भारतीय राजनीति: आधुनिकता और परम्परा पर निबन्ध | Indian Politics in Hindi ।

प्रस्तावना:

राजनीति में आधुनिकीकरण एवं परम्परा का अपना विशेष महत्व होता है । प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था में यह दोनों तत्व बिद्यमान होते हैं । आधुनिकीकरण से तात्पर्य विकासात्मक स्थिति से होता है जबकि परम्परागत स्थिति इसके विपर्रीत है ।

आधुनिक समझी जाने वाली पाश्चात्य सभ्यताओं में भी परम्परागत तत्व कहीं न कहीं अवश्य दृष्टिगोचर हो जाते हैं । इस दृष्टि से भारत की राजनीतिक व्यवस्था में भी परम्परागत एबै आधुनिक तत्वों का सुन्दर समागम दिखाई देता है । चिन्तनात्मक विकास: स्वतन्त्रता से पूर्व भारत की राजनीतिक व्यवस्था पूर्णत: परम्परागत थी अर्थात् समाज पुरानी कुरीतियों, अन्धविश्वासों पर आधारित था । शासन सत्ता एक ही व्यक्ति द्वारा संचालित होती थी ।

परम्परागत दृष्टि से समाज पिछड़ा हुआ था । राजनीति राजतन्त्र पर आधारित थी । राजाओं द्वारा जनसाधारण हितों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था । वह भोग-विलास में लिप्त रहते थे । अर्त्यिक, सामाजिक, राजनीतिक दृष्टि से समाज पिछड़ा हुआ था किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारत में लोकतान्त्रिक प्रणाली की व्यवसथा की गई ।

अत: राजनीतिक व्यवस्था भी आधुनिकता की ओर अग्रसर हुई । जनता के हित सर्वोपरि थे । जनसाधारण के हितों की रक्षा हेतु संविधान का निर्माण किया गया । आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक विकास की ओर ध्यान दिया गया । राजनीतिक संरचनाओं में आधुनिकीकरण को अपनाया गया ।

कहने को तो राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था मे आधुनिकीकरण का प्रवेश था किन्तु वास्तव र्मे भारतीय समाज में से परम्परागत प्रभाब अथवा परिस्थितियाँ पूर्णत: समाप्त नहीं हुई थी । समाज में रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, जातिवाद, अशिक्षा अभी विद्यमान थी । अत: भारतीय राजनीतिक व्यवस्था मे दोनों तत्वों का समागम आज भी देखने को मिलता है ।

उपसंहार:

स्पष्ट है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था न तो पूर्णत: परम्परागत है और न ही पूर्णत: आधुनिक । वह परम्परागत तत्वों को भी साथ लेकर आधुनिकता की ओर बढ़ रही है । अत: भारत में निरन्तरता और परिवर्तन के बीच तालमेल बैठाने का प्रयास होने लगा और एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था उभरी जो पुरातनता और नवीनता दोनों ही तत्वों से मुक्त है ।

मुख्यत:

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सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं की विशेषता होती है: आधुनिकता और परम्परा का सम्मिलित स्वरूप । कुछ देशों की राजनीतिक व्यवस्थाएं अत्यधिक आधुनिक होती हैं तो कुछ की अत्यधिक परम्परागत होती हैं । पश्चिमी राष्ट्र जो कि आधुनिक सभ्यता का स्वरूप समझे जाते हैं, वहाँ पर भी परम्परागत तत्व दिखाई दे ही जाते हैं । उदाहरण के लिए, ब्रिटिश राजनीतिक व्यवस्था जोकि आधुनिक मानी जाती है, परन्तु लार्ड सभा, राजतन्त्र आदि संस्थाओं के कारण उसमें परम्पराजनित रूप दिखाई देता है ।

तीसरी दुनिया के देशों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् आधुनिक समझी जाने वाली पश्चिमी राजनीतिक संस्थाओं को अपनाया, किन्तु समाज यहाँ के परम्परागत ही बने रहे, जिससे यहाँ आधुनिकता और परम्परा का मिश्रण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है ।

