श्रीराम की अयोध्या वापसी और हनुमान का आग्रह |The Return of Shree Ram to Ayodhya !

सीता जी की अग्नि-परीक्षा के उपरांत उस रात्रि सभी ने वहां विश्राम किया । दूसरे दिन प्रातःकाल लंकापति विभीषण ने प्रभु श्रीराम से आग्रह किया कि वे प्रिय लक्ष्मण और सीता जी के साथ कुछ दिन लंका में निवास करें और उन्हें सेवा-सत्कार का अवसर प्रदान करें ।

परंतु श्रीराम ने उनके आग्रह को विनम्रतापूर्वक ठुकराते हुए कहा कि उन्हें यथाशीघ्र अयोध्या पहुचना है । क्योंकि प्रिय भरत ने संकल्प लिया हुआ है कि यदि चौदह वर्ष के बाद एक दिन की भी देरी हुई तो वे अपने प्राण त्याग देंगे ।

उसके बाद विभीषण ने उनसे रुकने का अपना आग्रह छोड़ दिया और पूछा कि वे उनकी क्या सेवा करें । इस पर श्रीराम ने कहा, ”हे लंकेश ! मेरे साथ आए इन वानर और ऋक्षवीरों ने अपने मन, वचन, कर्म से मेरा साथ दिया है । परंतु इस समय मेरे पास इन्हें देने को कुछ नहीं है । मैं चाहता हूं कि तुम अनेकानेक रत्नाभूषण और उपहार देकर इनका सम्मान करो ।”

विभीषण जी कुछ कहते, इससे पूर्व ही वानरराज सुग्रीव बोल पड़े, ”प्रभु ! हमने अपना मैत्री धर्म निबाहा है । किसी उपहार के लिए हमने आपका साथ नहीं दिया है । यदि आप हमें देना ही चाहते हैं तो अपने चरणों की भक्ति दीजिए । हमें कोई उपहार आदि नहीं लेने हैं ।”

वानरराज सुग्रीव की बात का समर्थन सारी सेना ने तुमुल जयघोष के साथ किया । श्रीराम उनका प्रेम देखकर अभिभूत हो उठे । उन्होंने सारी सेना को संबोधित करते हुए कहा, ”हे श्रेष्ठ वीरों ! आपने जिस तरह से मैत्री धर्म का पालन किया है, वह मेरे जीवन की अमूल्य निधि है ।

मैं आपका यह उपकार हृदय से स्वीकार करता हूं और आपको बदले में कुछ देकर आपके निस्वार्थ प्रेम का अनादर करना नहीं चाहता । मैं सदैव आपको अपने हृदय में रखूंगा और जब कभी भी आप मुझे स्मरण करेंगे, मैं तत्काल उपस्थित हो जाऊंगा, यह मेरा वचन है ।”

सभी ने पूरे उत्साह से ‘जय श्रीराम’ का बार-बार जयघोष किया । उसके बाद श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव, हनुमान, अंगद, ऋक्षराज जाम्यवान के साथ मिलकर सभी को अपने-अपने स्थान जाने के लिए विदा किया । उनके विदा होने के उपरात लंकेश विभीषण ने अयोध्या वापसी के लिए पुष्पक विमान मंगाया ।

पुष्पक विमान अत्यधिक भव्य और सब तरह से सुसज्जित था । श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी जब उस पर चढ़ गए तो प्रभु ने कहा, “हे मित्र वानरेन्द्र आपने मित्र धर्म का पूर्ण निर्वाह किया है । अब आप भी सेना सहित किष्किंधा जाइए । हे विभीषण ! अब आप भी निर्भय होकर लंका का राज्य कीजिए । हे ऋक्षराज ! अब आप भी सेना सहित प्रस्थान करें । मैं आपके सहयोग को कभी भूल नहीं पाऊंगा । अब आप लोग हमें प्रस्थान की आज्ञा दें ।”

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प्रभु की बात सुनकर अब तक एक ओर चुपचाप खड़े हनुमान जी ने आखों में अश्रु भरकर हाथ जोड़कर कहा, “हे स्वामी ! हमारे आराध्य प्रभु श्रीराम को जन्म देने का सौभाग्य जिस भाग्यशालिनी जननी को प्राप्त हुआ है, उस स्नेहमयी माता के दर्शन करने की हमारी उत्कट अभिलाषा है ।

