देवनामप्रिय-अशोक पर निबन्ध | Essay on Devanampriya Ashoka in Hindi

1. प्रस्तावना:

सम्राट अशोक भारत क्ला एक ऐसा शासक था, जिसने अपने राजनैतिक आदर्शों का जीवन-भर पालन किया । भारत के इतिहास में उसका नाम लब्धप्रतिष्ठित सम्राटों में अग्रगण्य है ।

वह एक महान् विजेता, महान् धर्मतत्ववेत्ता, राष्ट्रनिर्माता, आदर्शवादी, कला तथा साहित्य का महान् उन्नायक, भक्त एवं पश्चातापी महान् शासक था । अपने सुसंगठित, राजनैतिक शासन प्रबन्ध के कारण वह चक्रवर्ती सम्राट के रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है ।

अपनी धार्मिक नीति में धर्म सहिष्णुता, उदारता एवं लोकहित में किये गये कार्यों के कारण वह इतिहास का लोकप्रिय सम्राट था । एच०जी० वेल्स ने लिखा है- ”इतिहास के पृष्ठों को रंगीन बनाने वाले सहस्त्रों राजाओं के नाम के मध्य अशोक का नाम सर्वोपरि नक्षत्र के समान दैदीप्यमान रहेगा ।”

2. जीवन वृत्त एवं उपलब्धियां:

अशोक बिन्दुसार का पुत्र और चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र था । उसकी माता का नाम शुभ्रदांगी था । उसके सौतेले भाई का नाम सुसीम था, जो अशोक से बड़ा था । अन्य भाइयों में अशोक ही सबसे बड़ा था । उसके सगे भाई का नाम विगतशोक तथा छोटे भाई का नाम तिष्य था । राजा बिन्दुसार की 16 रानियां और उनसे 101 पुत्र थे ।

बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक शासक बना । जैन जनश्रुति के अनुसार-अशोक ने बिन्दुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध के शासन पर अधिकार कर लिया था । सिंहली जनश्रुति के अनुसार-अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर साम्राज्य प्राप्त किया । अशोक का वास्तविक राज्याभिषेक 269 ई० पू० हुआ ।

राज्याभिषेक से पहले अशोक उज्जैन का राज्यपाल था । अशोक की अनेक पत्नियां थीं । उनमें से एक विदिशा के एक श्रेष्ठि देव की कन्या महादेवी थी । वह शाक्य वंशीय थी । महेन्द्र और संघमित्रा इसी पत्नी से उत्पन्न हुए थे, जिन्होंने सिंहलद्वीप में बौद्ध धर्म के प्रचार में अशोक की सहायता की थी ।

अशोक की दूसरी पटरानी का नाम असन्धिमित्रा था । उसकी मृत्यु के 4 वर्षों बाद तिष्यरक्षिता अशोक की पटरानी बनी । अशोक का एक पुत्र कुणाल पद्मावती नामक पत्नी का पुत्र था । अशोक की अन्य पत्नी कालूवाकि से तिवर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । अशोक बचपन से अत्यन्त उद्दण्ड और कुरूप था । अपने पिता का कभी भी वह स्नेहभाजन नहीं बन सका । बिन्दुसार का समस्त स्नेह ज्येष्ठ एवं रूपवान पुत्र सुसीम पर था ।

बिन्दुसार ने सभी पुत्रों के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था की थी । अशोक अपने सभी भाइयों में योग्य, प्रतिभाशाली तथा महत्त्वाकांक्षी था । शासन तथा सैनिक शिक्षा में वह बहुत ही प्रवीण था । पिता के जीवनकाल में ही वह तक्षशिला और उज्जैन का शासक था । अशोक की योग्यता के कारण उसका भाई सुसीम उसके प्रति ईर्ष्या भाव रखा करता था । अशोक ने मन्त्री खल्लाटक को अपने पक्ष में कर लिया था; क्योंकि वह भी सुसीम का विरोधी था ।

खल्लाटक ने जब 500 अमात्यों के साथ तक्षशिला में विद्रोह करवां दिया, तब बिन्दुसार ने इसके दमन के लिए सुसीम को वहां भेजा । सुसीम की असफलता के बाद अशोक को वहां भेजा गया, किन्तु अशोक झूठी बीमारी का बहाना बनाकर पाटलिपुत्र में ही रमा रहा । इसी बीच अस्वस्थ बिन्दुसार की मृत्यु हो गयी ।

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मृत्यु के उपरान्त अमात्यों ने अशोक को सम्राट स्वीकार कर लिया और राधागुप्त को प्रधानमन्त्री बना दिया । पिता की मृत्यु और अशोक के सिंहासन प्राप्ति का समाचार पाकर सुसीम राजधानी आया, परन्तु अशोक द्वारा नियोजित अग्निगर्भा खाई में गिरने की वजह से उसकी मृत्यु हो गयी ।

