लंका की ओर प्रस्थान | Hanuman’s Convey Towards Lanka!

वानरराज सुग्रीव ने तत्काल किष्किंधा के राज्य की व्यवस्था अपने कुछ विश्वस्त मंत्रियों पर सौंपी और करोड़ों वानरों तथा भालुओं की सेना को लंका की ओर कूच करने की आज्ञा प्रसारित कर दी ।

सारी वानर और भालुओं की सेना पूरे उत्साह और वेग के साथ रावण से युद्ध करने की लालसा मन में रखकर चल पड़ी । उसी समय हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम से प्रार्थना की कि लंका यहां से बहुत दूर है । आप मेरे कंधे पर बैठ जाएं अन्यथा आप थक जाएंगे । प्रभु श्रीराम हनुमान जी के प्रेम का निरादर नहीं कर सके ।

वे हनुमान जी के कंधे पर बैठ गए और अंगद के आग्रह पर लक्ष्मण जी अंगद के कंधे पर बैठ गए । सारी सेना श्रीराम और लक्ष्मण यती की जय-जयकार करती हुई चल रही थी । महाराज सुग्रीव प्रभु श्रीराम के साथ ही थे । वे उन मार्गों से होकर चल रहे थे, जिन पर प्रचुर मात्रा में फलाहार और स्वच्छ जल प्राप्त था ।

उस सेना में गज, गवाक्ष, मैन्द, द्विविद, नल, नील, सुषेण और जाम्बवान जैसे वीर तथा शत्रु विनाशक सेनापति आगे-पीछे होकर चल रहे थे और सेना के प्रबल वीरों में जोश भरते जाते थे । कोटि-कोटि वीर वानरों और भालुओं की विशाल सेना भूपतियों के आदेश और वानरराज सुग्रीव के भय से पूरी तरह अनुशासित होकर तीव्र गति से उछलती-कूदती आगे बढ़ रही थी ।

प्रभु श्रीराम के साथ वह सेना बिना थके मलयाचल और सह्याद्रि की मनोरम पर्वत उपत्यकाओं को पार करती हुई अंत में महेन्द्राचल के निकट विशाल समुद्र तट पर जा पहुंची । वहां पहुंचकर सेना ने इतने उच्च स्वर में ‘जय श्रीराम’ का जयघोष किया कि समुद्र का गर्जन भी उस ध्वनि में दबकर रह गया ।

श्रीराम के समुद्र तट पर पहुंचते ही लका में अपशकुन होने लगे । उन्हें देखकर राक्षसों के मन में अनेक प्रकार की आशंकाएं जन्म लेने लगीं । रावण के गुप्तचरों ने रावण को आकर सूचना दी कि श्रीराम, लक्ष्मण वानर और भालुओं की एक विशाल सेना के साथ समुद्र पार के तट पर आ जमे हैं ।

गुप्तचरों की बात सुनकर सारी लंका में बेचैनी फैल गई । एक वानर ने तो हमारी यह दशा कर दी है जब करोड़ों वानरों की सेना यहां धावा बोलेगी, तब क्या होगा ? सभी चिंतित हो उठे । लेकिन रावण के चाटुकारों ने लंकेश से कहा, ”राजन ! यह तो सौभाग्य की बात है कि वानर और भालुओं के साथ मनुष्यों का मांस भक्षण करने का हमें अवसर मिलेगा ।

हम एक को भी प्राण बचाकर यहां से लौटने नहीं देंगे । वे जब आपके दोमुखी बाणों से मारे जाएंगे, तब हमारे लिए बरसों का भोजन तैयार हो जाएगा । आप हमें आज्ञा दें, हम अभी समुद्र पार जाकर उन वानरों की सेना को तहस-नहस कर डालते हैं ।”

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विभीषण ने उन चाटुकार मंत्रियों की बातों को सुना तो उन्हें क्रोध आ गया । वे उनकी बातों का प्रतिवाद करते हुए बोले, ”भ्राताश्री ! ये जो डींग मार रहे हैं, आप इनसे जरा पूछिए कि जब वह एक अकेला वानर यहां आया था, तब ये उसका कुछ क्यों नहीं बिगाड़ पाए । वह सारी लंका को जलाकर राख कर गया । हमारे सैकड़ों वीरों को मार गया । तब इनकी वीरता कहां चली गई थी ?”

