भारत में राष्ट्रीय एकता खतरे में (निबन्ध) |Essay on National Integration is in Danger in India in Hindi!

सला-ठाहिंसा केपुजारी बापू और विस्मरणीय-अविस्मरणीय बलिदानी हिंदुस्तानियों की अमोध शक्ति से निराश निशा का आवरण हटा, दासता का तिमिर विदीर्ण हुआ तथा स्वतंत्रता की अरुणिम-स्वर्णिम उषा में १५ अगस्त, १९४७ को हम हिंदुस्तानियों ने नेत्र उन्मीलित किए थे । २०० वर्षों तक जमे हुए ब्रिटिश शासन को ‘भारत छोड़ो’ के उद्‌घोष से भगा देना विश्व के इतिहास का गौरवपूर्ण परिवर्तन है ।

हाँ, यह स्वतंत्रता पूर्ण हर्ष के रूप में हमारे साथ रह सकी । हमारी भारतमाता का अंग-विच्छेद हो गया । इसका एक भाग ‘पाकिस्तान’ नाम से पृथक् हो गया । हमारे नेताओं ने बाध्य होकर देश-विभाजन को स्वीकार कर लिया और ‘मुसलिम लीग’ को बिना किसी त्याग के ही पाकिस्तान प्राप्त हो गया ।

उस समय के घोर नर-मेध को बचाने के लिए और कोई विकल्प न था । पुरुषोत्तमदास टंडन इसका विरोध करते ही रह गए किंतु समय-चक्र ने उन्हें भी पछाड़ दिया । उस विभाजन ने कुछ ऐसी विकट समस्याएँ आज भी उपस्थित कर रखी हैं कि अशांति के बादल भारत की सीमाओं पर मँडरा रहे हैं ।

पश्चिमोत्तर प्रांत ने जनमत से पाकिस्तान में जाने का निश्चय किया । उस जनमत-गणना में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया था । पंजाब और बंगाल का बँटवारा हुआ था । ‘मुसलिम लीग’ द्वारा फैलाए गए सांप्रदायिकता के विष ने विभाजन के उपरांत भी विकराल रूप धारण कर लिया था । पंजाब तथा बंगाल (नोआखाली) में भीषण मार- काट मची । नादिरशाह, चंगेज खाँ तथा हलाकु के अत्याचारों को पासंग में चढ़ा देनेवाले भीषणतम, नग्नतम, घोरतम अत्याचार हुए ।

घृणा, अशांति और निंदनीय कृत्यों के इस घोर विद्रोह में महात्मा गांधी ही दुःखियों के आँसू पोंछते रहे, किंतु ३० जनवरी, १९४८ को प्रार्थना-सभा में वह नाधूराम गोडसे की गोली का शिकार बने । सीमांत पंजाब, बलोचिस्तान तथा सिंध से हिंदू पारसी, सिख, ईसाई और यहूदी लोग अपना सबकुछ छोड्‌कर प्राण लेकर भारत भाग आए थे । उनके काफिलों पर भी घातक आक्रमण होते थे ।

भारत सरकार उन्हें भी यथासंभव सुरक्षा के साथ निकाल लाई तथा उनके रहने, खाने, वस्त्र तथा व्यापार का प्रबंध किया । लौह-पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने सारी देशी रियासतों को एकता के सूत्र में बाँध केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों से जोड़ दिया था ।

जूनागढ़ तथा हैदराबाद को समस्याओं को दूरदर्शिता से हल किया । कश्मीर की समस्या प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की हठधर्मिता तथा कुछ चतुर देशों की चाल के कारण आज भी जटिल बनी हुई है । विश्व का कौन ऐसा प्राणी है, जिसे अपनी जन्मभूमि प्राणाधिक प्रिय नहीं होती । धर्म भी उच्च स्वर में पुकार रहा है:

”जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।”

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जन्मभूमि ही हमारी माता है । वह हमें उसी वात्सल्य भाव से पालती-पोसती है । इसका गौरव स्वर्ग से भी महान् है । प्रत्येक देश के मनुष्य अपनी जन्मभूमि की पूजा करते हैं; उसे महत्त्व तथा गौरव प्रदान करते हैं ।

