पुरुषोत्तम दास दण्डन पर निबन्ध | Essay on Purushottam Das Tandon in Hindi

1. प्रस्तावना:

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन देशसेवा और मातृभाषा की सेवा में अभूतपूर्व कार्य करने वाले तथा सार्वजनिक सेवा के कार्यो में रुचि रखने वाले ऐसे भारतीय थे, जो सरलता, सादगी और सेवा की प्रतिमूर्ति थे । राजर्षिजी ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए जो कार्य किये, वह अमूल्य हैं ।

2. आरम्भिक जीवन:

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन का जन्म इलाहाबाद के एक साधारण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम सालिकराम था, जो एकाउन्टेण्ड जनरल के दफ्तर में नौकरी किया करते थे । परिस्थितियों से संघर्ष करना उन्होंने राजर्षि को बचपन से सिखाया था । अपने विद्यार्थी जीवन में टण्डनजी काफी बुद्धिमान् थे । खेलों में भी उनकी अच्छी रुचि थी ।

जब वे 10 वर्ष के थे, तब एक बार घूमते वक्त अंग्रेज लड़कों से उनकी कहासुनी हो गयी थी । उन्होंने उनको खूब पीटा, तो कुछ अंग्रेज लड़कों का झुण्ड उनके समर्थन में लड़ पड़ा । बस फिर क्या था, राजर्षि उनसे भिड़ गये । अंग्रेज लड़कों को वहां से भागना पड़ा ।

कॉलेज में जब वे क्रिकेट टीम के कप्तान तथा खेल सेक्रेटरी थे, तो खेल प्रतियोगिता के दौरान पुलिस की व्यवस्था करना उन्हें नागवार गुजरा; क्योंकि उनके साथ-साथ विद्यार्थी भी इसे अपनी अप्रतिष्ठा का विषय समझते थे ।

खेल के समय पुलिसवालों ने जब एक लड़के को धक्का देकर अपमानित किया, तो वे 300 विद्यार्थियों को साथ ले हड़ताल पर बैठ गये । हालांकि पुलिसवाले इससे घबरा गये थे किन्तु इस घटना के बाद उनको अपनी इस निडरता का खामियाजा भुगतना पड़ा कि उन्हें कॉलेज से ही बाहर निकाल दिया गया । यह उनके जातीय स्वाभिमान की कीमत थी, जो उन्हें चुकानी पड़ी ।

3. कार्य एवं उपलब्धियां:

राजर्षि देश सेवा एवं मातृभाषा सेवा के साथ-साथ समाज सेवा करके मानवता की सच्ची सेवा करना चाहते थे । देश सेवा का संकल्प लिये उन्होंने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन एवं मालवीयजी के प्रभाव से वकालत छोड़ दी । समाज सेवा के लिए किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता लेना वे पसन्द नहीं करते थे ।

एक बार की बात है । जब उन्हें लाल लाजपतराय के आर्थिक कष्ट का पता चला, तो वे लालाजी को अपने घर पर ले आये । साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन के दौरान लालाजी की मृत्यु के बाद 1928 में उन्होंने लोक सेवा मण्डल का पद इस शर्त पर स्वीकार किया कि वे मण्डल की सारी कमाई उसके ही सेवा कार्यों पर खर्च करेंगे । गांधीजी के कहने पर उन्होंने पद भार ग्रहण किया ।

सन् 1928 में ही उन्होंने किसान संगठन का कार्य संभाला, जो जमींदारी प्रथा के उन्मूलन एवं किसानों के हित से सम्बन्धित था । इसके साथ-साथ वे कांग्रेस संगठन के कार्यों को भी देखा करते थे । एक बार इन्हीं कार्यों के दौरान वे शिवप्रसाद गुप्त एवं नरेन्द्रदेव के साथ बस्ती गये, तो वहां के कलेक्टर ने उन पर निषेधाज्ञा लागू कर तीन सप्ताह के लिए जेल भेज दिया ।

नमक सत्याग्रह के दौरान भी उन्हें जेल की सजा भुगतनी पड़ी । सन् 1937 में जब उन्हें उ०प्र० कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, तो उन्होंने इस पद को इस शर्त पर स्वीकार किया कि वे अपना राजनैतिक कार्य बन्द नहीं करेंगे तथा सभी पार्टी के साथ समान व्यवहार करेंगे । यदि उनकी किसी कार्यप्रणाली पर कोई अविश्वास या असन्तोष व्यक्त करेगा, तो वे इससे त्यागपत्र दे देंगे । टण्डनजी की चारित्रिक दृढ़ता और उनकी ईमानदारी व त्यागवृत्ति के ऐसे बहुत-से उदाहरण मिलते हैं ।

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एक बार की बात है । उत्तरप्रदेश के अंग्रेज अफसर इलाहाबाद के गर्वनर हाउस की आलीशान कोठी में शानो-शौकत से रहते और महीनों गायब रहते । गवर्नर हाउस की कोठी के तालाबनुमा स्वीमिंग पुल में उनकी रंगरेलियों के लिए पानी भरा जाता था ।