विभीषण की बात का समर्थन रावण के नाना सुमाली के बड़े भाई माल्यवान ने किया, ”दशग्रीव! विभीषण ठीक कह रहे हैं । हमें उनकी बात ध्यानपूर्वक सुननी चाहिए । कोई भी कदम उठाने से पहले दो बार सोच लेना चाहिए । यही कुशल राजनीति के लक्षण हैं ।”

विभीषण ने कहा, ”भ्राताश्री लंकेश ! आप बुद्धिमान और वीर हैं । नीतिकुशल भी हैं । आपको इन चाटुकारों की बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए । वह एक अकेला वानर हमें चुनौती देकर गया है, जिसने यहां भारी उत्पात मचाया था ।

जिस राम ने अपने एक ही बाण से वानरराज बालि को यमलोक पहुंचा दिया, वे साधारण मनुष्य नहीं हैं । अच्छा यही है कि आप सीता को श्रीराम को लौटा दें और उनसे संधि कर लें । उनका विरोध करने पर राक्षस वंश का विनाश हो जाएगा ।”

माल्यवान ने कहा, ”राक्षसेन्द्र ! विभीषण नीतिकुशल और बुद्धिमान हैं । ये आपके परम हितैषी हैं । आप इनकी बातों पर ध्यान दीजिए । श्रीराम वास्तव में साधारण मानव नहीं हैं । उनसे संधि करना ही उचित है ।” विभीषण और माल्यवान की बातें सुनकर रावण क्रोध में भरकर उठ खड़ा हुआ और दहाड़ते हुए बोला, ”आप दोनों शत्रु की हिमायत करने वाले देशद्रोही हो ।

तत्काल यहां से चले जाओ । अन्यथा, मैं तुम्हारी गरदन उड़ा दूंगा ।” माल्यवान तत्काल उठकर वहां से चले गए और जाते-जाते कहते गए ”रावण ! तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है । तू सारे राक्षस कुल का संहार करवाकर ही मानेगा ।”

विभीषण ने विनम्रता से कहा, ”भ्राताश्री आपने सदैव मुझे स्नेह दिया है । इस बार आप मेरी बात मान लें । श्रीराम से विरोध करके हम सभी नष्ट हो जाएंगे । अच्छा यही है कि आप सीता को लेकर समुद्र पार चलें । हम उनकी पत्नी को लौटाकर उनसे क्षमा याचना कर लेंगे । वे हमें अवश्य क्षमा कर देंगे ।”

विभीषण की बात सुनकर रावण क्रोध में भरकर तिलमिला उठा । उसने आगे बढ्‌कर विभीषण की छाती पर लात मारते हुए कहा, ”निकल जा यहां से । तू मेरा भाई नहीं, शत्रु है । तू मेरे शत्रु से मिला हुआ है ।

तेरा साहस कैसे हुआ यह कहने का कि मैं उससे जाकर क्षमा मीगू । तू मेरा छोटा भाई न होता तो मैं अभी तेरा सिर धड़ से अलग कर देता । अपना मुंह काला कर और लंका से निकल जा ।”  विभीषण गहरे अपमान से तिलमिला उठे और रावण की राजसभा से बाहर चले गए । उन्होंने मन ही मन श्रीराम की शरण में जाने का निर्णय कर लिया ।

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विभीषण राम की शरण में :

विभीषण के चार मंत्री भी उनके साथ आ गए । वे पांचों आकाश मार्ग से समुद्र लांघकर वहां आए जहां वानरों की विशाल सेना ठहरी हुई थी । अस्त्र और कवचधारी तेजस्वी विभीषण को अपने चार मंत्रियों में साथ आकाश से उतरते देखकर हनुमान जी ने विभीषण को तत्काल पहचान लिया ।

वानरों ने उन्हें रावण का दूत समझकर अपने घेरे में ले लिया और सुग्रीव के पास पहुचकर कहा, ”महाराज ! रावण के अनुज विभीषण प्रभु श्रीराम से मिलने आए है ।” पास बैठे श्रीराम ने सुग्रीव की ओर देखा तो सुग्रीव ने कहा, “प्रभु । ये राक्षस अत्यंत मायावी होते हैं ।

