बेकारी की समस्या अथवा बेरोजगारी : समस्या एवं समाधान पर निबंध | The Problem of Unemployment in Hindi!

वर्तमान युग में सामाजिक अवलोकन एवं उसका मूल्यांकन प्राय: आर्थिक आधार पर किया जाने लगा है । आज मनुष्य आत्मसुख तभी प्राप्त कर सकता है जब वह आर्थिक रूप से स्वयं को समर्थ महसूस करता है.

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आर्थिक विपन्नता की स्थिति में दया, धर्म और परोपकार जैसे गुण उसे महत्वहीन लगने लगते हैं । हर तरफ जुलूस के नारों में ‘शिक्षा को रोजगार से जोड़ो’, ‘बेरोजगारी भत्ता दो’, ‘हर पेट को रोटी, हर हाथ को काम दो’ आदि में गूँजते ये स्वर हमें बेरोजगारी की समस्या पर पुनर्चितन को विवश करते हैं ।

देश में बेकारी की समस्या के मूल कारणों पर यदि हम दृष्टि डालें तो हम देखते हैं कि आर्थिक संपन्नता के लिए व्यवसाय एवं उद्‌योग के अतिरिक्त प्राय: लोग अन्य आर्थिक स्त्रोत के रूप में नौकरी को विशेष महत्व देते हैं । अतएव शिक्षित, अर्धशिक्षित व उच्चशिक्षित सभी वर्ग के लोग नौकरी की ही ओर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं । फलस्वरूप नौकरी की समस्या हमारे लिए राष्ट्रीय स्तर की समस्या बन चुकी है ।

राष्ट्र के सम्मुख बेरोजगारी की इस विकराल समस्या का प्रमुख कारण हमारे देश की शिक्षा प्रणाली रही है । किसी भी देश की शिक्षा उसके मानसिक, सांस्कृतिक एवं भौतिक विकास व समृद्‌धि का आधार होती है परंतु आजादी के पाँच दशकों के पश्चात् भी हमारी शिक्षा प्रणाली में विशेष परिवर्तन देखने को नहीं मिला है । इसका आधार प्रयोगात्मक न होने के कारण यह देश के नवयुवकों को स्वावलंबी बनाने तथा उनमें आत्मविश्वास कायम करने में पूर्णतया असफल रही है ।

हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली के अतिरिक्त जनसंख्या वृद्‌धि ने बेरोजगारी की समस्या को और भी अधिक जटिल बना दिया है । देश में उपलब्ध संसाधनों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि का अनुपात कहीं अधिक है । यदि जनसंख्या को नियंत्रित रखा गया होता तो बेकारी की समस्या इतनी तीव्रता से न उठ खड़ी होती ।

आज के कंप्यूटर युग में प्राय: सभी प्रमुख कारखानों, मिलों व दफ्तरों का कंप्यूटरीकरण हो रहा है । इसके अतिरिक्त नित नए अनुसंधानों के चलते स्वचालित मशीनों की भरमार हो रही है जिससे कर्मचारियों की आवश्यकता कम होती जा रही है। लघु एवं कुटीर उद्‌योग कंप्यूटरीकृत एवं स्वचालित मशीनों के कारण विशेषरूप से प्रभावित हुए हैं ।

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हालाँकि हमारी सरकार समय-समय पर विभिन्न नवीन योजनाओं के माध्यम से संतुलन बनाने का प्रयास करती रही है फिर भी उसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं ।

धर्मांधता, सामाजिक कुरीतियाँ आदि भी देश में बेरोजगारी की समस्या को परोक्ष रूप से बढ़ा देती हैं । आज अनगिनत लोग जाति, धर्म, झूठी शान एवं पारिवारिक परंपराओं के चलते विकास की प्रमुख धारा में जुड़ने से वंचित हैं । उनका पुरातन के प्रति मोह स्वयं उनके एवं देश के विकास के लिए बाधक सिद्‌ध हो रहा है ।

इसके अतिरिक्त विश्व स्तर पर भी मनुष्य के सामूहिक जीवन स्तर में सुधार हुआ है । भारतीय जनमानस पर भी इसका प्रभाव देखने को मिला है जिसके फलस्वरूप लोगों में उच्चस्तरीय जीवन-यापन की आकांक्षा बढ़ी है । रोजगार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा इसी की देन है ।

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बेरोजगारी के अनेकों दुष्परिणाम होते हैं । लंबे समय से रोजगार की तलाश में लगा व्यक्ति जब असफल होता है तो उसमें निराशा व कुंठा घर कर जाती है । उसकी स्वावलंबन क्षमता क्षीण होती जाती है जिसके परिणामस्वरूप उनमें आक्रोश, अनुशासनहीनता, अनैतिकता का समावेश होता है । देश भर में बढ़ती हिंसा, चोरी, डकैती, तस्कारी, अपहरण, बालात्कार व हत्याओं आदि के लिए बेरोजगारी ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उत्तरदायी है ।

अत: बेरोजगारी जैसी राष्ट्रीय समस्या को दूर करने हेतु सभी स्तरों से प्रयास होना चाहिए । आज आवश्यकता इस बात की है कि देश में ऐसी शिक्षा-प्रणाली लागू हो, जिसका आधार प्रायोगिक हो । युवकों को स्वरोजगार हेतु प्रोत्साहन मिले जिसके लिए उन्हें आवश्यक तकनीकी एवं औद्‌योगिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ।

लघु एवं कुटीर उद्‌योग को अधिक प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्‌वारा नई योजनाएँ प्रस्तुत की जानी चाहिए । हड़ताल, तालाबंदी तथा स्वार्थपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों पर अकुंश लगाया जाना चाहिए ।

हमारे देश की सरकार बेकारी की इस राष्ट्रीय समस्या से भली-भाँति अवगत है ।

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समय-समय पर देश से बेरोजगारी दूर करने हेतु अनेक कार्यक्रम घोषित किए गए हैं परंतु हमें अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है । यह समस्या स्वयं में विकराल है जब तक इसे रोकने हेतु सामूहिक प्रयास नहीं होंगे तब तक इसे जड़ से उखाड़ फेंकना संभव नहीं होगा । यह केवल सरकार का ही उत्तरदाय्रित्व नहीं है अपितु व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर भी नवचेतना का संचार करना एवं सकारात्मक प्रयास करना आवश्यक है ।