संवेदन-शून्य होती भारतीय पुलिस पर निबन्ध | Essay on Indian Police are Insensitive in Hindi!

स्वतंत्रता के बाद यह आशा की गई थी कि पुलिस व्यवस्था और पुलिस कार्य प्रणाली में प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप गुणात्मक परिवर्तन आएगा । यह उम्मीद भी की गई थी कि पुलिस अपना दमनात्मक और राज्य के सबल बाहु का स्वरूप त्यागकर जनता की पुलिस बन जाएगी और दमन का सिद्धांत छोड़कर जनहित की अवधारणा से प्रेरित होकर कार्य करने लगेगी किंतु ऐसा नहीं हुआ ।

स्वतंत्रता के पहले पुलिस और विदेशी शासकों का जो संबंध था, वही कायम रखा गया । केवल इस अंतर के साथ कि विदेशी शासकों के स्थान पर सत्ताधारी राजनीतिक दल आ गए । पुरानी पुलिस को पुनर्गठित करके एक नई दिशा और नया दृष्टिकोण दिया जाना चाहिए था ।

इसके लिए पुलिस की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिए था, किंतु पुलिस प्रशासन को पुलिस अधिनियम १८६१, जो ब्रिटिश शासकों द्वारा अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया गया था, के अनुसार ही चलने दिया जा रहा है । परिणामस्वरूप पुलिस अपने आप को जन-अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं ढाल सकी ।

दिन-प्रतिदिन की बढ़ती व्यवस्था संबंधी समस्याओं में ही पुलिस का अधिकांश समय लगता रहा है । इन समस्याओं के अधिकांश मामलों में पुलिस को शासन का दृष्टिकोण ध्यान में रखना पड़ता है । चुनाव की राजनीति ने स्थिति को और अधिक जटिल बना दिया है । इसके फलस्वरूप राजनीतिज्ञ अवांछित असामाजिक तत्त्व-पुलिस गठबंधन उभरकर सामने आया है ।

इससे पुलिस के हर कार्य में राजनीतिक संरक्षण के कारण उच्च पदों पर नियुक्तियों, कमियों व बुराइयों के बावजूद पूर्व प्रोन्नति पानेवाले अधिकारियों कर्मचारियों को देख-देखकर ईमानदार एवं कर्तव्यपरायण पुलिस-अधिकारियों और कर्मचारियों का मनोबल गिरा है ।

कुल मिलाकर इसका कुप्रभाव जनहित पर पड़ा । समर्थ और शक्तिशाली, का कार्य तो हो जाता है, किंतु आम व्यक्ति की मुसीबतों और उसके दुःख-दर्द की सुनवाई नहीं होती । अधिकांश मामलों में सामान्य प्रशासन के साथ-साथ पुलिस भी उनके प्रति संवेदन-शून्य हो गई है ।

आम व्यक्ति को तो अपने लिए ब्रिटिश काल की पुलिस और आज की पुलिस में कोई अंतर नहीं दिखाई देता । वास्तविकता चाहे जो भी हो, पुलिस की नैतिकता में गिरावट आम मनुष्य भा महसूस करता है तथा अब अपने आप को पहले की अपेक्षा अधिक असुरक्षित महसूस करता है ।

पुलिस की छवि धूमिल है । सामान्य रूप से पुलिस को भ्रष्ट, क्रूर, पक्षपातपूर्ण और अनैतिक समझा जाता है तथा यह माना जाता है कि पुलिस किसी दबाव या किसी लाभ के लिए ही कार्य करती है । यहाँ यह स्पष्ट रूप से कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि पुलिस के इन अवगुणों का कुप्रभाव आम मनुष्य के कार्य पर पड़ता है ।

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ऐसी स्थिति में, यह विचारणीय है कि पुलिस इस स्थिति से कैसे उबर सकती है ? निम्न संभावनाएँ अभी शेष हैं:

१. राजनीतिक नेतृत्व यह निर्णय कर ले कि पुलिस को निष्पक्ष और प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप पुनर्गठित किया जाए तथा तमाम आलोचनाओं एवं बाधाओं के होते हुए भी इस निर्णय को कार्यान्वित करे ।

२. जनता इतनी जागरूक हों जाए कि पुलिस और प्रशासन की हर असंवैधानिक और अवैधानिक गतिविधियों पर सजग दृष्टि रखे ।

३. पुलिसकर्मी यह निश्चित कर लें कि वे विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों, सीमाओं तथा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही काररवाई करेंगे ।

पहली और दूसरी संभावनाएँ इस निबंध की सीमा के परे हैं, तीसरी संभावना पर विचार करते ही ये प्रश्न उभरकर आते हैं- क्या पुलिस निर्धारित प्रक्रिया और अधिकारों के भीतर कार्य कर सकती है ? क्या निर्धारित प्रक्रिया अपनाने से अपराध अनियत्रित नहीं हो जाएँगे ? क्या बिना विधि इतर काररवाई किए पुलिस विधि-व्यवस्था बनाए रख पाएगी ?

