ईश्वर चंद्र विद्यासागर पर निबंध | Essay on Ishwar Chandra Vidyasagar in Hindi

1. प्रस्तावना:

विद्या के सागर तथा स्वावलम्बन के जीवन्त प्रतीक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अपने नाम के अनुरूप ही विलक्षण गुणों की मिसाल थे । एक सामान्य व्यक्ति भी अपने जीवनादर्शों से किस तरह महानता को प्राप्त करता है और दूसरों को भी ऐसा ही आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देता है, विद्यासागर का सम्पूर्ण जीवन हमें यही सीखाता है ।

2. जन्म परिचय:

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में वीरसिंह नामक गांव में सन् 1891 में एक अत्यन्त गरीब बंगाली परिवार में हुआ था । निर्धन परिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने अपने शिक्षा, संस्कार, सादगी, ईमानदारी, परिश्रम, दयालुता व स्वावलम्बन के ऐसे आदर्श प्राप्त किये, जिनके कारण वे अमर हो गये । जब वे गर्भावस्था में थे, तब उनकी माता पागल हो गयी थी । घर की आर्थिक तंगी के कारण माता का इलाज उनके पिता चाहकर भी नहीं कर पाये ।

एक दिन उनके पिता द्वार पर भिक्षा मांगने आये एक संन्यासी को देखकर यह कहकर रोने लगे कि उनके घर एक मुट्‌ठी अनाज भी भिक्षा में देने के लिए नहीं है । वे तो अपनी पागल पत्नी का इलाज भी इसी वजह से नहीं करा पा रहे हैं ।

संन्यासी ने हंसते हुए कहा- ”अरे बावले! तेरी पत्नी तो एक तेजस्वी बालक के गर्भ में आ जाने के कारण उसके तेज से पागल-सी हो गयी है । घबराने की कोई बात नहीं, सब कुछ ठीक हो जायेगा ।” हुआ भी ठीक वैसा ही, जैसा कि उस संन्यासी ने कहा था । तेजस्वी ईश्वरचन्द्र का जन्म होते ही माता की अवस्था सामान्य हो गयी ।

वे अपनी धार्मिक तथा दयालु विचारों वाली माता से रामायण, महाभारत, श्रवण की मातृभक्ति तथा वीर शिवा की कहानियां सुना करते थे । पांच वर्ष की अवस्था में गांव की पाठशाला में भरती होने के बाद उनकी बुद्धिमानी और सदचरित्रता से सभी अध्यापक अत्यन्त प्रभावित थे । कक्षा में यदि कोई लड़का कमजोर या असहाय होता, तो उसके पास स्वयं जाकर उसे पढ़ा देते और उसकी यथासम्भव सहायता करते ।

वे अपने पिता की कठोरता को भी उनका आशीर्वाद समझते थे । पढ़ाई के समय उनके पिता इतने कठोर हो जाया करते थे कि कई बार विद्यासागर की आखों में सरसों या मिट्टी का तेल भर दिया करते थे । कभी-कभी तो उनकी चोटी को रस्सी से बांधकर खूंटी में अटका दिया करते थे, ताकि विद्यासागर को पढ़ते समय नींद न आ जाये । यद्यपि पिता की कठोरता उन्हें कभी-कभी बहुत खटकती भी थी, किन्तु वे यह भी मानते थे कि इसी कठोरता के फलस्वरूप वे अपनी कक्षा में हमेशा अबल आते हैं ।

बाल्यावस्था में वे हकलाते थे, इस कारण अंग्रेज अध्यापक ने उन्हें दूसरी श्रेणी में पास किया । इस बात पर विद्यासागर इतना अधिक रोये कि उन्होंने कई दिनों तक ठीक से भोजन ग्रहण तक नहीं किया । स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उनके पिता घोर आर्थिक तंगी के बाद भी उन्हें कलकत्ता ले गये । अपने गांव से पैदल ही कलकत्ता पहुंचे ।

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इस गरीब पिता-पुत्र के पास पैसे तो थे नहीं, अत: कुछ दिन तंगहाली में गुजारे । बड़ी भागदौड़ के बाद पिता को दो रुपये महीने की नौकरी मिली । विद्यासागर की पढ़ाई शुरू हो गयी । पिताजी की मेहनत और ईमानदारी के कारण उनकी तनख्वाह दो रुपये से दस रुपये हो गयी । ईश्वरचन्द्र अब संस्कृत कॉलेज के विद्यार्थी थे । इसी बीच काम की तलाश कर वे पढ़ाई-लिखाई के साथ जो रुपये कमाने लगे, उसे अपनी मां को भेजने लगे ।

