थानीय एक-तिहाई महिलाएं मौजूद हैं । यह संख्या पिछले एक दशक में दोगुनी से भी ज्यादा हो गयी है ।

कोस्टारिका, क्यूबा, गुयाना, सूरीनाम, इक्वाडोर, होन्डूरास और मेक्सिको का प्रतिनिधित्व 20 प्रतिशत से ज्यादा है । संयुक्त राज्य अमेरिका में यह अनुपात महज 16 प्रतिशत ही है । आरक्षण का कमाल लैटिन अमेरिका में नया राजनैतिक धमाल पैदा कर रहा है ।

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लैटिन अमेरिका में घटित बड़ी राजनीतिक घटनाओं की खबर तो हमें देर-सबेर मिल जाती है, किंतु भौगोलिक दूरी और भाषागत अवरोध की वजह से वहां हो रहे व्यापक सामाजिक बदलाव की सूचना बहुत कम लोगों को ही प्राप्त हो पातीहै । लैटिन अमेरिका को संयुक्त राज्य अमेरिका की नजर से देखने की वजह से भी यह दूरी कायम हुई है । 1929 में इक्वाडोर ने सर्वप्रथम महिलाओं को नागरिकता प्रदान की थी । दो साल बाद चिली और उरुग्वे ने इस दिशा में कदम उठाए ।

लैटिन अमेरिका में चर्च के विरोध की वजह से महिलाओं को वोट देने का हक देर से मिला । मेक्सिको में यह हक 1953 में तथा इक्वाडोर में 1961 में दिया गया । वामपंथी पार्टियां भी महिलाओं के मताधिकार का समर्थन नहीं कर रही थीं, क्योंकि उन्हें डर था कि वे दक्षिणपंथी पार्टियों के पक्ष में मत देंगी ।

वर्ष 2000 में एक जनमत संग्रह में दो-तिहाई लोगों ने महिला आरक्षण को लाभकारी बताया । 57 प्रतिशत लोगों का मानना था कि आरक्षण से बेहतर शासन को बल मिलता है । 66 प्रतिशत लोगों ने महिलाओं को ज्यादा ईमानदार माना तथा 85 प्रतिशत लोगों ने उन्हें बेहतर नीति निर्धारक बताया ।

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ऐसा नहीं है कि लैटिन अमेरिका में महिलाएँ राष्ट्रपति के पद पर अतीत में आरूढ़ नहीं हुई है । अर्जेन्टीना में इसाबेल पेरोन दो साल तक (1974-76) तथा बोलिविया में लिदिया गेलर एक साल तक (1979-80) राष्ट्रपति रहीं । किंतु वे चुनकर नहीं आई थीं । वैसे सांदिनिस्ता सरकार के पतन के बाद वियोलेता चामोरो निकारागुआ में 1980 के दशक में निर्वाचित राष्ट्रपति बनी थीं । हालांकि कार्यकाल विवादों में घिरा रहा ।

महिलाओं का राजनैतिक सशक्तीकरण लैटिन अमेरिकी राजनीति में महज सांस्कृतिक बदलाव ही नहीं दर्शाता । अब लोग महिलाओं को नए विकल्प के रूप में सत्तासीन कर रहे हैं । महिला और पुरुष की कार्यप्रणाली में भी भेद माना जा रहा है । यह भावना प्रबल है कि पुरुष शासक अपना प्रभुत्व जमाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं जबकि महिलाएं सेवा भाव से ज्यादा प्रेरित होती हैं इसीलिए वे लोगों को जोड़ने में ज्यादा सफल होती हैं ।

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