भारत में बालश्रम की समस्या पर निबन्ध | Essay on The Problem of Child Labor in India in Hindi!

प्रस्तावना:

देश एवं राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य के निर्माता उस देश के बच्चे होते हैं । अत: राष्ट्र, देश एवं समाज का भी दायित्व होता है कि अपनी धरोहर की अमूल्य निधि को सहेज कर रखा जाये ।

इसके लिये आवश्यक है कि बच्चों की शिक्षा, लालन-पालन, शारीरिक, मानसिक विकास, समुचित सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाये और यह उत्तरदायित्व राष्ट्र होता है, समाज का होता है, परन्तु यह एक बहुत बड़ी त्रासदी है कि भारत देश में ही अपितु समूचे विश्व में बालश्रम की समस्या विकट रूप में उभर कर आ रही है ।

चिन्तनात्मक विकास:

बालश्रम की समस्या से आज देश ही नहीं अपितु विश्व के अधिक देश ग्रस्त हैं । बालश्रम की समस्या का मूल कारण गरीबी एवं जनसंख्या वृद्धि होती है च इस दृष्टि से भारत इन दोनों समस्याओं से ग्रसित है । सभी बच्चों को अपने परिवार के सद का पेट भरने हेतु कमरतोड़ मेहनत वाले कार्यो मे झोंक दिया जाता है, जबकि उनका को शरीर और कच्ची उम्र उन कार्यो के अनुकूल नहीं होती ।

उनकी उग्र खेलने-कूदने और पकी होती है, किन्तु खतरनाक उद्योगों या कार्यो में जबरन लगा देने के कारण ऐसे बच्चे, बनने से पूर्व ही मुरझा जाते हैं । गंभीर चोट, जलने या खांसी, दमा, टी.बी जैसी अनीग् बीमारियों का शिकार होकर दम तोड़ देते हैं या फिर जिंदा लाश बनकर मौत का इन्त करते रहते हैं ।

विगत कुछ वर्षो से देश-विदेश में बालश्रम पर रोक लगाने हेतु अनेक किये जा रहे हैं । भारत में अनेक संगठनों द्वारा एथ उच्चतम न्यायालय द्वारा अनेक महल फैसले लिये गये हैं । अनेक विदेशी संगठनों द्वारा भी इस ओर अनेक प्रयास किये जा हैं । इन सब प्रयासों के बावजूद भी समस्या वैसी की वैसी बनी हुई है, बल्कि परिस्थि । और भयावह होती जा रही हैं ।

अत: इस और सार्थक एवं कड़े प्रयास अत्यन्त आवश्यक उपसंहार: बाल मजदूरी को रोकने हेतु संविधान बनने से लेकर आज तक समय पर योजनाएं बनती रही हैं । राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में इनके मानवाधिकारों की ब के लिए कई घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन वे सभी कागजी कार्यवाही के स्तर पर हइ जाती हैं ।

प्रश्न यह उठता है कि विभिन्न संगठनों द्वारा, उच्चतम न्यायालय द्वारा किये प्रयास सफल होगे या नहीं, फिर भी इस समस्या को कम करने में शिक्षा का प्रसार, उद्योग के संगठित क्षेत्र को प्रोत्साहन, सार्वजनिक दबाव, गरीबी एवं जनसंख्या नियन्त्रण एवं इस में निर्मित कानूनों को दृढ़ता से लागू करना सहायक हो सकता है ।

”जिस देश के बच्चों का कोई भविष्य नहीं होता, उस देश का भी अपना कोई य नहीं होता ।” उपरोक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि बाल मजदूरी या बालश्रम किसी भी देश के लिए आr कही जा सकती है । यह एक सामाजिक बुराई है क्योंकि इससे न केवल बालकों का मार व शारीरिक विकास बाधित होता है बल्कि समूचे देश की प्रगति भी एकांगी हो जाती है ।

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कानूनी प्रावधानों से इस सामाजिक समस्या से आखें नहीं छी जा सकती, क्योंकि यह अपने में कोई अलग मसला नहीं, अन्य समस्याओं से पैदा हुई समस्या हे । बालश्रम एक अत्यन्त र समस्या है । यह समूचे समाज में अपनी जड़ें मजबूत किये हुये है । अन्तत: यह भयंकर महामारी के रूप में उभर रही है और निदान रहित होती जा रही है । देश में बाल श्रमिकों की स्थिति दयर्न है ।

