ग्लोबल वार्मिंग की भभक, धरती की कोख तक पर निबंध | Essay on Crypts of Global Warming in Hindi!

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान-की-मून ने कुछ वर्ष पूर्व को संयुक्त राष्ट्र मे विश्व के 82 देशों के राष्ट्राध्यक्षों को जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए चेताया था ।

उन्होंने कहा था कि भावी पीढियों के लिए हमारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है । हमने यह जिम्मेदारी कैसी निभाई, इसका फैसला हमारे पोते-पोतियां करेंगे । बीसवीं सदी के आखिरी कुछ दशक पिछले चार सौ सालों के सबसे गर्म दशक माने गए हैं ।

करीब 2000 वर्ष तक लगभग स्थिर तापमान के बाद पिछले 400 वर्ष से धरती का पारा चढ़ने लगा । इस ताप को बढ़ाने में आग में घी का काम किया कोई 200 साल पहले आई औद्योगिक क्रांति ने जब पश्चिमी देशों में कारखाने खुले और चिमनियों ने धुआं उगलना शुरू किया । पिछली एक सदी में उत्तरी गोलार्द्ध में औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया, जिसके कारण आंधी, तूफान, चक्रवात और सूखा-बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं ही नहीं, अनेक प्रकार के रोगाणु और नई-नई बीमारियां भी पनप रही हैं ।

उपरोक्त निष्कर्ष निकाला है अमेरिकी विश्वविद्यालयों, अमेरिकी विज्ञान अकादमी, नेशनल साइंस फाउंडेशन तथा नेशनल सेंटर फॉर एटमोस्फेरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों ने । 12 वायुमंडल विशेषज्ञों का एक पैनल इन संस्थाओं के विशेषज्ञों को लेकर बनाया गया था, जिसकी अध्यक्षता टेक्सास की एटमोरफेरिक एंड मीटियोरोलॉजी यूनिवर्सिटी के जिओसाइंस के प्रोफेसर डॉ. जिराल्ड नॉर्थ ने की ।

इन्होंने पेडों में हर साल बनने वाले वृद्धि-वलय (ग्रोथ-रिंग), मूंगों, समुद्री तलछट, झीलों की तलछट, ध्रुवों में जमी बर्फ की मीलो की गहराई से निकालकर और हिमनदों आदि के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला । इससे पहले भी खासतौर से ‘आईपीसीसी-इंटरनेशनल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज’ के विशेषज्ञ भी यही कह चुके हैं कि धरती का गरमाना (ग्लोबल वार्मिंग) बढ़ रहा है और उसके कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है ।

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सन् 1990 के बाद के दशक में जलवायु-विशेषज्ञ डॉ. माइकेल मान, डॉ. रेमोण्ड ब्राउली और डॉ. माल्कोम हगूस ने गरमाती-धरती का एक मॉडल ‘हॉकी-स्टिक’ के रूप में बनाया था । इस मॉडल में नीचे से ऊपर की ओर मुड़ा हिस्सा वर्तमान समय में तापमान की वृद्धि का द्योतक है । हाथ से नीचे तक की सीधी लंबाई तक लंबे समय तक धरती के तापमान में स्थायित्व का प्रतीक है ।

धरती की गरमी बढने के पीछे चिमनियों, वाहनों, भट्‌टियों, चूल्हों आदि का धुंआ और अन्य कारणों से उत्सर्जित होने वाली गैसों को दोषी ठहराया जा रहा है, जो ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ पैदा करती हैं । ये गैसें एक ऐसी छतरी – सी तान देती हैं, जो सूरज की गरमी को वापस वायुमडल में लौटने नहीं देती और रोके रखती हैं, जैसा कि ग्रीनहाउसों में होता है और उनके अंदर जाड़ों में भी गरमी की फसलें, खासतौर से सब्जियां और फूल उगाये जा रहे है ।

ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है । जिससे समुद्रों का स्तर बढ़ रहा है । इसका असर भारत में भी दिखाई पड़ रहा है । बंगाल की खाड़ी का समुद्र उडीसा के अनेक तटवर्ती गांवों को लील चुका है । उत्तरी ध्रुव की बर्फ 9 प्रतिशत प्रति दशक की दर से पिघल रही है । हिमालय में गंगोत्री सहित सभी हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं ।

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सन् 2003 में गर्मी बढ़ने से यूरोप में 20,000 मौतें हुई और भारत में 1500 लोग बढ़ती गर्मी के शिकार हुए । समुद्रों का स्तर बढ़ने से तूफानों की संख्या और ताकत बढ़ रही है । विशेषज्ञों का कहना है कि दिसंबर 2004 में ‘सुनामी’ लहरों का आतंक भी गरमाती धरती का प्रकोप था ।

