हिंदी नीतिवचन: हिंदी में शीर्ष 7 लोकप्रिय नीतिवचन

Here is a compilation of top seven popular Hindi proverbs for students of the class 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, and 12 as well as for teachers. Find popular Hindi proverbs especially written School Students and Teachers in Hindi Language.

हिंदी नीतिवचन: हिंदी में शीर्ष 7 लोकप्रिय नीतिवचन | 7 Popular Hindi Proverbs


Contents:

  1. साँच बराबर तप नहीं । There is no Tenacity like Truth in Hindi Language
  2. पराधीन सपनेहु सुख नाही पर अनुच्छेद |  Dependent People Never get Happiness in Hindi Language
  3. प्रथम सुख निरोगी काया पर अनुच्छेद | Disease-Free Body gives Happiness in Hindi Language
  4. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत पर अनुच्छेद |  Mind Inspires us to Win or Lose in Hindi Language
  5. बीति ताहि बिसारि दे | Forget the Past in Hindi Language in Hindi Language
  6. समरथ को नहिं दोष गुसाईं । Nothing can Stop Capability in Hindi Language
  7. पराधीन सपनेहु सुख नाही । No Happiness in Slavery in Hindi Language

1. साँच बराबर तप नहीं । There is no Tenacity like Truth in Hindi Language

यह सूक्ति निर्गुण भक्ति मार्गी कवि कबीरदास जी ने कही है कि सच्चाई से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है । इस सूक्ति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक है कि सच्चाई के समान या सच्चाई से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है तो कैसे और क्यों ?

सबसे पहले हमें सच्चाई का स्वरूप, अर्थ और प्रभाव को समझना होगा । सच्चाई का शब्दिक अर्थ है, सत्य का स्वरूप या सत्यता । सत्य का स्वरूप क्या है और क्या हो सकता है, यह भी विचारणीय है । सच्चाई शब्द या सच शब्द का उद्‌भव संस्कृत के ‘सत्’ शब्द से ल्यप प्रत्यय लगा देने से बना है ।

यह सत्य शब्द संस्कृत का शब्द ‘अस्ति’ अर्थ से है, जिसका अर्थ क्रिया से है । अस्ति क्रिया का अर्थ है होता है । इस क्रियार्थ को एक जिसका अर्थ प्रदान किया गया कि जो भूत, वर्तमान और भविष्य में भी रहे, बना रहे, वही सत्य है । सत्य का स्वरूप बहुत ही विस्तृत और महान होता है ।

सत्य के सच्चे स्वरूप का ज्ञान हमें तब हो सकता है जब हम असत्य का ज्ञान प्राप्त कर लें । असत्य से हमें क्या हानि होती है और असत्य हमारे लिए कितना निर्मम और दु:खद होता है । इसका बोध जब हमें भली-भाँति हो जायेगा तब हम सत्य की महानता का बोध स्वयं कर सकेंगे ।

गोस्वामी तुलसीदास ने इस संदर्भ में एक बहुत ही उच्चकोटि की सूक्ति प्रस्तुत की है:

नहिं असत्य सम पातक पूँजा । गिर सम होइ कि कोटिक गूँजा ।।

अर्थात् असत्य के समान कोई पापपूँज नहीं है और असत्य का पापपूँज पर्वत के समान करोड़ गुनी ध्वनि अर्थात् भयंकर नहीं हो सकता है । सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति सच्चरित्रवान होकर महान बनता है । वह सत्य को अपने जीवन का परमोद्‌देश्य मान लेता है और इसके लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ता है ।

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इसके लिए वह अपने प्राणों की बाजी लगाने में भी नहीं कतराता है । सत्य का आचरण करके व्यक्ति देवत्व की श्रेणी को प्राप्त कर लेता और अपने सत्कर्मों और आदर्शों से वह वन्दनीय और पूजनीय बन जाता है ।

कबीरदार ने सत्य का महत्त्वांकन करते हुए कहा था:

साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप । जाके हृदय साँच है, ताको हृदय आप ।।

अर्थात् सत्य के समान कोई तपस्या नहीं है और झूठ के समान कोई पाप नहीं है । जिसके हृदय में सत्य का वास है, उसी के हृदय में परमात्मा का निवास है । संसार में अनेकानेक महामानव ने सत्यानुसरण करके सत्य का महत्त्व सिद्ध किया है ।

