स्वामी विवेकानंद का जीवन-दर्शन पर निबन्ध | Essay on Swami Vivekananda ‘s Life in Hindi!

वास्तव में, जब-जब आध्यात्मिक, धार्मिक मूल्यों का अधोपतन, चारित्रिक और नैतिक सिद्धांतों का हास हुआ है, महान् द्रष्टा, संत, समाज-सुधारक विचक्षण और आध्यात्मिकता के उद्‌बोधक निरंतर हिंदुस्तान में आविर्भूत होते रहे हैं ।

इतना ही नहीं, जनमानस की जीवन-पद्धति को शक्तिशाली बनाने, उसका पुनरुद्धार करने, आध्यात्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करने और सनातन धर्म के चिरंतन सिद्धांतों के प्रचार करने के निमित्त अपने मस्तिष्क तथा अपनी शक्ति को न्योछावर करते रहे हैं ।

उत्थान-पतन के दीर्घकालीन इतिहास में संभवत: हिंदुस्तान का इतना संकटपूर्ण समय कभी नहीं रहा, जितना कि उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध रहा था । अठारहवीं शताब्दी के मुसलिम आधिपत्य से उत्पीड़ित और उच्छेदित हिंदुस्तानी समाज और अन्य विदेशी मजहब ईसाइयत के तूफान में बहने लगा था ।

हिंदुस्तान अंग्रेजी साम्राज्य का कंगाल और दयनीय गुलाम बनकर रह गया था । अंग्रेजी शिक्षा के जादू से संज्ञाशून्य-सा हुआ हिंदुस्तान का तरुण वर्ग वेद उपनिषदों और पुराणों की तीव्र भर्त्सना करने लगा था और इन ग्रंथों को फूहड़ अंध-विश्वासों का भंडार, अंधी श्रद्धाओं का पुलिंदा, कूड़ा-कचरा तथा शब्दाडंबरपूर्ण दंत-कथाएँ समझने लगा था ।

उदात्त हिंदू धर्म में भी अनेक वीभत्स प्रथाएँ प्रचलित थीं । भोली-भाली जनता कतिपय धूर्त पुजारियों के व्यर्थ बकवास और सतही कर्मकांडों के सम्मुख नत-मस्तक थी । कुल मिलाकर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की आधारशिला चरमराकर टूटने की स्थिति में आ चुकी थी ।

संक्रमण की ऐसी स्थिति में बंगाल में अपनी समस्त आभा के साथ आध्यात्मिकता के एक देदीप्यमान सूर्य का उदय हुआ, जिसका नाम था- ‘स्वामी विवेकानंद’ । उस सूर्य ने चिरकालीन सुसुप्त जनता में जन-जागरण का शंख हूंका था, फलत: उद्‌भूत राष्ट्रोत्थान के युग का सूत्रपात हुआ ।

स्वामी विवेकानंद का जन्म १२ जनवरी, १८६३ को ख्यातिप्राप्त दत्त परिवार में हुआ था । पिता विश्वनाथ दत्त उच्च न्यायालय में वकील थे । वे संस्कृत, फारसी और कानून के विद्वान् थे । माता भुवनेश्वरी देवी धर्म-परायणा गृहिणी थी ।

बचपन में नरेंद्र दत्त के नाम से चर्चित विवेकानंद प्रशांत, प्रगतिशील, अत्यंत भावुक और धार्मिक विचारों के किशोर थे । नवोत्साह से परिपूरित नरेंद्र तीक्षा मेधा, सिंह-सदृश शरीर और तार्किक दृष्टिकोण वाले, अनीश्वरवादी युवा के रूप में विकसित होते गँए ।

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उनकी प्रज्ञा किसी भी तथ्य को बिना ठोस प्रमाण के स्वीकार ही नहीं करती थी । ईश्वर के अस्तित्व का प्रश्न उन्हें विकल करने लगा और में उसकी खोज में यहाँ-वहाँ भटकने लगे । उस अधीर युवक को तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक आदोलन ‘ब्रह्म समाज’ में शांति मिलने लगी, परंतु ‘ईश्वर के अस्तित्व के प्रश्न’ का वहाँ भी कोई संतोषजनक उत्तर न मिल पाया ।

उनके जीवन में उस समय एक मोड़ आया, जब एक दिन स्कॉटिश क्रिश्चियन कॉलेज के एक अध्यापक ने ‘दी एक्सकर्शन’ नामक कविता पढ़ाते हुए बताया कि प्रकृति के मुखर कवि विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता में वर्णित आनंदानुभूति तभी प्राप्त की जा सकती है, जब मन पवित्र हो और विक्षोभ उत्तेजना से मुक्त हो ।

उन्होंने यह भी बताया- मैं इस प्रकार के एक प्रज्ञापुरुष को जानता हूँ जिनको यह धन्य-स्थिति प्राप्त है और वे हैं- ‘दक्षिणेश्वर के रामकृष्ण परमहंस’ । हिंदुस्तान के इतिहास में युगांतकारी घटना तब घटी जब जिज्ञासु नरेंद्र, रामकृष्ण परमहंस के पास पहुँचे और उनसे पूछा, ”आपने परमेश्वर को देखा है ?”