इन बच्चों के हिस्से में सूरज की रोशनी नहीं है । इनके दिन भी रातो की तरह स्याह वे बंद जगह में 15-16 घंटे काम करते हैं और फिर उन्हीं अंधेरी कोठरियो में सो जाते हैं । स को उन्हें बस सूखी रोटियां मिलती है । उनके लिए चंदा मामा नहीं हैं ।

पेड़, पौधे, तितलियों भी उन्हें कोई वास्ता नहीं । उनका वास्ता तो बस मालिक से है । एक की तरह क्रूर का आतंक है । यह भय तो अब बच्चों की नींद में भी उतर गया है । जब दूसरे बच्चे सपने देख रहे होते हैं ये जाग जाते हैं । इनकी अनथक परिश्रम करने दिनचर्या शुरू हो जाती है, जो फिर देर रात तक जारी रहती है ।

जिस उम्र में बच्चे कि कहानियां सुनते है उसमें ये मालिक की गालियां सुनते हैं । इनकी सूनी आखे और सहमे देखकर ही अहसास हो जाता है कि इनका जीवन कितना कठोर है । इनके हिस्से में स्कूल, स्लेट, कलम, किताबे, लाड-दुलार, खेलकूद कुछ नहीं है । इनका जीवन तो लगातार काम, गालियां पिटाई खाना ही है ।

5-6 साल की उम्र से लेकर 14-15 साल तक की उस के बच्चे गरीब होने का खमि भुगत रहे हैं । इन्हे दलाल दूरदराज के गावो से सब्जबाग दिखाकर कारखानों तक ले जा कई जगह मां-बाप द्वारा लिया कर्जा चुकाने के लिए बच्चे मजदूर बनते हैं ।

बच्चे अपहृत भी लाये जाते हैं । बच्चों के काम करे बिना गरीब परिवारों का गुजारा नहीं होता । पांच स होते-होते ये बच्चे कमाऊ पूत बन जाते हैं । इनके लिए गांव में रोजगार नहीं बचे । घरेलू व उद्योग नष्ट हो गये हैं । बच्चों के सामने अमानवीय स्थितियों मे काम करने के अलावा कोई ही नहीं रह गया ।

गांव से हर साल हजारों बेरोजगार बच्चे काम की तलाश मे निकलते हैं । आजादी; हमने जिस तरह की विकास नीति अपनायी है, उसने गांव के आर्थिक, सामाजिक, ढांचे को नहस कर दिया है । बड़ी-बड़ी परियोजनाओ के नाम पर लोग विस्थापित हुए हैं ।

इन्हें न मुआवजा मिला, न जमीन । परिवार के परिवार मजदूरी करने को विवश हो गये । एक सर्वेक्षण से र उभर कर सामने आया है कि जहां पर्यावरण का अत्यधिक विनाश हुआ है, वहा बाल मज सख्या भी बढ़ी है । दूसरी तरफ जिन क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश कम हुआ है, वहाँ बाल की संख्या में भी कमी आई है ।

बालश्रम की समस्या केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में जैसे लेटिन अमेरिका, अफ्रीका आदि देशो मे भी व्याप्त है किन्तु भारत में इसका प्रतिशत अधिक है । भारत में बाल के बारे में कोई सही सरकारी कड़े उपलब्ध नहीं है किन्तु एक अनुमान के अनुसार इनब 40 लाख से ऊपर है । विगत चार वर्षों में बाल श्रमिकों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है ।

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की ताजा विज्ञप्ति के मुताबिक भारत में दस करोड बाल मजदूरों में से डेढ करोड़ बज् मजदूरी की बेडियो में जकड़े हुये हैं । हमारे यही शहरीकरण की प्रवृत्ति बेसहारा बच्चों में वृद्धि का एक प्रमुख कारण है । गाँव में गरीबी है, इसलिये पेट की भूख मिटाने के शहरी की तरफ पलायन करते हैं ।

इस पलायन के मूल में है हमारी व्यवस्था । यह पलायन देश में सामाजिक असमानता, भ्रष्टाचार और भुखमरी के कारण ही रहा है । बाल श्रमिको पर प्रतिबंध लगाने से इस समस्या का हल क्या संभव है ? देश में दर्जनों कानून और श्रम मंत्रालय भी इसे रोक नहीं सके ।