राजा दशरथ ने अपने सत्य वचन के पालन के लिए ही प्राण-प्यारे राम को वनवास देने में तनिक भी देर नहीं लगाई और अपने प्राणों का त्याग यह कह कर सहज ही कर दिया था:

रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।।

राजा दशरथ से पूर्व सत्यवादी हरिश्चन्द्र ने सत्य का अनुसरण करते हुए अपने को डोम के हाथ तथा अपनी पत्नी और पुत्र को एक ब्राह्मण के हाथ बेंच करके घोरतम कष्ट और विपदाओं को सहने का पूरा प्रयास किया लेकिन इस ग्रहण किए हुए सत्यपथ से कभी भी कदम पीछे नहीं हटाया ।

इसी प्रकार से महाभारत काल में भी सत्य का पालन करने के लिए भीष्म पितामाह ने कभी भी अपनी सत्य-प्रतिज्ञाओं का निर्वाह करने में हिम्मत नहीं हारी । आधुनिक युग में महात्मा गांधी का सत्याग्रह सत्य को चरितार्थ करने में पूर्णत: सफल सिद्ध होता है । उनका सत्याग्रह आज भी कार्यशील है और प्रभावशाली भी है ।


2. पराधीन सपनेहु सुख नाही पर अनुच्छेद |  Dependent People Never get Happiness in Hindi Language

गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में कहा है: पराधीन तपनेहु सुख नाही । यह सत्य है कि पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख प्राप्त नहीं होता । पराधीन व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार कोई कार्य नहीं कर सकता । उसे अपनी इच्छा से जीवन व्यतीत करने की स्वतंत्रता नहीं होती ।

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उसके जीवन में प्रतिदिन सुबह पराधीनता से आरम्भ होती है और जाग्रत अवस्था में पल-पल उसे किसी के आदेश का पालन करना पड़ता है, बल्कि पराधीन व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार न तो सो सकता है, न ही जाग सकता है । जीवन में सुख-प्राप्ति के लिए स्वाधीनता आवश्यक है ।

वास्तव में सुख भोजन, वस्त्र-आभूषण अथवा जीवन के अन्य साधनों सुविधाओं में विद्यमान नहीं है । सुख-प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम विचारों की स्वतंत्रता आवश्यक है । इस संसार में व्यक्तियों की प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है । व्यक्तियों के विचारों में भी विभिन्नताएं होती हैं ।

किसी भी व्यक्ति को सर्वाधिक सुख का प्रकृति अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने से होती है । अपनी इच्छा अनुसार खान-पान से रहन-सहन से और अपने विचारों को प्रस्तुत करने से ही मनुष्य को सुख का अनुभव होता है ।

इस पृथ्वी पर मनुष्य ही नहीं, वरन् जीव-जन्तु, पशु-पक्षी भी स्वाधीन रहकर ही अधिक सुख का अनुभव करते हैं । एक जंगली हिंसक जानवर को यदि पिंजरे में कैद करके उसका मनपसंद मांसाहार नियमित रूप से दिया जाए, तब भी वह जीवन के प्रति निरुत्साहित ही रहेगा और उसकी वास्तविक शक्ति निरन्तर क्षीण होती रहेगी ।

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जंगली हिंसक जानवर की प्रकृति घने बन में स्वच्छंद विचरण करके अपने लिए स्वयं भोजन की व्यवस्था करने की होती है । उसे स्वयं अपने बल पर अपना शिकार करने में सुख प्राप्त होता है । जहाँ एक जंगली जानवर भी पराधीन रहकर सुख से वंचित हो जाता है, वहाँ विकसित मस्तिष्क के स्वामी मनुष्य के लिए तो पराधीनता मृत्यु से भी अधिक कष्टप्रद है ।

मनुष्य का विकसित मस्तिष्क छोटी-छोटी बातों में भी सुख की खोज करता है । उसके लिए सुख का अर्थ मनपसन्द जीवन-शैली है । परन्तु पराधीन व्यक्ति को कुछ भी मनपसन्द प्राप्त नहीं होता । गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ व्यक्ति एक पल का सुख नहीं भोग सकता । इसीलिए तुलसीदास ने कहा है कि पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख प्राप्त नहीं होता ।

बुद्धिमान व्यक्ति स्वाधीनता का मूल्य जानते हैं । अत: स्वाधीनता की रक्षा के लिए वे निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं । किसी भी देश की सीमा पर उस देश के सौनक चौबीस घंटे इसीलिए तैनात रहते हैं ताकि कोई शत्रु उनके देश को पराधीनता की बेड़ियों में न जकड़ सके ।