गरमी के दिनों में नगरवासी पानी की किल्लत से त्राहि-त्राहि कर रहे थे, किन्तु स्वीमिंग पुल में पानी भरा जाना था । उन्होंने वहां के चेयरमेन पद पर रहते हुए पानी देने से बिलकुल मना कर दिया । इसी पर रहते हुए म्युनिसिपेल्टी के नल के टैक्स के हजारों रुपयों के बिल अंग्रेज अफसरों द्वारा न अदा करने पर उन्हें नोटिस दे दिया कि- ”एक सप्ताह के भीतर टैक्स नहीं भरा, तो उनकी फौजी छावनी स्थित मकान क्षेत्र में पानी देना बन्द कर देंगे ।”

लाख परेशानियों के बाद भी वे अपने इस निर्णय पर अटल रहे । अफसरों को आखिरकार टैक्स देना ही पड़ा । टण्डनजी साम्प्रदायिकता एवं देश विभाजन के सख्त खिलाफ रहे । उन्होंने मुस्लिम लीग द्वारा इसे प्रोत्साहन देने पर काफी विरोध जताया ।

4. हिन्दी के प्रति निष्ठा:

राजर्षि टण्डनजी स्वाधीन भारत में पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण के सख्त खिलाफ थे; क्योंकि वे भारतीय संस्कृति की महानता, उदारता एवं गौरव के सच्चे हिमायती थे । वे भारतीय संस्कृति के बुद्धिवादी दृष्टिकोण से असहमत थे; क्योंकि उनका मानना था कि जिस धर्म का निर्णय शास्त्र मात्र से किया जाता है, वह उचित नहीं है ।

वे वर्तमान शिक्षा पद्धति में भी शिक्षक, शिक्षार्थी का दृष्टिकोण प्राचीन आदर्शों पर मानते हुए प्राचीन भारतीय गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे । विद्यार्थियों में बढ़ती हुई भौतिक विलासिता से दुखी हो जाया करते थे ।

5. हिन्दी के लिए किये गये कार्य:

राजर्षि टण्डन मातृभाषा हिन्दी के अनन्य भक्त थे । वे बालकृष्ण भट्ट के हिन्दी प्रदीप तथा मालवीयजी के अभुदय में हिन्दी में बराबर लेख भेजा करते थे । बिहार के श्रेष्ठ साहित्यकार शिवपूजन सहाय ने लिखा है – ”टण्डनजी हिन्दी के लिए जिये और हिन्दी के लिए मरे । हिन्दी उनकी जिन्दगी की सांस थी, नेत्र की ज्योति थी, हिन्दी उनके मस्तिष्क की विचारधारा व चिन्तनधारा थी ।”

टण्डनजी ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अखिल हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की । नेहरूजी की उर्दू अंग्रेजी प्रयोग पर वे उनसे वाद-विवाद कर बैठे थे । वे संस्कृत भाषा पर जोर देते थे । सन् 1925 में उन्होंने अंग्रेजी की जगह हिन्दुस्तानी भाषा का प्रस्ताव कांग्रेस निर्धारण समिति के पास रखा था ।

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यद्यपि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी तथा मोतीलाल नेहरू के घोर विरोध के बाद भी यह प्रस्ताव पारित हो गया था, तथापि हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी भाषा के प्रति सबकी अरुचि देखकर विरोध स्वरूप उन्होंने त्यागपत्र दे डाला । हिन्दी भाषा के लिए सम्यूर्ण जीवन आन्दोलनरत रहे टण्डनजी राजनीति छोड़ हिन्दी के प्रचारक बन गये । संविधान सभा में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए उन्होंने काफी जोर दिया था ।

मद्रास में हिन्दी विरोध के बाद भी वे वहां प्रचार में लगे रहे । उन्होंने कई वैवाहिक परम्पराओं में वैदिक मन्त्रों का व्यावहारिक हिन्दी अनुवाद प्रयोग किया । इसके विरोधियों को उनका जवाब था कि भाषा तो विचार अभिव्यक्ति का माध्यम है ।

जिस भाषा को लोग पूरी तरह से नहीं समझ पाते, वह तोता रटन्त ही है । हिन्दी को राष्ट्रीय एकता का मूलमन्त्र मानने वाले टण्डनजी विनोबा भावे और महात्मा गांधी की तरह हिन्दी के लिए जीवन-भर समर्पित रहे । इसी के तहत उन्होंने कांग्रेस कार्यकारिणी से हमेशा के लिए इस्तीफा दे डाला ।

6. उपसंहार:

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हिन्दीसेवी, समाजसेवी टण्डनजी राजनीति में रहते हुए भी निर्लोभी रहे । ऋषियों की तरह जीवनशैली में त्यागवृत्ति के कारण उन्हें राजर्षि की पदवी दी गयी थी । वे अति संवेदनशील थे । एक बार बछड़े को गाय का दूध न मिलने की छटपटाहट देखकर उन्होंने दूध और घी के त्याग का संकल्प ले डाला ।

स्वदेशी इतने थे कि उन्होंने चीनी का त्यागकर जीवन- भर गुड़ या खाण्ड से ही काम चलाया । अपने घर में भी भोजन में शाकाहार, सादगी तथा आचरण में ईमानदारी पर सदा बल दिया । ऐसे निर्लोभी, भारतीय संस्कृति एवं हिन्दी के हितसाधक टण्डनजी का 1 जुलाई 1962 को देहावसान हो गया ।

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