अशोक द्वारा इतने भाइयों की हत्या की कथा सम्भवत: बौद्धों द्वारा यह बताने के लिए की गयी थी कि इतना निर्दयी और दुश्चरित्र व्यक्ति बौद्ध धर्म में आते ही चरित्रवान बन गया । अशोक ने राजसिंहासन की प्राप्ति के बाद कश्मीर और कलिंग पर विजय प्राप्त की । कलिंग राज्य नन्दकाल में मगध साम्राज्य का ही अंग था । कलिंग एक अत्यन्त शक्तिशाली राज्य था, जिसकी निरन्तर बढ़ती हुई शक्ति मौर्य साम्राज्य के लिए खतरा उत्पन्न कर रही थी ।

दूसरी तरफ दक्षिण के साथ सीधा सम्पर्क करने के लिए समुद्री और स्थल मार्ग में कलिंग ही एकमात्र बाधा बन रहा था । कलिंग राज्य के पास विशाल सेना थी, तथापि अपने शासनकाल के 13वें वर्ष में अशोक ने कुशल सैन्यशक्ति के द्वारा कलिंग पर अधिकार करने के लिए भीषण नरसंहार किया । इस भीषण हत्याकाण्ड में ढाई लाख से अधिक लोग मारे गये । महामारी फैलने के कारण बचे-खुचे लोग भी काल के गाल में समा गये ।

इस नरसंहार के बाद अशोक का हृदय पश्चाताप और आत्मग्लानि से इतना भर उठा कि उसने युद्ध न करने का संकल्प लिया और बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया । इस युद्ध ने अशोक के दृष्टिकोण, जीवन मूल्यों में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया था । हालांकि इस विजय के बाद अशोक के इस परिवर्तन ने उसकी प्रशासकीय क्षमता को इतना प्रभावित किया कि उसकी राजनैतिक शक्ति उत्तरोतर क्षीण होती चली गयी ।

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अशोक का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत तक, उत्तर में हिमालय पर्वत, पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण-पूर्व में कलिंग तक तथा दक्षिण में 13 अक्षांश तक फैला हुआ था । अशोक ने राज्याभिषेक के 8वें वर्ष में कलिंग विजय की थी तथा 9वें वर्ष में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया । इसके बाद उसने बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु धर्म-यात्राएं प्रारम्भ की । धार्मिक प्रदर्शन, धार्मिक उपदेश के साथ-साथ धर्म-विभाग की स्थापना की । अहिंसा का प्रचार करते हुए पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगवा दिया ।

पशुओं के लिए चिकित्सालय बनवाने वाला वह पहला सम्राट था । अशोक ने धर्म-विभाग की स्थापना की । दान-व्यवस्था, रोगी तथा दीन दुखियों के लिए कायम की । धर्म सम्बन्धी उपदेश अभिलेख तथा लिपियों में शिलाओं, गुफाओं तथा स्तम्भों पर अंकित करवाये । उसके 14 शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिपिबद्ध हैं, जो पाकिस्तान के शाहबाजगढ़ी एवं मानसहरा के अभिलेख हैं । उसकी लिपि खरोष्ठी है ।

अफगानिस्तान के अभिलेख आरमेइक लिपि में तथा कुछ लघु शिलालेख उसके व्यक्तिगत इतिहास तथा दयालुता के बारे में हैं । कहीं पर धार्मिक यात्राओं, घोषणाओं और आदेशों का वर्णन स्तम्भों और शिलालेखों पर मिलता है । अशोक ने अपने शासनकाल में तीसरी बौद्ध-संगीति पाटलिपुत्र बुलवाई थी । अशोक ने अपने शासनकाल के 10वें वर्ष में बोधगया की यात्रा की । 20वें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा करके उस ग्राम को करमुक्त कर दिया ।

प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए जिन आचार-विचारों को प्रस्तुत किया था, उसके अभिलेखों में उसे ”धम्म” कहा गया है । अशोक पहला शासक था, जिसने अभिलेखों के माध्यम से प्रजा को सम्बोधित किया । देश के विभिन्न भागों में अशोक ने बौद्ध भिक्षुणी व भिक्षुओं के लिए मठों का निर्माण करवाया । बौद्ध-ग्रन्थों की रचना पाली भाषा में की ।