किसी भी देश के सैन्य-बल पर सर्वाधिक खर्च देश की सुरक्षा के लिए किया जाता है । पराधीनता से बचने के लिए लोग आदिकाल से अपने प्राण तक न्योछावर करते आ रहे हैं । ब्रिटिश साम्राज्य की पराधीनता से मुक्त होने के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अनेक बलिदान किए हैं ।

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स्वाधीनता के लिए हमारे देश के नौजवान घर-परिवार को भूलकर, धन-सम्पत्ति, नौकरी-रोजगार को त्यागकर जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहे । आज हम एक स्वाधीन देश के नागरिक होने का सुख भोग रहे हैं और अपनी इच्छा अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए स्वतंत्र हैं । परन्तु इस स्वाधीनता के लिए हमारे देश के हजारों लोगों ने अपनी कुर्बानी दी है ।

वास्तव में मनुष्य के समस्त सुख स्वाधीनता में विद्यमान् हैं । पराधीन व्यक्ति स्वत: ही समस्त सुखों से वंचित हो जाता है । स्पष्टत: पराधीन व्यक्ति जंजीर में जकड़े हुए एक जानवर के समान है जिसे अपने शासक के प्रत्येक आदेश का पालन करना पड़ता है । ऐसा व्यक्ति स्वप्न में भी सुख की कामना कैसे कर सकता है ?


3. प्रथम सुख निरोगी काया पर अनुच्छेद | Disease-Free Body gives Happiness in Hindi Language

इस पृथ्वी पर मनुष्य धर्म, कर्म, समाज-सेवा आदि विभिन्न कार्यो के द्वारा मानव-समाज को उन्नति के पथ पर आगे ले जाने में अपना सहयोग देता है, साथ ही निरन्तर प्रयत्नशील रहकर स्वयं अपने लिए भी सुख-सुविधाएँ धन-सम्पत्ति अर्जित करता है । परन्तु विभिन्न प्रकार की सुख-सुविधाएँ धन-सम्पत्ति ड़ोने पर भी यदि मनुष्य का शरीर रोगी है, तो उसके लिए सभी सुविधाएं व्यर्थ हैं ।

रोगी व्यक्ति मानव-समाज को अपना सहयोग ओने में असमर्थ होता है बल्कि उसे स्वयं अपने लिए भी अपना । विन बोझ प्रतीत होता है । इसीलिए कहा गया है: प्रथम सुख श्रोगी काया । निरोगी काया अर्थात स्वस्थ शरीर से ही मनुष्य कोई कार्य हरने में समर्थ होता है ।

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बाल्य-काल से ही मनुष्य को कार्यशील ।ना पड़ता है । एक स्वस्थ बालक ही खेल-कूद और शिक्षा में रुचि लेता है । बालक यदि अस्वस्थ होगा, तो न खेलने में उसे आनन्द आएगा, न ही वह पढ़ाई में रुचि लेगा । रोगी बालक को माता-पिता द्वारा प्रदान की गयी सभी सुविधाएँ व्यर्थ प्रतीत होंगी ।

युवावस्था में भी मनुष्य की यही दशा होगी । एक रोगी युवक गरु रूप से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता । शिक्षा के द्वारा ही सी युवक के लिए जीवन मैं सफलता के द्वार खुलते हैं । इसके लिए युवाओं को कठोर परिश्रम अवश्य करना पड़ता हए । परन्तु युवक कठोर परिश्रम करने में सक्षम नहीं होता, इसलिए पिछड़ जाता है ।

शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त भी विभिन्न क्षेत्रों में सफलता करने के लिए युवाओं को अथक परिश्रम करना पड़ता है । आज प्रतियोगिता के युग में किसी भी व्यक्ति के लिए सफलता सहज  नहीं रह गयी है । नौकरी हो या व्यवसाय, प्रत्येक क्षेत्र में निरंतर परिश्रम की आवश्यकता बढ़ गयी है और निरन्तर श्रम निरोगी व्यक्ति ही कर सकता है ।

रोगी व्यक्ति के लिए स्थापित व्यवसाय को भी आगे बढ़ाना सम्भव नहीं है । वास्तव में रोगी व्यक्ति निरन्तर शारीरिक कष्ट से आहत रहता जिसका उसके मन-मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । शारीरिक दु:ख भोग रहे व्यक्ति को न खाना-पीना अच्छा लगता है, न ही सैर-सपाटा करना ।