अधिकांश पुलिसकर्मी, प्रशासन तथा जनता के लोगों का मानना है कि भारतवर्ष की वर्तमान परिस्थितियों में यह संभव नहीं है । पुलिस-विधि की दृष्टि से अविश्वसनीय है । साक्ष्य के मानदंड इतने कठिन हैं कि सामान्य प्रक्रिया द्वारा उनके अनुरूप साक्ष्य एकत्र नहीं किया जा सकता । आम जनता का वैधानिक प्रक्रिया में विश्वास नहीं है ।

उत्तर प्रदेश पुलिस आयोग ने १९७०-७१ में बड़े आश्चर्य और कुछ दुःख के साथ दो आयुक्तों के विचारों को सुना । एक आयुक्त ने कहा, ‘पुलिस के तीसरे श्रेणी के उपायों की अच्छी उपयोगिता है और बदमाशों को नियंत्रित करने के लिए वे ही प्रभावकारी साधन हैं ।

दूसरे आयुक्त ने डकैती के मामले में संदिग्ध व्यक्तियों की अनुचित तरीकों से शिनाख्त कराने को उचित ठहराया और कहा, ‘हमें शिनाख्त को बिच्छल नहीं छूना चाहिए ।’  अन्य अनाचारों के संबंध में उन्होंने कहा- ‘बरामदगी के मामलों में अनुसंधान की अनुचित काररवाई, तीसरी श्रेणी के उपाय, झूठी गवाही की रचना-सभी भारत की सामाजिक आवश्यकताओं के कारण हैं और ये अपेक्षाकृत बड़े पैमाने पर व्याप्त सामान्य राष्ट्रीय बेईमानी के मुकाबले में छोटी बुराइयाँ हैं ।

अपराधियों के प्रति तीसरी श्रेणी के उपाय काम में लाने के लिए पुलिस के पास काफी औचित्यपूर्ण हैं, क्योंकि अपराधी उनका इस्तेमाल समाज के विरुद्ध करते हैं । हमें पुलिस को उसके कथित अनुचित तरीके काम में लाने के लिए पूरी स्वतंत्रता देनी चाहिए और उपलब्ध परिणामों के आधार पर उनका मूल्यांकन करना चाहिए ।

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यह पुलिस-समस्या का केवल एक पहलू है । पुलिस की भूमिका की समझ विभिन्न वर्गों, समूहों और सामाजिक स्तर के साथ बदल जाती है । विद्यार्थी, श्रमिक, पत्रकार, वकील, जन-प्रतिनिधि, प्रतिष्ठित व्यक्ति-सभी पुलिस से अपनी सोच (निहित स्वार्थों) के अनुरूप अपेक्षाएँ रखते हैं ।

इसके परिणामस्वरूप पुलिस को अपनी भूमिका-निर्वाह में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है । इतना सब जानकर प्रश्न का स्वीकारात्मक उत्तर देना हास्यास्पद लग सकता है । जोखिम के बावजूद इस प्रश्न का स्वीकारात्मक उत्तर देना उपयुक्त रहेगा । यह उत्तर केवल आदर्शवादी चिंतन पर आधारित नहीं है ।

यह उत्तर अनेक प्रतिष्ठित पुलिस-अधिकारियों के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है । गोविंद नारायण, भूतपूर्व गृह-सचिव, भारत सरकार का विचार है- ”(यह) कार्य बहुत आसान नहीं है । इसके साथ ही यह असंभव भी नहीं है । यह आवश्यक है कि सामान्य जन की सद्‌भावना और सक्रिय सहयोग अर्जित किया जाए । पुलिस को अपने आचरण, व्यवहार और कार्य-संपादन से अविश्वास की खाई को पाटना है ।”

