हमें कैसे राष्ट्रपति की जरूरत है (निबंध) | Essay on the Kind of President We Need in Hindi!

भारत के संविधान के अनुच्छेद 53 के अधीन संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है । इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 79 के अधीन संसद राष्ट्रपति दो सदनों से मिलकर बनती है । एक ओर राष्ट्रपति कार्यपालिका के अधिकारों से वेष्टित है, दूसरी ओर वे विधायिका के अभिन्न अंग हैं ।

राज्य के दो स्तंभों-कार्यपालिका एवं विधायिका का मिलन राष्ट्रपति में होता है । जहाँ तक न्यायपालिका का प्रश्न है, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों एवं न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति अनुच्छेद 124 के अधीन करते हैं एवं उनको पदचूत करने का अधिकार भी, विधिवत् प्रक्रिया के पश्चात् केवल राष्ट्रपति को है । जल, थल एवं वायु सेनाओं के सर्वोच्च सेनाधिपति भी राष्ट्रपति हैं ।

संविधान की तीसरी अनुसूची में केंद्रीय मंत्रियों, संसद सदस्यों, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, राज्य के मंत्रिगण, विधानसभा सदस्यों एवं उच्च न्यायालयों को जो शपथ लेनी पड़ती है, उसका प्रारूप दिया गया है । इन सबमें यह शब्द उपयोग में लाये गये हैं: ‘मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा ।

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परंतु जहाँ तक राष्ट्रपति द्वारा शपथ का प्रश्न है, उसका प्रारूप अनुच्छेद 60 में दिया गया है और उसके शब्द हैं: ‘मैं अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परीक्षा, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूँगा और भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा ।’ यही शब्द अनुच्छेद 159 के अधीन राज्यपाल की शपथ के प्रारूप में भी हैं ।

केंद्र में राष्ट्रपति एवं राज्य में राज्यपाल न केवल संविधान का श्रद्धापूर्वक पालन करेंगे परंतु वे संविधान का प्रतिरक्षण भी करेंगे । इसका अर्थ यह है कि यदि भारत में कोई भी संस्था, राज्य की इकाई, मंत्रिगण, अधिकारीगण, विधायिका, न्यायपालिका इत्यादि संविधान के विपरीत कार्य करते हैं, जिससे संविधान को खतरा पैदा होता है, तो राष्ट्रपति का कर्त्तव्य है कि वे ऐसे हर मामले में हस्तक्षेप करें एवं संविधान की रक्षा करें ।

जब राजेंद्र प्रसाद जी ने यह प्रश्न उठाया था कि राष्ट्रपति के क्या अधिकार हैं, तो जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें यह उत्तर दिया था कि उनकी भूमिका वही है जो ब्रिटेन की महारानी की है, यानी जो सलाह मंत्रिपरिषद् देती है उसी के आधार पर शब्दश: कार्य करना । परंतु यह तुलना ठीक नहीं है । हमारे राष्ट्रपति न तो एक कठपुतली हैं और न ही शक्तिहीन । वे संविधान के प्रहरी एवं प्रतिरक्षक हैं ।

संविधान के अनुच्छेद 74 के अधीन यह अनिवार्य है कि राष्ट्रपति अपना कार्य मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर करें और केवल इसी आधार पर । अर्थात राष्ट्रपति को कोई भी विवेकाधिकार नहीं है कि वे अपने बूते पर या अपनी सोच के मुताबिक निर्णय लें ।

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परंतु क्या यह राष्ट्रपति के हर निर्णय पर लागू होगा? सर्वोच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल, भाई महावीर की अपील पर यह निर्णय सुनाया था कि यदि मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य के विरूद्ध कोई आपराधिक मामला दर्ज है एवं मंत्रिपरिषद सलाह देती है कि उनके विरूद्ध प्रकरण चलाने की अनुमति न दी जाये तो राज्यपाल बाध्य नहीं है कि वे इस सलाह को स्वीकार करे ।

ऐसा प्रसंग आ सकता है जबकि मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को सलाह दे कि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत निर्णय लें । एक छोटा-सा उदाहरण यही लिया जा सकता है । अनुच्छेद 75 के अधीन कोई भी ऐसा व्यक्ति मंत्री नहीं बना रह सकता यदि नियुक्ति के 6 माह के अंदर वह केंद्र में संसद एवं राज्य में विधानसभा का सदस्य न चुना जाये । मान लीजिए मंत्रिपरिषद सलाह देती है कि ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति मंत्री बनाए रखें व इसकी प्रतिपूर्ति के लिए ढोंग रचा जाये कि मंत्री त्यागपत्र दे और उसकी तुरंत पुनर्नियुक्ति हो ।