इसी प्रकार किसी कार्य में भी उसका मन नहीं लगता । रोगी व्यक्ति अपने शरीर को एक भार मान कर ढोने के लिए विवश होता है । उसे अपने शरीर से ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन से पूणा होने लगती है । ऐसे व्यक्ति को यदि समस्त सुविधाएँ धन-वैभव प्रदान कर दिया जाए, तो उसके लिए व्यर्थ ही होगा ।

धन-वैभव का उपभोग व्यक्ति स्वस्थ शरीर ही कर सकता है । रोगी व्यक्ति तो न सुख भोग सकता है न ही स्वादिष्ट भोजन-सुख । एक रोगी व्यक्ति स्वयं अपने लिए ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज के लिए व्यर्थ की वस्तु के समान होता है । वह न तो समाज-सेवा कर सकता है न ही देश-सेवा ।

रोगी व्यक्ति का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, जिस कारण उसके सगे-सम्बंधी उससे दूर होने लगते हैं । ऐसे व्यक्ति के नए सम्बन्ध भी उससे से नहीं बनते । सामाजिक गतिविधियों में सम्मिलित ओने के वह अयोग्य होता है । वास्तव में रोगी व्यक्ति चाहकर समाज एवं देश के लिए कुछ नहीं कर पाता ।

एक स्वस्थ शरीर ही जीवन के विभिन्न मंचों पर कार्य करने समर्थ हो सकता है । स्वस्थ शरीर के साथ ही मनुष्य उत्साह कर्मशील बन सकता है । स्वस्थ शरीर के साथ ही मनुष्य जीवन में बड़े-बड़े कारनामे और महान कार्य कर सकता है ।

अत: अपने शरीर के प्रति मनुष्य को विशेष सावधान रहना चाहिए । व्यायाम एवं स्वास्थ्यवर्धक खान-पान के द्वार मनुष्य स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकता है । किसी ने ठीक ही कहा है कि तंदरुस्ती हजार नियामत । पंक्ति तन्दरुरत है तो जीवन में संसर्ष करके सफलता के शिखर पर पहुँच सकता है ।

स्वस्थ व्यक्ति उपलब्ध साधनों का उत्साह उपभोग करके आनन्द का अनुभव प्राप्त कर सकता है । परन्तु रोगी व्यक्ति का जीवन कष्टों में ही व्यतीत होता है और किसी भी प्रकार की सुख-सुविधाएँ उसे आनन्द प्रदान करने में समर्थ होती हैं । अत: व्यक्ति स्वस्थ है, तो सुखी है ।


4. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत पर अनुच्छेद |  Mind Inspires Us to Win or Lose in Hindi Language

मनुष्य अपने जीवन से सम्बंधित सभी निर्णय अपने मन के आदेश पर लेता है । मन से ही मनुष्य को किसी कार्य को करने की प्रेरणा मिलती है । मन में दृढ़ संकल्प करके ही मनुष्य कठिन से कठिन कार्य को भी करने में सफलता प्राप्त करता है । इसी प्रकार मन के अस्थिर होने पर मनुष्य को प्रत्येक क्षेत्र में असफलता का मुँह देखना पड़ता है ।

जिस व्यक्ति का मन ही डाँवाँडोल हो, वह किसी भी कार्य को अंजाम देने में सफल नहीं होता । तात्पर्य यही है कि जिस व्यक्ति ने मन में जीत के लिए ठान लिया हो वह कठिन परिश्रम से भी नहीं घबराता और जीतकर ही रहता है जबकि मन से हार मानने वाले व्यक्ति की क्षमता क्षीण होने लगती है और सरल कार्य करने में भी वह सफल नहीं हो पाता ।

इसीलिए कहा गया है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत । जीवन में सफल होने के लिए मनुष्य को अपने मन को दृढ़ करना आवश्यक है । किसी भी क्षेत्र में सफलतों आसान नहीं हे । क्षेत्र में उन्नति के लिए मनुष्य को निरन्तर कठिन करना पड़ता है ।

प्राय: लोग संघर्ष से घबरा जाते हैं । एक बार असफल होने पर वे हतोत्साहित होकर बैठ जाते हैं । परिश्रम के अतिरिक्त सफलता अवसर पर मो निर्भर करती है । प्राय:  परिश्रम तो उचित अनुपात में होता है, परन्तु अनुकूल नहीं होता । ऐसी स्थिति में असफल होकर चुप बैठना नहीं है ।

