भारतीय संस्कृति: विलुप्त होती दिशाएं | Indian Culture in Hindi!

प्रस्तावना:

हमारा भारत देश ‘विविधता में एकता’ वाला देश है । यहाँ पर विभिन्न धर्मो व सम्प्रदायों के लोग रहते हैं । सभी की अपनी-अपनी भाषाएं, रहन-सहन, वेशभूषा, रीति-रियाज, वेद-पुराण एवं साहित्य है । सब की अपनी-अपनी संस्कृति है । सभी लोगों की संस्कृति उनकी पहचान बनाये हुये है । संस्कृति के प्रकाश र्मे ही भारत अपने वैयक्तिक और बैश्विक जीवन मूल्यों की रक्षा कर सकता है ।

चिन्तनात्मक विकास:

भारत देश की प्राचीन संस्कृति इस बात को पुष्ट करती है कि यहाँ के महान शासकों ने सदा सर्वधर्मसमभाव की नीति अपनाई । यहाँ की लोकतन्त्रीय व्यवस्था में हर धर्म व सम्प्रदाय को समान आदर दिया गया । यहाँ के महान शासकों ने सदैव इसी नीति का अनुसरण किया ।

यह भारत की एक आदर्श परम्परा थी जिसका पालन राजतन्त्र ने भी किया और लोकतन्त्र ने भी । आज पूरा देश जिस सांस्कृतिक दौर से गुजर रहा है उसके पदचाप में संस्कृति की कोई अनुगूंज नहीं सुनाई देती है । एक तरफ सरकार कहती है कि उसे सांस्कृतिक मूल्यों का भान है और उसके क्षरण को रोकने के लिए कार्यबद्ध है ।

किन्तु दिन-प्रतिदिन सांस्कृतिक मूल्य एवं आदर्श नष्ट होते जा रहे हैं । देश भर में संस्कृति के नाम पर अनगिनत संस्थाएं बनी, किन्तु संस्कृति उनसे दूर-दूर ही बनी रही । संस्कृति कोई देवता नहीं जो मंदिरों में ही रहेगी । वह तो एक एहसास है हमारे वजूद का ।

संस्कृति एक ऐसा विस्तृत फलक है, जिसमें आदमी और भगवान दोनों शरण पाते हैं । अब इतनी व्यापक अनुभूति को किसी चारदीवारी में कैद तों नहीं किया जा सकता । दर असल जो होना चाहिए था वह न होकर उसके उल्टा हुआ । आज हमारी संस्कृति का सात्विक प्राचीन रूप नष्ट होता जा रहा है ।

आर्थिक दासता के मंडराते बादलों को छांटने में सफलता प्राप्त नहीं हो रही । देश एवं समाज अपरिपक्व प्रयोगों में फंस कर अनेक अन्य समस्याओं को जन्म दे रहा है । सम्पन्नता के साए में पनपती और पलती विकृतियों से संत्रस्त पश्चिमी जीवन जैसी ही घुटन और तनाव का अनुभव पहले से ही कर रहे भारत में भी वैसे ही लक्षण उभरने लगे हैं ।

उपसंहार:

सांस्कृतिक स्तर पर हमारी स्थिति धोबी के कुत्ते से भिन्न नहीं, न घर के रह गए हैं और न घाट के । न प्राचीन संस्कृति बची है न आधुनिकता पूरी तरह आई है । आज हम न पूरब के हैं न पश्चिम के । एक अजीबो-गरीब संस्कृति के मोहपाश में कैद होते जा रहे हैं । गर्व से कहो हम भारतीय हैं, दोहराने में भी झिझक होने लगी है ।

यद्यपि भारतीय संस्कृति का प्राचीन स्वरूप ‘विविधता में एकता’ सुरक्षित है तथापि एकता के आधारभूत रंग धूमिल पड़ गए हैं और विविधता के सतही रंग उभर कर हमारे समक्ष आ गए हैं । हम भारतवासी अपनी भाषा, रहन-सहन, खान-पान और वेशभूषा में भले ही अलग-अलग हों परन्तु हमारी संस्कृति एक ही है ।

अर्थात् भारतीय राष्ट्र-राज्य का आधार एक संस्कृति नहीं, अनेक संस्कृतियों की पारस्परिक सहिष्णुता और उनका अन्तर्निअर सहअस्तित्व है । विभिन्न सांस्कृतिक धाराओ के स्वतन्त्र अस्तित्व और विकास के अधिकार की स्पष्ट स्वीकृति ही भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता और अखण्डता की गारण्टी है । संस्कृति का अर्थ संकुचित नहीं है ।

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वस्तुत: संस्कृति मन की सुन्दरता को व्यक्त करती है । मन की सुन्दरता से सौन्दर्य की मर्यादाएं बनती हैं । मन की सुन्दरता से हमें सुख-दुख के प्रति दृष्टि निर्धारित करने की क्षमता प्राप्त होती है । संस्कृति हमें सुख और उत्सव में दुख और संकट में गति और नियति की दृष्टि देती है । संस्कृति से हमें सुख और उल्लास में संयम और दुख में धैर्य की शिक्षा मिलती है । संस्कृति इन अवधारणाओं के अतिरिक्त शील का निर्माण करती है ।

अतिरेक की सघनता और विषाद की त्रासदी को भोगने की क्षमता प्रदान करती है । ‘भारतीय शील’, भारतीय मर्यादा’, ‘भारतीय उत्सव बोध’ और दभारतीय विषाद’ से मोक्ष की भावना एक दिन में नहीं बनती । सैकडों वर्ष लग जाते हैं तब कहीं भोग और त्याग दोनों के आवरण के मर्म को संस्कृति व्यक्त कर पाती है ।