स्कॉट का स्पष्ट कथन है कि क्या कोई ऐसा भी मनुष्य है, जिसकी आत्मा इतनी मर गई हो कि उसने यह कभी नहीं कहा हो-यह मेरा स्वदेश है, यह मेरा देश है । संसार के समस्त महापुरुषों तथा कवियों ने देश-प्रेम के गीत गाए हैं । आज, ‘वंदेमातरम्’ प्रत्येक हिंदुस्तानी की जिह्वा पर है ।

मातृभूमि हमारा जीवंत और प्रत्यक्ष स्वर्ग है । देवता भी स्वर्ग को त्यागकर यहाँ जन्मधारण करने की अभिलाषा रखते हैं:

”गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमि भागे ।”

जनसेवा का महत्त्व ईश्वर-सेवा से भी बढ़कर है- ”Service to Humanity is service to Divinity.’’

हमें ईश्वर को प्रेम करने के स्थान पर उसके बंदों को प्यार करना चाहिए:

“Love his creature and he will love you.”

महाराणा प्रताप ने देश-सेवा करते समय अपार संकटों का सामना किया था । निर्जन वन के क्षुधित-विपासित कंटकाकीर्ण जीवन का सुखपूर्वक आलिंगन किया था, किंतु अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी । आज अपने प्रताप के साथ हमने ‘अपना प्रताप’ भी खो दिया है:

कहँ प्रताप वह दाप वह, कहाँ आन कहाँ बान अब क्षत्रित्व कहाँ रहा, सब है सूखी शान ।। तुम राजपूतन ते कहा, राजपूती की आस निज चोटी बेटीन की, राखि सकत ना लाज ।।

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पशु-पक्षी भी जहाँ रहने लगते हैं तो उस स्थान से प्रेम करने लगते हैं । वर्षों के पश्चात् भी उस स्थान को पहचानकर उसी पर बैठते हैं । उपयुक्त जलवायु की तलाश में मीलों जाकर भी वह सायंकाल अपने नीड में ही निवास करते हैं, फिर संज्ञाशील प्राणी ही देश-प्रेम, देश-सेवा से वंचित क्यों ?

उसका तो परमधर्म देश-सेवा ही है । एक वृक्ष पर अनेक पक्षी रहते थे । सहसा वृक्ष दावाग्नि से जल उठा । वृक्ष को दग्धावस्था में देखकर पक्षी अश्रु-प्रवाह करने लगे और उड़ने के बजाय वहीं बैठे रहे । पक्षियों के इस भाव का प्रश्नोत्तर समझने का प्रयास कीजिए-

प्रश्न- ”आग लगी इस वृक्ष में जले फूल अरु घास । तुम क्यों बैठे पक्षियो, पाँख तुम्हारे पास?” उत्तर- ”फल खाए इस वृक्ष के, चखे फूल अरु पात । इच्छा है मन की यही, जले इसी के साथ ।”

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-पक्षी उस वृक्ष के साथ जलकर भस्म हो जाना चाहते हैं, जिसके फल-फूल उन्होंने खाए हैं । नस-नस में जिसका रक्त है, उस वृक्ष का साथ वे विपत्ति में प्राणपण से भी छोड़ना नहीं चाहते, यही सच्ची भावना है । यूनान देश के एथेंस राज्य के सबसे बड़े नागरिक ने कहा है- मैं यह चाहता हूँ कि तुम प्रत्येक दिन अपनी दृष्टि एथेंस की महत्ता पर गड़ाए रखो ।

यहाँ तक कि तुम उसके प्रति प्रेम से भर जाओ और जब तुम उसके ऐश्वर्य और वैभव से प्रभावित होने लगो तो यह सोचो कि यह साम्राज्य उन मनुष्यों ने निर्मित किया है, जो अपना कर्तव्य जानते थे और जिनमें वह साहस था कि अपने कर्तव्य को पूरा करें ।