श्री वी.पी. सिंघल का यह कहना अति आशावादिता नहीं है कि यदि ब्रिटिश पुलिस ने उन्नीसवीं शताब्दी में इंग्लैंड की नियति बदल दी, तब कोई कारण नहीं है कि भारतीय पुलिस बीसवीं शताब्दी में हमारी अपनी मातृभूति की नियति न बदल दे । इसके लिए पुलिस-सेवा को मात्र जीवन-यापन का साधन न मानकर इसे एक दर्शन और प्रेरक बल का रूप देना होगा ।

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पुलिस के लिए केवल एक सीधा रास्ता है, कोई चौराहा नहीं, जहाँ मार्ग की पहचान मुश्किल हो । पुलिस अपनी भूमिका को सही ढंग से समझकर विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों और सीमाओं के भीतर रहकर विधि-अनुकूल कार्य करना आरंभ कर दे, तो सभी बाधाएँ कुछ समय बाद स्वत: दूर हो जाएँगी । केवल प्रारंभ में कुछ कठिनाइयों का अनुभव हो सकता है ।

अब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यह कैसे हो सकता है ? इसकी शुरुआत चिंतन से होगी । पुलिस को अपनी भूमिका की पहचान करनी होगी । हर आदेश के (बिना सोचे-समझे आदेश होने के कारण) अनुपालन की प्रथा छोड़कर पुलिसकर्मी को यह सोचना और समझना होगा कि वह जिस आदेश का अनुपालन कर रहा है, क्या वह वैधानिक है, उचित है या जनहित में है ।

समस्या इसलिए पैदा होती है, क्योंकि वरिष्ठ अधिकारी प्राय: स्वयं नहीं जानते कि किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए । स्पष्ट रूप से खुलकर बात करने से पोल खुलती है । यह भी हो सकता है कि वरिष्ठ अधिकारी जो चाहते हैं उसे स्पष्ट रूप से कहने की स्थिति में न हों या वे मानते हैं कि जो कुछ वे कर रहे हैं, उचित नहीं है या सामान्य परिस्थितियों में अधीनस्थ वैसा नहीं कर सकते, किंतु उसे होना है । कभी-कभी इसमें निहित स्वार्थ हो सकता है ।

बात स्पष्ट रूप में न होने के कारण अधीनस्थ प्राय: दुविधा में रहते हैं । इससे कार्य का नुकसान होता है । संदिग्ध या दुविधाजनक परिस्थितियों का अपने हित में उपयोग करने की कला अधिकांश को आती है । केवल औपचारिक रूप से वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा एक मार्गीय संप्रेषण का अर्थ सभी अधीनस्थ अच्छी तरह समझते हैं । ऐसी स्थिति में वरिष्ठ अधिकारी जितनी भी निष्ठा और आस्था से कोई बात कहें, अधीनस्थ गंभीरता से नहीं लेते ।

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यदि उसको यह समझना है कि अपराधों के पंजीकरण में छिपाव और अल्पीकरण नहीं होता है तो इसे बार-बार करना ही होगा, साथ-साथ यह भी करना होगा कि गंभीर अपराधों (डकैती, हत्या, रोड होल्डप आदि) के अधिक पंजीकरण से वरिष्ठ अधिकारी बौखलाते नहीं, थानाध्यक्ष को लाइन हाजिर करने की धमकी नहीं देते, वे यह नहीं कहते कि बहुत हो गया, अब और अपराध नहीं होना चाहिए ।

पुलिस की कमियों की पहचान करने के लिए पुलिस की सही भूमिका की पहचान आवश्यक है । किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा सबसे अधिक आवश्यक है । भारतीय संविधान भी इन मूल्यों की रक्षा के लिए वचनबद्ध है, ”हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, विचार-अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की समता, प्रतिष्ठा और अवसर को प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं ।”

यह प्रस्तावना भारतीय संविधान का मूलभूत दर्शन प्रतिपादित करती है । किसी भी सेवा के लिए इसमें निहित न्याय, स्वतंत्रता, क्षमता, व्यक्ति की गरिमा तथा धर्म-निरपेक्षता सर्वोपरि महत्त्व के सिद्धांत हैं । उनका कोई भी कार्य, जो इन सिद्धांतों से मेल नहीं खाता, असंवैधानिक कहा जाएगा ।

प्रस्तावना के मूलभूत दर्शन के साथ यदि मौलिक अधिकारों का पाठ किया जाए न्ल तो विधि के शासन की अवधारणा का बोध होता है । विधि के शासन में कोई व्यक्ति बिना विधि की प्रक्रिया पूरी हुए दंडित नहीं किया जा सकता ।