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बौद्ध धर्म का प्रचार दूर-दूर के देशों में करने के लिए अशोक ने धर्म-विजय का आयोजन किया । उसने इसका प्रचार एशिया, यूरोप, अफ्रीका के द्वीपों के साथ-साथ भारत के भीतर तथा उसके सीमावर्ती देशों में किया । सिंहलद्वीप में बौद्ध धर्म की ध्वजा राजकुमार महेन्द्र तथा राजकुमारी संघमित्रा ने भिक्षु और भिक्षुणी के रूप में फहरायी ।

यहां के सम्राट देवनामप्रिय ने बौद्ध धर्म स्वीकारते हुए महाविहार बनवाया । अशोक ने जनहितार्थ अनेक कार्य किये, जिनमें-पक्की सड़कों का निर्माण, छायादार वृक्ष, विश्रामगृह, कुएं खुदवाए, दान-शालाएं खुलवायीं । पशु- वध पर रोक, आम, वट के वृक्षों के साथ-साथ जड़ी-बूटियों और ओषधियों के वृक्ष लगवाये ।

अशोक का शासन 5 प्रान्तीय इकाईयों में विभक्त था, जिसमें उत्तरापथ, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी । अवन्तिराष्ट्र, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी । कलिंगप्रांक, जिसकी राजधानी तोसली थी । दक्षिणापथ, जिसकी राजधानी सुवर्णगिरी थी ।

प्राशी {प्राची, अर्थात् पूर्वी प्रदेश}, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी । प्रान्तीय शासन गवर्नरों के अधीन होता था । अपने विशाल साम्राज्य हेतु उसने मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था भी संचालित की थी, जिसमें महामात्र, राजुक, पुलिस अन्य कर्मचारी होते थे ।

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उसने धर्म-महामात्रों तथा धर्मायुतों की नियुक्ति धर्मोपदेश, धर्म प्रचार हेतु की थी । उसके शासन का एक महत्वपूर्ण विभाग सेना विभाग था, जो 6 समितियों 5 विभागों के आधीन था । उसकी स्थायी सेना में पैदल, रथ, अश्व, हाथी, नौ सेना के साथ-साथ युद्ध सामग्री यातायात हेतु एक समिति हुआ करती थी ।

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सेनापति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था । सम्राट न्याय-प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी था । न्याय के लिए अनेक न्यायालय हुआ करते थे, जिसमें नीचे स्तर पर ग्राम न्यायालय, जहां ग्रामीणी तथा ग्राम वृद्ध निर्णय देकर अपराधियों से जुर्माना वसूलते थे ।

नगरीय स्तर पर नगराध्यक्ष हुआ करते थे । पाटलिपुत्र केन्द्रीय न्यायालय हुआ करता था । अशोक ने सोने, चांदी तथा तांबों के सिक्कों का प्रचलन करवाया था । अशोककालीन वास्तुकला और मूर्तिकला के उदाहरण कम मिलते हैं । अशोक ने स्तूप निर्माण को विशेष प्रोत्साहन दिया । उसने 84 हजार स्तूप बनवाये ।

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सांची और भरहुत के स्तूपों का निर्माण भी उसने ही करवाया । उस काल में स्तम्भों पर सिंह व बैल की आकृति के साथ-साथ चमकीली पॉलिश का काम देखने को मिलता है । स्तम्भ एक ही पत्थरों से निर्मित है, जिस पर इरानी और यूनानी कला का प्रभाव देखने को मिलता है । सारनाथ के स्तम्भ में धर्म-चक्र की कल्पना भारतीय है ।

3. उपसंहार:

अशोक का व्यक्तित्व मानवीय गुणों से युक्त, उदार, लोकहितकारी, धर्म सहिष्णु, कर्तव्यनिष्ठ, अहिंसावादी आदर्शों से युक्त था । महान् योद्धा व महान् विजेता होते हुए वह एक सहृदय सम्राट था । बौद्ध धर्म ग्रहण करते ही उसके साम्राज्य का पतन, प्रान्तीय गवर्नरों के अत्याचार, प्रजा के विद्रोह, उसकी अहिंसात्मक नीति, केन्द्रीय शासन के दुर्बल होने, निर्बल एवं अयोग्य उत्तराधिकारियों के होने, दरबारी षड्‌यन्त्रों के कारण होता चला गया । अशोक धर्म प्रचार में ही लगा रहा । इधर शकों का आक्रमण भी हुआ । 232 ई० पूर्व में अशोक की मृत्यु के बाद उसके पुत्र कुणाल ने 8 वर्ष बाद तक शासन किया ।

कुणाल के पश्चात् दशरथ ने 8 वर्ष तक शासन किया । दशरथ के पश्चात सम्प्रति, शालिशुक, देववर्मन व शतधनुष शासक हुए । उनके पश्चात् वृहद्रथ शासक बना, जो मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक था । बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर 184 ई० पू० में उसकी हत्या कर दी तथा राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया ।

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