प्रशासन की नाक के नीचे सड़क के इस पा उस पार बाल मजदूर अपनी बेबस आखों से नन्हें हाथों के जरिये, काम कर रहे हैं । फिर क्या लाभ, इन कानूनों का और एक अलग बनाये महकमे का । विदेशों में बाल श्रमिकों पर पाबंदी की मांग कर रहे कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने इस् को धंधा बना लिया है ।

समाचार पत्रों में खबर बनने की लालसा से कभी प्रदर्शन तो कर्म आयोजित कर वे अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं । देश में बालश्रम की समस्या करने के उद्‌देश्य से दर्जनों स्वयंसेवी संगठन जुटे हुए हैं । किंतु कोई मन से नहीं ।

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संगठनों के लोग बच्चों को पांच सितारा होटलों में विदेशी मीडिया के सश्व पेश कर अंकों और चमका लेते हैं, किंतु वह मजदूर बच्चा उसी चौराहे पर फिर से खड़ा नजर भय जहां के हर रास्ते गुलामी की अंधी गली की तरफ ही जाते हैं । देश में बढ़ती बेरोजग महंगाई के कारण बच्चों को ‘नर्क’ में ढकेला जा रहा है ।

मां-बाप बच्चों को पड़ा नहीं शिक्षा प्राप्त करना अब सस्ता नहीं रह गया । अगर पढ-लिख लें तब मी लडुकों को नाँद मिलती हे । इस कारण अपना बोझ सर से उतारने और कुछ आमदनी हो जाने के लोभ को उधर ढकेल दिया जाता है । फैक्टरी मालिक या अन्य व्यवसायी यह सोचते हैं कि कम उम्र के बच्चों में काम ज्यादा होने के कारण जल्दी कार्य हो जाएगा और बच्चों की जरूरतें कम होने भी दिया जाएगा, सब चल जाएगा ।

इस धारणा से वे बच्चों को प्राथमिकता देने लगे पैसे मे दो वयस्क के बराबर काम हो जाता है और ऊपर से यूनियनबाजी का कई तत्त्व पर इस तुच्छ लाभ से तो बच्चों का भविष्य गर्त में जा रहा है । अशिक्षित ही रह जाने रे सर्वागीण विकास नहीं होगा । इससे वह लोकतंत्र की मर्यादा को कहां तक समझेंगे ।

अविकसित मानसिकता के साथ वयस्क होंगे तो समाज व राजनीति से वे छले जाएंगे । उनकी नियति है । बचपन में मां-बाप व मालिक से ठगा और जवानी में समाज ने । सच मे एक सामाजिक कोढ है । अधिकांश विकासशील देशों में नगरीय रोजगार की धीमी गति के कारण बाल श्रा सख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है ।

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गांवों में लघु व कुटीर उद्योगों का लोप होने एवं कृषि भगवान भरोसे चलने से शहर पर बोझ बढा है । ग्रामीण अप्रवासियों की संख्या शहरों में बड़ी है । न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की खातिर और बढ़ती भूमिहीनता के कारण किसी भी प्रकार का काम कराया जा रहा है ।

अब अच्छा या बुरा कहां देखा जा रह कैसी विडंबना है कि आज बच्चों की मुस्कान पर लिखी साहित्यिक टिप्पणियां बेमान हो रही हैं । कहीं नहीं दिख रही है बच्चों की प्राकृतिक चहचहाट । इस उम्र में बच्चों से अनार और ‘आ’ से आम कहना चाहिए तो आज वे अपने कोमल हाथों से सुहागिनों क् रंग-बिरंगी चूडियां बनाने को अभिशप्त हैं ।

शिक्षा का प्रसार और ‘बडा’ बनाने के लिये बेच् पेंसिल तो नहीं पकड़ पाये पर उसका निर्माण करने हेतु सिलिकोसिस नामक घातक वॅ जरूर ग्रहण कर रहे हैं । झरनों के संगीत और माँ के लाड-प्यार तथा कुछ बनने की बिल्कुल बेखबर ये बच्चे विकास के तमाम दावों पर प्रश्नचिन्ह प्रतीत होते हैं ।