आज जो कुछ भी मूल्य बोध के स्तर पर हमारे पास है वह हजारों वर्ष की जीवन शैली की देन है । किसी भी जीवन शैली की पहचान भी आध्यात्मिक उत्सर्ग और भौतिक साधिकार ग्रहण करने की क्षमता में दिग्दर्शित होती है । इसलिए संस्कृति केवल मृण मूर्तियां और टेराकोटा की पहचान तक सीमित करके नहीं देखी जा सकती ।

भारतीय संस्कृति चूंकि एक निरन्तर गतिशील दर्शन है इसलिए उसमें देश, काल, धर्म भी लक्षित होते हैं । संसार की जिन संस्कृतियों में देश काल के अनुसार अपने को अनुकूल बनाने की दृष्टि नही होती वह काल के चपेट में आ जाती है ।

इसलिए सस्कृति वह सीमा भी निर्धारित करती है जहां से हमें परिवर्तन और अस्वीकार की दृष्टि मिलती है । क्या स्वीकार करे और आधुनिकता के दबाव के सामने कितना झुके यह शक्ति एक गतिशील सास्कृतिक जीवन शैली का अविभाज्य अंग है ।

भारतीय संस्कृति की शाश्वतता का यह एक बहुत बडा सत्य है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । किसी भी संस्कृति का जन्म दो संस्कारों या दो प्रकार के मूल्यों और मिजाजों का योग है । प्राकृतिक और नैसर्गिक का संबंध यदि उनमें से एक है तो परमार्थिक और जागतिक दूसरा बिन्दु है ।

इसी प्रकार पार्थविक और सूक्ष्मतम का संयोग एक तीसरा बिन्दु है जिसमें प्राकृतिक और नैसर्गिक के संयोग से जीवन्त तत्वों का सृजन एवं एक जातीय जीवन शैली का प्रादुर्भाव होता है । प्रकृति के साथ-साथ विकार का तत्व लगा है ।

इस विकार को हम नैसर्गिक मूल्यों के आधार पर शोधित करते रहते हैं । उसी प्रकार जागतिक विकार भी हैं जिसे हम परमार्थिक दृष्टि से शोधित करते हैं । पार्थिवता यदि यथार्थ है तो उस यथार्थ के विकार को हम एक सूक्ष्मतम वैचारिक एवं दार्शनिक पुरुषार्थ से मृत को अमृत में बदल सकते हैं ।

संस्कृति यम और नियम के रूप में वर्ततें जीवन शैली को निर्मित करती है । यम ही शील की भी स्थापना करते हैं । यम वह सार्वभौमिक निर्गुण मूल्य है जो हमें निरन्तर उदारता की ओर प्रेषित करते हैं किन्तु जब हम उनको व्यवहार में लाने के लिए नियम बनाते हैं तो उन निर्गुण मूल्यो को सगुण रूप में ढालते हैं ।

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इस ढालने की प्रक्रिया में ही शील का प्रादुर्भाव होता है । सत्य, अहिंसा, अस्रेय, अपरिग्रह, स्वाध्याय आदि यदि यम हैं तो व्रत, सहिष्णुता, त्याग और संतोष, स्वावलंबन आदि नियम हैं । इन नियमों में कैसे यम का पालन हो यह शील में व्यक्त होता है । जिस संस्कृति में यम के प्रति आदर, नियमों के प्रति विश्वास और शीलयुक्त आचरण की क्षमता होती है वही संस्कृति जीवन्त होती है और हमें एवं हमारे आचरण को संतुलित बनाती चलती संस्कृति के माध्यम से ही मानव-मानव के संबंधों को अभिव्यक्ति मिलती है ।

नर-नारी सम्बंध, माता-पिता के सम्बंध, घर और समाज के सम्बन्ध, पिता-पुत्र के सम्बन्ध तो इससे बनते ही हैं साथ ही व्यक्ति और समष्टि, प्रकृति के प्रति मानवीय सवेदना की, प्रकृति के साथ साहचर्य की भावना और प्रकृति की अनुकूलता पर आधारित रिश्ते को भी बनाती है ।

भारतीय सस्कृति में जैविक संतुलन, इकालोजिकल सतुलन और अपने आस-पास के जीवन के प्रति भी बड़ी उदार दृष्टि है । एक सामान्य व्यवहार तो यही है कि प्रकृति से जितना लो उतना उसे वापस भी दो । यही नहीं उतना ही लो जितना आवश्यक है उससे अधिक लेना भी वर्जित है ।

आज से पचास साल पहले यही परम्परा थी । यदि एक भी वृक्ष काटा जाता था तो पहले एक वृक्ष लगा कर काटा जाता था । आज भी प्रकृति से औषधि के लिए जो जडी-बूटी ली जाती है वह उतनी ही ली जाती है जितनी आवश्यक होती है । यदि किसी वनस्पति के मूल की आवश्यकता होती थी तो एक नया बिरवा उसकी जगह लगा दिया जाता था । रसायन बनाने में अभ्रक पारा, सोना, चांदी का भस्म बनाने वाले वैद्य को हत्या लगती है ।

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यह हत्या बिना प्रायश्चित्त रूप में कुछ तप दान किये वैद्य को यश नहीं प्राप्त होता था । बाग लगाने के साथ पौधों को सींचने के लिए कुंआ बनाना आवश्यक होता था फिर कुएं और बाग का ब्याह होता था । सारे गाँव में भोज होता था और रोब पांच वर्ष बाद जब आम में बौर और फल लगते थे तो उसे घर के लोग नहीं खाते थे ।

