अदालती बनाम सामाजिक सरोकार पर निबंध | Essay on Court versus Social Concern in Hindi!

सुप्रीम कोर्ट को लग रहा है कि गुर्जरों द्वारा बार-बार किये जाने वाले आंदोलन और उसके दौरान हुई हिंसा और आगजनी ‘नेशनल शेम’ यानी राष्ट्रीय शर्म का विषय है । उसने प्रभावित राज्यों की पुलिस को आदेश दिया है कि वह गुर्जरों द्वारा मचाये गये उत्पात को रोकने के लिए की गयी कार्रवाई की रपट अदालत में पेश करे । इस मामले में अदालत की शब्दावली काबिल-ए-गौर है ।

राष्ट्रीय शर्म नाम की जिस अभिव्यक्ति का उसने इस्तेमाल किया है, उसका प्रयोग सार्वजनिक जीवन में सबसे पहले भारत-चीन युद्ध के बाद डॉ. लोहिया ने संसद में नेहरू की कांग्रेस सरकार के खिलाफ पहला अविश्वास प्रस्ताव रखते हुए किया था ।

उन्होंने मोर्चे पर चीन से हार जाने वाली सरकार को राष्ट्रीय शर्म की सरकार बताते हुए कहा था कि इस सरकार को फौरन इस्तीफा दे देना चाहिए । इस अभिव्यक्ति के इतिहास से स्पष्ट है कि यह बहुत गंभीर और भारी-भरकम शब्द है ।

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केवल छह राज्यों में हुई घटना को राष्ट्रीय शर्म कहने लगना एक बढ़ा-चढ़ा कर की गयी प्रतिक्रिया ही कही जा सकती है । लेकिन, यह महज असावधानीवश इस्तेमाल की गयी भाषा का मामला न होकर एक नयी प्रवृत्ति का परिचायक है ।

पिछले कुछ दिनों से न्यायपालिका द्वारा की गयी प्रतिक्रियाएं, टिप्पणियां, सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्नों पर दिये गये फैसले और ली गयी पहलकदमियां बताती हैं कि वह केवल न्यायपालिका की जिम्मेदारी उठाने से ही सतुष्ट नहीं हैं, बल्कि साथ-साथ कार्यपालिका और विधायिका का काम भी कर लेना चाहती है ।

उसे पर्यावरण की चिंता है, पुलिस तफ्तीश की फिक्र है, उसके आदेश पर रिपोर्ट लिखी जा रही हैं, उसे मजदूरों द्वारा हड़ताल के अधिकार पर आपत्ति है, वह कर वसूली पर गौर कर रही है । न्यायपालिका ने यह तय करने की कोशिश भी की है कि विधानसभा के पटल पर बहुमत तय करने का समय और विधि क्या होना चाहिए । हमें पता है कि न्यायपालिका को संविधान ने इस देश पर हुकूमत करने का अधिकार नहीं दिया है ।

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शासन करने का काम कार्यपालिका का है । वह कानून भी नहीं बना सकती, क्योंकि कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद और विधानसभा को दे दी गयी है । हाँ, वह कानूनों की व्याख्या अवश्य कर सकती है, और सुनिश्चित कर सकती है कि विधि निर्माण की प्रक्रिया और शासन व्यवस्था संविधान सम्मत चले ।

इन दायित्वों के अलावा न्यायपालिका का एक सबसे बड़ा दायित्व है आम लोगों को इंसाफ मुहैया कराना । नीचे से ऊपर तक यह सुनिश्चित करना कि सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े आदमी की संविधान के मुताबिक हकतलफी न होने पाए । इस लिहाज से न्यायपालिका की प्रशासनिक हद मोटे तौर पर अदालतों और कचहरियों तक सीमित मानी जाती है । लेकिन, कुछ वर्षो से उसकी गतिविधियां इस दायरे से बाहर चली गयी हैं, और ‘जुडिशियल एक्टिविज्म’ का जन्म हुआ है ।

इस न्यायिक सक्रियता के ऊपर पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के सामने ही आलोचनात्मक टिप्पणियां की थीं, और मुख्य न्यायाधीश इस सवाल पर कमोबेश चुप ही रहे थे । न्यायिक सक्रियता का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि अदालत लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्य सभी अंगों में हस्तक्षेप का अधिकार तो अपने पास सुरक्षित रखती है, पर अपने मामलों में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होने देना चाहती ।