बच्चों की संख्या खेती में भी लगी है । सबसे अधिक बाल मजदूर उत्तर प्रदेश में हैं । इसके बाद बिहार, गुजरात, जन्तु-कश्मीर, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उडीसा, राजस्थान, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में भी बाल मजदूर अधिक संख्या में हैं ।

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दियासलाई एब आतिशबाजी उद्योग में काम करने का भी बच्चों पर घातक असर होता है । यहां फॉस्फोरस से चेहरा विकृत होना, सल्फर से सांस की तकलीफ और आखों के रोग तथा क्लोरेट्‌स से खांसी हो जाती है । ये द्रासीबोजांइटिस, हिपरप्लेसिया, फोटोफोबिया, लेक्रिमेशन व दमा जैसे रोगों से घिर जाते हैं ।

गले में जलन, चर्मरोग, बेहोशी व एनीमिया भी इन्हें नहीं बखाता । इस उद्योग में दुर्घटनाओं की भरपूर गुंजाइश होती है । कुछ समय पूर्व पटाखा फैक्ट्रियों में विस्फोट से कई बच्चे मारे गये हैं । ताला बनाने के दौरान बच्चे विभिन्न आकारों के तालों को काटने इलेक्ट्रोप्लेटिंग, बफिंग मशीन पर पालिशिंग, टुकडों को जोडकर ताले का निर्माण और पैकेजिंग आदि का काम करते हैं ।

ये सभी काम स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं । कई बार तालों को काटते समय बच्चों की अंगुलियाँ तक कट जाती हैं । इलेक्ट्रोप्लेटिंग के काम में बच्चों को एसिड व एल्कलाइन के घोल तथा खतरनाक गैसों के प्रयोग से औखो में जलन और सांस लेने में तकलीफ हो जाती है ।

हाइड्रोप्लेटिंग के काम से आती का कैंसर हो जाता है । बच्चों को नंगे हाथों से इनके घोल से घंटों काम करना पड़ता है । यहां 8 से लेकर 14 वर्ष तक की उस के बच्चे काम करते हैं । दूसरे कई उद्योगों की भी यही स्थिति है । कालीन बनाने में बच्चों को सास लेने में दिक्कत शरीर, दर्द, जोड़ों में दर्द, दिखाई कम देना और भूख न लगने जैसी शिकायतें पैदा हो जाती हैं ।

चीनी मिट्‌टी उद्योग में काम करने से एमेटिक बाजाटिस हो जाता है, जो बाद में तपेदिक में बदल जाता है । रत्न पालिश के काम में भी छूत रोग और तपेदिक हो जाने का खतरा रहत है । इन उद्योगों में स्वास्थ्य की सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किये जाते । ज्यादातर उद्योग तो स्वास्थ रक्षा उपकरणों का इस्तेमाल भी नहीं करते ।

भारत जनसंख्या की दृष्टि से बाल मजदूरों का सबसे बड़ा पालक है । भारत का साक्षरत् प्रतिशत वर्ष 1961 से 1981 के बीच 40.8 रहा है । जनसंख्या के बहाव के साथ-साथ असाक्ष व्यक्ति इस दौरान 33.3 करोड़ से 43.8 करोड़ हो गये थे ।

अत: करीब पचास लाख असाक्ष व्यक्ति प्रतिवर्ष इन बीस वर्षो में बडे । अन्य एशियाई देशो ने प्राथमिक शिक्षा के लिए अनुकू तत्परता दिखाई है । बहुत से विकासशील देशों की स्थिति भी भारत से अच्छी है । श्रीलंका जैसे गरीब देश सत्तर प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी कर रहे हैं । इंडोनेशिया का जहां 1930 तक साक्षरता प्रतिश्त 64 था, अब यहां 74 प्रतिशत लोग साक्षर हैं ।

इसी तरह अफ्रीकी देश जिनकी प्रति व्यक्ति ठ भारत से कम है वहां 50 से 75 प्रतिशत लोग साक्षर हैं । इन देशों में, बोल्लाना, कैमरून, गुया जाम्बिया, घाना, मेडागास्कर तथा जिम्बावे आदि प्रमुख हैं । अब यदि आकड़ों की दृष्टि से त् तो हमारी स्थिति दयनीय ही है । हमने अपने यहां मुक्त शिक्षा का प्रावधान किया है लेकिन इन् बावजूद वांछित सफलता नहीं मिल पा रही है ।