पहले वर्ष का फल गांव के लोगों का होता था, जनता का होता था । खेत और बाग के भीतर फल या फल का रस नहीं बिकता था । आज भी एक ईख के खेत की मेड पर बैठ कर एक आदमी जी भर गन्ना चूस सकता है पर घर नहीं ले जा सकता । मटर की फलिया आप अकेले खेत में खाए तो कोई नहीं बोलता था ।

यह कुछ मान्यताए थीं जो संस्कृति के कर्मकांड से पैदा होती थी । कर्मकांड एक प्रकार से पेड पौधो से लेकर समस्त प्राणियों के प्रति एक समरसता का भाव पैदा करता था । जीवन और कर्म में विषमता न पैदा हो इसकी कोशिश एक निश्चित कर्मकांड से की जाती थी ।

आज हमारे आधुनिक समाजशास्त्रों की दृष्टि इसे मध्ययुगीय सामंतवादी प्रवृत्ति कह कर कूडे में नहीं फेंक सकती न ही इस समूचे आचरण को आदिम मानव की व्यवस्था का लेबल लगा कर दकियानूसी पद्धति या टोटम कह कर उडा सकती है ।

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इनकी मानव कल्पना का निम्नस्तरीय आचरण कह कर आगे बढने का उपक्रम हम नहीं कर सकते । यह मर्यादित आचरण वह सांस्कृतिक परम्पराएं हैं जिन्हें स्वीकार करके ही हम अपनी विरासत, परम्परा, जीवन के मूल्य को परिभाषित कर सकते हैं । आज सस्कृति शब्द या नाम एक तरह से बाजार नामा से जुड़ता जा रहा है ।

प्राचीन भारतीय संस्कृति या हिन्दू सस्कृति जो भी है, उसकी आत्मा है लेकिन वह अंतिम सांसें ले रही है क्योंकि हम संस्कृति को नुमायशी और बिकाऊ बनाने की तरफ ज्यादा ध्यान दे रहे हैं । आज संस्कृति को हम इस रूप में पेश कर रहे हैं कि वह पाश्चात्य संस्कृति के रूप में परिवर्तित होती जा रही है ।

संस्कृति की आत्मा विश्व प्रचार और बाजार की शक्तियो के तले दबी कराह रही है । उसकी आत्मा चूंकि इस धरती से जुडी है वह जल्दी नहीं मरने वाली है लेकिन उसका शरीर तो बिकता ही जा रहा है । राजे-रजवाडे और निजी व्यापारी से लेकर मौका पाने पर बडे से बडे सरकारी अधिकारी और राजनेताओं के आदमी भारतीय संस्कृति और विरासत से जुड़ी कितनी ही चीजों को बेचकर खा चुके है । इस लूटमार से प्राप्त विदेशी मुद्रा भी स्वदेश नहीं आई ।

वह तो स्विस बैको में जमा हो जाती है । सस्कृति के सौदागरी (तस्करो) का धर्म है वह कर्म जिससे तरक्की हो- यतो अभुदय सिद्धि: स:  जब आधुनिक पाश्चात्य जीवन शैली और समृद्धि की नकल में हमारी प्रवृति भोगमभोग की हो चली हो तब संस्कृति हमें सुसंस्कृत करने का साधन बनाने के जाय अपसंस्कृति का उपभोक्ता ही बनाएगी ।

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आजादी की लडाई और राष्ट्रीयता के दोलनों में हमने जिस श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति को वेश्व की भावी संस्कृति के रूप में पेश किया, वह आज पश्चिमी दुनिया की जीवन शैली से प्रभावित रो रही है । जो प्रभाव से मुक्त मूलरूप में बची है वह किसी न किसी रूप में बिक रही है और हमी-कभी हम इस बिकने को भारतीय संस्कृति का प्रचार और भारत की प्रतिष्ठा मान बैठते हैं । संस्कृति कोई बन्द डिब्बा नहीं है जिस पर बाहर की आबोःहवा का कोई असर पडना ही नहीं चाहिए ।

संस्कृति और मूल्यों की रचना लगातार होती है और इस रचना में अनेक शक्तियाँ चाहे यह आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि हों, अपना निर्णायक असर डालती हैं । कहीं ऐसा न हो कि भारत की अमरता, इसका सनातन सातत्य, इसकी सदाप्रवाही पवित्र संस्कृति, इसके शास, इसके संत, इसका मातृभाव, इसकी लौकिक-पारलौकिक प्रेरणाएं-आकांक्षाएं, इसकी दिग्विजयी परम्परा, इसकी सर्वमगलमयी प्रतिभा-प्रतिमा, इसकी विश्वमंगलमयी भक्ति, इसका ज्ञान और कर्म अपना अधिष्ठान, अनुष्ठान और अभीष्ट त्याग कर केवल ‘पेट’ में ऐसे समा जाएं कि प्राणों की महत्ता और सत्ता बेमानी हो जाए ।

हा; के लोग न किसी ‘अपने’ को पहचानें और न किसी ‘अपने’ के प्रति सदाशय-संवेदनशील रह जाएं । हम भारत के वासी दुनिया के सामने सिर उठाकर, सीना तानकर कुछ कह पाने की स्थिति में न रह जाएं । वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो गया है कि भारत माता की पहचान किससे है ? क्या कहें और क्या करें हम कि दुनिया के लोग जान जाएं कि भारत यह है क्या कहते आए थे हम अब तक कि भारत किससे है ? भारत किस कारण विशिष्ट है ।

यह किस कारण अमर है ? किस कारण अजेय है ? किस कारण हजारों वर्षो की आपदाओं और झझावातों को भारत झेल सका ? इसका प्राणतत्व क्या है ? यह अपनी प्राणवायु कहां से प्राप्त करता है? इसके सामने मृत्यु क्यों हार जाती है ?  ‘काल’ विवश क्यों हो जाता है? प्रत्यक्ष परमात्मा इसका पुत्र बनकर इसकी चरण सेवा और आराधना क्यों करते हैं ? हमारा प्राण क्या हे ?

