भारत में राजनीतिक ध्रुवीकरण का संकट पर निबन्ध | Essay on The Crisis of Political Polarization in India in Hindi!

दलीय व्यवस्था लोकतंत्र की आधारशिला है । भारतीय लोकतंत्र की विडंबना यही है, जहाँ विभिन्न राजनीतिक दल अपनी नीतियों के आधार पर चुनाव लड़ते हैं और जातीयता, क्षेत्रीयता तथा सांप्रदायिकता को बढ़ावा देनेवाले राजनीतिक दल का चोला पहनकर उथल-पुथल मचाते हैं ।

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इस देश की बहुतांश निरक्षर जनता भी राजनीतिक विचारधारा को ताक पर रखकर धर्म, जाति तथा सांप्रदायिक भावना से प्रेरित होकर मतदान करती है । यहाँ के राजनीतिक दल सुविधा की राजनीति को अपनाए हुए हैं । ऐसी परिस्थिति में राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण केवल मानसिक उथल-पुथल बनकर रह जाता है ।

नेहरू के बाद भी दीर्घकाल तक केंद्र पर कांग्रेस का ही कब्जा बना रहा, मगर राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण संभव नहीं दिखता था । देश का समाजवादी आदोलन सदा बिखरता रहा । इंदिरा गांधी के शासनकाल में तो कांग्रेस का भी बिखराव होने लगा था ।

पाँचवें आम चुनाव के बाद इंदिरा दल के विरुद्ध जयप्रकाश के आदोलन ने जोर पकड़ा तो सही, मगर विभिन्न विरोधी दलों से उसे जो समर्थन मिला था, उसके पीछे दृढ़ आर्थिक नीति की दृष्टि का अभाव था । श्रीमती गांधी की यह धारणा भी गलत साबित हुई कि उन्हें आपातकाल में जन-सहयोग मिल सकेगा ।

फलत: छठे आम चुनाव में जनता ने श्रीमती गांधी को अपदस्थ किया । केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, मगर जनता दल में शामिल विभिन्न दलों की स्वार्थ-लोलुपता और उनके नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण न हो सका ।

जनता दल के पास कोई स्थिर आर्थिक कार्यक्रम न होने के कारण सातवें आम चुनाव में जनता ने श्रीमती गांधी को पुन: सत्तारूढ़ होने का अवसर प्रदान किया था, फिर भी इंदिरा कांग्रेस में विचारधाराओं की खिचड़ी पकती रही ।

भारत के राजनीतिक दलों में विचारधारा ही अस्थिरता का मुख्य कारण है । कभी तो अखिल भारतीय दल क्षेत्रीय राजनीतिक दल में बदल जाते हैं । वरिष्ठ नेता अपना अलग दल बनाने का मोह रखते हैं । चारों ओर सत्ता की भूख प्रबल है । ऐसी स्थिति में, राजनीतिक ध्रुवीकरण गौण ही रहेगा ।

आजादी के ५० सालों के बाद भी राजनीतिक शक्तियों के ध्रुवीकरण के मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं । रूढ़िवादी विचारधारा, व्यक्ति पूजा, जाति, धर्म और संप्रदायगत दृष्टि, राजनीतिज्ञों की सुविधाभोगी राजनीति आदि इनमें मुख्य हैं । इन प्रतिगामी प्रवृत्तियों को राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थ के लिए उभारते हैं । क्षेत्रीयता की भावना भी दलीय ध्रुवीकरण में बाधक बनी है ।

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यह विशाल देश विविध धर्मों, भाषाओं, प्रदेशों तथा आचार-विचारों में बँटा हुआ है । आर्थिक स्थिति तथा औद्योगिकीकरण में भी अंतर है । अत: राजनीतिक दल क्षेत्रीय प्रभाव के वशीभूत होकर जाति, संप्रदाय और धर्म के आधार पर अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं ।

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जहाँ व्यक्ति-पूजा को बढ़ावा मिलता है वहाँ सिद्धांत धरे-के-धरे रह जाते हैं । भारत के बहुसंख्यक अशिक्षित कृषक और मजदूर आबादी का मूल मंत्र रोटी मात्र है । उनके मत-पत्रों पर सिद्धांतों का प्रभाव पड़ना कठिन है ।

इस प्रकार भारत में आज सिद्धांतविहीन राजनीति को बढ़ावा मिल रहा है । छोटे- बड़े दल बनते-बिगड़ते रहते हैं । निर्वाचित संविद भी ‘आया राम गया राम’ बन रहा है । राजनीतिक ध्रुवीकरण इन रोगों का इलाज सिद्ध हो सकता है, मगर इसके पहले राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन लाना नितांत आवश्यक है ।

आचार-संहिता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन हो । भारत में दक्षिणपंथी और वामपंथी दलों का अलग-अलग ध्रुवीकरण हो, साथ ही मध्यम वर्ग का अनुसरण करनेवाली एक अलग पार्टी हो । कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और साम्यवादी पार्टी क्रमश: तीनों नेतृत्व करें ।

सांप्रदायिकता, जातीयता अथवा प्रांतीयता के आधार पर किसी राजनीतिक दल का गठन न किया जाए और न चुनाव में इसके आधार पर मत माँगा जाए । राजनीति में व्यक्ति-पूजा को समाप्त किया जाए । सामूहिक नेतृत्व की भावना से ही ध्रुवीकरण संभव है, न कि व्यक्ति के चमत्कारक व्यक्तित्व से ।

भारत में राजनीतिक दलों के ध्रुवीकरण का भविष्य उज्ज्वल है सिद्धांतों तथा आर्थिक नीतियों के आधार पर अगर विभिन्न राजनीतिक दल एकीकरण के लिए तैयार हों, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में राजनीतिक ध्रुवीकरण संभव होगा ।

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