अंधविश्वास हैं महाअभिशाप | Read These Two Essays on Superstition in Hindi!

# Essay 1: अंधविश्वास हैं महाअभिशाप | Essay on Superstition is a Great Curse in Hindi!

संसार के कोने-कोने में-चाहे वह मध्य हो या असभ्य अथवा    पिछड़ा हुआ हो- समान या आंशिक रूप     से अंधविश्वास प्रचलित हैं, क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य पर अपने सारे झंझटों को छोड़कर मुक्त हो जाना चाहता है ।

जिन कार्यों को भाग्य, अवसर, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके के ऊपर निर्भर रहकर किया जाता है, वे सब अंधविश्वास की सीमा में आते हैं । जब मानव अपनी सीमित बुद्धि से परे कोई काम देखता है तब तुरंत वह किसी अज्ञात दैवी शक्ति पर विश्वास करने लगता है और अपनी सहायता के लिए उसका आवाहन करता है, भले ही वह अज्ञात दैवी-शक्ति उसके अंतर की ज्योति हो, फिर भी इसको सोचने-विचारने का उनके पास समय या बुद्धि है ही कहाँ ? सफलता प्राप्त होने पर संपूर्ण श्रेय उसके परिश्रम को न मिलकर उसी अज्ञात शक्ति या भाग्य को दिया जाता है ।

इस प्रकार विवेकशून्यता और भाग्यवादिता द्वारा पोषण पाकर अंधविश्वास मजबूत होते जाते हैं । जहाँ मूर्खता का साम्राज्य होता है वहाँ अंधविश्वास की तानाशाही खूब चलती हें । प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रकाश से आलोकित देशों में भी किसी-न-किसी तरह के अंधविश्वास प्रचलित हैं ।

अंधविश्वास कई प्रकार के होते हैं- कुछ जातिगत होते हैं, कुछ धर्म संबंधी होते है, कुछ सामाजिक होते हैं और कुछ तो ऐसे विश्वव्यापी होते हैं कि सब देशवासी उनका स्वागत करते हैं । यह वैज्ञानिक युग है । होना यह चाहिए था कि हम नए सिरे से इन रूढ़ियों के तथ्यों को ममझने का यत्न करें, पर हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इन रूढ़ियों के अज्ञान का सहायक बना रहे हैं । यह बड़ी विडंबना है ।

दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय जादू-टोना, तंत्र-मंत्र एवं भाग्य पर पूर्ण विश्वास रखते हैं और इन विश्वासों की नींव इतनी गहरी है कि उसे उखाड़ना आसान नहीं है ।यात्रा में चलते समय, हल जोतते समय, खेत काटते समय, विद्यापाठ प्रारंभ करते समय- यहाँ तक कि सोते-जागते-भारतवासी शकुन और ग्रह-नक्षत्रों का विचार करते हैं ।

यदि कहीं चलते समय किसी ने जुकाम के कारण छींक दिया तो वे वहाँ जाना ही स्थगित कर देते हैं या थोड़ी देर के लिए रुक जाते हैं, क्योंकि छींक के कारण उनके काम सिद्ध होने में बाधा समझी जाती है । भरा हुआ पानी का लोटा यदि असंतुलन के कारण हाथ से गिर पड़े तो उसे वे भारी अपशकुन समझते हैं ।

अकारण सोना पाने या खो जाने को भी वे भावी आपत्ति की सूचना मानते हैं । यात्रा पर जाते समय यदि कोई टोक दे या बिल्ली रास्ता काट दे तो यात्रा स्थगित कर दी जाती है । इसी प्रकार की यात्रा के साथ दिक्शूल (दिशाशूल) का भी विचार किया जाता है ।

यदि किसी ग्रामीण किसान की गाय या भैंस दूध देना बंद कर दे तो वे किसी पशु चिकित्सक के पास जाने के बजाय पंडितजी महाराज से ग्रह-दशा पूछने लगते हैं या फिर टोने-टोटके करने लगते हैं, जिनका गाय के दूध न देने से स्वप्न में भी कोई संबंध सिद्ध नहीं हो सकता ।

यहाँ के अशिक्षितों को जाने दीजिए, अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोगों के मस्तिष्क में भी अंधविश्वासों इतना घर कर गया है । आश्चर्य की बात तो यह है कि अंधविश्वासों में उन्हें कभी-कभी भारी लाभ हो जाता है । पता नहीं, इसमें कोई मनोवैज्ञानिक रहस्य है या कुछ और है ? मैं एक आपबीती बता रहा हूँ ।