हे रघुनंदन ! उन माता कौशल्या के दर्शन करके, उनके चरणों की रज अपने मस्तक पर धारण करके हम वापस लौट आएंगे । इसलिए आप हमें भी अपने साथ अयोध्या ले चलिए । हे प्रभो ! हमारी बड़ी इच्छा है कि हम आपका राजतिलक होते हुए अपनी आखों से देखें । हमारी बड़ी अभिलाषा है कि हम आपके राज्याभिषेक के लिए विभिन्न तीर्थों से जल लेकर आएं और विविध सामग्रियों का संकलन करें ।

इसलिए भक्तवत्सल प्रभु ! आप हमें निराश न करें और हमें अपने साथ ले चलें । हे प्रभो जिस अयोध्या की भूमि में आपने जन्म लिया है और उस मिट्टी में आपका यह सलोना बाल रूप भू-लुंठित हुआ है, उस मिट्टी को अपने मस्तक और शरीर पर धारण करना चाहते हैं । इसलिए आप हमें अपने साथ ले चलिए ।”

हनुमान जी के इन प्रेमपूर्ण वचनों को सुनकर प्रभु श्रीराम ने प्रिय सुग्रीव, विभीषण, जाम्यवान, अंगद और हनुमान को अपने साथ चलने की आज्ञा दे दी । सभी लोग उत्साहपूर्वक विमान में चढ़ गए । सभी के चढ़ जाने पर विभीषण ने लंका की व्यवस्था अपने मंत्रियों पर छोड़ी और सबके बाद में वे भी विमान पर आए ।

सबके आ जाने के बाद कुबेर का वह पुष्पक विमान आकाश में तीव्र गति से उड़ चला । श्रीराम ने सीता जी को वे सभी स्थान दिखाए जहां-जहां होकर वे यहा तक आए थे । समुद्र पर बांधे गए सेतु को देखकर तो सीता जी अभिभूत हो उठीं । किष्किंधा नगरी के आने पर सीता जी ने प्रभु से कहा, ”स्वामी ।

मेरी इच्छा है कि मैं वानरेन्द्र की पत्नी तारा को भी अपने साथ अयोध्या ले चलूं ।” श्रीराम के संकेत पर विभीषण ने विमान को किष्किंधा नगरी के निकट उतारा । वहाँ सभी ने उनका आदर-सत्कार किया, पर प्रभु नगर में नहीं गए । वहा से सुग्रीव ने तारा और अपनी अन्य रानियों को अपने साथ लिया और विमान पर आ गए ।

सीता जी ने तारा को स्नेहपूर्वक अपनी बांहों में ले लिया । तभी हनुमान जी ने प्रभु से प्रार्थना की कि वे एक बार अपनी माता अजना के दर्शन करना चाहते हैं, जो इन दिनों एकांत साधना में अपना जीवन बिता रही हैं ।

प्रभु श्रीराम ने प्रिय हनुमान की बात मान ली और स्वय भी विमान से उतरते हुए बोले, ”हे पवनपुत्र हनुमान ! मैं स्वयं भी उस महादेवी के दर्शन करना चाहता हू जिसने तुम जैसे महावीर को जन्म दिया है । क्या मुझे अपने साथ नहीं ले चलोगे ?”

हनुमान की आखों से तो अश्रु प्रवाहित होने लगे । उन्होंने आगे बढ़कर प्रभु के दोनों हाथों को अपने माथे से लगा लिया और बोले, “मेरा अहोभाग्य प्रभु ! जो आप माता-दर्शन के लिए मेरे साथ चलेंगे ।”

हनुमान द्वारा जननी अंजना के दर्शन:

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प्रभु श्रीराम हनुमान जी के साथ चलने लगे तो सीता जी लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण भी उनके साथ हो लिए । पास में ही कंचनगिरि की तलहटी में देवी अजना का आश्रम था, जहां एकांत में वे तपस्यारत रहती थीं । वे एकांतप्रिय थीं ।

प्रभु और पुत्र के दर्शन करके उन्हें अत्यधिक आनद प्राप्त हुआ । अपने पुत्र से वे बहुत दिनों बाद मिली थीं । इसलिए स्नेह से उन्होंने हनुमान के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ”पुत्र ! तूने आज मेरे पूरे जीवन को पवित्र कर दिया । मेरा जीवन धन्य हो गया ।”

अंजना ने सभी को फलाहार देकर उनका स्वागत किया और प्रभु के आग्रह करने पर भी उन्होंने अयोध्या जाने से मना कर दिया । अंजना प्रभु के चरण स्पर्श करना चाहती थी. पर श्रीराम ने उन्हें रोककर स्वयं उनके चरण स्पर्श किए और कहा, ”माते ! जिस माता न्ए हनुमान जैसे वीर पुत्र को जन्म दिया हो, उसके चरण तो मुझे स्पर्श करने चाहिए ।”