हमारे शास्त्रों के श्लोक और संत हमें बताते है कि हमारी भारत माता और हम भारत के लोगों के पंचप्राण हैं गंगा, गीता, गाय, गायत्रो और त्रिदेव-ब्रह्मा-विष्णु-महेश । यही भारत की अजस्र और अपराजेय ऊर्जा और विश्वमगल का बीजमंत्र है ।

यही सृष्टि की सरचना, पालन-पोषण और प्रलय के मूल हैं । इन्हीं से सृष्टि भी है और सस्कृति भी, इन्हीं से जीवन मिलता-चलता है और इन्हीं में विलय होता है । यह विश्व एवं ब्रह्माण्ड की वह भावभूमि है, जहां सब कुछ, सभी का है । जहां सभी सबके है ।

न कोई किसी के लिए अजाना है और न कोई किसी के लिए पराया । इनके साथ जुडी या इनके साथ एकात्म अथवा इन्हीं में से अदभूत आद्याशक्ति हमारी माँ भगवती ममता, करूणा, स्नेह, प्यार, दुलार की देवी है तो दुष्ट दलन करने वाली महाकाली भी ।

इन्हीं के ‘पुत्र प्रतिनिधि’ बनकर श्रीराम और वासुदेव कृष्ण, वर्द्धमान महावीर, गौतम बुद्ध, चाणक्य, शंकराचार्य और नानकदेव आए थे कि भारत, भारत बना रह सके । भारत माता का मातृत्व अक्षम और अक्षत रहे । भारत माता की संतानें अपने सनातन दायित्वों के प्रति सजग रहें ।

भारत के सतो और शास्त्रों की महिमा बनी रहे । हम भारत के लोगो को श्रीराम ने जगाया । श्रीकृष्ण ने चेताया । शिव ने सृजन और प्रलय का सम्यक्, निर्वाह करना सिखाया तो माँ सीता ने लालन-पालन, निष्ठा और आस्था, दायित्व और दाय का बोध कराया, राधा हमारे अन्तर्यामी की भावविग्रह बनीं ।

माँ पार्वती पर्वत को सागर के तट तक ले गईं और सागर से पर्वत का अभिषेक कराकर ब्रह्मांड के शिव को धरती पर उतारा । विष्णु के चरणो का पाविच्य देवापगा (गंगा) को ब्रह्मा ने अपने कमंडलु में भरा । शिव ने अपने मस्तक पर धारण किया । भारत के भागीरथ ने उसकी पुन: अगवानी की । सत्य हरीशचन्द्र की आश्रयदायिनी गंगा की शरण में गए बिना उद्धार असम्भव था । माँ गंगा के स्पर्श से सागर के साठ हजार बेसुध सुतों को सुध आई कि ”उठो, जगो, अपनी अभीष्ट प्राप्त करो ।”

भारत के गोपाल ने गाय की पूजा की । गोंसवर्धन के लिए इन्द्र से महाभारत की युद्धभूमि के बीचों-बीच खड़े होकर हमारे वासुदेव कृष्ण ने भक्ति, कर्म, ज्ञान और वैराग्य का जो रूप-स्वरूप बताया-दिखाया, उन्होंने जो जीवन गीत गाया, वह गीता हमारी सांस-सांस में बसी है । वह संसार, भगवान और भक्त के रिश्तों का दस्तावेज है । गीता कर्म और वैराग्य के बीच का सबल सेतु है । वह राग और वैराग्य की तुला है ।

गीता व्यक्ति की अकिंचनता, विवशता, मोह, कायरता, कर्म-अकर्म, विकर्म के बीच विराट परमेश्वर का पीठ है । श्री योगेश्वर कृष्ण उसके पीठाधीश्वर हैं । गीता जैसा सत्य-सनातन गीत आज तह ? किसी ने भी, कभी भी नहीं गाया जो कि त्रिकाल सत्य हो, जो इतिहास की छाती रौंद कर सदा वर्तमान रहता हे ।

वैसे ही हमारे त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु, महेश । ये सभी अर्थात् हमारे पंचप्राण खतरे में हैं । इनके आसपास एक ऐसा जाल बुना जा रहा है, एक ऐसी बारूद बिछाई जा रही है कि किसी ‘उपयुक्त अवसर’ पर इनका विनाश करके भारत को मिटाया और मारा जा सके ।

भारत भी दूसरे देशों की तरह ही ‘खाओ-पियो-मौज करो’ वाला एक आम देश बनकर रह जाए । वर्तमान समय में संस्कृति का उद्योगीकरण हो चुका है । संस्कृति अपसंस्कृति बन चुकी है । हिन्दू समाज के विभिन्न पंथों, सम्प्रदायों तथा वर्गो के बीच एकात्मता तथा समरसता अनिवार्य है ।

स्वार्थ-साधक राजनेताओं के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष आचरण के नाम पर वर्गभेद जातिभेद का विषैला वातावरण आज दिखाई दे रहा है । संत समाज इसे गहरी चिंता की दृष्टि से देखता है । भारतीय संस्कृति के कर्णधार सभी पूज्य संतों से यह विनम्र अनुरोध करते हैं कि सामाजिक अस्पृश्यता, जातीय विद्वेष तथा साम्प्रदायिक भेद- भावना का शमन करने के लिए वे एक बार पुन: हिंदू समाज का मार्गदर्शन करने की कृपा करें, जिससे दयनीय हिंदू समाज शोषण, उत्पीड़न, अन्याय तथा अत्याचारों से मुक्त होकर स्वार्थी राजनेताओं तथा दुराग्रही तत्वों के चंगुल से बाहर निकलने में सक्षम हो सके ।

