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हानि-लाभ जीवन-मरण यश-उपयश विधि हाथ (निबंध)!

मानव ईश्वर की अद्‌भुत सृष्टि है । उसकी अप्रतिम शक्ति का प्रतीक भी मानव ही है । वह अपने निर्माता का ही प्रतिरूप है । जल, स्थल, नभमंडल-भी पर तो विजय पा ली है उसने ।

वह चाहे तो पवन को बंदी बना ले, सहस्रार्जुन की भाँति नदियों के प्रवाह को रोक दे और उनसे मनमाना काम ले या बड़े-बड़े पर्वतों के शशि पर लात मार लाँघ जाए । ऐसे शक्तिमान मानव का तेज भी अवसर आने पर मंद पड़ जाता है ।

वह हतप्रभ एवं निरुपाय हो किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है । उस समय उसे अपनी दयनीय स्थिति का ज्ञान होता है- विशाल विश्व में अणु से भी क्षुद्र मानव ! सभी साधन सुलभ होते हुए भी वह केवल आगत विपत्ति की संहार-क्रिया देखता रह जाता है- निस्तब्ध, विवश-सा ।

राम ईश्वर के अंश महामानव, सीता जैसी शक्तिरूपा पत्नी, इंद्र-विजयी मेघनाद का भी गर्व चूर करनेवाला लक्ष्मण सा भाई सहायक रूप में, माता-पिता सभी अनुकूल, वसिष्ठ जैसे ज्ञानी गुरु का निकाला हुआ मुहूर्त- सब एक ही क्षण में व्यर्थ हो गया ।

राज-प्राप्ति वनवास में परिवर्तित हो जाती है; दशरथ की मृत्यु होती है और सारा साकेत रुदन से व्याप्त हो उठता है । नियति मुसकराती है और संकेत करती है- क्षुद्र मानव ! तुझसे भी अधिक शक्तिशाली एक तेज और है और वह है तेरा नियंता, तेरा विधि- विधान, उसके आगे तेरी क्या बिसात |

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राजा नल द्दूत-विद्या के आचार्य, सर्वसुखों से संपन्न, देवों से भी अभिलषित, दमयंती जैसी सुंदरी के स्वामी, वह भी जब विधि के चक्कर में पड़े तो न केवल राज्य खोया, वरन् जहाँ-जहाँ भी हाथ पसारा वहाँ-वहाँ सोना भी मिट्‌टी बन गया । और तो और, देवों को भी समय-चक्र में पड़कर कम दुःख नहीं सहन करना पड़ा । इंद्र ने कितनी बार इंद्रासन खोया । शंकर ने न केवल भस्मासुर के हाथों कष्ट पाया, पत्नी-वियोग भी सहा ।

वह भी एक समय था, जब सृष्टि के निर्माता देवों के भी देव विष्णु के वक्ष पर एक साधारण ब्राह्मण ने लात मार दी थी और उस पदाघात का चिह्न उनके वक्ष से कभी न मिट सका । समय के फेर ने ही हरि को परस्त्रीगामी बनाया और वृंदा के शाप ने उन्हें पत्थर का रूप देकर तुलसी जैसे नन्हे वृक्ष के चरणों पर ला पटका । कहाँ सृष्टि के निर्माता, निर्गुण, निराकार ! कहाँ व्यभिचार और फिर शाप से यह दुरवस्था !

प्राणी नाना उपाय करके थक जाते हैं, पर काल के आगे उनका कुछ वश नहीं चलता । उस काल-कराल को भी बंदी बना लिया, किंतु क्या वह बच सका ? काम ने भगवान् शिव का संयम भंग करना चाहा; शिव का त्रिनेत्र खुल गया और जब तक देवगण विरोध करें, क्रोध के संरोध की प्रार्थना समाप्त कर सकें, काम भस्मीभूत हो गया ।

देवता प्रयत्न करके भी मदन को भस्म होने से न बचा सके, फिर भी मदन क्या बिलकुल नष्ट हो गया ? नहीं, वह आज भी ‘अनंग’ होकर अपने पुष्प-बाणों के तीखे प्रहार से विश्व को व्याकुल और कामी बना रहा है । शिव के त्रिनेत्र की ज्वाला, जो प्रलय के अवसर पर संपूर्ण सृष्टि को जलाकर क्षार कर देती है, मदन को भस्म करके भी उसे पूर्णत: नष्ट नहीं कर पाई ।

इन सारी घटनाओं का यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य हानि-लाभ, फलाफल के द्वंद्व से रहित होकर निष्काम भाव से कर्म करे । मानव स्वतंत्र नहीं, विधि के हाथों का एक खिलौना है; लेकिन कायरों की भाँति निष्क्रिय होकर बैठना भी कम लज्जाजनक नहीं । प्रत्येक दशा में कर्म करना ही श्रेयस्कर है ।

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