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माता अंजना ने स्नेहपूर्वक श्रीराम और सीता को आशीष दिया और मन ही मन सोचा कि जिस प्रभु की पूजा-अर्चना अखिल विश्व करता है, आज उसका पुत्र उन्हें उमके द्वार पर ले आया है । उसको आज अपने भाग्य पर हर्ष हुआ और उसकी आखों से प्रेमाश्रु ओं की झड़ी लग गई ।

वे बोलीं, ”यह मेरा अहोभाग्य है कि मुझे हनुमान जैसा पुत्र प्राप्त हुआ है । वाम्नव में मैं यथार्थ में पुत्रवती हूँ । मेरे पुत्र हनुमान ने प्रभु श्रीराम के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया टेप और उन प्रभु को आज वह मेरे द्वार पर लेकर आया है, इससे बड़ा सौभाग्य और सम्मान मेरा और क्या होगा ? अब तो मैं सभी की माता हूं ।”

हनुमान ने कहा, ”मां ! मैंने तेरी कोख से जन्म लिया है । मैं तेरा कभी उऋण नहीं हो सकता ।”  अंजना ने उत्तर दिया, ”पुत्र ! ऐसा नहीं कहते । आज तूने मेरे मां होने के ऋण को उतार दिया है । तेरे कारण ही आज मेरा जीवन भी तर गया है ।

परंतु मुझे इस बात का भी दुख है कि तूने मेरी कोख से जन्म लेकर भी, प्रभु को उस दुष्ट रावण से युद्ध करने दिया । क्या तेरा बल-विक्रम उस दुष्ट रावण से कम था ? मुझे ऐसा लगता है कि तूने मेरे दूध को निरर्थक कर दिया । तूने मेरे दूध को लज्जित कर दिया । धिक्कार है तुझे ।”

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एकाएक अँजना के चेहरे पर उतर आए क्रोध को देखकर सभी अचंभित रह गए । हनुमान भी अपनी मां के तमतमाए चेहरे की ओर देखने लगे कि एकाएक मां को क्या हो गया । परंतु प्रभु श्रीराम मंद-मंद मुस्कराते रहे ।

हनुमान ने हाथ जोड़कर अपनी माता से कहा, “मां ! यह तू क्या कह रही है ? मैंने तेरे दूध को लज्जित नहीं किया है और न मैं कभी ऐसा सोच ही सकता हू । यदि मैं स्वाधीन होता तो मैं रावण और उसकी लंका को अकेला ही पीस डालता ।

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राक्षसों को मच्छरों की भांति मसल डालता । माता जानकी को लका से लाकर प्रभु के चरणों में ले आता । परंतु जाम्बवंत जी ने मुझे आदेश दिया था कि मुझे सीता माता का केवल पता लगाना है । ऐसी ही प्रभु की आज्ञा है । उनकी आज्ञा का उल्लघन मैं कैसे कर सकता था ?”

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हनुमान जी की बात सुनकर ऋक्षराज जाम्बवंत जी ने हनुमान की बात का समर्थन करते हुए कहा, ”माते हनुमान जी सत्य कह रहे हैं । आपके दूध के प्रताप से ही इन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया है । यदि ये अपनी मनमानी करते तो प्रभु की कीर्ति को अपयश पहुंचता और उनका यश कैसे फैलता ?”

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने जाम्यवान के वचनों का समर्थन किया और अंजना के क्रोध को शांत किया । उसके बाद जब उन्होंने वहां से चलने की आज्ञा मांगी तो अंजना ने कहा, “प्रभो ! आपके दर्शनों से मुझे सर्वस्व प्राप्त हो गया है ।

मेरी आपसे एक ही प्रार्थना है कि मेरे, पुत्र हनुमान को अपनी छत्र-छाया से कभी दूर न करना ।” श्रीराम ने मुस्कराकर कहा, ”ऐसा ही होगा माते हनुमान सदैव मेरे साथ रहेंगे । ” उसके बाद सभी अंजना से विदा लेकर विमान के पास पहुंचे और उसमें सवार होकर अयोध्या की ओर उड़ चले ।

आकाश में तीव्र गति से उड़ता हुआ पुष्पक विमान तीर्थराज प्रयाग के ऊपर से उड़ता हुआ त्रिवेणी के पास पहुंचा और वहां घूमकर संगम के निकट ही धरती पर उतर गया । वहां सभी ने प्रसन्न होकर संगम स्नान किया और प्रसाद ग्रहण किया ।

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