बाल मजदूरी की दयनीय स्थिति को देखकर हर संवेदनशील व्यक्ति का हृदय रो उते पण्डित जवाहर लाल नेहरु की जन्मतिथि 14 नवम्बर को ‘बाल दिवस’ के रूप में देश भर में मनायी जाती है । इस दिन देश के नौनिहालों के उज्जवल भविष्य की लम्बी-चौड़ी बातें की हैं ।

इस अवसर पर विभिन्न राजनेताओं की बातें सुनकार ऐसा लगता है कि मानों हमारे देश के बच्चे दुनिया के सबसे खुशहाल बच्चे हैं । सरकारी संस्थाएं और अधिकारी, कड़े दिखाकर यह साबित करने की कोशीश करते हैं की हमारे देश के बच्चों का सुरक्षित है, परंतु हकीकत कुछ और ही है ।

उच्चतम न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में खतरनाक उद्योगों में बाल श्रमिकों की प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाते हुये इनमें कार्यरत बच्चों की शिक्षा हेतु बाल श्रमिक पुनर्वास एवं कल्याण कोष बनाने के आदेश दिए हैं ।

कोर्ट ने इन बाल श्रमिकों की शिक्षा के लिए एक कल्याण कोष बनाने का निर्देश भी दिया है । इसमें बाल श्रमिक के नियोक्ताओं को 20 हजार रुपये और सम्बंधित राज्य को पाँच हजार रुपये प्रति बाल श्रमिक योगदान करने का निर्देश दिया गया है ।

कोर्ट ने यह रोक घातक माने जाने वाले उद्योगों में लगायी है । गैर-घातक उद्योगों में बाल श्रमिकों की स्थिति मे सुधार के लिए भी कोर्ट ने व्यापक निर्देश जारी किये हैं । कोर्ट ने यह फैसला शिवकाशी के माचिस उद्योगों के संदर्भ में दायर एक याचिका पर सुनाया है ।

निश्चित रूप से इस फैसले का देश भर में व्यापक असर होगा क्योंकि विभिन्न उद्योगों में अभी भी बाल श्रमिक कार्यरत है । भारत मे बच्चों का आर्थिक शोषण बड़े पैमाने पर किया जाता है और ऐसा लगता है कि हाल के कुछ वर्षों में इसमे बढोतरी हो गई है ।

1981 में हुई भारत की जनगणना ने यह अनुमान लगाया था कि करीब 1 करोड 30 लाख बच्चे (14 वर्ष से कम उम्र वाले) अधिकांशत: खेतिहर गतिविधियों में लगे हुए है । 1993 में नेशनल सैम्पल सर्वे ने अनुमान लगाया कि 5 से 15 वर्ष की आयु के 1 करोड 70 लाख बाल मजदूर कार्यरत हैं । आपरेशन रिसर्च युप ने 1983 में इस संख्या को 4 करोड 40 लाख बताया ।

इनमें से अधिकांश बच्चे कृषि तथा उद्योगों में दमघोंदू परिस्थितियों में रह कर काम करते हैं, जो अक्सर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं । गैर-सरकारी सगठनों द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार दासता की स्थितियों में रह कर काम करने वाले बच्चो की मौजूदा सख्या 5 करोड 50 लाख है ।

अगर बाल मजदूरों की जाति में उन तमाम बच्चो को जोड दिया जाये जो कभी स्कूल नहीं जाते और छोटे-मोटे घरेलू कामों में उलझे हुए हैं तो संख्या दुगनी से ज्यादा हो जाएगी । अगर बाल मजदूरी की जड़ को तलाशा जाए तो स्पष्ट होता है कि जातियों और वर्गो पर आधारित हमारी सामाजिक व्यवस्था ही इस प्रकार की है ।

निम्न जाति और वर्गों के परिवारों में जन्म लेने वाले बच्चो को शुरु से ही मजदूरी विरासत में मिलती हे । ऐसे निरीह बच्चों के माता-पिता यह मानकर चलते हैं कि हमारे बच्चे पढ-लिख तो सकते नहीं, तो क्यूं न दो-चार पैसे कमाएं । यह कटु सत्य है कि विगत सरकारों के द्वारा जाति के आधार पर विशेष सुविधा मुहैया कराकर गरीबी उन्मूलन का प्रयास पूरी तरह से विफल रहा है ।