आगे चलकर अनेक प्राकृतिक आपदाएं गरमी बढ़ने के कारण और भी विकराल रूप ग्रहण कर सकती हैं, क्योंकि इस गरमी की भभक धरती की कोख तक जा पहुँची है । पृथ्वी की पपड़ी पर पानी और बर्फ के दबाव का भी असर पड़ता है ।

ऊपर धरातल पर एक घन मीटर यानी पृथ्वी की पर्पटी पर एक टन का दबाव डालता है, जब कि इतनी ही बर्फ कुछ कम 0.92 टन दबाव डालती है । किसी भी प्रायद्वीप पर से पानी और बर्फ की कुल मात्रा कम हुई या बड़ी तो उससे धरती की कोख में चट्‌टानों की घर्षण क्रिया प्रभावित होकर भूकंपीय और ज्वालामुखीय क्रियाएं बढा सकती है ।

भू-वैज्ञानिकों ने बताया है कि पिछले 650,000 वर्षों में सात बार ध्रुवों की बर्फ ने अपनी वर्तमान सीमाओं को बदला है । कभी यह बर्फ पिघलकर समुद्रों में जम गई और कभी बहकर महाद्वीपों के बड़े हिस्से पर छा गई । इसी तरह समुद्रों का स्तर वर्तमान स्तर से 130 मीटर तक नीचे जा चुका है और फिर ऊपर आ गया ।

10,000 साल पहले शुरू हुए गरमाने ने आइसलैंड में ज्वालामुखी क्रियाओं को बढ़ाया । पूर्वी कैलीफोर्निया में 800,000 साल पहले तथा अमेरिका की कास्केड्‌स श्रेणियों और दक्षिण अमेरिका की एंडीज पहाड़ियों में भी ऐसा ही हुआ ।

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नॉर्वे के पश्चिमी समुद्र तट पर 8000 साल पहले सुनामी लहरों ने जैसा तांडव मचाया था, वैसी ही लहरें ग्रीनलैण्ड में आ सकती है, क्योंकि वहा भी बर्फ पिघल रही है । वहां 20-20 मीटर ऊंची लहरें उठी थीं । भूमध्य सागर में अध्ययन से पता चला है कि वहां ज्वालामुखीय क्रियाएं 80,000 सालों में समुद्र-स्तर के चढ़ने से जुडी हैं ।

इस 21वीं सदी के अंत तक ‘आईपीसीसी’ पैनल ने समुद्र के स्तर में 88 सेंटीमीटर की वृद्धि का पूर्वानुमान लगाया है । गुजरात में भुज में आए भूकंप ने 180 लोगों को मौत की नींद में सुला दिया था । यह कोयना बांध में पानी भर जाने का परिणाम था । चीन में बने बड़े बांध की निगरानी रखी जा रही है कि कहीं उसके कारण भी भूकंप न बढ़ जाए । हमें भी टिहरी बांध पर निगाह रखनी होगी, क्योंकि वह तो पहले ही भूकंपीय क्षेत्र में ही बनाया गया है ।

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जहां तक ज्वालामुखियों के फटने की बात है, विश्व मे 600 के लगभग ज्वालामुखी सक्रिय हैं । इनमें से 57 प्रतिशत द्वीपों में हैं और 38 प्रतिशत समुद्र तट से 250 किलोमीटर तक की दूरी पर हैं । इनमें से अधिकतर की क्रियाओं पर समुद्र का स्तर बढ़ने और बर्फ पिघलने यानी गरमाती धरती का असर पड़ता है । अमेरिका के ही पूर्व उपराष्ट्रपति तथा सुप्रसिद्ध पर्यावरण-चिंतक अल गोर ने पिछले दिनों गरमाती धरती के बारे में चेतना जगाने के लिए एक फिल्म ‘इन इनकन्वीनिएंट ट्रूथ’ बनाई है ।

इसी विषय पर इसी शीर्षक से उनकी किताब भी छपी है । इसमें बड़े चौकानें और डरावनी बातें हैं, एवं जिन जलवायु-विशेषज्ञों ने फिल्म देखी है और किताब पड़ी है, उनका कहना है कि सभी बातें वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यपूर्ण हैं । अगर प्रदूषण कम नहीं किया गया और ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा कम न की गई, तो भारत में कोलकात्ता और चीन में शंघाई महासागरों की चढ़ती लहरों में डूब जाएंगे ।

लेकिन ग्रीनहाउस गैसों को कम करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी अमेरिका और अन्य विकसित देशों की ही है, जो विकास के नाम पर पर्यावरण का भारी विनाश कर चुके हैं और आज भी कर रहे हैं ।

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