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उपर्युक्त विवरण से पुलिस के लिए कई व्यवहार्य अर्थ निकलते हैं । इनमें से कुछ अत्यंत संक्षेप में इस प्रकार हैं:

१.पुलिस का दायित्व केवल विधि का शासन लागू करना है । किसी को ठीक करना या सबक सिखाना नहीं । ठीक करने या सबक सिखाने के उद्‌देश्य से काररवाई करने पर पुलिस की साख समाप्त हो जाती है, उसमें अमानवीयता बढ़ती है । परिणामस्वरूप जन-विश्वास समाप्त हो जाता है ।

२.पुलिस को विधि का शासन लागू करने के लिए केवल वैधानिक तरीकों का उपयोग करना चाहिए । आवश्यकतानुसार पुलिस ओंसू गैस, लाठी और गोली का प्रयोग करने के लिए प्राधिकृत है । गोली चलाने से यदि सैकड़ों लोगों की जान-माल की रक्षा की जा सकती है तो चलाना पुलिस का कर्तव्य बन जाता है ।

किसी कारणवश ऐसी किसी परिस्थिति में गोली न चलाना कायरता होगी । किंतु अनावश्यक या किसी कारणवश बल का प्रयोग पुलिस को अमानवीय और अविश्वसनीय बनाता है ।

३.विधि के अनुपालन में किसी प्रकार के दबाव में, चाहे वह प्रशासनिक हो या राजनीतिक, नहीं आना चाहिए । उपर्युका सुझावों के अनुसार कार्य करने से पुलिस की कार्य-पद्धति में गुणात्मक परिवर्तन आना स्वाभाविक है । अपराधों का निर्बाध और निस्संकोच पंजीकरण प्रारंभ हो जाएगा ।

अल्पीकरण और छिपाव समाप्त हो जाएगा । वर्तमान समय में पुलिस थाना जाते समय वादी आश्वस्त नहीं होता कि उसका अभियोग पंजीकृत कर लिया जाएगा । उसे आशंका रहती है कि कहीं संतरी उसे थानाध्यक्ष से बिना मिले ही वापस न कर दे ।

अत: वह प्राय: किसी प्रभावशाली व्यक्ति या स्थानीय नेता को तलाश करता है । अपराधों का पंजीकरण न करके, पुलिसकर्मी किसी व्यक्ति का राजनीतिक-सामाजिक महत्त्व बढ़ा रहे हैं । किसी गाँव में एक डकैती पड़ती है । वादी थाने पहुँचता है । काररवाई का आश्वासन देकर उसे वापस कर दिया जाता है । कुछ मामलों में उसे गाली देकर या अभियुक्तों का पता लगाकर आने के लिए कहकर लौटा दिया जाता है ।

केस पंजीकृत नहीं होता । इसकी जानकारी क्षेत्र में सभी लोगों को हो जाती है । तथाकथित राजनीतिक व्यक्ति या क्षेत्र के प्रभावशाली व्यक्ति को यह बात मालूम होती है । वह वादी से बात करता है । उसे काररवाई कराने का आश्वासन देता है और साथ लेकर थाने पहुँचता है । (वादी को अलग करके) थाने पर वह थानाध्यक्ष से मिलकर डकैती पड़ने की बात बताता है ।

थानाध्यक्ष का अनभिज्ञ बनना मजबूरी होती है किंतु वह व्यक्ति अपराध पंजीकृत न करने की कमजोरी को जानता है । वह सिपाहियों और उपनिरीक्षक का जो घटना-स्थल पर गए थे, नाम बताता है । वह यह भी बताता है कि वादी तो अमुक-अमुक व्यक्तियों के साथ पुलिस अधीक्षक के पास जा रहा था, किंतु थानाध्यक्ष उसी के आदमी हैं, उन्होंने किसी प्रकार उसे रोक लिया है ।

मामले को सुलझाना आवश्यक है अन्यथा वह तो पुलिस-अधीक्षक के पास जाएगा ही । थानाध्यक्ष मामला भाँप लेता है । मिठाई-नमकीन एवं चाय मँगवाते हैं । मामले को रफा-दफा कराने के लिए आग्रह करते हैं । सही पंजीकरण के साथ-साथ सही विवेचना भी आवश्यक है । अभियुक्तों को ही गिरफ्तार किया जाना चाहिए ।