मसलन, न्यायपालिका नहीं चाहती कि न्यायाधीशों को किसी तरह के लोकपाल या लोकायुक्त जैसी संस्था के दायरे में लाया जाये । हाई कोर्टो की हालत यह है कि वे अपने सूचना अधिकारियों की नियुक्ति के तौर-तरीकों का भी खुलासा करने के लिए तैयार नहीं है और इसके लिए वे सूचना के अधिकार से बंधा हुआ नहीं महसूस करते।

न्यायपालिका हमेशा से ऐसी नहीं थी । उसकी इस प्रवृति की जड़ में कार्यपालिका और विधायिका की विफलताएं है । अगर लोकतंत्र के ये दोनों स्तम्भ अपना काम अपेक्षित कुशलता से कर पाते तो शायद न्यायपालिका को अपने कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण करने का मौका न मिलता ।

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लेकिन, दूसरी तरफ एक हकीकत यह भी है कि प्रशासन और सरकार यानी कार्यपालिका के पास सुप्रीम कोर्ट की तरह हालात और घटनाओं को किताबी और आदर्श नजरिए से देखने की सुविधा नहीं है । उनके निर्णय और कार्रवाईयां जन-राजनीति की गहमागहमियों और सामाजिक मजबूरियों की पेचींदा दुनिया में संचालित होती है । उन्हें तमाम ऊँच-नीच को ध्यान में रखना पड़ता है ।

उनके लिए हर तरह की हिंसा एक ही तराजू पर नहीं तौली जा सकती । मसलन, सरकार आतंकवादी हिंसा या अन्य उग्रवादी हिंसा की तुलना गुर्जर समुदाय द्वारा की जा रही उत्पादी हरकतों से नहीं कर सकती । जो रूख वह माओवादियों के खिलाफ अपना सकती है, या कश्मीरी आतंकवादियों के खिलाफ जिस तरह की अर्धसैनिक व सैनिक मुहिम चला सकती है, वैसी वह हिंसक हो गए जनांदोलनों के खिलाफ नहीं चला सकती । गुर्जरों द्वारा की गयी आगजनी और सड़क जाम की कार्रवाईयों को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है, पर उनकी उत्पादी हरकतों के बावजूद अंतत: उनका आदोलन लोकतांत्रिक ही था ।

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इसका सबूत उनके नेता ने राजस्थान सरकार से समझौते के बाद सार्वजनिक रूप से माफी माँग कर दिया । हिंसा में विश्वास रखने वाली कोई भी जत्थेबंदी इस तरह कभी माफी नहीं मांगेगी । जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट अपना रूतबा एक लोकतांत्रिक आदोलन पर दिखा सकता है, वरना उसे चाहिए था कि देश में पिछले कई दशकों से चल रहे हिंसक आदोलनों के बारे में भी सरकार से रिपोर्ट मांगता और कहता है कि यह सभी आदोलन राष्ट्रीय शर्म का विषय है ।

अगर न्यायपालिका की न्यायिक सक्रियता का सामाजिक ऑडिट किया जाये तो यह साफ होने में देर नहीं लगेगी कि जबसे इस देश में भूमंडलीकरण और बाजार की ताकतें हावी हुई हैं, अदालतों की ज्यादातर पहलकदमियां ग्रामीण और मुफस्सिल संसार के खिलाफ ही गयी है । उसकी दिलचस्पी शहरी और अभिजन दुनिया में बड़ी है ।

वह बार-बार साफ-सफाई, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के सवालों पर ऐसा नजरियां अपनाती रही है, जिससे उन असंख्य गरीबों की जिंदगी और सांसत में पड़ी है, जो दो जून की रोटी की तलाश में गांव की जमीन छोड़ कर शहरों में आये हैं । न्यायपालिका के आदेशों और पहलकदमियों का नतीजा यह निकला है कि देश में मजदूर वर्ग द्वारा अपने हित के खिलाफ जाने वाली नीतियों का प्रतिरोध दर्ज करना मुश्किल हो गया है।

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