हरिजन, बनजन, गिरिजन, स्पृश्य-अस्पृश्य, अगड़े-पिछड़े तथा अवर्ण- सवर्ण की भेदक भित्तियां खडी करने वाले स्वार्थोम्मुख भ्रष्टाचारी तत्वों से समाज को मुक्ति दिलाने के लिए पूज्य धर्माचार्य ही निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं । आज देश संकट के जिस दौर से गुजर रहा है उसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संकट तो शामिल हैं ही, किन्तु औद्योगिक और बाजारू-अर्थव्यवस्था का उत्पाद उपभोक्तावादी सभ्यता का संकट सर्वाधिक गम्भीर है ।

दिखावे एवं प्रदर्शन की इस सभ्यता ने मानव-मन की शांति का हरण कर लिया है । असंतोष इसकी मूल प्रवृत्ति है । प्रतियोगी और तुलनात्मक जीवन इसकी प्रमुख प्रेरणा है । अपने पडोसी पर ‘नहले’ पर ‘दहला’ दिखाई देने की होड़ और दौड़ में बाजी मार लेने को यहां ‘प्रगति’ माना जाता है । लौकिक सम्बन्धों-सम्बोधनों को यहां क्लब, शराब, जुआ, नग्नता और स्वैराचार को यूरोपीय-स्वीकृति मानकर आधुनिक होने का प्रदर्शन किया जाता है ।

मर्यादाहीनता को समरसता कहा जाता है । विकृत आनन्दातिरेक को यहां सामाजिक अभिसरण माना जाता है । पश्चिमी आधुनिकता का यह दानवी उपभोक्तापन भारत के संस्कार और संस्कृति को निगल रहा है । आज सभ्य होने का अर्थ है असभ्यता, सुसंस्कृत होना है नग्नता ।

जब-जब भारत अपनी जीवनधारा में और संस्कृति की भावभूमि पर उतरने लगता है । सभ्यता का यह संकट उसके सामने ताल ठीक कर खड़ा हो जाता है कि दू संयम, संतोष, कुल परम्परा, पारिवारिकता, सदाचार, सामाजिकता, परम्पराबोध और लोकलाज बीते दिनों की बातें हैं ।

यदि सभ्य बनना, सभ्य होना और सभ्य कहलाना है तो निर्बध बनना-होना होगा ।’ ‘भारत’ को ‘इंडिया’ ने इस कदर अपने कब्जे में कर रखा है कि नैतिकता- अनैतिकता, पाप-पुण्य, परिवार-पडोसी और समाज-सम्बन्धो का समीकरण एकदम उलटता जा रहा है ।

गत कुछ दिनों से, यही लगभग एक दशक से, ‘इंडिया’ बहुत ही बेचैन है कि भारत उसकी ‘सभ्यता की बाड’ तोड़कर कहीं अपनी संस्कृति के मंदिर में प्रविष्ट तो नहीं हो जाएगा ? क्योंकि युदि ऐसा हो गया तो पश्चिमी सभ्यता का पाखण्ड खण्ड-खण्ड बिखर जाएगा ।

भारत ऐसा न कर सके इसके लिए यह जरूरी है कि भारत के लोग नंगे-नाचे । अर्धनग्नता को आधुनिकता मानें । यौन-सम्बन्धों की पवित्र मान्यताओं को अस्वीकार कर दें । मंदिर नहीं क्लब जाएं । हम दूसरों की पत्नियों और बेटियों के साथ और दूसरे हमारी पत्नियों और बेटियों के साथ नावें । सपरिवार शराब का सहपान करें । धोखा, ठगी, लूट जैसे भी हो धन

बटोरे । साधन इकट्ठे करे । उपभोक्ता और केवल उपभोक्ता ही बने रहें । जो वे खिलाएं-पिलाएं, हम वही खाए-पिए । पहले हम भारत के लोग कोई गलत काम करने से डरते- घबराते थे । कोई गलत काम कराता या गलत काम करने के लिए कहता था तो हम अपने बाल-बच्चों का वास्ता देते थे । कहते थे ”हमारे बाल-बच्चे हैं, यह गलत काम करके हम उनका भविष्य नही बिगाड़ेंगे ?”

हम आज भी कहते यही हैं लेकिन संदर्भ बदला हुआ है । कोई भी काम अब गलत नहीं रह गया है । यदि गलत काम करने से कोई हमें रोकता-टोकता है तो हम कहते हैं कि ‘भाई हमारे भी बाल-बच्चे हैं । हमें भी उनका पालन-पोषण करना है, अगर यह काम नहीं करेंगे तो उन्हें खिलाएं-पिलाएंगे कहाँ से ?’