दबाव में आकर अभियोग को खोल देने के उद्‌देश्य से गिरफ्तारी कर लेने से अभियुक्त चाहे कितने बड़े बदमाश क्यों न हों, अपराध स्थिति पर अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ता । ऐसी काररवाई से पुलिसकर्मी की व्यक्तिगत नैतिकता समाप्त होती है तथा जनता की निगाह में पुलिस की साख गिरती है ।

एक बार गलत अभियुक्तों की गिरफ्तारी कर लेने से संबंधित अभियोग करनेवाले अभियुक्त स्वतंत्र हो जाते हैं । पुन: एक उदाहरण देने से अपराध पंजीकृत न करने से या अपराध को गलत खोल देने से आपराधिक गतिविधियाँ कैसे प्रभावित होती हैं, समझा जा सकता है । जनपद में एक व्यक्ति सहायक पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त था, उसने एक डकैती के घटनास्थल का निरीक्षण किया ।

उसके पहुँचने से पहले ही एक अभियुक्त पकड़ा जा चुका था । उसका आपराधिक जीवन-वृत्तांत सुनने पर उसने पाया कि उसने कई ऐसी डकैतियाँ करना स्वीकार किया, जो लिखी नहीं गई थीं । यह पूछने पर कि उसे कैसे मालूम होता है कि कोई डकैती लिखी गई है या नहीं, उसने बताया कि डकैती डालने के बाद गैंग के सदस्य या उनके आदमी घटनास्थल पर निगरानी रखते हैं ।

घटनास्थल पर २-३ दिन के भीतर जीप गाड़ी पर पीक कैप (टोपी का विवरण बताते हुए) कोई अधिकारी आ जाते हैं तो समझ लेते हैं कि डकैती लिखी गई है । यदि सिर्फ सिपाही या उप-निरीक्षक आकर चले जाते हैं तो स्पष्ट है, डकैती लिखी नहीं गई ।

इसका उनपर क्या असर पड़ता है ? उसने बताया कि यदि डकैती नहीं लिखी गई तो वे स्वतंत्र हो जाते हैं और दूसरी डकैती डालने की तैयारी करने लगते हैं । डकैती लिख जाने की स्थिति में डकैती के खुलने की प्रतीक्षा करते हैं ।

यदि डकैती नहीं खुलती तब तक शांतिपूर्वक छिपे रहते हैं, जब तक कि डकैती खुल न जाए या यह निश्चित न हो जाए कि अब इस डकैती में कुछ नहीं होना है । इस उदाहरण से एक गंभीर प्रश्न उठ खड़ा होता है-क्या पुलिसकर्मी अपराधियों के बराबर भी समझ नहीं रखते ?

गलत संदिग्धों को गिरफ्तार कर लेने से जांच आदि से होने वाली परेशानियाँ अलग हैं । साथ ही अवियोगों के गलत खोले जाने के कारण सामन्य जन अवियोजन पक्ष की ओर से गवाही देना पसंद नहीं करते । सही विवेचना करने के प्रश्न पर कई शंकाएँ व्यक्त की जाती हैं ।

कुछ नेकनीयत अधिकारी भी आश्वस्त नहीं हैं कि प्रचलित वैधानिक प्रक्रिया के अनुसार विवेचना उचित और उपयोगी हो सकती है । उनका मानना है कि यह आश्वस्त होने पर कि किसी अभियुक्त ने अपराध किया है, विवेचना में अनुचित साधनों का प्रयोग बुरा नहीं है तथा इसमें कोई नैतिक प्रश्न नहीं उठता ।

इस स्थिति में अनुचित साधनों का प्रयोग न करनेवाला पुलिस अधिकारी अव्यावहारिक समझा जाता है तथा यह माना जाता है कि ऐसा अधिकारी अपराध नियंत्रण और शांति-व्यवस्था के क्षेत्र में अच्छे परिणाम नहीं दे सकता ।

विवेचना में अनुचित तरीकों के पक्ष में व्यावहारिक कठिनाइयों तथा विधि और न्यायालयों का पुलिस के प्रति अविश्वास की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है । यह भी कहा जाता है कि विधि जिस स्तर के साक्ष्य की अपेक्षा करता है, वैसा साक्ष्य मिलना केवल आदर्श परिस्थितियों में ही संभव है, तब की ताजा परिस्थितियों में नहीं ।

यदि संकेत किया जाए कि पुलिस को तथ्यों के अनुरूप प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखनी चाहिए तथा तत्परता से विवेचना करकेलूटा हुआ माल बरामद करना चाहिए और आवश्यकतानुसार धारा ४११ या ४१२ भादवि के अनुसार काररवाई कराई जानी चाहिए ।

इसमें सफलता प्राप्त करने से पुलिस का अनावश्यक कार्य कम होगा तथा वादी पक्षु की अभियोग में रुचि रहेगी । इस पर यह कहा जाता है कि माल की काररवाई-शिनाख्त में भी तो माल का दिखाया जाना आवश्यक हो जाता है । हममें से कितने लोग अपने सभी माल की सही शिनाख्त कर सकते हैं ?