मन में जीत का दृढ़ संकल्प लेने वाले व्यक्ति से हतोत्साहित नहीं होते, बल्कि पुन: प्रयास करते हैं । महाराज पृथ्वीराज चौहान से बारम्बार पराजित होने पर भी गोरी ने अपने मन में हार नहीं मानी और वह पृथ्वीराज चौहान की सेना पर हमला करता रहा ।

अंतत:  महम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान को पराजित करने में । उसने अपने मन की जीत को साकार करके दिखाया । वास्तव में मन को दृढ़ रखने वाला व्यक्ति ही वीर यौद्धा की पथ पर आगे बढ़ता रहता है । मन को काबू में व्यक्ति ही सामाजिक बुराइयों और अनेक अपराधों बचाए रखता है ।

जिस व्यक्ति का मन पर नियंत्रण वह काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मनुष्य के शत्रुओं से मात नहीं खाता और इसी कारण कभी कमजोर नहीं पड़ता । वास्तव में जिस व्यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण नहीं होता, वह काम, क्रोध, लोभ आदि में पड़कर पथभ्रष्ट हो जाता है और समाज में उसे सम्मान प्राप्त नहीं होता ।

मन को दृढ़ करने वाला व्यक्ति ही समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । अनेक सामाजिक बुराइयों, अपराधों में लिप्त व्यक्ति जन्म से बुरे नहीं होते । जीवन-संघर्ष में कुछ लोगों का अपने मन पर नियंत्रण कमजोर पड़ने लगता है और उन्हें निराशा घेरने लगती है ।

निराश व्यक्ति क्रोध अथवा लोभ में बुराइयों को अपना लेता है और अपराध करने में भी संकोच नहीं करता । इस प्रकार मन पर नियंत्रण खोने से मनुष्य जीवन में अपना सब कुछ हार जाता है, बल्कि उसे सजा भी भुगतनी पड़ती है ।

इस संसार में महान कार्य करने वाले व्यक्ति निरन्तर संघर्ष करते रहे । अपने मन को उन्होंने सदैव दृढ़ बनाए रखा और निराशा को कभी गले नहीं लगाया । ऐसा नहीं है कि महान कार्य करने वाले व्यक्तियों को पग-पग पर सफलता मिली हो ।

बल्कि उन्हें तो जीवन में पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । लेकिन कठिनाइयों से वे हतोत्साहित नहीं हुए । विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने अपने मन पर नियंत्रण बनाए रखा  और अपनी क्षमताओं को क्षीण नहीं होने दिया । महात्मा गाँधी ले भारत के स्वतंत्रता संग्राम में वर्षो तक संघर्ष करना पड़ा ।

बार-बार उन्हें ब्रिटिश शासकों के अत्याचारों का मुकाबला करना पड़ा । परन्तु महात्मा गाँधी ने अपना धैर्य नहीं खोया । उन्होंने अपने मन में भारत को स्वतंत्र  कराने का जो दृढ़ निश्चय किया था, उसे पूर्ण करके दिखाया । आज हम जिस आजादी का सुख भोग रहे हैं, वह महात्मा गाँधी के संघर्ष के बिना सम्भव थी ।

जीवन में ऐसे र्ही संघर्षशील व्यक्ति सफल होते हैं, जो सदैव अपने मन को नियंत्रण में रखते हैं । मन में जीत का दृढ़ निश्चय करने वाले व्यक्ति को अर्जुन की भाँति अपने लक्ष्य के  रूप में केवल मछली की आँख दिखाई देती है और वह व्यर्थ की बातों में अपना समय नष्ट नहीं करता । ऐसे ही व्यक्ति सफलता सुख भोग पाते हैं ।


5. बीति ताहि बिसारि दे | Forget the Past in Hindi Language

बीता हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता । मनुष्य को वर्तमान में जीवन व्यतीत करना पड़ता है और भविष्य के प्रति सचेत रहना पड़ता है । वर्तमान में निरन्तर परिश्रम करने से भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकता है । परन्तु किसी भी प्रकार प्रयत्न करने से वीते हुए कल के लिए न तो कुछ किया जा ता है न ही उसे वापस बुलाया जा सकता है ।