पहले बाल-बच्चों के नाम पर या उनके कारण जो गलत काम और पाप करने से घबराते, डरते थे, आज उन्हीं बाल-बच्चों के नाम पर वही गलत काम धडल्ले से करते हमें कोई लाज-संकोच या घबराहट नहीं होती । यह है भारत और हम भारत के लोगों पर यूरोप और अमरीका के ‘इण्डिया’ के आक्रमण का नतीजा । इसके अतिरिक्त भारत पर और कोई संकट नहीं है । जो दूसरे संकट हैं या जो संकट दिखाई देते हैं वे ऐसे नहीं हैं जिनसे निपटा नहीं जा सकता ।

जिनको समाप्त नहीं किया जा सकता । यह कार्य होगा या किया जा सकेगा तब जब भारत पश्चिमी सभ्यता के संकट से मुक्त होकर अपनी लोकव्यवस्था का मर्म समझे, उसे अपनाए । संस्कृति की जड़े हिल चुकी हैं । उसमें जीवन को अनुशासित करने के जो तत्व हैं । वे बिजनेस की पूंजी बन चुके हैं । विकास या टिकाऊ विकास के साथ सांस्कृतिक तत्वों को शामिल करने का कोई मतलब नहीं है ।

आजादी के बाद विकास तो संस्कृति को बेचने के धंधे का हुआ है । हां केंद्र में और राज्य सरकारों मे संस्कृति विभाग अवश्य खुले हैं । प्राचीन विरासत की रक्षा के नाम पर अभी तक यह सुनिश्चित ही नहीं हो सका है कि देश की राष्ट्रीय संस्कृति नीति क्या हो । 1992 में इस दिशा में प्रयास हुआ था ।

राष्ट्रीय संस्कृति नीति का एक प्रारूप तैयार हुआ और संसद में पेश किया गया । उस नीति को मार्गदर्शक मानकर कितना काम हुआ हम नहीं कह सकते । अरबों रुपये देश-विदेश में भारत-महोत्सवों के आयोजन और भारतीय कलाकृतियों को नुमाइशों में भेजने पर खर्च किए गए ।

वास्तव में विदेशों में भारत महोत्सवों का दौर नीति निरूपित होने से बरसों पहले जारी हो चुका था और सस्कृति कूटनीति का प्रमुख अंग बन गई । संस्कृति पर राष्ट्रीय चिता वैसे बहुत पहले अभिव्यक्त हुई थी, 1992 में तो पहली बार वह सरकारी दस्तावेजी बनी ।

ज्यादा दूर नहीं, 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया कि द म् दिसंस्कृतिकरण, विमानवीकरण और विलगाव को हर कीमत पर बरजना चाहिए और शिक्षा को देश की सांस्कृतिक परंपराओं और परिवर्तनधर्मी टेस्नोलॉजी के बीच का सूक्ष्म समन्वय लाना चाहिए ।

बात अच्छी कही गई लेकिन ‘शाब्दिक साक्षरता’ के साथ सांस्कृतिक साक्षरता’ वांछित ध्यान नहीं दिया जा सका । वास्तव में यह काम सरकार का है नहीं और राजनीतिक पार्टी की सरकार बिना भेदभाव के कर भी नहीं सकती है ।

मिली-जुली संस्कृति के तत्वों को मिले-जुले लोग ही मिलकर बढावा दे सकते हैं, प्रचार कर सकते है और सांस्कृतिक पहचान की पुष्टि कर सकते हैं । राज्य या सरकार सस्कृति के सम्यक् विकास में सहायक हो सकती है, उसका कर्णधार नहीं ।

तभी तो बान्नवे की संस्कृति नीति में कहा गया ‘यथासंभव राज्य को संस्कृति के विकास की प्रगति मे सिर्फ उतेरक की भूमिका निभानी चाहिए जिसे कि हाथ भर दूर से हस्तक्षेप कहा जाए ।’ भारत में सास्कृतिक चेतना सागर की लहरों की तरह आती-जाती, उठती-गिरती रहती है । अति प्राचीन यह सस्कृति वर्तमान समय में जर्जरित एवं स्थलायमान सी हो रही है ।

भारत ने किसी भी समूचे समाज को एक ही रीति-रिवाज अथवा धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया, बल्कि एक ही समाज मे विभिन्न सम्प्रदायों, जातियों और सस्कृतियों के स्वतंत्र अस्तित्व और विकास के अधिकार को स्वीकार किया है और उन्हें एक-दूसरे के निकट आने के अवसर दिये हैं ।

इसलिए इस विशाल उपमहाद्वीप में कभी भी किसी राज्य के एकधर्मी होने का आग्रह नहीं रहा । भारतीय इतिहास में कभी भी किसी ने यह आग्रह नहीं किया कि सभी देशवासी अथवा किसी भी राज्य के सभी नागरिक राम, कृष्ण, बुद्ध या महावीर को भगवान या राष्ट्रनायक या राष्ट्र का प्रतीक माने ।

इस विशाल भूखड के विभिन्न राज्यों में लोग अपने अलग-अलग रीति-रिवाज चलाते रहे, अलग-अलग इष्टदेवों की पूजा भी करते रहे और समाज में अतनिर्भर जीवन-यापन भी करते रहे । इसीलिए इसके लिए विदेशियो को खपा लेना भी आसान रहा ।

सांस्कृतिक आदान- प्रदान तो खैर हुआ ही, पर फिर विदेशियो को समाज का अंग भी मान लिया गया और वे अपनी अलग भाषा और सस्कृति लिये ही अपना अलग अस्तित्व बने रहे और फिर अधिकांशत: परस्पर आदान-प्रदान के आधार पर बृहत् भारतीय समाज में धीरे-धीरे अंतर्मुक्त भी होते गए ।

इसी व्यापक भारतीय समाज को अरबों और तुर्कों ने हिन्दू कहा और इसी कारण उनके आवागमन से पूर्व की सभी संस्कृतियां, सभी धर्म-सम्प्रदाय, सभी रीति-रिवाज व्यापक हिन्दू शब्द में परिभाषित हो गए है । इसके बावजूद भी सभी अपना अलग अस्तित्व बनाये हुये हैं । यही अतीत में भारतीय समाज की अंतर्निहित विशेषता और संजीवनी रही है, यही अब उसकी राजनीतिक एकता के लिए अनिवार्य शर्त है ।