विभीषण उस कूर दुष्ट रावण का अनुज है । पता नहीं वह किस अभिप्राय से यहां आया है । क्या हम उसे बंदी बना लें ?” श्रीराम ने मुस्कराकर कहा, ”प्रिय सुग्रीव ! यदि दुखी और अभिमानी शत्रु भी अपने शत्रु की शरण में आ जाए तो उसे शुद्ध हृदय से श्रेष्ठ पुरुष समझकर अपनी शरण में स्वीकार करना चाहिए और उसकी रक्षा करनी चाहिए ।

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शरणागत की रक्षा न करना महान दोष और पाप माना जाता है । जब हनुमान जी लंका में सीता की खोज में गए थे, तब इन्हीं विभीषण जी ने हनुमान जी की सहायता की थी और हनुमान का रावण की सभा में पक्ष लिया था ।

वानरराज सुग्रीव ! यह मेरा व्रत है, जो एक बार शुद्ध हृदय से मेरी शरण में आ जाता है, उसकी रक्षा करना मेरा धर्म हो जाता है । जाओ, विभीषण जी को आदरपूर्वक ले आओ ।” प्रभु श्रीराम के वचन सुनकर हनुमान जी का हृदय आनंद से पुलकित हो उठा और वे तत्काल उन वानरों के साथ जाकर विभीषण जी को आदरपूर्वक श्रीराम जी के पास ले आए ।

विभीषण ने श्रीराम के दर्शन किए तो वे आनंद विभोर हो उठे । उन्होंने नीचे झुककर प्रभु श्रीराम के चरण स्पर्श किए और कहा, ”प्रभो ! मैं उस दुष्ट रावण का छोटा भाई हूं जिसने आपकी भार्या सीता का हरण किया है ।

मैं अत्यंत तामसिक वृत्ति वाला अधम राक्षस हूं । आज मेरे भाई ने मुझे अपमानित करके लंका से निकाल दिया है, क्योंकि मैंने उससे सीता को वापस करके आपसे क्षमा प्रार्थना करने के लिए कहा था । हे प्रभु ! अब मैं आपकी शरण में हूं । कृपया मुझे अपने चरणों में स्थान देकर मेरा जीवन सफल बनाएं ।”

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प्रभु श्रीराम ने उठकर विभीषण को अपने हृदय से लगा लिया और कहा, ”लंकेश ! आपके साथ किसी वानर ने अशिष्टता तो नहीं की ?” विभीषण ने गद्‌गद होकर कहा, ”प्रभो आपने मुझे लंकेश कहकर पुकारा पर मैं लंकेश का छोटा भाई हूं ।”

सुग्रीव ने बीच में ही कहा, ”विभीषण जी ! यदि प्रभु ने आपको लंकेश कहकर संबोधित किया है तो आप यह मानकर चलिए कि लंका का भविष्य निश्चित हो चुका है । आप ही लंका के अधिपति होंगे ।” श्रीराम ने कहा, ”मेरे मुख से यदि आपके लिए लंकेश निकला है तो मित्र सुग्रीव का कथन असत्य नहीं हो सकता । लंका का साम्राज्य आपको ही प्राप्त होगा ।”

श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण की ओर देखा और कहा, ”सौमित्र ! मैंने विभीषण को लंकेश कहा है । लंका के सिंहासन पर इनका अभिषेक तुम्हारे हाथों ही होगा । उसी प्रकार जिस प्रकार तुमने किष्किंधा में प्रिय सुग्रीव का अभिषेक किया था ।

परंतु मैं अभी यहीं पर प्रिय विभीषण का अभिषेक करना चाहता हूँ । जाओ, जल ले आओ ।” “जो आज्ञा भ्राताश्री!” लक्ष्मण जी ने झुककर नमन किया और चले गए । हनुमान जी भी गद्‌गद होकर लक्ष्मण जी के साथ गए ।

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विभीषण की आखों में स्नेहाश्रु छलकने लगे । उन्होंने प्रभु श्रीराम के हाथों को अपने हाथों में लेकर अपने मस्तक से लगाया और कहा, ”प्रभो ! मैं तो आपके चरण कमलों का स्पर्श करके ही कृतार्थ हो गया था । मुझे सर्वस्व प्राप्त हो गया ।

अब मुझे क्या चाहिए । मुझे तो आप अपने चरणों में ही रहने दीजिए । आपके चरण स्पर्श करने के उपरति मेरे मन की समस्त भौतिक वासनाएं समाप्त हो गई हैं । अब आप मुझे पुन: क्यों इन सांसारिक प्रलोभनों में डोल रहे हैं ?”