जब वे अपना कर्तव्य पूरा करने में सफल न हुए तो उन्होंने अपनी मातृभूमि के चरणों में अपने प्राण भेंट कर दिए और इस तरह से अपनी दुर्बलता का परिहार किया । डॉ. इकबाल ने अपनी ‘नया शिवाला’ कृति में यही प्रकट किया है:

”पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है! खाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है ।” हाँ हमारी देश-सेवा अज्ञानता और उत्तेजना के कारण न् हो । वर्तमान शताब्दी में भावुकता का महत्त्व अधिक नहीं रह गया है । बर्क ने कहा है-

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”हमें अपने मन को विकसित करना चाहिए । हमारी जितनी भी सद्यवृत्तियाँ हैं, उन्हें हम अपने कुटुंब तथा इष्ट-मित्रों के संकीर्ण क्षेत्र से निकालकर देश के अनेक व्यक्तियों की सेवा में लगाएँ ।”

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सच्चा देश कहां है ? वह देश के ईंट-पत्थरों में नहीं है, वह तो जीवित मनुष्यों में है । इन जीवित मनुष्यों की सेवा ही सच्ची देश-सेवा है । सेवा- धर्म अत्यंत गहन है योगियों की पहुँच के भी परे है । ऐसी प्रवृत्तियों का समूल विनाश कर देना चाहिए जिनके कारण दूसरे देश हम पर हँसते हों । देश के समुज्वल भविष्य का ध्यान रखक; हम सबकुछ बलिदान करने के लिए तैयार हो जाएँ ।

अछूतों, दलितों-पतितों, किसान तथा मजदूरों की समस्या का निराकरण कर देश की बेकारी को दूर करना चाहिए । एश्वर्य तथा वैभव के कोमल गुलाबी गद्‌दी को त्यागकर कर्म-क्षेत्र में गरीब-से-गरीब कृषक से कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना चाहिए । ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा ‘तथा’ कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी चिल्लाने से कुछ नहीं होने वाला ।

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‘संघे शक्ति: कलीयुगे ।’ वर्तमान युग में, जब सभी अपनी-अपनी डफली पर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं, संगठन-शक्ति का महत्त्व उपेक्षणीय नहीं । देश में यही फूट की बेल जब जयचंद तथा पृथ्वीराज के बीच बोई गई तब रणथंभौर के उस युद्ध के साथ ही हिंदुस्तान की विजयश्री विदा हो गई । विदेशी आक्रांता भारत में पैर जमाते चले गए ।

महाभारत का युद्ध आपसी कलह, फूट, ईर्ष्या और विद्वेष के कारण हुआ था । बालि को सुग्रीव ने भाई होते हुए भी मरवा दिया था । अभागे हिंदुस्तान की मिट्‌टी में ही न जाने क्या असर है कि यहाँ भाई भाई से कंधा मिलाकर नहीं चल सकता । यहाँ ‘मनुष्य’ और ‘इनसान’ तक में भेद है । ‘प्रेम’ और ‘मोहब्बत’ करनेवालों में भेद है ।

हम छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं देते । यह नहीं विचार करते कि आज का पर्वत कल के रजकणों से बना है । जिस लहराते सागर को हम उत्ताल तरंगों के साथ देखते हैं, वह जल की एक-एक बूँद की परिणति है । एक बूढ़े पिता ने मरते समय अपने सभी लड़ाकू पुत्रों को बुलाकर एक लकड़ी के गट्‌ठर द्वारा यह उपदेश दिया था कि एक लकड़ी को वे तोड़ सकते हैं, किंतु लकड़ी के गट्‌ठर पर सभी बल तौल देने पर उनकी असफलता ने उनकी आँखें खोल दीं ।