ऐसे प्रकरण में राष्ट्रपति अपने विवेक से मंत्रिपरिषद् की सलाह को अस्वीकार कर सकता है । यदि न्यायपालिका कोई निर्णय सुनाती है एवं मंत्रिपरिषद् सलाह दे कि इस निर्णय को नजरअंदाज कर दिया जाये तो राष्ट्रपति को ऐसा करने से इनकार कर देना चाहिए ।

अनुच्छेद 74 के अधीन राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद को निर्देश दे सकते है कि वह दी गयी सलाह पर पुनर्विचार करे । राष्ट्रपति को पूरा अधिकार है कि वे प्रधानमंत्री को सलाह दें, मंत्रिपरिषद के सदस्यों से वार्तालाप करें एवं प्रधानमंत्री के माध्यम से मंत्रिपरिषद से आग्रह करें कि वह अमुक मुद्दों पर विचार करके निर्णय ले । यही अधिकार राष्ट्रपति को अनुच्छेक् 86 के अधीन है कि वह संसद को किसी लंबित विधेयक के संबंध में या और किसी मुद्दे पर संदेश भेजें और यह अनिवार्य होगा कि संसद उस संदेश पर विचार करे ।

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जहाँ तक अनुसूचइत जाति एवं जनजातियों के प्रशासन का प्रश्न है, पांचवीं एवं छठी अनुसूची के अधीन राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को विशिष्ट अधिकार हैं । इन अधिकारों के उपयोग के लिए मंत्रिपरिषद एवं राज्यपाल को अपनी सलाह अवश्य देगी एवं इन पदाधिकारियों को इस सलाह के मुताबिक कार्य करना चाहिए ।

परंतु यदि उन्हें लगे कि अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों की सुरक्षा ठीक से नही हो रही है, तो राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को अधिकार है कि वे मंत्रिपरिषद की उस सलाह को अस्वीकार कर सकते हैं जो इन जनजातियों के हित में नहीं है ।

राष्ट्रपति का अधिकार है कि वे संवैधानिक संतुलन की रक्षा करें । परंतु जब ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे तब उन्होंने एक संवैधानिक त्रुटि का लाभ उठाते हुए इस संतुलन को बिगाड़ा । विधि एवं संविधान बनाना केवल विधायिका का अधिकार है । विधायिका के सदस्यों को वोटर चुनता है एवं उन्हें इस अधिकार से वेष्टित करता है कि जनप्रतिनिधि होने के नाते वे जनता की आवाज सुनें एवं जनता जैसा चाहती है वैसे कानून व कायदे बनाए ।

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राष्ट्रपति या राज्यपाल को पारित विधेयक को अनुमति देनी चाहिए । संविधान के अनुच्छेद 111 के अधीन राष्ट्रपति को या तो विधेयक को अनुमति देनी होगी अन्यथा रोकना होगा । यदि राष्ट्रपति अनुमति नहीं देते तो यह अनिवार्य है कि यथासंभव शीघ्र विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद को लौटाएं । यदि संसद विधेयक को पुन: पारित करती है तो राष्ट्रपति की अनुमति अनिवार्य है । अमेरिका के संविधान में यह प्रावधान है कि राष्ट्रपति को 10 दिन के अंदर या तो अनुमति देनी होगी या विधेयक को लौटाना होगा ।

ज्ञानी जैल सिंह ने इस बात का लाभ उठाया कि हमारे संविधान में इस प्रकार की समय सीमा नहीं है व इस कारण शब्द ‘यथासंभव शीघ्र’ का अर्थ उन्होंने यह निकाला कि इसकी कोई समय सीमा ही नहीं है । यदि राष्ट्रपति संविधान का प्रतिरक्षक है तो वह निष्पक्ष, राजनैतिक दृष्टि से तटस्थ, समझदार एवं स्थिर स्वभाव का होना चाहिए । परतु ऐसा लगता है कि डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसे विद्वान को राजनैतिक दल नहीं चाहते थे एवं राजनीति में लिप्त व्यक्ति को इस पद पर देखना चाहते है । केवल तटस्थ व्यक्ति ही देश के संविधान एवं हितों की रक्षा कर सकता है ।

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