श्रीराम ने कहा, ”मित्र विभीषण ! तुमने कभी सांसारिक प्रलोभनों के प्रति आसक्ति नहीं दिखाई । परंतु मुझे अपने वचनों को सत्य करने का अवसर क्या नहीं दोगे ? रघुवंशी अपने वचनों के पालन के लिए अपने प्राणों तक का उत्सर्ग कर सकते हैं ।”

उसी समय हनुमान जी और लक्ष्मण जी दो पात्रों में सागर का जल लेकर वहां आ गए । विभीषण जी के साथ अघा५ चारों मंत्रियों को भी वहा बुला लिया गया और फिर श्रीराम के आदेश से सभी प्रमुख वानरों और भालुओं तथा प्रमुख यूथपतियों के सम्मुख विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया गया ।

सारी वानर जाति और भालुओं के साथ हनुमान जी ने उच्च स्वर में जयघोष किया, ”लंकेश्वर विभीषण की जय ।” उनके साथ ही सभी वानरों ने तुमुल जयध्वनि की, ”लंकेश्वर विभीषण की जय ।” उस समय हनुमान जी की प्रसन्नता देखते ही बनती थी । उन्होंने स्वर्य आगे बढ़कर विभीषण और उनके साथ आए अतिथि मंत्रियों का सादर सत्कार किया ।

सेतु निर्माण:

विभीषण का राजतिलक करने के उपरांत श्रीराम ने सभी को अपने पास बैठाकर पूछा कि समुद्र को पार कैसे किया जाए? इस पर विभीषण ने कहा, ”प्रभु ! सागर को सगर के पुत्रों ने बांधा है । वे रघुवंश के पूर्वज हैं । उनसे यदि प्रार्थना की जाए तो सागर मार्ग दे सकता है ।”

प्रभु श्रीराम को विभीषण का प्रस्ताव उत्तम लगा । उन्होंने सागर तट पर बैठकर चार दिन तक सागर से मार्ग पाने की प्रार्थना की । लेकिन जब उनकी प्रार्थना का कोई प्रभाव समुद्र पर नहीं हुआ तो उन्होंने लक्ष्मण से अपना धनुष और अक्षय तूणीर मांगा ।

उसमें से उन्होंने एक बाण अपने धनुष पर चढ़ाया और बाण को अभिमंत्रित करके प्रत्यंचा खींची । प्रत्यचा के खींचते ही सर्वत्र भूकंप आ गया । आकाश से उल्काएं गिरने लगीं और सागर का जल उबलने लगा । उससे घबराकर जलचर सागर तल से निकल-निकलकर ऊपर आने लगे । दिशाएं कांपने लगीं ।

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उसी समय सागर तल से सागर देव असंख्य रत्नादि अपनी अंजलि में भरकर ऊपर आएन और उन्हें प्रभु के चरणों में अर्पित करके बोले, ”प्रभो ! आपने ही मुझे मर्यादित किया था और अब आप ही मुझे मर्यादा छोड़ने के लिए कह रहे हैं ।

आप मुझे क्षमा करें और शांत हो जाएं । आपकी सेना में विश्वकर्मा के पुत्र नल और नील नाम के दो वानर हैं । वे संपूर्ण शिल्प-कलाओं में माहिर हैं । आप उन्हें आज्ञा दें । वे शीघ्र ही मुझ पर सेतु का निर्माण कर देंगे और मैं स्वयं भी उनकी सहायता करूंगा । इससे मैरी मर्यादा की रक्षा भी हो जाएगी ।”

श्रीराम ने सागर से कहा, ”हे देव ! तुम यह बात मेरी प्रार्थना पर भी तो मुझसे कह सकते थे । अब मैं इस बाण को कहा छोड़े ? मैंने तो इसे तुम्हें सुखा देने के लिए धनुष पर चढ़ाया है । अब बिना संधान के यह वापस तूणीर में नहीं जा सकता ।”

सागर ने कहा, ”प्रभो ! आप इसे दुमकुल्य प्रदेश पर छोड़ दें । वहां विनाशकारी कर्दम का बसेरा है ।” सागर की बात मानकर श्रीराम ने वह बाण छोड़ दिया जो दुमकुल्य की कर्दम को सुखाकर वापस उनके तूणीर में आ गया ।