रामकृष्ण परमहंस, जिनको ईश्वर की अनुकंपा से सिद्धि प्राप्ति हो चुकी थी, अतिशय सहजता के साथ मुसकराते हुए बोले ”हाँ-हाँ मैंने उसे वैसे ही हाड़-मांस के शरीर के रूप में देखा है, जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ ।” हिंदुस्तानी संस्कृति के शिखर रामकृष्ण परमहंस के इस स्वीकारात्मक उत्तर ने उस उत्साही तरुण की समस्त शंकाओं का समाधान कर दिया और यहीं से नरेंद्र की आध्यात्मिक साधना की यात्रा का एक ऐसा प्रशिक्षण आरंभ होता है, जिसके कारण वे पाश्चात्य जगत् में सनातन-धर्म का संदेश पहुँचाने के लिए रामकृष्ण के ‘उपकरण’  बने ।

इस महान् गुरु ने नरेंद्र को मानसिक असंतोष से निकालकर उसके आध्यात्मिक आनंद का मार्ग प्रशस्त किया । महासमाधि की अवस्था तक पहुँचने के पूर्व रामकृष्ण ने अपनी समस्त आत्मिक शक्तियों को नरेंद्र के अंदर प्रविष्ट करा दिया, ताकि वह महत्त कार्यों का संपादन कर सके और यहीं से नरेंद्र की परिणति ‘विवेकानंद’ के रूप में हो गई ।

गुरु के निधन से उत्पन्न आघात और पीड़ा पर नियंत्रण पाकर विवेकानंद ने अपने गुरु भाइयों को संयम और आध्यात्मपूर्ण जीवन-यापन करने के लिए प्रेरित किया । आदि शंकराचार्य के समान उन्होंने परिजक के रूप में भारत के उत्तर में अवस्थित दिव्य हिमालय से तीन महासागरों के समागम स्थल तथा माँ भारती के चरणकमल कन्याकुमारी के नैसर्गिक सौंदर्य को देखकर भाव-विभोर और तन्मय हो उठे ।

वहाँ के मुख्य पूजा स्थल ‘कुमारी देवी’ की प्रतिमा के सम्मुख आनंदातिरेक में वे साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में लेट जाते । एक दिन विवेकानंद सागर में लगभग २०० मीटर की दूरी पर खड़ी चट्‌टान तक तैरकर चले गए । वहीं पर वे सारी रात समाधिस्थ रहे । उन्होंने हिंदुस्तान के भूत, वर्तमान एवं भविष्य का मनन किया ।

उनकी कल्पना प्राचीन हिंदुस्तान के अद्‌भुत गौरव का विशाल चित्र लिये अपनी भव्यता के साथ प्रकट हुई । उसी समय उनके हृदय में लाखों भोले-भाले हिंदुस्तानियों की वेदना और कष्टों का दृश्य साक्षात् हो आया । द्रष्टा की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि से वे इस तथ्य को देखने में सफल हो गए कि हिंदुस्तान गरिमा के शिखर से पतन के गर्त में क्योंकर आ गिरा ।

इस शुभ स्थान पर उन्हें अपने जीवन-उद्‌देश्य की अनुभूति हुई कि मेरा मुख्य उद्‌देश्य है: ‘वेदांत’ का दुनिया के कोने-कोने में प्रचार-प्रसार करना । इस बोध ने एक संन्यासी को एक ऐसे महान् दार्शनिक के रूप में बदल दिया जो दुनिया में बहुत कम ही पैदा होते हैं ।

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राष्ट्र-निर्माता ‘हिंदू धर्म’ के महान् प्रचारक और हिंदुस्तान के चिंतक तथा आध्यात्मिक चेतना-प्रहरी के रूप में उनका जीवन प्रारंभ हो गया । इस दिव्य स्थान पर उनका भव्य स्मारक उस ‘आध्यात्मिक शक्ति’ और ‘अपराजेय आस्था’ का दार्शनिक प्रतीक बन गया, जिसका ‘स्वामी विवेकानंद’ के रूप में मानवीकरण हो गया है ।