इसीलिए कवि ने संदेश दिया है: बीति ताहि बिसारि दे, आगे की सुध ले । बीते हुए समय को भूलकर भविष्य का उत्साह से स्वागत ही वृद्धिमत्ता है । गड़े मुर्दे उखाड़ने के समान बीते हुए समय  की यादों में रोते रहने वाले लोगों को कुछ प्राप्त नहीं होता ।  गड़े  हुए  मुर्दों की भाँति बीता हुआ समय भी निर्जीव होता है, जिसका कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता और वह मनुष्य के काम का नहीं होता ।

अतीत की यादों में खोए रहने वाले व्यक्ति मानसिक स्तर पर कमजोर हो जाते हैं । अतीत की यादें मधुर हों अथवा कड़वी, उन्हें छाती से लगाए रखने से दुःख ही हैं । अतीत की कड़वी यादें तो मनुष्य को आहत करती ही हैं, मधुर यादें भी उसे कष्ट ही पहुँचाती हैं कि बीता हुआ समय मनमोहक था, जब कि आज दुःख भोगने पड़ रहे है ।

बीते हुए समय की यादें मनुष्य को हीन भावना से ग्रस्त कर देती वह वर्तमान में अपने कर्म-पथ से विमुख हो जाता है । वास्तव में बीते हुए कल में जीने वाला व्यक्ति अपने वर्तमान के प्रति निरुत्साहित होकर स्वयं अपनी क्षमताओं को क्षीण करता है और अपने भविष्य को भी अंधकारमय बना लेता है ।

बीता हुआ समय अच्छा रहा हो या बुरा, उसे भूलकर को गले से लगाने वाले व्यक्ति ही अपने जीवन के साथ में सफल होते हैं । ऐसे व्यक्ति अतीत की असफलताओं लेकर वर्तमान को एक चुनौती मानकर निरन्तर रहते हैं । ऐसे व्यक्ति कभी भी अतीत की यादों को कर्म-पथ का रोड़ा नहीं बनने देते ।

वास्तव में सफलता लोगों को प्राप्त होती है । ‘बीति ताहि बिसारि दे’ का अर्थ कि यदि मनुष्य के अतीत में कुछ दुखद घटनाएँ रही हैं याद करके हतोत्साहित नहीं होना चोहिए, बल्कि अपना सुखद बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । वास्तव में अतीत से पूर्णत: पीछा भी नहीं छुड़ाया जा सकता ।

मानव-स्वभाव है कि वह चाहे-अनचाहे अतीत की यादों से वार्तालाप करने पर विवश हो जाता है । अतीत को याद करने में कोई बुराई भी नहीं है । परन्तु अतीत के घटनाओं से प्रेरणा लेने में ही बुद्धिमत्ता है । अतीत की अपनी गलतियों से शिक्षा लेकर, उन गलतियों को पुन: न दोहराने की ठानकर मनुष्य अतीत को जीवन के लिए उपयोगी बना सकता है ।

मनुष्य जीवन पर्यन्त नयी-नयी शिक्षा ग्रहण करता है । अतीत को केवल इतना ही महत्त्व देना चाहिए कि उससे जीवन के लिए उपयोगी शिक्षा ग्रहण की जा सके । जो चला गया, वह हमारा नहीं है । जो बीत गया, उससे एकतरफा सम्बन्ध बनाए रखना कभी लाभप्रद नहीं होता ।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अच्छी-बुरी घटनाएँ होती हैं । अतीत में यदि हमने कोई अपराध किया है, तो बारम्बार उसे याद करके हम दुःखी अवश्य हो सकते हैं परन्तु इस प्रकार हम समाज की कोई भलाई नहीं कर सकते । अपनी गलतियों को न दोहराना ही सकारात्मक निर्णय होगा और यह तभी सम्भव है, जब हम अतीत की यादों से मुक्त होकर बर्तमान में अपने कर्म-पथ पर डटे रहें ।

बीते हुए समय को बिसार कर ही हम आगे की सुध ले सकते हैं । वर्तमान में हम निरन्तर अथक परिश्रम करके ही अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं । इसके लिए हमें पूर्णतया संघर्ष के प्रति एकाग्रचित्त होने की आवश्यकता है । एकाग्रचित मनुष्य तभी हो सकता है, जब वह मानसिक स्तर पर विचलित करने वाली यादों से स्वयं को मुक्त करने में सफल होता है ।

वास्तव में बीते हुए समय की यादों से चिपके रहने वाले व्यक्ति संघर्ष करने में नाकाम रहता है । अतीत की यादें किंसी नशे के समान मनुष्य को अपनी गिरफ्त में जकड़े रहती हैं और वह तन-मन से कमजोर होकर बैठ जाता है ।