उसके बाद श्रीराम ने नल और नील को बुलाकर समुद्र पर सेतु बनाने की आज्ञा दी । श्रीराम की आज्ञा मिलते ही सेतु निर्माण का कार्य प्रारंभ हो गया । हनुमान और उनके साथ सैकड़ों वानर बड़ी-बड़ी चट्टानों और वृक्षों को उखाड़-उखाड़कर लाने लगे ।

भगवान श्रीराम उनका स्पर्श करते और नल-नील उन्हें ‘जय श्रीराम’ के जयघोष के साथ सागर के जल में छोड़ देते । देखते-देखते सेतु तैयार होने लगा । पांच दिन के अथक प्रयास के बाद उन्होंने दस योजन चौड़ा और सौ योजन लंबा सेतु तैयार कर दिया ।

उस विशाल समुद्र पर सेतु निर्मित हो जाने के उपरांत प्रभु श्रीराम ने अपने प्रिय भक्त हनुमान जी से पूछा, ”पवनपुत्र ! आश्चर्य है कि ये बड़े-बड़े पत्थर पानी में कैसे तैरने लगे ?” हनुमान जी ने विनयपूर्वक कहा, ”प्रभो ! यह तो आपके पावन नाम की महिमा है ।

आपने जिस पत्थर का भी स्पर्श कर दिया, वह पानी में तैर जाता है । आप स्वयं देख रहे हैं कि पानी में बड़े-बड़े शिलाखण्ड किस प्रकार से तैर रहे हैं ।” तभी श्रीराम ने पास पड़े दो-तीन पत्थर के टुकड़ों को उठाया और उन्हें पानी में फेंका तो वे डूब गए ।

तब उन्होंने हनुमान से कहा, ”तुमने देखा, मेरे हाथों में वह शक्ति भला कहां है कि पत्थर पानी में तैरने लगे । वे तो डूब गए हैं ।”  सभी वानर और भालू एक दूसरे का मुंह देखने लगे । उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था कि वे क्या उत्तर दें ।

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उसी समय पवनपुत्र हनुमान जी ने हाथ जोड़कर विनम्रता के साथ कहा, “प्रभो ! आप जिसे अपने करकमलों से छोड़ देंगे, वह पानी में डूबेगा नहीं तो क्या होगा ? आपके बिना जीव की गति भला कहां है ?” हनुमान के उत्तर को सुनकर प्रभु श्रीराम मुस्कराने लगे और बोले, ”तुम धन्य हो हनुमान ! तुम्हारी भक्ति और उक्ति अत्यंत निश्छल और सहज है ।

अब चलो, हमें विलंब न करके तत्काल लंका की ओर कूच करना चाहिए ।” ”जैसी प्रभु की इच्छा ।” हनुमान जी उठ खड़े हुए और सारी वानर सेना को संबोधित करते हुए बोले, ”समस्त वानर और भालू सेना तैयार हो जाओ । हमें अभी लंका की ओर कूच करना है ।”

हनुमान जी की बात सुनकर सभी वानरों और भालुओं ने तुमुल ध्वनि करते हुए उच्च स्वर में ‘जय श्री राम’ का जयघोष किया और श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव, नल-नील, अंगद, जाम्यवान आदि के पीछे-पीछे तुमुल जयघोष करते हुए चल पड़े ।

बहुत शीघ्रता से उन्होंने सौ योजन का मार्ग पूरा किया और लंका की धरती पर सुबेल नामक पर्वत पर डेरा डाल दिया । उस समय रात हो गई थी और आकाश में चंद्रमा उदित हो चुका था । हनुमानजी ने प्रभु श्रीराम के लिए मृग चर्म बिछा दिया । वे उस पर बैठ गए और आगे की मंत्रणा करने लगे ।

योजना बनी कि प्रात काल होने पर रावण के पास पहले एक दूत भेजा जाए और उसे समझाया जाए । ताकि व्यर्थ के रक्तपात से बचा जा सके । उसके बाद सभी विश्राम करने के लिए लेट गए । लेकिन कुछ प्रमुख वानरों के साथ हनुमान जी रात भर जागते रहे । उन्हें भय था कि कहीं राक्षस लोग धोखे से रात्रि में उनकी सेना पर आक्रमण न कर दें । इसलिए सतर्क रहना जरूरी था ।

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