छोटे-छोटे तिनके व्यर्थ ही अकेले पड़े रहते हैं, किंतु जब उन्हीं को मिलाकर एक गट्‌ठर तैयार कर लिया जाता है तब उनकी शक्ति अजेय हो जाती है । व्यक्ति, समाज और राष्ट्र-तीनों की समस्याओं का निराकरण करनेवाली संघ-शक्ति ही है । हिंदू समाज के ही एक नहीं, अनेक संप्रदाय हैं । उनमें घोर विरोध और फूट है । वे एक-दूसरे पर आघात करते ही रहते हैं, किंतु इस भिन्नता में भी एक सूत्र-बंधन है ।

उसी सूत्र-बंधन के साथ अनेकता एकता में बँधी है । उस एकता का मूल है-जातीय संस्कार की एकता । जातीय संस्कार एक होने के कारण धार्मिक मतभेद जातीयता का बाधक नहीं हुआ । सभी मनुष्य शक्ति की कामना करते हैं ।

वे जानते हैं कि जिनमें शक्ति नहीं है, जो दुर्बल हैं, वे आत्मरक्षा नहीं कर सकते । उन्हें सदैव दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है, परंतु शक्ति केवल शारीरिक नहीं होती, मानसिक और आध्यात्मिक भी होती है । अत: संघ-शक्ति के साथ इनको भी प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए ।

संगठन और भौतिक शक्तियों का मनुष्य पर अत्यधिक प्रभाव होता है । स्वार्थमय व्यक्तित्व की संकीर्णता मिटा देने पर ही संघ-शक्ति की उपयोगिता सिद्ध हो सकती है । राष्ट्रीयता कोरी कल्पना और स्वार्थियों का ढकोसला मात्र नहीं है । दैनिक जीवन में सहिष्णुता और सहकारिता के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना हमारे राष्ट्रीय जीवन का सबसे बड़ा गुण होना चाहिए ।

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यों तो संसार के इतिहास में कोई भी ऐसी जाति नहीं, जिसने अपनी शक्ति को सदैव अक्षुण्ण रखा हो । उत्थान के पश्चात् पतन होता है । कभी किसी जाति ने उन्नति की है तो कभी किसी जाति ने अवनति, किंतु उन्नति के चरम तक पहुँचकर सभी का एक बार पतन अवश्य हुआ है ।

प्राचीनकाल में भारत हर प्रकार से उन्नति के शिखर पर था । उसकी शक्ति अप्रतिहत थी, उसका वैभव अतुल था । कारण यह कि उस समय उसने उस वृहत् सत्य का आविष्कार कर लिया था, ताकि सभी अनैक्यों में ऐक्य की शक्ति संपूरित हो सके ।

ऐसा भाव उसकी सभ्यता के मूल में था । दासत्व की नाना अनुभूतियाँ जीने-भोगने के उपरांत भी हिंदुस्तान में ऐसा भावनात्मक ऐक्यमूलक आध्यात्मिक आदर्श है कि सुप्त होने पर भी वह प्राणहीन नहीं हुआ है । उसमें वह शक्ति है कि वह सभी बाह्म अनैक्यों को स्वीकार करके भी अंतर्जगत् के ऐक्य से साक्षात् करता है । भारत के ज्ञान के कारखाने में वह कुंजी तैयार है, जो एक-न-एक दिन सभी द्वारों को खोल देगी तथा चिरकाल से विच्छिन्न जातियों को प्रेम के महानिमंत्रण में सम्मिलित करेगी ।

प्राचीन युग में व्यक्ति, मध्य युग में समाज और वर्तमान युग में राष्ट्र प्रबल हुए । कितने ही विद्वानों ने भावी संसार के लिए एक विश्व-साम्राज्य की कल्पना की है । जहाँ एक भाषा, एक धर्म और एक भाव की प्रधानता रहेगी- ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की सत्ता ।

वास्तव में, राष्ट्र-संगठन स्वयं अपने नग्न रूप में विकारग्रस्त नहीं है । वह एक महान् तत्त्व है । विचक्षणों ने उसकी सराहना की है और सभी ने उसके सत्परिणामों की अनुभूति भी की है । ”United we stand,divided we fall.”- इस मूल मंत्र को संपूर्णत: अंगीकार कर लेना चाहिए ।

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