इस दृष्टि से भारतीय राजनीति में भी जहाँ एक ओर आधुनिकता और परम्परा का सुन्दर एवं बृहत् स्तर पर समागम दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर इन दोनों मे टकराव भी देखने मे आता है । कुछ विचारकों ने अपना मत प्रस्तुत करते हुये कहा है कि भारत की राजनीतिक संरचनाएं आधुनिक हैं और भारतीय सामाजिक ढाँचा परम्परागत है ।

भारत में परम्पसगत सामाजिक ढाँचे के साथ आधुनिक राजनीतिक संरचनाओं को ऊपर से आरोपित करने का प्रयास किया गया है । फलस्वरूप राजनीतिक संस्थाएं पकड़ मजबूत नहीं कर पायीं । आज भारत मे परम्परागत व्यवस्था अत्यधिक शीघ्रता से आधुनिकीकरण का स्वरूप धारण कर रही है क्योंकि भारत एक विकासशील समाज है । परम्परागत आदर्शों एवं मूल्यों में परिवर्तन आ रहा है ।

अत: परम्परागत सामाजिक संस्थाए राजनीति के सम्पर्क में आने से परिवर्तित रूप में दिखलाई देने लगी हैं । परम्परागत एवं आधुनिक तत्वों का अलग-अलग अध्ययन करने से हमें ये स्पष्ट हो जाएगा कि ये दोनों तत्व किस तरह से भारतीय समाज एवं राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं ।

परम्परावादी समाज रूढिवादी होता है । इस समाज के विभिन्न पक्ष मानव जीवन के विश्वास द्वारा संचालित होते हैं और इस संदर्भ में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एव तर्क-वितर्क को महत्व नहीं दिया जाता । परम्परावादी समाज में अन्धविश्वासों एव धर्म की प्रधानता होती है ।

परम्परावादी समाज में मनुष्य की सामाजिक स्थिति उसके जन्म द्वारा निश्चित एवं निर्धारित होती है । इस समाज में न कर्म का कोई महत्व होता है ओर न ही समानता का, क्योकि यह समाज वर्ग विशेष पर आधारित होता है तथा जाति एवं धर्म जैसे तत्वों को विशेष प्रमुखता दी जाती है ।

ऐसे समाज में व्यक्ति की निष्ठा एवं सद्‌भावना भी संकीर्ण होती है । राष्ट्रीय हितों के बजाय जातीय, धार्मिक व स्थानीय हितों को वरीयता दी जाती है । यहाँ राजनीतिक व्यवस्था विभिन्न दलों में विभाजित नहीं होती अपितु एक ही व्यक्ति शासन के समस्त कार्यो-विधायी, न्यायिक और प्रशासकीय सभी का संचालन करता हैं ।

अशिक्षा के कारण जनसाधारण धर्म के दास बन जाते है फलस्वरूप अन्धविश्वास उग्र रूप धारण कर लेता है और निपतिवाद का प्रभाव बढने लगता है । मनुष्य परिश्रम औए कर्म को महत्व न देकर ईश्वर और भाग्यवाद के सहारे जीवन व्यतीत करता है ।

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परम्परावादिता के अनेक तत्व भारतीय समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था मे व्याप्त हैं । वर्तमान समय में भारत की जिस सामाजिक व्यवस्था पर आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था टिकी हुई है, उसका स्वरूप आज भी परम्परागत है ।

भारतीय आधुनिक राजव्यवस्था के पीछे जो सामाजिक तत्व सक्रिय है और जिसके कारण भारतीय राजनीति में निरन्तर परिवर्तन आ रहा है, उसके विषय में जानना भी अति आवश्यक है । आज भी चुनाव व्यवस्था पर राजा-महाराजाओं और पूर्ण-सामन्तों का प्रभाव निहित है । भारतीय समाज का संगठन जातियों के आधार पर हुआ है और जातियाँ सुसगठित रूप से भारत की प्रशासनिक व राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करती रही है ।

राजनीतिक दल चुनावों में अपने प्रत्याशियों का चुनाव करते समय जातिगत आधार पर निर्णय लेते हैं । जातिवाद को चुनावों में साधन के रूप में अपनाया जाता है । जातीय संगठन राजनीतिक महत्व के दबाव समूह के रूप में प्रवृत्त हैं ।