स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी से मद्रास आए और अपने अनुयायियों तथा मित्रों के आग्रह पर सितंबर, सन् १८९३ में शिकागो (अमेरिका) में आयोजित ‘सर्वधर्म सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए अमेरिका रवाना हो गए । हिंदुस्तान के इतिहास में वह एक अविस्मरणीय घटना थी, जब उन्होंने श्रोताओं के समक्ष हिंदुस्तान की महिमा और वेदांत की महत्ता का वर्णन किया ।

हिंदुस्तान का सम्मान सागर की गहराइयों से उठकर हिमालय की ऊँचाइयों तक उन्नत हो गया । उस सम्मेलन में जब उन्होंने में अपनी बकता से पूर्व ‘My Dear Brothers and Sisters !’ का संबोधन किया तब धर्मसभा में बैठे अपार विद्वान् समूह ने करतल ध्वनि से उनका हार्दिक अभिनंदन किया ।

उनकेप्रभावी व्यक्तित्व:

स्वस्थ शरीर, अनुनादित वाणी और ओजमय बार-धारा ने उपस्थित सभ्यजनों को मंत्रमुग्ध कर दिया । अमेरिका का भ्रमण कर उन्होंने हिंदू-धर्म के विविध पहलुओं को उजागर किया । रोमा-रोलाँ ने उन्हें ‘मंच-महारथी’ का सम्मान देकर आदर प्रकट किया ।

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उन्होंने स्वामी विवेकानंद को ‘दैविक अधिकार से वक्ता, अपनी जाति का आदर्श प्रतिनिधि, अंग्रेजी भाषा का पूर्ण ज्ञाता और धर्म सम्मेलन का चमत्कार’ कहकर पुकारा । स्वामी विवेकानंद ने यूरोप का भी भ्रमण कर पाश्चात्य-संसार में ‘वेदांत’ को लोकप्रिय बनाया । उनके द्वारा हिंदू-धर्म की सर्वमान्य व्याख्या से प्रभावित होकर एक आयरिश कन्या ‘मार्गरेट नोबल’ उनकी शिष्या बन गई, जो बाद में ‘भगिनी निवेदिता’ के रूप में प्रतिष्ठित हुई ।

सन् १८९६ में हिंदुस्तान की वापसी पर विवेकानंद ने अपने-आपको जड़ता और भाव-शून्यता में डूबी जनता को जगाने के लिए समर्पित कर दिया । वह तेजस्वी साधु हिंदुस्तानियों में व्याप्त सर्वथा अज्ञान, महान् दरिद्रता, अंध-विश्वासों और अन्य सहस्रों प्रकार की सामाजिक कुटिलताओं को देख तड़प उठे ।

उन्होंने सभी हिंदुस्तानियों से अज्ञानी हिंदुस्तानियों, अकिंचन हिंदुस्तानियों और अछूत हिंदुस्तानियों को भी अपने सगे भाइयों के समान समझने का अनुरोध किया । आध्यात्मिकता के समर्थक होते हुए भी, उन्होंने अनुभव किया कि बिना भौतिक प्रगति किए हिंदुस्तान शक्ति के चरम बिंदु पर नहीं पहुँच सकता ।

स्वामी विवेकानंद का धर्म शक्ति और विश्वास का धर्म है । उन्होंने दुर्बलता को ‘मृत्यु’ और ‘शाश्वत जीवन’ की संज्ञा दी है । भारत की युवाशक्ति को, लोहे की मांसपेशियाँ फौलाद की नसें और भीमकाय इच्छाशक्ति, जिसको कोई रोक न सके- के रूप में विकास करने का आह्वान किया ।

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उन्होंने अंग-अंग में शक्ति-अवयव संपूरित करते हुए कहा था, ”देश को योद्धाओं की आवश्यकता है : योद्धा बनो ! चट्‌टान की भाति डट जाओ । हिंदुस्तान को चाहिए कि एक विद्युतोत्पन्न ज्वाला, जो राष्ट्र की नसों में नवचेतना फूँक दे !”