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मुझे अद्धागी हो गई थी । इसमें शरीर के आधे भाग में छोटे-छोटे दाने निकलते हैं । लोगों का कहना हें कि यदि उनका ठीक इलाज न किया गया तो वे आधे शरीर में पैर से लेकर चोटी नक हो जाते हैं; दाने बहुत ही पीड़ा पहुँचाते हैं ।

रोग प्रतिदिन सवा गुना बढ़ता ही जाता है । विश्वविद्यालय की डिस्पेंसरि में तथा और भी कई स्थानों पर अच्छे कुशल डॉक्टरों से दवा कराई, किंतु दाने घटने के बजाय बढ़ते ही चले गए । विवश होकर मैं अपने घर चित्रकूट चला गया । वहाँ अपने इस विचित्र रोग की चर्चा पास-पड़ोस में की ।

सौभाग्य से इस रोग की दवा करनेवाला एक कुम्हार मिल गया । वह केवल जंगल से बीने हुए उपलों की राख से रोग को ठीक करता था । मैं तो इसे एक खिलवाड़ समझता रहा, किंतु आश्चर्य तो तब हुआ जब उसके एक बार राख के लगाने से सारे दाने लाजवंती की तरह लजाकर मुरझा गए । वह राख लगाने के साथ कुछ मंत्र भी पड़ता जाता था ।

तर्क का आश्रय लेने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि खुले आकाश के नीचे गाय का गोबर, जो अपने आप सूखकर उपले के रूप में बदल जाता है, उसी में कुछ-न-कुछ वैज्ञानिक तथ्य होगा । पता नहीं मैं कहाँ तक सही हूँ ! पीलिया रोग की दवा भी बहुत कुछ झाड़-फूँक पर आधारित है और वह आश्चर्यजनक रूप से लाभ पहुँचाती है । हो सकता है, इसमें मनोविज्ञान का दृढ़ विश्वास संबंधी तथ्य छुपा हो । कहा भी गया है:

”यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।”

आज का युग विज्ञान का युग है । इसमें प्रत्येक बात तर्क की कसौटी पर कसी जाती है । गाय के दूध न देने पर विज्ञानी तुरंत यह विचार करता है कि किन कारणों से इस प्रकार का व्यवधान उपस्थित हुआ है । उन कारणों का पता लगा लेने पर वह दवा द्वारा उन्हें ठीक करने का प्रयत्न करता है । गाय के शरीर में जिन पौष्टिक तत्त्वों की कमी हो गई है, उन्हें पौष्टिक भोजन और औषधि से पूरा किया जाएगा ।

ग्रहों संबंधी अंधविश्वास का नवीनतम उदाहरण ३ फरवरी, २००५ को उपस्थित हुआ था । उस दिन अष्टग्रह योग था और बड़े-बड़े ज्योतिषी और पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि उस दिन सारी दुनिया ही नष्ट हो जाएगी । किंतु हुआ कुछ नहीं । हाँ, ज्योतिषियों, पंडितों, साधुओं आदि को अपनी पेट-पूजा करने का पूरा अवसर अवश्य प्राप्त हुआ ।

हमारे यहाँ अंधविश्वासों की वृद्धि का एक कारण वैज्ञानिक ज्ञान का अभाव है । यहाँ के पुरुषार्थी अपने ऊपर विश्वास न करके भाग्य पर सबकुछ छोड़ देते हैं । पग-पग पर उसे ईश्वर, धर्म, भाग्य, ग्रह, नक्षत्र आटि में मिलाकर मटियामेट कर देते हैं ।

भारत में सूर्यग्रहण के संबंध में जो अंधविश्वास प्रचलित है, उसकी छीछालेदर करते हुए एलडस हक्स्ले न् लिख हें : “भारतवासी इतनी बड़ी संख्या में एक होकर भारत को शत्रु के चंगुल से छुड़ाने के लिए एकत्र नहीं हो सकते जितना कि वे सूर्य को राहु से मुक्त कराने के लिए इकट्‌ठे होते हैं ।”

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इस प्रकार की टिप्पणी हमोर लिए बहुत ही चोट पहुँचानेवाली और झकझोरकर जगा देनेवाली है; परंतु इस प्रकार के कतिपय अंधविश्वासों का भी अपना सामाजिक महत्त्व है । इन अंधविश्वासों से लाभ और हानि दोनों हैं । एकादशी के उपवास का महत्त्व धार्मिक दृष्टि से कुछ भी हो, स्वास्थ्य की दृष्टि से तो इस लाभ में किसी के दो मत नहीं हो सकते ।