धर्म और सम्प्रदाय भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । धार्मिक विभिन्नता के कारण समाज में विभिन्न प्रकार के तनाव उत्पन्न होते हैं । चुनावों की राजनीति में धर्म और सम्प्रदाय, भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । धार्मिक विभिन्नता के कारण समाज में विभिन्न प्रकार के तनाव उत्पन्न होते हैं ।

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चुनावों की राजनीति ने धर्म और सम्प्रदाय के नकारात्मक महत्व को उभारा है । वास्तव में सम्प्रदाय राजनीतिक दलों के वोट बैंक बन गए हैं । जातिवाद के कारण ग्रामीण समुदाय में कर्मकाण्डों की दृष्टि से ब्राह्मण को आज मी सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ।

धार्मिक नेता, जैसे इमामों, मौलवियों, धर्मगुराओं, आदि की अपीलो का मतदान व्यवहार पर प्रभाव दिखलाई देता है । विवेकपूर्ण परिवर्तन की प्रक्रिया का स्वरूप है: आधुनिकीकरण । समाजों, सामाजिक संचालन और आर्थिक विकास के फलस्वरूप राजनीतिक परिवर्तनो को सामान्यता राजनीतिक आधुनिकीकरण का नाम दिया जाता है ।

राजनीतिक आधुनिकीकरण की भी कुछ विशेषताएं हैं: राजनीतिक शक्ति के महत्व में वृद्धि, राजनीतिक आधुनिकीकरण की निशानी है क्योंकि यहाँ मानव जीवन की समस्त शक्तियों एवं गतिविधियो का राजनीतिक व्यवस्था में केन्द्रीयकरण होने लगता है ।

आधुनिक राजनीतिक समाज में केन्द्र और परिसर की अन्तःक्रिया बहुत बढ जाती है । परिसर से तात्पर्य समाज से है और केन्द्र से तात्पर्य राजनीतिक व्यवस्था से है । राजनीतिक दल, हित और दबाव समूह, नौकरशाही एवं निर्वाचनों के माध्यम से परस्पर समीपता मे वृद्धि होती है और सम्पर्क बना रहता है ।

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संचार के साधनो के कारण इनमें निरन्तरता भी बनी रहती है । इस व्यवस्था में सरकार का जनता से सीधे सम्पर्क होता है । आधुनिक राजनीतिक समाजों में परम्परागत, धार्मिक, जातीय एवं पारिवारिक सत्ताओं का स्थान एक लौकिकीकृत और राष्ट्रीय राजनीतिक सत्ता द्वारा ले लिया जाता है । शासन व्यवस्था का परम्परागत स्वरूप जब कमजोर होने लगता है और उसके स्थान पर राष्ट्रीय राजनीतिक सत्ता की स्थापना होती है तो यही राजनीति आधुनिकीकरण की प्रमुख वेशेषता होती है ।

अत: आधुनिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक संस्थाओं का विशेषीकरण और विभिन्नीकरण होना अत्यावश्यक है । इस प्रकार की व्यवस्थाओं में अधिक से अधिक जन-सहभागिता होती है और नागरिकों की अभिवृत्तियों में परिवर्तन होने लगता है ।

आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था के लक्षणों को जानने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि इस व्यवस्था में भारतीय जन-जीवन के सभी क्षेत्रों में राज्य और राजनीतिक व्यवस्था का सकेन्द्रण निरन्तर बढ़ रहा है ।

दूरस्थ इलाके एवं गाँव भी राज्य के परिसर में आ गए हैं । लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना ने सरकार की जनता तक पहुँच को सुलभ एवं सरल बना दिया है । समाज एवं राज्य मे परस्पर निकटता एवं अन्तःक्रिया में निरन्तर वृद्धि हो रही है ।