स्वामी विवेकानंद बाह्य संस्कार-युग के विरुद्ध एक तीव्र प्रतिवाद के रूप में खड़े थे । कौन कहेगा कि इस प्रतिवाद की आवश्यकता नहीं थी, जिसका प्रतिवाद किया जाता है, उसके संबंध में व्यक्ति विशेष रूप से सचेत रहता है ।

इस दृष्टि से ब्रह्म-युग के संबंध में विवेकानंद विशेष रूप से सतर्क थे, इसलिए एक ओर राजा राममोहन राय, विद्यासागर और केशवचंद्र सेन के संस्कार का प्रभाव तथा प्रतिकार, जिस प्रकार उनमें देखा गया, उसी प्रकार दूसरी ओर बंकिम और भूदेव की चिंतन-धारा भी साहित्य के द्वारा उनमें समाविष्ट हुई है, परंतु साथ ही सभी दृष्टियों से उनका व्यक्तित्व और स्वातब्द नितांत प्रखर रूप में विकसित हुआ, एक अनुपम भाष्कर अपनी दीप्ति से इतिहास को आलोकित कर गया ।

रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानंद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उनके समाधिस्थ होने के बाद स्वामी विवेकानंद ने अपने कुछ शिष्यों को एकत्र कर भातृ-भाव की आधारशिला पर संन्यासियों के संघ का निर्माण किया ।

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उनका यह संघ पहले वाराहनगर में था, फिर आलम बाजार में स्थानांतरित हुआ, तदुपरांत बेलूर पहुँचा । इन स्थानों को केंद्र बनाकर मठ के संन्यासी हिंदुस्तान के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करते रहे । २० जून, १८९९ को पुन: स्वामी विवेकानंद स्वामी तुरीयानंद और भगिनी निवेदिता को साथ लेकर विश्व-भ्रमण पर निकल पड़े । जुलाई में उन्होंने लंदन, न्यूयॉर्क तथा अन्यान्य स्थानों पर व्याख्यान दिए और वेदांत-केंद्र स्थापित किए ।

स्वामी विवेकानंद को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो चुका था, तभी उन्होंने कहा था, ”मेरी नौका उस शांत बंदरगाह के समीप पहुँच रही है, जहाँ से वह फिर कभी वापस नहीं आएगी ।” अंतिम प्रवास के रूप में उनका पड़ाव पेरिस रहा । पेरिस में आयोजित ‘धर्म इतिहास-सभा’ में भाग लेने के उपरांत १ अगस्त, १९०० को वे स्वदेश लौट आए ।

९ दिसंबर, १९०० को बेलूठ मठ में उनके अकस्मात् आगमन से उनके शिष्यों को सुखद आश्चर्य हुआ । बेलूर मठ की समस्त संपत्ति उन्होंने अपने गुरु भाइयों के नाम हस्तांतरित कर दी थी । ४ जुलाई, १९०२ को वे असाधारण रूप में पूर्वाह्न ८ से ११ बजे तक ध्यानमग्न रहे ।

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तृतीय प्रहर तक अपने गुरु,भाइयों और शिष्यों को अपनी योजनाओं से अवगत कराया । संध्याकाल अपने कक्ष में जाकर एक घंटा ध्यानस्थ रहे और लेटकर दो गहरे श्वास लेने के बाद चिर-शांति में लीन हो गए । यह बहुत ही कम लोग जानते हैं कि महान् दार्शनिक, मनीषी और देशभक्त स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने पाश्चात्य जगत् में हिंदू धर्म को लोकप्रिय बनाया; हिंदुस्तान के लब्ध-प्रतिष्ठ संत-कवि कबीर और गुरुनानक की कोटि के सर्वश्रेष्ठ कवि भी थे ।

यद्यपि उनकी रचित कविताएँ गीत और भक्ति के श्लोक संख्या में बहुत कम हैं तथापि वे अत्यंत प्रिय हैं । उनकी कविताएँ सीधे-सहज रूप में आध्यात्मिक परमानंद और रहस्यवादी अनुभूतियों की प्रवाह हैं । अत: यह कह पाना सचमुच कठिन है कि उनमें कौन सा पक्ष, ‘काव्य पक्ष’ अथवा ‘आध्यात्मिक पक्ष’ प्रबल है । लयबद्ध भाषा की चेतनशील शोभा और तेजस्विता के गुण ने उनकी कविताओं को और आकर्षक बनाया है । चूकि वे एक अवर्णनीय परमानंद और प्रशांत क्षणों में रची गई थीं ।

अत: उनकी कविताएँ सौंदर्यशास्त्र की तीव्रता और आध्यात्मिक उन्नति से भरी हुई हैं । उनकी अनेक कविताएँ जो अंग्रेजी में हैं, उनके पश्चिमात्य तथा हिंदुस्तान के अनुयायियों के नाम लिखे पत्रों के अंग हैं । स्वामी विवेकानंद ने संस्कृत-साहित्य के कुछ उत्कृष्ट श्लोकों का हिंदी में अनुवाद भी किया है । अनुवाद अत्यंत स्तरीय बन पड़ा है और हर तरह से मूल भावना के अनुरूप है ।