इन विषयों पर थोड़ा सा विचार करने से ऐसे अच्छे और परिणाम प्रेरित अधिकारियों/ चिंतकों की अदूरदर्शिता स्पष्ट होने लगती है । इस संबंध में उत्तर प्रदेश पुलिस आयोग १९७०-७१ की यह टिप्पणी देना समीचीन है- ”इस विचारधारा में निहित भ्रांतियाँ बहुत ही स्पष्ट हैं ।

एक तो किसी व्यक्ति के अपराध के संबंध में पुलिस जिस निष्कर्ष पर पहुँचती है, वह आसानी से गलत हो सकता है और कोई भी व्यक्ति जो आपराधिक मामले में जानकारी रखता है, यह जानता है कि न केवल असंख्य निर्दोष व्यक्तियों ने कारागार का दंड पाया है बल्कि बहुत से व्यक्ति बहुधा झूठी गवाही या गलत निष्कर्षो के आधार पर फाँसी के तख्ते पर भी चढ़ाए गए हैं ।

दूसरे, डकैती के उन मामलों में, जो मुख्यत: इस तर्क के समर्थन में जेल भेजे जाते हैं, पुलिस को केवल यही विश्वास हो सकता है कि जो व्यक्ति सुनवाई के लिए भेजा गया है वह डकैतियाँ डालने का आदी है, न कि उसने इस डकैती में भाग लिया है ।

यदि ऐसा है तो सजा दिलाने के प्रयत्न करने से उसका मुकदमा एक मजाक और उसे दिया जानेवाला दंड न्याय का उपहास ही होगा । तीसरे, और इस विचार पर सर्वाधिक गंभीर आपत्ति है कि समाज ने अपराध के निर्णय का कार्य पुलिस को नहीं, न्यायालय को प्रतिनिहित किया है ।”

इन विचारों के अतिरिक्त इस विषय में और भी गंभीर नैतिक सांविधिक तथा विधिक मामले निहित हैं । पुलिस को शांति-व्यवस्था का कार्य सौंपकर समाज ने उसे एक पुनीत कर्तव्य सौंपा है । और इस कर्तव्य का निर्वहण पवित्र भावना से करना आवश्यक है । विधि को लागू करनेवाले उसे तोड़नेवाले नहीं हो सकते, क्योंकि यदि नमक अपना स्वाद खो देगा तो उसका वह गुण कहाँ मिलेगा ?

प्राय: यह समझ लिया जाता है कि सच्चाई और ईमानदारी का अनुसरण करने का जो तरीका है, वह पुलिस कार्य के लिए अपेक्षित सख्ती से मेल नहीं खाता । यह धारणा मूलत: गलत है । किसी अपराध के संबंध में दृढ़ता, लगाव, व्यवहार-कुशलता, निर्भय जाँच और अपराधी की शिनाख्त तथा उसके अपराध को सिद्ध करने के लिए समस्त उपलब्ध साक्ष्यों की उत्साहपूर्वक खोज, जो जाँच के गुण होने चाहिए ईमानदारी, सच्चाई और विधि के अनुपात से संगत हैं और यदि कोई पुलिसवाला इन दोनों का मेल नहीं कर सकता तो वह अपने उस बड़े पुलिस का योग्य सदस्य नहीं कहला सकता और न वह अपने को उस कार्य के लिए जो उसे सौंपा गया है, उपयुक्त संगठन कहा जा सकता है ।

अब हम इस विषय को व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखें । क्या पुलिस-अधिकारी से यह कहना संभव है कि तुम बेईमानी से कार्य करो, झूठ बोलो, झूठी गवाहियाँ गड़ो और कुछ हद तक न कि उसके आगे अन्य अनाचारों में लगे रहो ?