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परिणामस्वरूप धर्म, गति, सामन्ती तत्वों का प्रभाव लगभग समाप्त होता जा रहा है और राष्ट्रीय राजनीतिक सत्ता दृढ़ हो रही है । पंचायती राज और लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीयकरण के कारण शासन में जन- सहभागिता निरन्तर बढ रही है और शासन की विभिन्न सरचनाओं-कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका में विभिन्नीकरण स्थापित किया गया है ।

मॉरिस जोन्स के अनुसार राजनीति की आधुनिक भाषा भारत के संविधान और अदालतों की भाषा है, संसद में बहस, उच्च प्रशासन की प्रक्रिया, राजनीतिक दलों की भूमिका, आदि सभी कुछ आधुनिकता को समेटे हुये हैं । भारत में राजनीतिक आधुनिकीकरण एक लम्बे ऐतिहासिक विकास का परिणाम है । इस विकास जानने हेतु इसका क्रमबद्ध अध्ययन आवश्यक है:

पूर्व ब्रिटिशकालीन भारत और आधुनिकीकरण:

केन्द्रीय राजनीतिक सत्ता की स्थापना पूर्व ब्रिटिश कालीन भारत मे नहीं हुई थी । भारत छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था और लोगों की मानसिकता एवं निष्ठा संकुचित थी । इस काल में राष्ट्र-राज्य का उदय नहीं हुआ था । समाज विभिन्न जतियों एवं उपजातियों में विभाजित था । वर्णव्यवस्था और जातीय उच्चता के आधार पर व्यक्ति की सामाजिक हैसियत की गिनती की जाती थी । समाज में महिलाओं एवं शुद्रों की स्थिति दयनीय थी ।

समाज एवं मानवजीवन में सर्वत्र अन्धविश्वास एवं धार्मिक रूढिवादिता एवं जातिवाद विद्यमान था । सर्वत्र अशिक्षा एवं अज्ञानता का बोलबाला था । शिक्षा का विकास नहीं हुआ था । अधिकांश जनता भारतीय गाँवो में निवास करती थी और उनके जीविकोपार्जन का साधन कृषि थी । कृषि ही प्रमुख व्यवसाय था । भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णत: कृषि पर आधारित थी इसलिए आर्थिक विकास भी नगण्य था ।

कानून एवं न्यायिक व्यवस्था व्यक्तिगत थी । सभी व्यक्तियों के लिए कानून समान नहीं था और सभी को न्यायालयों में भी समानता प्राप्त नहीं थी । राजनीतिक मामलो मे जनसाधारण का प्रवेश निषिद्ध था । एक व्यक्ति में ही समस्त सत्ता निहित होती थी ।

निष्कर्षत: पूर्व ब्रिटिशकालीन भारत में केन्द्रीय राज्यसत्ता का पूर्णत: अभाव था, न ही राष्ट्रीय राज्य का निर्माण हुआ था, धार्मिक रूढिवादिता, अज्ञानता एवं सामाजिक असमानता का बोलबाला था । सत्ताधारी राजनेता प्राय: भोग-विलास में लीन रहते थे और जनता के हितों के लिये उनका विपरीत दृष्टिकोण था । लोगों की स्थिति दयनीय थी क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं थी ।

ब्रिटिसकालीन भारत में आधुनिकीकरण:

भारत में अंग्रेजों का आगमन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना से प्रारम्भ हुआ । ब्रिटिश शासन ने ही भारतीय समाज में आधुनिकीकरण की नीव रखी । सम्पूर्ण देश को ब्रिटिश शासन ही एक सुदृढ़ केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत लाने में सफल हुआ ।

ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित राजनीतिक व्यवस्था का परिणाम यह हुआ कि संकुचित स्थानीय निष्ठा का स्थान सम्पूर्ण देश के प्रति निष्ठा ने ले लिया । अखण्ड और केन्द्रीय भारत का विचार इस राजनीतिक एकीकरण का ही परिणाम था ।

भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रारम्भ ब्रिटिश शासन की ही देन है । पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से ही राष्ट्रीयता एवं स्वतन्त्रता की भावना को प्रोत्साहन मिला इसका कारण था कि भारत के नवयुवक जोकि पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, उन्होंने उनकी पुस्तकों में पाश्चात्य देशों में शोषण के विरुद्ध संघर्ष का अध्ययन किया परिणामस्वरूप उनके मन-मस्तिष्क में भी अपने भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने की भावना भर गई फलस्वरूप भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का प्रारम्भ हुआ ।