इस प्रकार अपने जीवन का नाश करना मूर्खता है । अत: दृढ़ निश्चय के साथ हमें अतीत की यादों से मुक्त होकर अपना जीवन-संघर्ष जारी रखना चाहिए । अपने जीवन के प्रति यह हमारा कर्तव्य भी है ।


6. समरथ को नहिं दोष गुसाईं । Nothing can Stop Capability

महाकवि तुलसीदास ने जिस बात को काव्यात्मक ढंग से कहा है, उसी को एक ग्रामीण मुहावरे में ”जिस की लाठी उसकी भैंस” के रूप में कहा जा सकता है । नि:संदेह बड़ी मछली छोटी मछली को खा कर बड़ी बनती है और बिचारी छोटी मछली उसका बिगाड़ भी क्या सकती है । युगों की चट्‌टानों पर यह कटु सत्य स्पष्ट अंकित है ।

इस कथन के साधारण अर्थ की अपेक्षा इसका गहरा अर्थ अधिक विचारणीय है । समर्थ, न केवल शारीरिक बल, बल्कि विद्या-बुद्धि और अर्थ बल का सामर्थ्य-भाव भी इसमें निहित है । राजनीति, समाज, उद्योग-व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में अनुभव सिद्ध बात है समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति अपनी अनुचित, असत्य और असंगत बात को भी मनवाने में समर्थ होता है ।

सम्पूर्ण विश्व का इतिहास इस तथ्य को चरितार्थ करता है । गुसाईं जी का युग तो इसका जीता-जागता प्रमाण कहा जा सकता है परन्तु उनका यह कथन मात्र उस समय की स्थितियों की विडम्बना को ही उजागर नहीं करता, वास्तव में कवि का अभिप्राय यह है कि असमर्थ और निर्बल बने रह कर अन्याय, शोषण और अपमान को सहते रहना मनुष्यता के नाम पर कलंक है ।

कवि वास्तव में कहना यह चाहता है कि हर स्तर पर हर व्यक्ति को अपने को समर्थ बनाने का हर सम्भव प्रयत्न करते रहना चाहिए अन्यथा सत्य, न्याय और नीति आदि शब्द मात्र ही रह जायेंगे । ‘तेजोयसां न दोषाय’ (जो तेजवान है उसमें कोई दोष नहीं होता) । पंचतंत्र में ही कहा गया है कि जो तेजस्वी है वही बलवान है ।

इन सब कथनों का सीधा सा अभिप्राय यही है कि जिसके पास शारीरिक बल है, वह समर्थ है, जिसके पास धन की शक्ति है, वह समर्थ है, जिसके पास बुद्धि है, वह समर्थ है और जिसके पास सत्ता तथा अधिकार है, वह समर्थ है । ऐसे लोगों के दोष भी गुण माने जाते हैं ।

‘सर्वे गुण:  काञ्चन माश्रयन्ते’ के अनुसार पैसे वाले को कोई क्या कह सकता है ? वह धर्म, न्याय सभी कुछ खरीद सकता है । जमींदार, सेठ-साहूकार, बड़े व्यापारी या उद्योगपति क्या नहीं कर लेते ? जब सरकार ही उनकी जेब में पड़ी रहती है तो साधारण आदमी की तो बात ही क्या ?

इसी प्रकार जिसके पास अधिकार और सत्ता है, वह तो कोई गलती कर ही नहीं सकता, उसके सामने अधीनस्थ या सही कहने वाला व्यक्ति ही दोषी और गलत होता है । उसकी राजनीति उसकी कुशलता है, करोड़ों का घोटाला करके भी वे दुनियाँ के सबसे बड़े ईमानदार हैं । उनकी कूटनीति के नाम से अलंकृत होते हैं ।

चरित्रहीनता उनका मनो विनोद कहलाता है । हजारों शिल्पियों के हाथ कटवा देने वाला शाहजहाँ संसार का महान प्रेमी और कला-मर्मज्ञ कहा जाता है । इसलिए गुसाईं जी (गोस्वामी तुलसीदास) ने ठीक ही कहा है कि सामर्थवान के दोष भी गुण ही माने जाते हैं, उनके कुकृत्य भी समाज के लिए कल्याणकारी कहे जाते हैं, उनका देशद्रोह भी देशभक्ति कहलाता है, क्योंकि वे समर्थ हैं ।