गरीब का राजनीतिकरण भले हुआ है लेकिन गरीबी को कम करने की घोषणा महज राजनीतिक हथकंडे के अलावा कुछ नहीं है । बच्चे अपनी मर्जी से मजदूरी करने के लिए इच्छुक नहीं होते हैं । यह सच है कि यह एक सामाजिक बुराई है और इसे समाप्त करने के लिए समाज और परिवार के विभिन्न पहलुओं को समझना भी जरूरी होगा ।

बाल विकास की समस्या मूल रूप से महिलाओं के विकास से भी जुडी है । बाल मजदूरी को जड से उखाड़ फेकने के लिए महिलाओ के विकास को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए । उच्चतम न्यायालय के निर्णय के संदर्भ में जजों ने निर्देश दिया है कि संविधान की धारा 45 के अनुसार देश के सभी बच्चो को 14 साल की आयु तक अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान है ।

साथ ही यह शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिए । इसलिए बाल श्रमिक निरीक्षक की जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करने की है कि संविधान के इस निर्देश का पालन हो रहा है या नहीं । निरीक्षकों के अलावा जिलाधिकारियों को भी योजना के कार्यान्वयन पर निगाह रखनी चाहिए ।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय के पूर्व भी बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए अनेक कानून बनाये गए है । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के बच्चो से कारखानों, फैक्ट्रियों व खानो मे जोखिम भरे काम कराना अपराध है ।

इस अनुच्छेद का उद्‌देश्य बच्चो के स्वास्थ्य की रक्षा करना है । बाल अधिनियम 1933, बाल रोजगार अधिनियम 1938, भारतीय फैक्ट्री अधिनियम 1940, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, खान अधिनियम 1952, ये सारे अधिनियम बाल कल्याण के लिए बाल-मजदूरी की सेवाओं, कार्य दशाओं, कार्य के घंटे, मजदूरी दर आदि को नियमित करते हैं ।

1986 में बाल श्रमिक कानून अधिक प्रभावी माना गया । इसके अंतर्गत बाल मजदूरी का शोषण करने वालो के विरुद्ध कठोर दंड की व्यवस्था रखी गई है इन अधिनियमो के अनुसार, बीडी निर्माण, कालीन बुनाई, सीमेंट उत्पादन, माचिस या विस्फोर सामग्री उत्पादन, कपडो की बुनाई और रगाई और कसाई खाना आदि कामों में 14 वर्ष से क आयु के बच्चों को श्रम पर नहीं लगाया जा सकता ।

विगत समय पूर्व श्रम एव कल्याण सबधो ससदीय स्थायी समिति ने अपने अध्ययन मे पार कि केद्र या राज्य सरकारों के पास बाल श्रम से सबधित प्रामाणिक कडे ही नहीं हैं । राज्य सरकारों ने बाल श्रम कानून को ठीक से लागू नहीं किया । राज्य सरकारें खामियों का फाय उठाती हैं और केंद्र उन पर दोष मढ़ते रहता है ।

स्थिति यह है कि 1986 में कानून पारित होने के बाद 4950 लोगों के खिलाफ कार्यत् तो हुई, मगर अपराधी एक को भी नहीं ठहराया जा सका । बाल श्रम को लेकर सरकार अमरीर ब्रिटेन और जर्मनी के दबाव में सक्रिय हुई ।

इन देशों ने बाल श्रम का मुद्‌दा बनाकर भारत बने कालीनों का आयात रोकने की धमकी दी । कालीन के निर्यात से भारत को करीब दो हर करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है । कालीन उद्योग में काम करने वाले बच्चों में 90 प्रति की उस छह से बारह वर्ष के बीच है ।

बच्चों के पसीने और मेहनत के जरिये अमरीका द्वारा आयातित वस्तुओं में बाल श्रम उपयोग’ नामक रिपोर्ट मे कालीन उद्योग में कार्यरत बच्चों की हालत पर चिन्ता जतायी है । इसके अनुसार भारत के कालीन उद्योग में तीन लाख बच्चे काम करते हैं ।

पाकिस्तान यह संख्या पांच लाख और नेपाल में दो लाख है । इसी तरह रत्न पालिश उद्योग के बारे में भी कहा गया है । 1993 में भारत ने एक अरब के जेवरात निर्यात किये थे । भारतीय कालीनों का सबसे बडा खरीददार अमरीका ही है ।