हां, किसी भी दबाव के बिना विभिन्न संस्कृतियो अथवा जातियों का एक-दूसरे के निकट आना और फिर किसी बडी मुख्यधारा में अन्तर्मुक्त हो जाना अलग बात है । यह अतीत में भी होता आया है, भविष्य मे भी होता रहेगा । दबाव नहीं होता तो अन्तर्मुक्ति की गति तेज होती है और जब भी कोई दबाव पड़ता है तो गति धीमी हो जाती है ।

अन्तर्मुक्ति की इस स्वाभाविक प्रक्रिया को सदैव स्वीकार और प्रोत्साहित करते हुए भी भारतीय समाज ने कभी भी किसी एक सस्कृति का वर्चस्व किसी पर लादने की कोशिश नहीं की । जब भी किसी ने यह कोशिश की, उसके परिणाम विघटनकारी ही रहे । अकबर और औरंगजेब के शासन के समय इन दोनों धाराओ का उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं और उनके परिणाम भी ।

ऐसे में, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा के भारतीय राष्ट्र-राज्य के लिए दो ही अर्थ अथवा परिणाम हो सकते हैं; एक, तो यह है कि विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओ के समाज अपने-अपने अलग अस्तित्व की रक्षा के लिए उठ खडे हो और देश को विघटन की दिशा में धकेल दें ।

दूसरा, यह है कि कोई एक सस्कृति तानाशाही और जोर-जबरदस्ती से अन्य संस्कृतियों पर हावी हो जाए, उन्हें कुचल दे और बुलडोजर चलाकर उन्हे समरस कर दे । यही स्थिति देश की राजनीतिक एकता सुनिश्चित करने मे बाधा पहुँचाती है ।

यह स्थिति भारतीय परम्परा के विपरीत तो है ही और व्यावसायिक दृष्टि से भी भारतीय राष्ट्र-राज्य के व्यापक हित में नहीं है । इतिहास साक्षी है कि पाकिस्तान का निर्माण इसी आधार पर हुआ था और वह आज तक इस्लाम या मुक्लिम जीवन- पद्धति के आधार पर अपनी राजनीतिक एकता सुनिश्चित नहीं कर पाया है ।

आज स्थिति भिन्न है । विज्ञान और टेस्नोलॉजी के विकास ने सारे विश्व को बहुत छोटा कर दिया हैं- उत्पादन को उपभोक्ता तक पहुंचाने के लिए । अतरराष्ट्रीय आर्थिक स्थितियों का, उत्पादन और व्यापार मे तीव्र विकास का तकाजा है कि भौगोलिक बंधन शिथिल हों ।

ऐसे में, राष्ट्रवाद की अवधारणा ही सकट मे है, छोटे राष्ट्र-राज्यों का महत्व कम होता जा रहा है, इतिहास बडे बहुजातीय राज्जो का समर्थन कर रहा है, बहुसास्कृतिक राजनीतिक इकाइयां अनिवार्य होती जा रही हैं, यूरोप फिर एक राजनीतिक स्वरूप बनाने की दिशा में बढ़ रहा है ।

यही कारण है कि जब भी संस्कृति की बात होती है तो हम लोग ज्यादा भाबुक हो जाते हैं । सौकृतक राष्ट्रवाद के दिन लद चुके हैं और आज वह बिल्कुल अप्रासंगिक हो गया है । सतरंगी सीस्कृँतिक संपदा के धनी भारत पर किसी एक संस्कृति अथवा धर्म का वर्चस्व लादने का प्रयास देश को केवल विघटन की दिशा में ही ले जा सकता है ।

केवल चुनाव जीतने के लिए ऐसे भाबुक नारो द्वारा देश की सांस्कृतिक परम्परा को तार-तार करने के प्रयास सफल तो नहीं होंगे, हां, इसके विकास मे अवांछनीय बाधाएं अवश्य पैदा कर सकते हैं । काश संघ परिवार समय की पुकार सुनने में सक्षम होता । और भारतीय जनसमाज के पुरातन व्यावहारिक ज्ञान को समझ पाता जिसने अनेकता को एकता में पिरोने की शक्ति, सामर्थ्य और बुद्धि दी । उपभोक्ता समाज इनके मूल्य नहीं आक पाता ।

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वह अतृप्त रहने की संस्कृति विकसित करता है । ‘कम से कम’ श्रम में ‘अधिक से अधिक’ भोगने की संस्कृति ही इसे पशु बनाती है इससे भी अधिक वह मूल रूप से कृत्रिम आवश्यकताओं को पैदा करती है ओर कृत्रिम आपूर्तिया ही अतृप्ति की सस्कृति है ।

आज भारतीय जीवन पद्धति इसका जितना प्रवेश हो चुका उतने से ही हम अपनी मूल संस्कृति से चूत होने के साथ स्वयं भी कायिक और मानसिक असन्तुलन के शिकार हो रहे हैं । कर्म और चिन्तन में जो पारस्परिक आदान-प्रदान है वह समाप्त हो रहा है । हमारे लिए उत्पादन कोई दूसरा करता है ।

चिन्तन कोई दूसरा करता है । हम केवल उनके परिणामो के भोक्ता मात्र हैं । इसलिए हमसे स्वावलंबन और चिन्तन दोनों नहीं हो पा रहा है । जब तक यह विषमता रहेगा और हमारे चिन्तन और कर्म हमारी मूल सांस्कृतिक संदर्भों से नहीं जुडेंगे तब तक हमारा जीवन स्वस्थ नहीं होगा । वस्तुत: ये सास्कृतिक संदर्भ ही हमें अपना जीवन जी सकने का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।