आवश्यकता इस बात की है कि जो भी मान्यताएँ और विश्वास आज विज्ञान-समर्थित प्रतीत नहीं होते, उनके मूल स्रोत का पता लगाया जाए और उनके ऊपर से अंधविश्वास का आवरण हटाया जाए ।


Essay 2: अन्धविश्वास पर निबंध | Essay on Superstition

”धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं । वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और उनसे हमें हर हाल में छुटकारा पा लेना चाहिए । जो चीज आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती, उसे समाप्त हो जाना चाहिए । इसी प्रकार की और भी बहुत-सी कमजोरियाँ हैं, जिन पर हमें विजय पानी है । इस काम के लिए सभी समुदायों के क्रान्तिकारी उत्साह वाले नौजवानों की आवश्यकता है ।”

यह बात शहीद भगतसिंह के संगठन नौजवान भारत सभा’ के लाहौर से प्रकाशित घोषणा-पत्र में कही गई थी बिल्ली के रास्ता काट देने पर यह समझना कि आगे दुर्घटना होने के आसार है, कहीं जाते समय कोई छींक दे, तो यह समझना कि होने वाला काम बिगड़ जाएगा, छत पर कौवे के बोलने का यह अर्थ निकालना कि कोई मेहमान आने बाला है इत्यादि ऐसी अनेक धारणाएँ समाज में प्रचलित हैं, जिनका कोई तार्किक अथवा वैज्ञानिक आधार नहीं है, फिर भी लोग इन बातों में विश्वास करते हैं ।

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बिबेक का प्रयोग किए बिना ऐसी अतार्किक एवं अवैज्ञानिक बातों में विश्वास करना ही अन्धविश्वास कहलाता है । कुछ लोग तेरह की संख्या को अशुभ मानते हे, तो कई देशों में इस संख्या को शुभ माना जाता है । मरने के बाद मनुष्य की आत्मा भूत-प्रेत का रूप धारण कर लेती हे, ये भूत-प्रेत किसी का भी नुकसान करने में सक्षम होते है, ऐसी मान्यताएँ अन्धविश्वास के साक्षात प्रमाण है ।

भारत में लोगों की नजर से बच्चों को बचाने के लिए उन्हें काला टीका लगाया जाता है । गाँव के अधिकतर लोग कहीं जाने से पहले मुहुर्त निकलवाते है, यदि उन्हें सही मुहूर्त मिला तो ही बे अपनी यात्रा पर आगे बढ़ते हैं, अन्यथा उसे स्थगित कर देते हैं । अधिकतर भारतीय ग्रामीण आज भी अपने पौराणिक ग्रन्थों के वर्णन के अनुसार यह मानते है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है, जब शेषनाग हिलता है, तो भूकम्प आता है, इसलिए हर बार भूकम्प की स्थिति में वे शेषनाग की पूजा करते हैं ।

सूर्यग्रहण अथवा चन्द्रग्रहण का अर्थ कुछ अशिक्षित ग्रामीण यह लगाते है कि किसी ग्रह ने उन्हें निगल लिया है और इससे बचने के लिए वे यज्ञ करते हैं । ये सभी अन्धविश्वास के उदाहरण हैं । इनके अतिरिक्त, ग्रह के चक्कर को दूर करने के लिए किसी विशेष धातु अथवा पत्थर की अँगूठी पहनना, विशेष मन्त्र बाला ताबीज धारण करना, जादू-टोना अथवा टोटका करवाना इत्यादि भी अन्धविश्वास के उदाहरण हैं ।

‘कबीर’ ने निम्नलिखित दोहे के माध्यम से मानव में व्याप्त अन्धविश्वासरूपी दुर्गुण का उल्लेख किया है-

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”अरिहरन कीं चोरी करै, करे सूई का दान ।

ऊँचा चढि कर देखता, केतिक दूर विमान । ।”

इस दोहे का अर्थ है- मानव कुमार्ग पर चलकर कमाए गए धन का नगण्य भाग दान करके आकाश की ओर देखता है कि उसे स्वर्ग ले जाने वाला विमान अभी कितनी दूर है? अज्ञानी मानव द्वारा ऐसा किया जाना अन्धविश्वास को ही दर्शाता है ।