एक तरफ अमरीका भारत के बाल श्रम पर चिंता प्रकट करता है, तो दूसरी तरफ ऊंट के लिए सउदी अरब ले जाने वाले बच्चो के मामले में चुप रहता है । दरअसल इन देश् मकसद भारत की अर्थनीति को चोट पहुचाना है ।

यही वजह है कि इस मामले में जर्मनी का रकमार्क फांउडेशन अचानक महत्वपूर्ण हो गया है । निर्यात किये जाने वाले कालीनों के लिए रगमार्क का प्रमाण पत्र जरूरी हो गया । यह लिख कर देता था ‘यह कालीन बच्चों के श्रम से नहीं बना है ।’ इस काम में रगमार्क ने खूब धांधली की ।

भारत सरकार के सामने दिक्कत यह है कि एक तो वह नयी आर्थिक नीति के चलते विदेशी पूंजी की मोहताज हो गयी है, दूसरे वह अपने कानूनों क। पालन न करवा पाने के कारण बोध से भी ग्रस्त है । इसलिए आनन-फानन में सरकार को कुछ सक्रियता दिखाना जरूर ? सो एक बार फिर सरकार बाल श्रम की स्थिति सुधारने में जुट गयी ।

बच्चो से मजदूरीं करवाने वाली 42 इकाइयां बंद कर दी गयीं । अन्य 34 इकाइयों क् सूची में डाल दिया । सरकार ने कालीन इकाइयों का पंजीकरण भी शुरू कर दिया है । अंत में अब तक 79 हजार इकाइयां पजीकृत हो चुकी हैं ।

सरकार का दावा है कि इन प्रात: कालीन उद्योग मे बच्चो की संख्या 36 प्रतिशत से घटकर 27 प्रतिशत ही रह गयी बाल श्रम उन्तुलन के लिए केंद्र सरकार ने 850 करोड़ रूपये की विशाल परियोर की है । इसके तहत कई कल्याणकारी कार्यक्रम चलाये जाएंगे । स्कूल में दोपहर के भे भी व्यवस्था होगी ।

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वर्तमान में 34 करोड़ खर्च करने का प्रावधान है । इसके लिए 13 – 322 जिलों में बाल श्रमिकों के क्षेत्र की पहचान होगी । इनमें शिवकाशी, मिर्जापुर, भदोही मदसौर, सबलपुर, ठाणे, अलीगढ, फिरोजाबाद, गढवा, मुरादाबाद और जामनगर आदि शामिल है ।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की मदद से अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम उम्पूलन इपके तथा ब कार्य एवं सहायता कार्यक्रम कलैक्य 1993 से चल रहे हैं । इपेक के तहत 15 राज परियोजनाओ में 17680 बच्चे जुडे हैं । यूनीसेफ ने भी 1991-95 के दौरान बाल श्रमिक से संबद्ध मास्टर प्लान के संचालन के लिए पांच लाख डालर मंजूर किये हैं ।

श्रम विभाग में अलग से महिला एवं बाल प्रकोष्ठ बनाने के प्रस्ताव को योजना मंजूरी दे दी है । इस काम में स्वयं सेवी संस्थाओं को भी जोडने की योजुना है । संस्थाओं को 75 प्रतिशत वित्तीय सहायता देकर दस परियोजनाओं का क्रियान्वयन कर बाल श्रम के मामले में इन गैर सरकारी संस्थाओं की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है । ऐसे 124 संगठन सक्रिय है ।

इनमें सबसे ज्यादा तमिलनाडु राज्य में हैं । इसके बाद र दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार, आध प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, उडीसा औ का स्थान है । इन सगठनों का कुल बजट 23 करोड 26 लाख रुपये का है । इसवे सरकारी व अतरराष्ट्रीय संगठनों के अनुदान पर निर्भर रहना पडता है ।

ये संगठन 163 प्रोजेक्ट में काम कर रहे हैं और अब तक 738 प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं । इनमें 30318 प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षित किया गया । इनकी कोशिश 31,596 परित् लाख सात हजार दो सौ छब्बीस बाल श्रमिकों तक पहुंचने की है । लगभग 52 प्रति 500 बच्चों तक सीमित हैं । दो प्रतिशत सगठनों के काम के दायरे में एक हजार से बच्चे आते हैं ।