7. पराधीन सपनेहु सुख नाही । No Happiness in Slavery

पराधीनता, दूसरे का वशवर्ती होना, प्रत्येक क्षेत्र में किसी अन्य की इच्छा, प्रसन्नता और आज्ञा के अनुसार जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति का जीवन कदापि सुखमय नहीं हो सकता । पराधीनता व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो या राष्ट्रीय स्तर पर हो, सदा दु:खदायी और कष्टकारक होती है ।

पराधीनता की पहचान कराते हुए श्री वियोगीहरि ने लिखा है:

पर भाषा, पर भाव, पर भूषण, पर परिधान ।

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पराधीन, जन कीया है, यह पूरी पहचान ।।

जो व्यक्ति अपनी भाषा का प्रयोग न करके दूसरों की भाषा बोलता और लिखता है, अपनी भाषा के प्रयोग की स्वतंत्रता होते हुए भी दूसरों की भाषा के प्रयोग में गर्व अनुभव करता है, वह पराधीन है । जो व्यक्ति विचार और भाव के क्षेत्र में दूसरों का अनुसरण करता है, अपने स्वतंत्र चिन्तन से काम नहीं ले पाता, वह पराधीन है ।

इसी प्रकार वेश-भूषा आदि के क्षेत्र में जो दूसरों की नकल करता है, वह पराधीन है । ऐसे व्यक्ति को सुख नाम की चीज सपने में भी नहीं मिल सकती बल्कि सुख-सुविधाओं के स्वर्ग में रहकर भी वह नरक ही भोगता है ।

किसी कवि ने ठीक कहा है:

पराधीन जो जन, नहीं स्वर्ग नरक ता हेत ।

पराधीन जो जन नहीं, स्वर्ग नरक ता हेत ।।

‘हितोपदेश’ में कहा गया है कि ‘पराधीन को जीवित कहें तो मृत कौन है ? पराधीनता सिर पर लटकती तलवार है, यह जीवित मृत्यु है जो सदा साथ-साथ लगी रहती है और मनुष्य के जीवन का आनन्द सोख लेती है ।’ पराधीन प्रकृति के नियम के विरुद्ध है । पर्वत से निकलती जलधारा सब रुकावटों को तोड़कर लगातार आगे बढ़ती है, वायु का वेग किसी के रोके नहीं रुक सकता ।

प्रकाश की किरणों को कोई कब रोक पाया है ?  पक्षियों को सोने के पिंजरों में रखकर चाहे कितना ही अच्छा खाना क्यों न दिया जाए परन्तु क्या वे पिंजरे में बन्द रहना पसन्द करते हैं या एक बार उससे निकल दुबारा उसमें आ जाते हैं ? गीता में तो कामना या इच्छा की अधीनता को अशान्ति का कारण कहा गया है, इनके अधीन न रहने वाला व्यक्ति ही शान्ति पा सकता है:

”जो व्यक्ति समुर्ण कामनाओं को त्याग कर निस्पृह हो जाता है, ममता तथा अहंकार छोड़ देता है, वही शान्ति पाता है ।” निःसन्देह ‘पर’ में दु:ख है, कष्ट है, जीवन-मूल्यों की अवहेलना है, सुख-शान्ति का तिरोभाव है, पग-पग पर पीड़ा की प्रताड़ना है । पराधीन का विकास रुक जाता है । पराधीन व्यक्ति या राष्ट्र अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकता, अपनी ही सम्पत्ति साधनों का उपयोग अपने लिए नहीं कर सकता ।

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भारत ने पराधीनता का नरक भोगा है । हजारों वर्ष की पराधीनता का ही परिणाम है कि स्वतंत्र होकर भी मानसिक स्तर पर हम आज भी गुलाम हैं । हमारी सामाजिक कुप्रथाएं और आर्थिक समस्याएं तथा पिछड़ापन उसी गुलामी के परिचायक तथा पराधीनता के परिणाम हैं ।

महाकवि तुलसीदास ने तो ‘पराधीन सपनेहु सुख नाही’ की बात एक पारिवारिक प्रसंग में कही थी । पार्वती को ससुराल की निन्दा करते समय माता ने पुत्री को छाती से लगाते हुए कहा था:

कत विधि सृजीं नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ।

दूसरों के अधिकार या शासन में रहना पराधीनता होती है । जब पारिवारिक स्तर पर पराधीनता कष्टकारक और दु:खदायी है, तो सामाजिक और राष्ट्रीय पराधीनता की तो बात ही क्या ? इसलिए:

एक दिन भी जी, मगर तू ताज बन कर जी !


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