आज जो बढती हुई आबादी और पर्यावरण की चिन्ता, प्रदूषण को रोकने के लिए प्रचार-प्रसार भारत मे हो रहा है वह केवल इसलिए कि हमारी संस्कृति ही प्रदूषित हो रही है जिसके कारण वह जीवन शैली जिसका मूल माप संतुलन और सृजन पर आधारित था, प्रकृति के साहचर्य पर आधारित था, जिसमें प्रकृति और पर्यावरण से उतना ही लेने का सकल्प था जितना की आवश्यकता है ।

बह सब नष्ट हो गये हैं । उपभोक्ता समाज सब कुछ लेना जानता है देना नहीं । उपभोक्ता समाज भोगना जानता है त्यागना नहीं । उपभोक्ता समाज के लिए वन, जल, अग्नि, ऊर्जा, सब कुछ जो प्रकृति में उसके दोहन के साधन हैं । संतुलन और समरसता से दूर वह ऐसा रेगिस्तान पैदा करता जा रहा हे कि एक दिन पूरी पृथ्वी बंजर और ऊसर होकर समाप्त हो जाएगी ।

दोहन की दृष्टि ही अप्राकृतिक और अमानवीय है । वह प्रकृति सानिध्य से मनुष्य कौ दूर ले जाती है । भारतीय संस्कृति की मूल दृष्टि अब भी इन दोषों से मुक्त है पर उस पर, अनेक प्रकार, प्रक्षेपण-हो रहे हें । वह हमें कहां ले जाएंगे इसका कोई ठिकाना नहीं है ।

कौन संस्कृति का समर्थक यह कह सकता है कि संस्कृति कीकोई भी परिभाषा बिना जातीय पहचान, पुराण और मिथक और हजारों वर्ष की अर्जित जीवन शैली को नाकार कर की जा सकती है । दुनिया में दो देश हैं जो विश्व भूगोल की नयी खोज ले कारण आधुनिक सभ्यता के तथाकथित उन्नायकों द्वारा बसाये गये थे । एक है अमरीका दूसरा है आस्ट्रेलिया । कनाडा और अमरीका के बीच नियाग्राफील होने के कारण दक्षिण अमरीका में नीग्रो आबादी अधिक होने के कारण एक प्रकार से अलग-थलग हैं ।

जिस अमरीका को हम जानते हैं वह बीच का भाग है । उत्तर में कनाडा दक्षिण में काले नीग्रो हैं । बीच में संयुक्त राज्य अमरीका है । इनके बीच रेड इंडियन भी हैं । जिन्हें लगभग देश के पश्चिम भाग में घेर कर बंद कर दिया गया है और वे अब समाप्त हो रहे हैं ।

गोरी जाति वाले ये अंग्रेज, यूरोमियन, स्पेनी, जर्मन, फ्रांसीसी अपने देश को भुला कर एक नयी संस्कृति बनाने में लगे हैं और कुछ बना नहीं पा रहे हैं । तीन सौ साल में कोई परम्परा बिना इतिहास, पुरातत्व, उपासना पद्धति, वेशभूषा, अर्थ, धर्म, काम के प्रति संतुलित दृष्टि के विकसित ही नहीं हो सकती ।

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नतीजा यह है कि वह इतिहास और परम्परा के लिए यूरोप की तरफ देखते हैं । कभी ‘ग्लोब थियेटर’ को लंदन से समूचा उखाड कर ‘ब्राडवे न्यूयार्क’ ले जाने का स्वांग रचते हैं कभी अपने पूर्वजों को चाहे वह यूरोप के जिस देश के हों गांव के ढांचे को उठा ले जाना चाहते हैं ।

कभी टैम्प का पुल अपने अजायबघर में रख कर आने वाली ‘संतानों को दिखाना चाहते हैं कि उनका मूल रूप हजारों वर्ष पुराने लंदन के वंश वृक्ष की तरह है । संस्कृति की पहचान ही इस बात से बनती है कि आप कितना और किस मात्रा में पुराने और नये दोनों को वर्तमान के संदर्भ में प्रासंगिक मानते हैं और कितना नये को स्वीकार करना समसामयिक होने के लिए आवश्यक समझते हैं ।

जो कौमें महज किताबी होती हैं उनकी संस्कृति कट्टरपंथी होती है । वह समय के साथ नहीं बदलती । जो उदार होती है वह दोनों में विवेक से काम लेती हे । यह बात इसलिए लिखी गई है क्योंकि आज संस्कृति को केवल गाना-बजाना, नृत्य तक ही सीमित करने भी कोशिश की जा रही है ।

लोग यह भूल जाते हैं कि केवल चोला बदलने से मन और दृष्टि से र्भां बदलाव नहीं आता । संस्कृति की जडें भी गहरी होती हैं । भारत में लोकतंत्र है । लोक में सभी संप्रदाय निहित हैं और लोकतंत्र वही है जो बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय हो । इसलिए सेज्यूलर’ का अर्थ धर्म-निरपेक्ष नहीं, सम्प्रदाय-निरपेक्ष मानना चाहिए ।

धर्म तो भारत की आत्मा है, नैतिक मूल्य ही धर्म है, सदाचरण ही धर्म है, जीवदया, परोपकार, अहिंसा, सत्य ही धर्म है । इनको छोड़ दिया तो मर्यादा, धर्म-विहीन राष्ट्र उच्छृखल हो जाएगा इसलिए शासन सम्प्रदाय-निरपेक्ष बने, धर्मनिरपेक्ष नहीं इसी में कल्याण है और यही हमारी सांस्कृतिक विरासत है । यह बनी रहेगी तो देश की अखंडता सुरक्षित रहेगी ।

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