इस प्रकार का व्यादेश-आदर्श केवल मूर्खतापूर्ण ही होगा । अनुज्ञेय और अनुज्ञेय बेईमानी के बीच रेखा कहाँ खींची जानी है और इसे किसे खींचना है । यह रेखा अवसर की आवश्यकता के अनुसार बनाई जानी चाहिए और इसलिए इसे संबंधित पुलिस अधिकारी की इच्छा पर छोड़ दिया जाना चाहिए ।

क्या कभी इस प्रकार का नैतिक निर्देश लागू किया जा सकता है या इससे कोई अच्छा परिणाम निकल सकता है तथा क्या इसकी उपयोगिता या व्यावहारिकता मानव व्यवहार के अध्ययन से सिद्ध होती है ? इस प्रकार से नीति-वचन के पालन में कोई मध्य-मार्ग नहीं हो सकता, यद्यपि कार्यान्वयन सदैव नीति-वचन से कम ही होगा ।

अवसर की आवश्यकता के अनुसार मानवों के निर्धारण का कोई अर्थ नहीं होता, उसका तात्पर्य केवल किसी मानक को न मानने से होता है । यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यदि विवेचना में सही तरीकों का प्रयोग किया गया तो अभियोग के परीक्षण के परिणाम पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा, सजा का प्रतिशत, कम-से-कम गंभीर अपराधों में वैसे ही बहुत कम है ।

अनुचित तरीकों को त्याग देने से स्थिति बदतर हो जाएगी तथा अपराध और अपराधी पूर्णत: अनियंत्रित हो जाएँगे । यह शंका पूर्णत: निराधार नहीं है, किंतु जैसा कि अनेक न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं ने कहा है कि यह स्थिति अधिक-सें-अधिक प्रारंभ ही हो सकती है ।

एक पुलिस द्वारा प्रयुक्त साधनों की शुद्धता में विश्वास हो जाने पर अंतत: परिणाम अच्छे नेकलेंगे । यह भी एक विचारणीय बिंदु है कि अनुचित तरीकों का प्रयोग बहुत दिनों से जा रहा है, किंतु उनके प्रयोग से वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुए । असत्यता का असफल रहा है । अब सत्य के प्रयोग को पुलिस के तरीकों में उचित स्थान दिया चाहिए ।

उपर्युक्त सिद्धांतों को स्वीकार कर लेने से यह निष्कर्ष भी प्राप्त होता है कि थित निरोधात्मक काररवाइयों के कड़े प्रस्तुत करने के लिए की गई निरोधात्मक रइयाँ वैधानिक और नैतिक दोनों दृष्टि से अनुचित और त्याज्य हैं ।

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इसमें पुलिस त अधिक समय नष्ट होता है; पुलिस को अपनी क्षमताओं का दुरुपयोग करना है तथा कुल मिलाकर परिणाम नकारात्मक ही होता है । पुलिस छवि बिगड़ती है नेक प्रकार के दबाव सहने पड़ते हैं । पुलिस के लिए उचित और अनुचित का अर्थ होने लगता है ।

अनावश्यक निरोधात्मक काररवाई न करने से पुलिस को कई लाभ होते हैं । पुलिस का कई प्रकार से समय बचता है; अनावश्यक अभियोग पंजीकृत करके नहीं करनी पड़ती, अभियुक्त को न्यायालय में प्रस्तुत करने या जेल से न्यायालय में प्रस्तुत करने में पुलिसकर्मी की बचत होती है; अनावश्यक रूप से तमंचा, शराब, अफीम, चाकू आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती, पैरवी का कार्य नहीं करना सी कारण बस मुकदमा छूट जाने पर उन्मूक्ति आख्या तैयार नहीं करनी पड़ती और उसके बाद अधीनस्थों के विरुद्ध, जिसका कोई परिणाम नहीं निकलता है, काररवाई पड़ती ।

किसी भी जनपद में इस प्रकार की काररवाइयों की निश्चित संख्या ओटा अनुमान लगाया जा सकता है । विभिन्न स्रोतों से पूछताछ करने और अपने एक मोटा अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसी कासवाइयाँ कुल निरोधात्मक काररवाइयों की ६० से ७० प्रतिशत तक हो सकती हैं ।

इस बचे समय में ७५ प्रतिशत रस्थ आराम कर लें और २५ प्रतिशत में क्षेत्र के कुछ भले लोगों से मिल लें, के कार्य और छवि में काफी सुधार हो सकता है । द्वितीय, इन अनावश्यक काररवाइयों के बंद हो जाने से पुलिस की अपने कार्य पर पकड़ मजबूत होती है और अनेक प्रकार के दबाव अपने आप ही कम हो जाते हैं । शिकायत का कम मौका मिलता है ।