किसी गरीब स्त्री की जमीन-जायदाद हइपने के लिए उसे डायन घोषित कर देना अन्धविश्वास का एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें मानवीयता को ताक पर रखकर गरीब लोगों के साथ अन्याय किया जाता है । प्राचीनकाल में भारत में ईश्वर को खुश करने के लिए नरबलि दी जाती थी ।

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ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए नरबलि की प्रथा तो अब लगभग समाप्त हो चुकी है, किन्तु पशुबलि की प्रथा आज भी बदस्तुर जारी है । लोग अन्धविश्वास के नाम पर पशुबलि तो देते ही हैं, कई बार इस प्रकार की खबरें भी सुनने को मिल जाती है कि ईश्वर को प्रसन्न कर गडा खजाना प्राप्त करने या अपना भाग्य सुधारने के लिए किसी तान्त्रिक ने किसी बच्चे की बलि दे दी ।

इसे अन्धविश्वास की ऐसी पराकाष्ठा कहा जा सकता है, जो मानवीयता के लिए खतरा है । ऐसे अन्धविश्वासी लोगों को कठोर-से-कठोर सजा देकर दुनिया को यह सन्देश दिया जाना चाहिए कि बुराई का परिणाम बुरा ही होता है एवं टोनों-टोटकों से भाग्य कभी नहीं बनता ।

अरुण कमल ने ‘पृथ्वी किस लिए घूमती रही’ शीर्षक से लिखी गई अपनी कविता में सूर्य की पूजा से जुड़े अन्धविश्वासों की प्रस्तुति बड़े ही तार्किक ढंग से की है । आदिमानव प्रकृति के प्रकोपों से डरकर पेड़, जल, धरती, आकाश, हवा, पहाड़ इत्यादि लगभग सभी प्रकार की प्राकृतिक वस्तुओं को देवताओं के रूप में पूजता था ।

वर्षा, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, भूकम्प, वर्षा के दौरान बिजली चमकना इत्यादि प्राकृतिक घटनाओं से उसका डरना स्वाभाविक था । जैसे-जैसे उसे पृथ्वी के रहस्यों का पता चलता गया उसके भय में कमी होती गई, किन्तु कुछ अज्ञात तथा अजेय वस्तुओं के प्रति उसके भय में कमी नहीं हुई । भूत-प्रेत, पिशाच, चुड़ैल जैसे अन्धविश्वास इस बात के उदाहरण हैं ।

यदि अशिक्षित मनुष्य अन्धविश्वासों को मानता है, तो यह बात समझ में आती है कि वह वास्तविकता से अनभिज्ञ है, किन्तु अफसोस की बात यह है कि आज के वैज्ञानिक युग में शिक्षित लोग भी अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों को मानते हैं । शिक्षा अज्ञानता के अन्धकार को मिटाकर विवेकपूर्वक सोचने की शक्ति प्रदान करती है, उसके बाद मनुष्य विज्ञान एवं तर्क के आधार पर परख कर ही किसी बात को मानता है ।

पहले लोग यह मानते थे कि पृथ्वी चपटी है । सामान्य रूप से देखने पर भी ऐसा ही आभास होता है, किन्तु वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया गया है कि यह सपाट नहीं, बल्कि गोल है । अब लोगों ने इस तार्किक वास्तविकता को मान लिया है कि पृथ्वी वास्तव में गोल है ।

इसी प्रकार, पहले ऐसा माना जाता था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है और पृथ्वी स्थिर है, जबकि आज यह प्रमाणित हो चुका है कि पृथ्वी सूर्य कीं परिक्रमा करती है, सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता, किन्तु आज से 400 वर्ष पूर्व इटली के दार्शनिक व वैज्ञानिक ‘ब्रूनो’ को यही कहने पर कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती हे, अन्धविश्वासी लोगों ने जिन्दा जला दिया था ।

तब लोगों ने दूरबीन का आविष्कार करने पर ‘गैलीलियो’ जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक को भी कारागृह में डाल दिया था, किन्तु आज मानव अन्तरिक्ष में जा पहुँचा है और ऐसे में कोई यह कहे कि पृथ्वी सपाट है या छ पृथ्वी के चारों ओर घूमती है, तो यह उसकी मूर्खता ही कहलाएगी ।

लोगों के भय एवं अन्धविश्वास का लाभ कुछ चालबाज एवं धोखेबाज लोग उठाते हैं । ये लोग आम आदमी ही नहीं, शिक्षित लोगों को भी भूत-प्रेत, राहु-केतु, काल-सर्पदोष इत्यादि का भय दिखाकर उनसे पूजा-पाठ व तन्त्र-मन्त्र के नाम पर हजारों रुपये ठग लेते हैं ।