इस तरह इन संगठनों की पहुंच देश के कुल बाल श्रमिकों की एक् भी कम आबादी तक है । इसके अलावा ध्यान ज्यादातर महानगरों तक ही केंद्रित इस समस्या से लडने में गैर सरकारी संगठनों ने बहुत सराहनीय काम किया है रि अगेंस्ट चाइल्ड लेबर (सी.ए.सी. एल.) सही मायने में प्रशंसा की पात्र है ।

इसकी नीर 1992 को रखी गयी थी । यह प्रारंभ में तीन गैर सरकारी संगठनों का सम्मिलित स्वक् एक्वान फार द राइट्‌स ऑफ द चाइल्ड, पूना, ‘यूथ फार यूनिटी एंड वोलेंटरी तथा ‘तेरे दे होमें’, इटरनेशनल के नाम आते हें । इसकी स्थापना के एक वर्ष बाद करीब तीन सौ समान सोच वाले अन्य संगठन कहीं न कहीं से इससे संबंध हो गए ।

सभी का उद्देश्य इन असहाय बच्चों का सही दिशा निर्देशन तथा इनके बिखरते जीवन को सही आकार देना काई (चाइल्ड रिलीफ एड द्दै तथा साउथ एशियन कोलेशन ऑन चाइल्ड सरवाइट्‌यूड (ए.सी.सी.एस.) कुछ ऐसे ही संगठनों में से हैं । ये संगठन उन लाखों बच्चों का प्रतिनिधि करते हैं जिनके शोषण की इजहां हो गई हैं ।

चूकि समस्या काफी भीषण है, इसलिये इससे एकदम से निजात पाना कठिन है । जनसंर वृद्धि की समस्या भी बाल मजदूरी के लिये अच्छा खासा आधार बनाती है । गरीबी अलग से समर की आग के फैलाव में घी का काम कर रही है ।

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अत: इसके कुछ वैकल्पिक उपायों की तर हमें ध्यान देना चाहिए । अब जरूरी है कि हम इसके व्यावसायिक पहलुओं पर भी विचार क हमें बाल मजदूरी को व्यावसायिक प्रशिक्षण की श्रेणी में शामिल करना चाहिए । इससे ये ब अपनी युवा अवस्था को भी पहचानने में सफल होगे ।

अब बात आती है हमारी संवैधानिक जिम्मेदारियों की । इससे इंकार नहीं किया जा सब कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया अब इस मामलें में थोड़ी सजग हुई है । अनुच्छेद 39 (सी) के अनुर आर्थिक जरूरतों की वजह से बलपूर्वक किसी व्यक्ति को उसकी सामर्थ्य से परे के काम में धवे नहीं जा सकता ।

इनका, प्रभाव अब शब्दों के रूप में ही जीवित है । सरकार को अपनी जिम्मेदारी को भी बखूबी समझना होगा । अगर इस समस्या से मुक्ति पानी है तो इन अनुच्छेदी को प्रढ़ ढंग से लागू करना पडेगा । सरकार को गुरूपदस्वामी समिति के सुझावों को भी ईमानदारी लागू करना चाहिए, जो अती भी फाइलों में ही दबे हैं । राष्ट्रीय बाल मजदूर कार्यक्रम के 126 विशेष स्कूल खोलने की योजना है ।

इनको पहले नौ चुनिंदा जिलों में खोला जाएगा । इनमें करीब सात हजार बच्चों को जगह मिलने की उम्मीद है । यही एक सही और सराहनीय कदम संघर्ष तो निश्चित रूप से कठिन है परन्तु इसे असम्भव भी तो नहीं मान सकते हैं । अगर हौंसले ही नहीं रहे तो फिर उम्मीद किस बात की कर सकते हैं ?

अत: सभी सरकारी और सरकारी संगठनों को प्रभावी ढंग से अपने बड़े हुए कदम और आगे बढ़ाने होंगे । समस्या बै बाल मजदूरी की नहीं है, हमें उन लाखों-करोडों बचपनों को संवारना है जिनके भविष्य में देश का और सपूर्ण विश्व का विकास छिपा है । उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसत् बाद बाल मजदूरी का यह भीषण रोग बहुत हद तक नियंत्रित हो जाएगा ।