पत्रकारों की खबरें कम हो जाती हैं । बार द्वारा प्रार्थना-पत्र लिखने या उसकी पैरवी में कमी आती है, साथ ही इन से मिलनेवाला आर्थिक लाभ भी कम हो जाता है । तृतीय, इन निरोधात्मक काररवाइयों द्वारा पुलिसकर्मी कम-से-कम जिसके विरुद्ध न काररवाई करते हैं, उसे तथा उसके परिवार को पुलिस का दुश्मन बना देते हैं तथा वे अपने जीवन में कभी भी पुलिस को मानवीय और विश्वसनीय नहीं मान सकते । इन काररवाइयों को न करके पुलिस ये नुकसान जो सबसे बड़ा नुकसान है, अत्यधिक कम कर देती है ।

पुलिस में जनता को आस्था बढ़नी शुरू हो जाती है । साथ ही पुलिसकर्मी को मानवीय होने तथा अपने कार्यों के संबंध में सही विचार करने का अवसर मिलता है । वास्तव में, पुलिस में चिंतन प्रारंभ करने पर बल देने की आवश्यकता है ।

इसी चिंतन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है कि पुलिस के विभिन्न स्तरों पर समस्तर और विधि-अधीनस्थ, अधीनस्थ-वरिष्ठ के बीच सुदृढ़ सहयोग और सद्‌भाव हो । विभाग में ही स्थिति यह हो गई है कि कई स्तरों पर टकराहट की स्थिति है । पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के स्तर पर सबसे महत्त्वपूर्ण पदों को लेकर टकराव है ।

वही स्थिति पुलिस उप-महानिरीक्षक-स्तर के पदाधिकारियों की है । पुलिस अधीक्षक स्तर की स्थिति और भी बदतर है । सीधी भरती के आई.पी.एस. अधिकारियों और प्रोन्नति पाए आई.पी.एस. अधिकारियों तथा प्रांतीय पुलिस सेवा अधिकारी और प्रोन्नति पाए अधिकारियों के बीच मनमुटाव, कुढ़न एवं मुकदमेबाजी सर्वविदित है ।

जिनपर इन मामलों को ठीक करने का दायित्व है । लगता है, वे कुछ करना नहीं चाहते । स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही है । अन्य पदाधिकारियों में सामान्यत: नौकरी और निहित स्वार्थों को छोड़कर कोई स्थायी संबंध या सहयोग की भावना परिलक्षित नहीं होती है ।

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अधिकांश उच्चतर पदों पर आसीन पदाधिकारियों का अपने अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों के प्रति व्यवहार सद्‌भावनापूर्ण नहीं है । यह बात उप-निरीक्षक की हेड कांस्टेबल और कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम स्तर तक के लिए सही हो सकती है ।

अनेक अधिकारी उप-निरीक्षकों को कुरसी पर बैठाकर बातचीत करने की बात तक नहीं सोचते । हेड कांस्टेबल तो अभी यह सब सोच नहीं सकते । किंतु हम उससे आशा करते हैं कि वह रिक्योवाले, पानवाले, चाटवाले, खेतिहर मजदूर से व्यवहार-सद्‌भाव के साथ पेश आए उन्हें आदर दे ।

अत: सबसे पहले पुलिस-बल के भीतर आपसी तालमेल का होना आवश्यक है । आपसी सद्‌भाव के अभाव में जनता-पुलिस सद्‌भाव स्थायी नहीं हो सकता है । इसका निदान क्या है ? इसमें वरिष्ठ अधिकारियों को विचार-विमर्श करके कोई तरीका निकालना होगा ।

एक आसान सा सुझाव यह भी हो सकता है कि हम सभी पुलिसकर्मी यह मानकर चलें कि जिसके साथ अब वे नौकरी कर रहे हैं, उसके साथ सदैव नहीं रहेंगे । नौकरी अपनी जगह है तथा व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह । इस प्रकार वे अपने कार्य एवं व्यवहार शुद्ध रखें कि जब अलग होने पर फिर कभी मिलें तो मिलने की इच्छा करे ।

यदि इन बातों में से कुछ को भी ध्यान में रखा गया तो अनेक समस्याएँ स्वत: समाप्त हो जाएँगी । एक बार आपसी संबंध मधुर और विश्वसनीय हो जाने पर जनता के साथ संबंधों पर इसका अनुकूल प्रभाव स्वाभाविक रूप से पड़ेगा । इसे एक संकल्पना मानकर प्रयोग में लाया जा सकता है ।

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