अत: बर्क, मिल, मिल्टन, मैकाले और हर्बर्ट स्पेन्सर आदि विचारकों की कृतियों का अध्ययन कर भारतीय युवकों मे स्वतन्त्रता, राष्ट्रीयता एवं स्वराज्य की जीवनदायिनी भावनाओं का संचार हुआ । अंग्रेजी शासन ने भारत में नवीन प्रकार की प्रशासनिक एवं नौकरशाही व्यवस्था की स्थापना की । भारत में पहली बार दीवानी और फौजदारी संहिता की रचना की गई । कानून के समक्ष समता एवं विधि की एकरूपता को मान्यता दी गई । उद्योगीकरण का शुभारम्भ भी इसी काल में हुआ ।

उद्योगों की स्थापना के साथ-साथ परिवहन और संचार के साधनों का विकास हुआ । रेलवे, डाक और तार का एक नवीन विकास था । परिणामस्वरूप ग्रामीण जनता का आगमन शहरों की ओर होने लगा जिससे कि शहरीकरण का विकास हुआ । ब्रिटिश काल में ही प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं का प्रचलन हुआ ।

प्रतिनिधिक संस्थाओं की स्थापना, सीमित मताधिकार का प्रचलन और स्थानीय सस्थाओं के सूत्रपात से शासन व्यवस्था में जनसाधारण की अभिरूचि बढ़ने लगी और वे लोग स्वतन्त्रता एवं लोकतन्त्र की मांग करने लगे । अत: ब्रिटिश काल में भारत के अन्दर नवीन मूल्यों, सस्थाओं एवं वैज्ञानिक चिन्तन का आरम्भ हुआ जिससे राजनीतिक आधुनिकीकरण की गति को तीव्रता मिली ।

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ब्रिटिश काल में ही अनेक समाज सुधारक भी हुये जैसे, स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, राजा राममोहन राय आदि । इन्होंने भारत को आधुनिकीकरण की ओर समुख करने हेतु भारतीय जनता में नवचेतना का संचार किया ।

डॉक्टर जकारिया के अनुसार ”भारत की नव-चेतना मुख्यता आध्यात्मिक थी तथा इसने अनेक सामाजिक और धार्मिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया । 19 वीं सदी के धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन भारत को आधुनिकीकरण की दिशा में अग्रसर करने में बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुये ।

इस प्रकार के सुधार आन्दोलनों में ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्णन मिशन और थियोसोफिकल सोसायटी का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । इन सुधार आन्दोलनों ने भारतीय समाज में व्याप्त अन्धविश्वास को दूर कर भारतीय समाज की प्रत्येक वस्तु को तर्क, विवेक और विज्ञान के प्रकाश में देखना सिखाया । इन सुधार आन्दोलनों ने एक ऐसी पृष्ठभूमि तैयार की और वातावरण निर्मित किया, जिसके आधार पर राष्ट्रीयता की भावना विकसित हो सकी और भारतीय स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सका ।”

प्रोफेसर ए.आर. देसाई ने सुधार आन्दोलनों के सम्बंध में लिखा है: ”सामाजिक क्षेत्र में जाति प्रथा के सुधार और उसके उन्तुलन, स्त्रियों के लिए समान अधिकार, बाल-विवाह के विरुद्ध आन्दोलन, सामाजिक और वैधानिक असमानता के विरुद्ध जेहाद किया ।

धार्मिक क्षेत्र में धार्मिक अन्धविश्वासों, मूर्तिपूजा और पाखण्डों का खण्डन किया गया । ये आन्दोलन कम-अधिक मात्रा में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्षरत थे और इनका चरम लक्ष्य राष्ट्रवाद था ।”

स्वतन्त्र भारत में आधुनिकीकरण:

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् ही भारत ने राजनीतिक आधुनिकीकरण की दिशा की ओर अपने कदम बढाने प्रारम्भ कर दिये । संविधान निर्माण हेतु संविधान निर्मात्री सभा का गठन किया गया । संविधान सभा द्वारा ऐसा संविधान बनाया गया जिसके अन्तर्गत गणतन्त्र, जन सम्प्रभुता और उत्तरदायी शासन के सिद्धान्तों को मान्यता दी गयी ।

संविधान ने सीमित और भेदभावपूर्ण मताधिकार को समाप्त कर वयस्क मताधिकार को प्रमुखता दी । राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में जनसाधारण के प्रवेश का स्वागत किया । संविधान ने राजनीतिक, सामाजिक समानता को मान्यता दी और छुआछूत को असंवैधानिक घोषित किया ।

संविधान में व्यवस्था की गई कि सभी लोग कानून के समक्ष समान हैं । सभी लोगों को संघनिर्माण, विचार अभिव्यक्ति और समुदाय बनाने का अधिकार है किन्तु यह सब विधि द्वारा स्थापित मान्यताओं के अनुरूप होगा । शासन में जनता की सहभागिता बढ़ाने हेतु पंचायती राज की व्यवस्था की गई । निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्याय दिलाने हेतु स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना की गई । लोक सेवाओं में भर्ती हेतु निष्पक्ष लोक सेवा आयोगों की स्थापना की गई ।

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स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों की व्यवस्था की गई, साथ ही दलीय व्यवस्था को अपनाया गया । सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन लाने हेतु जमींदारी व्यवस्था को समाप्त किया गया । सम्पत्ति के अधिकार को कानूनी अधिकार में परिवर्तित किया गया । उद्योगीकरण के परिणामस्वरूप उद्योगों का विकास हुआ एवं उद्योगों मे श्रमिकों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया ।

अत: उद्योगीकरण और शहरीकरण की प्रवृत्ति में वृद्धि के फलस्वरूप लोगों के आदर्शो एवं मूल्यों में मूलभूत परिवर्तन आये । निष्कर्षत: भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के विषय में मॉरिस जोन्स का कहना है कि “भारत का समाज परम्परागत है और राजनीति आधुनिक ।

यद्यपि संविधान द्वारा आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं का गठन किया गया है, लेकिन व्यावहारिक रूप से भारतीय समाज उसको पूरी तरह से पचा नहीं पा रहा है । उदाहरण के लिए, संविधान द्वारा स्वतन्त्र निर्वाचन की व्यवस्था की गयी है, किन्तु धर्म और जाति के तत्व उनको अत्यधिक प्रभावित करते हैं, संविधान द्वारा वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है, किन्तु महिलाओं का एक बड़ा भाग चुनावों के समाय मतदान में हिस्सा ही नहीं लेता ।’’

रजनी कोठारी ने इस स्थिति का वर्णन करते हुये भारत को जेनस लाइक माँडल कहा है । जेनस एक ऐसा समुद्री जानवर होता है जिसके आगे और पीछे दोनों तरफ आंखे होती है और वह दोनों और एक साथ देखता है ।  जेनस की भाँति ही भारतीय राजनीतिक व्यवस्था भी आगे और पीछे दोनों और देखती है-वह न तो पूरी तरह अतीत से संबंध विच्छेद कर सकी है और न ही पूर्णरूप से आधुनिक ही बन पायी है ।’’ रुडोल्फ का मत है की “यह एक मिश्रित व्यवस्था है जिसमें परंपरावाद और आधुनिकता के तत्वों का मिश्रण पाया जाता है ।’’

स्पष्ट है की वर्तमान समय में भारत के राजनीतिक आधुनिकरण के रास्ते में अनेक कठिनाइयाँ है जैसे-धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद, गरीबी, अशिक्षा, संकीर्ण निष्ठा, आदर्श और मूल्य अथवा नैतिकता इत्यादि ।  अत: भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जब तक परंपरावादी तत्व विद्यमान है तब तक उसका पूर्णत: आधुनिक स्वरूप ग्रहण करना अत्यधिक जटिल एवं अस्वाभाविक है ।

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