हिंदी-बंगाली में रचित उनकी कविताएँ प्रादेशिक भाषा-साहित्य की उज्जल रत्न हैं । स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित भक्तिगीत अथवा भजन रामकृष्ण मठों में संध्या के समय बड़े ही भक्ति-भाव के साथ गाए जाते हैं । जन्मत: दार्शनिक होने के नाते स्वामी विवेकानंद की कविताओं में वाचक के मन की भावनाओं को उत्तेजित करनेवाली विपुल दार्शनिक प्रेरणाएँ हैं । काव्य-साहित्य को विवेकानंद की प्रथम देन ‘ईश्वर के अन्वेषण में’ नामक कविता है ।

यह कविता प्राध्यापक जॉन हेनरी ह्वाइट के नाम लिखे पत्रों में पहली बार प्रकाशित हुई थी । यद्यपि विवेकानंद प्रकृति के आराधक नहीं थे, तथापि ईश्वरत्व की महत्ता को स्पष्ट करने के उद्‌देश्य से, प्रकृति के अलौकिक सौंदर्य का उन्होंने सविस्तार वर्णन किया है । उस पद्य के एक भाग में उनकी काव्य-प्रतिभा और कल्पना-शक्ति, चरम सीमा का स्पर्श कर चुकी है:

“चंद्रमा की शीतल किरणों प्रकाशमान नक्षत्र दिनकर का उज्ज्वल प्रकाश इन सबसे उसकी सुंदरता शक्ति की प्रतिच्छाया मात्र है ।” प्रशांत गंभीर प्रातःकाल, ढली संध्या दुग्ध फेन के समान उभरता असीम सागर नैसर्गिक सुषमा, पक्षियों का कलरव इन सब में मैं यही देखता हूँ

‘स्वाधीनों का गान’ शीर्षक कविता में स्वामी विवेकानंद ने सर्वसंग परित्याग की महत्ता बताई है । इस पद्य में उन्होंने भौतिक विश्व से मुक्त प्राणी द्वारा अनुभूत किए जानेवाले आध्यात्मिक आनंद का परिचय दिया है:

पृथ्वी शशि रवि से पहले धूमकेतुनक्षत्रों से भी पहले, कालोत्पत्ति के अत्यंत पहले मैं था, अब मैं हूँ आगे भी रहूँ

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‘समाप्त मेरी कहानी’ शीर्षक कविता में स्वामी विवेकानंद ने मानव जीवन की नश्वरता और उसके अनुभवों को स्पष्ट कर ‘मायावाद’ का समर्थन किया है । जुलाई १८९५ में विवेकानंद के द्वारा न्यूयॉर्क के सहस्र द्वीप उद्यानवन में बैठकर रचा गया गीत है- ‘संन्यासी का गीत’ ।

इसमें उन्होंने ‘सर्व-संग परित्याग’ के सिद्धांत का प्रभावी ढंग से प्रतिपादन किया है । विवेकानंद की काव्य-शक्ति का पूर्ण परिचय उनकी ‘टू दी अली वॉयलेट’ नामक कविता मे मिलता है । ‘जाग्रत् भारत को’ नामक कविता विवेकानंद के असीम देशप्रेम, स्वदेश के पुनरुत्थान में उनके अटूट विश्वास की प्रतीक है ।

‘प्रबुद्ध भारत’ को संबोधित कर उन्होंने जो काव्य रचा, उसका सार है- ‘भारत का अमरत्व’ । कश्मीर के क्षीरभवानी मंदिर में देवी की प्रेरणा पाकर उन्होंने ‘काली माता’ कविता की रचना की थो । ‘आशीर्वाद’ नामक कविता में विवेकानंद ने अपनी प्रियातिप्रिय शिष्या ‘भगिनी निवेदिता’ को मानसा आशीर्वाद दिया है । ‘मैन हैप्पी रिटर्न्स’ नामक पद्य में भी वही भावनाएं व्यक्त की हैं ।

बंगाली भाषा में स्वामीजी द्वारा रचित पद्य उनकी काव्य-प्रतिभा का ज्वलंत निदर्शन है । मधुर रूपकों, सुश्राव्य रस विविधाओं से युक्त उन पद्यों में से एक है- ‘घनश्याम नहीं नाचा’ । यह दैवयोग की बात है कि स्वामीजी बहुत ही अल्पकाल तक जीवित रहे ।

फिर उगता-उठता सूर्य वय की प्रौढ़ता की प्रतीक्षा नहीं करता और जनपथ को आलोकित करने का श्रेय तो उसे है ही । कलियों के अधरों पर लाली देकर और उपवन में गंध-हास संपूरित कर वह आगे बढ़ जाता है-नियति के अनंत पथ पर !