म्यूनिसिपेलिटी के लालटेन की रोशनी में पढ़ने के कारण तेल का खर्च बच जाता था । स्वयं ही भोजन बनाकर बर्तन साफ कर पढ़ाई करना उनकी नियति का एक अंग था । कॉलेज की पढ़ाई अबल दरजे में पास करने पर उनके अंग्रेज प्रिंसिपल ने स्वयं उनके ज्ञान की परीक्षा ली । इस बुद्धिमान् और होनहार छात्र का सम्मान करने का प्रस्ताव उन्होंने समिति के सामने रखा ।

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हजारों विद्यार्थियों और अध्यापकों की भीड़ में कॉलेज की ओर से उन्हें न केवल विद्यासागर की उपाधि दी गयी, वरन उनका एक चित्र भी कॉलेज के भवन में लगा दिया । 21 वर्ष की अवस्था में विद्यासागर की उपाधि मिलने के बाद कई संस्थाओं से उन्हें नौकरी का आमन्त्रण मिला, किन्तु अन्याय, बेईमानी और दबाव के बीच काम न कर सकने वाले विद्यासागर ने कई नौकरियों से इस्तीफा दे दिया ।

कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रिंसिपल विद्यासागर के इन गुणों से प्रभावित होकर उन्हें कॉलेज का प्रोफेसर बनाना चाहते थे । विद्यासागर ने अपने पहले आये हुए एक शास्त्री को पहले मौका देने की बात कहकर ईमानदारी का परिचय दिया । प्रिंसिपल साहब ने दोनों को ही प्रोफेसर बना दिया ।

इस कॉलेज के विद्यार्थियों में अनुशासन जैसी कोई चीज नहीं थी । विद्यार्थियों के साथ-साथ अध्यापक भी देरी से कॉलेज आते थे । दुर्भाग्य से उनके एक गुरु, जो वहां अध्यापक थे, वे सबसे देरी से आते थे । विद्यासागर ने एक रास्ता खोज निकाला ।

वे कॉलेज खुलने के पांच मिनट पहले ही पहुंच जाते और देरी से आने वाले अध्यापकों से हंसते हुए पूछते- ”क्यों आप अभी आये हैं?” गुरुजी से कुछ न कहते । अब तो उनके गुरुजी भी शिष्य की इस नीति को समझकर नियमित आने लगे ।

एक बार तो कक्षा के उद्दण्ड लड़कों द्वारा अध्यापकों का अपमान करने पर विद्यासागर ने सारी कक्षा को कॉलेज से बाहर निकाल दिया । सब यह सोचने लगे कि विद्यासागर को अब तो बाजार में तरकारी और गुड़ बेचकर गुजारा करना होगा, किन्तु अध्यापकों के मान-सम्मान व विद्यार्थियों की उद्दण्डता को लेकर समिति ने जब उनके विचार सुने, तो उन्होंने सारा मामला विद्यासागर पर छोड़ दिया । लड़कों को उनसे माफी मांगनी पड़ी ।

एक अंग्रेज अध्यापक को तो उन्होंने शिष्टाचार का ऐसा सबक सिखाया कि वे जिन्दगी-भर इसे न भूले । आई०सी०एस० की परीक्षा में परीक्षक बनने पर उनके पास नम्बर बढ़वाने की सिफारिशें आती थीं । उन्होंने उसे कभी स्वीकार नहीं किया ।

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विद्यासागर जितने दयालु व ईमानदार थे, उतने ही स्वाभिमानी भी थे । एक सज्जन को एक बार विद्यासागर के घर जाना था । विद्यासागर उन्हें लेने स्टेशन पहुंच गये । सज्जन ने उन्हें कुली समझकर अपना सामान उठाने को कहा । विद्यासागर उनका सामान उठाये चुपचाप चल दिये ।

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विद्यासागर के घर के पास पहुंचकर उन्होंने उन्हें इकन्नी देनी चाही । न लेने पर उनके ऊपर फेंक दी । विद्यासागर ने उसे ही अपना घर बताया, तो सज्जन ने कहा- ”विद्यासागर से कहो कि कोई उनसे मिलने आया है ।” ”कहिये! मैं ही विद्यासागर हूं ।” यह सुनते ही सज्जन उनके पैरों पर गिर पड़े ।

3. उपसंहार:

विद्यासागर ने अपने जीवन में गरीबों, दीन-दुखियों की कभी धन से, तो कभी तन से सेवा की । उनकी इस मानव सेवा की कई मिसालें हमारे सामने हैं, जिनसे यह साबित होता है कि विद्या व्यक्ति को विनय व विनम्रता प्रदान करती है ।

ईमानदारी, परिश्रम तथा स्वयं का काम स्वयं करने वाले इस विद्या के धनी व्यक्ति को सारा भारतवर्ष मानवता व ईश्वरीय गुणों का पर्याय मानता है । ऐसे देवतुल्य महामानव की मृत्यु सन् 1891 में हो गयी । विद्या के इस सागर ने अपने जीवनकाल में 52 ग्रन्धों की रचना भी की थी, जो उनके सच्चे विद्याप्रेमी होने का प्रमाण है ।

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