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गाँव ही नहीं आजकल शहरों में भी ऐसे धोखेबाज लोगों ने अपना जाल बिछा रखा है भूत-प्रेत एवं सभी प्रकार कीं बाधाओं को दूर करना आज एक व्यवसाय का रूप ले चुका है ।  अच्छे एवं लोकप्रिय समाचार-पत्रों में ही नहीं, बल्कि लोकप्रिय टीबी चैनलों पर भी कुछ धोखेबाज तान्त्रिक अपने विज्ञापन प्रकाशित एवं प्रसारित करवाते हैं ।

इन विज्ञापनों के जाल में अशिक्षित ही नहीं शिक्षित लोग भी आ फँसते हैं । यह खेद का विषय है कि हर रोज ऐसे कई तान्त्रिकों, ठगों एवं धोखेबाजों का भण्डाफोड किसी-न-किसी समाचार-पत्र अथवा टीवी चैनल द्वारा होता है, फिर भी लोगों की आँखें नहीं खुलती ।

यद्यपि आज भी दुनिया के विकसित देशों में भी कई प्रकार के अन्धविश्वास व्याप्त हैं, किन्तु भारतीय समाज अन्धविश्वासों के मामले में उनसे दो कदम आगे है इसके कई कारण हैं । एक तो यहाँ पर शिक्षा का प्रसार उतना नहीं हो पाया है, जितना होना चाहिए तथा कुछ ऐसे भी अन्धविश्वास हैं, जो परम्परा का रूप ले चुके है, इसलिए समाज के डर से लोग इसका विरोध नहीं करना चाहते ।

कभी-कभी शिक्षित एवं सभ्य लोगों को अन्धविश्वासों में भरोसा करते देखकर आम आदमी भी उसमें विश्वास करने लगता है । समाचार-पत्रों में राशिफल प्रकाशित करना एवं टेलीविजन चैनलों पर विभिन्न राशियों के लोगों का भविष्यफल प्रसारित करना, मीडिया के अपने कर्तव्य से विमुख होने के उदाहरण हैं ।

लोगों को शिक्षित कर अन्धविश्वास को दूर किया जा सकता है, किन्तु इस कार्य में जिस मीडिया को सशक्त भूमिका अदा करनी चाहिए थी, वही अन्धविश्वास को फैलाने का कार्य कर रहा है । टेलीविज़न पर भूत-प्रेत एवं टोने-टोटके से भरपूर धारावाहिकों एवं कार्यक्रमों की बाढ-सी आ गई है ।

न्यूज चैनल भी इस कार्य में अपने आपको पीछे नहीं रहने देना चाहते । नागराज का जन्म, भूत का अवतार, बच्चे का पुनर्जन्म, शेर में भूत की आत्मा, ईश्वर की पूजा से स्वर्ग की निश्चित प्राप्ति जैसी ऊल-जुलूल खबरों के द्वारा कुछ न्यूज चैनल दर्शकों को मूर्ख बनाते हैं ।

सार रूप में कहा जा सकता है कि अन्धविश्वास हमारे समाज के लिए एक गम्भीर खतरा है । इसे दूर करने में मीडिया का योगदान महत्वपूर्ण हो सकता है, किन्तु मीडिया अपने आर्थिक हितों एवं टीआरपी को ध्यान में रखकर अपने कर्तव्यों की अवहेलना कर रही है । ऐसे में हर समझदार एवं जिम्मेदार नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह अन्धविश्वासों की सच्चाई से लोगों को अवगत कराए ।

आधुनिक भारतीय युवाओं से इस मामले में अत्यधिक उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि ये युवा अब अन्धविश्वासों में बिल्कुल भरोसा नहीं करते । अन्धविश्वास को दूर कर ही एक स्वस्थ एवं प्रगतिशील समाज की रचना की जा सकती है । आज आवश्यकता है ‘रघुवीर सहाय’ की ‘प्रभु की दया’ नामक शीर्षक से लिखी गई इस कविता के मर्म को समझने की

”बिल्ली रास्ता काट जाया करती है

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प्यारी-प्यारी औरतें हरदम बक-बक करती रहती हैं

चाँदनी रात को मैदान में खुले मवेशी

आकर चरते रहते है

और प्रभु यह तुम्हारी दया नहीं तो और क्या है

कि इनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं ।”

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