दक्षिण एशिया में बदलते समीकरण पर निबन्ध | Essay on Changing Equation in South Asia in Hindi!

विगत कुछ वर्षों से दक्षिण एशिया विग्रह और विस्फोटक तनाव का एक खतरनाक क्षेत्र बनता जा रहा है । इस बीच, अफगानिस्तान से श्रीलंका, नेपाल और बँगलादेश तक की आतरिक स्थितियों और आपसी रिश्तों में नई-नई पेचीदगियाँ पैदा हो गई हैं ।

साथ ही, इस उपमहाद्वीप का तट- क्षालन करनेवाला हिंद महासागर और उसके चारों ओर का क्षेत्र भी शस्त्रास्त्रों के अंबार, गहरे तनाव और युद्ध का क्षेत्र बन गया है । यहाँ तक कि हिंद महासागर में नाभिकीय अस्त्रों की सुरंगें भी बिछाई जा चुकी हैं ।

इस संपूर्ण विशाल पृष्ठभूमि में एक छोटा सा पर्वतीय देश ‘नेपाल’ है, जो लंबे समय तक किसी क्षेत्रीय अशांति का शिकार नहीं हुआ, उसे उसके किसी पड़ोसी ने वैर- भाव और आक्रमण की नीयत से कभी देखा तक नहीं ।

हिमालय की गोद में अपने आतरिक उथल-पुथल के बीच अपने ही ढंग से जीनेवाला एक ऐसा देश, जिसकी शांति को कभी किसी ओर से कोई खतरा नहीं पैदा हुआ, लेकिन अब वहाँ की स्थिति अत्यंत आक्रामक हो चुकी है ।

नेपाल नरेंद्र वीरेंद्र और उनके परिवार की नृशंस हत्या, फिर नरेश ज्ञानेंद्र .द्वारा बल-प्रयोग का परिचय देते हुए सत्ता-अधिग्रहण कर निरंकुशता का व्यवहार वहाँ के जनप्रतिनिधियों को विद्रोह के लिए ललकार रहा है । हिंद महासागर क्षेत्र की वर्तमान स्थिति को देखते हुए दक्षिण एशिया के देशों के बीच सन् १९८४ से जो प्रयास शुरू हुए हैं, वे सर्वथा सकारण और श्लाघनीय हैं ।

सन् १९७५, में ‘फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन’ के अध्यक्ष यासिर अराफात ने बेरुत में संगठन के मुख्यालय में कहा था, ”इस लड़ाई में हम सब एक ही मोरचे पर हैं और हम पर एक ही दुश्मन गोली चला रहा है । भारतीयों को हमेशा याद रखना चाहिए कि भारत और अरब देशों को एक ही लड़ाई का सामना करना पड़ रहा है । हम पर जो गोलियाँ चलाई जाती हैं, वे एक ही ओर से आ रही हैं । विश्व में साम्राज्यवादियों ने हम सबके खिलाफ एक जैसी नीति अपना रखी है ।”

यासिर अराफात के संवेदनात्मक पहलुओं को स्पर्श करती हुई ये बातें अब हकीकत लग रही हैं । भारत से मुखातिब होकर अराफात ने ही तो कहा था- जिन लोगों ने मेरी मातृभूमि पर कब्जा करने में अपने एजेंटों की मदद की थी, वे आपके देश के लोगों के भविष्य को भी अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रहे हैं ।

अरबी लोग यहूदियों के उपनिवेशवाद का ही मुकाबला नहीं कर रहे हैं, बल्कि दुनिया में सबसे विध्वंसकारी देश अमेरिका का सामना कर रहे हैं । जिन हथियारों के बल पर फिलिस्तीनी लोगों को अपनी मातृभूमि पर अपने अधिकार से वंचित किया गया, उनसे ही अब एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों को खतरा पैदा हो गया है ।

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उपर्युक्त आशय की चेतावनी आज बिलकुल स्पष्ट हो चुकी है । भारत को हिंद महासागर के दोनों ओर से खतरा है । वह हिंद महासागर भारत और अरब देशों के बीच फैला हुआ है । हिंद महासागर में जो सैनिक जमाव किया जा रहा है, उससे कभी भी एक बहुत बड़ा विस्फोट हो सकता है ।

अरब देश दुनिया की सबसे प्रतिक्रियावादी ताकत के हमले का शिकार हो चुका है । अमेरिका का नया उपनिवेशवाद सर्वाधिक आक्रामक और विस्तारवादी है । भारत के पड़ोस में, खासतौर पर श्रीलंका में, जो कुछ हो रहा है, उससे हमारी प्रादेशिक अखंडता, धर्म-निरपेक्षता और प्रभुसत्ता को खतरा है ।

यहूदियों की चालाकियों का असर हमारे समुद्र-तट पर पड़ने लगा है । अमेरिका और इजराइल के बीच साँठ-गाँठ अब छुपी नहीं रही । तीनों देश एशिया के बड़े इलाकों को लूटने की जिन योजनाओं को आगे बढ़ा रहे हैं, उनसे वास्तविकता खुलकर सामने आ गई है ।

भारतीयों और अरबवासियों को इनका शिकार बनाया जा रहा है । लेबनान में जो कुछ हुआ, वह इन देशाउएं की साँठ- गाँठ के बिना संभव नहीं था । अफ्रीका में जातिभेदवाली सरकार अमेरिका के हथियारबंद एजेंट के रूप में सामने आ रही है । भारत को भी यहूदियों की चालबाजियों से प्रत्यक्ष खतरा पैदा हो गया है ।

भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पड़ोसी देश श्रीलंका में सुरक्षा व्यवस्था में इजराइल खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ को शामिल करने पर भारत की ओर से गंभीर चिंता प्रकट की थी । २२ अगस्त, १९८४ को भारतीय संसद् में अपने वक्तव्य में श्रीमती गांधी ने कहा था, ”श्रीलंका के मामलों में इजराइल जासूसी एजेंसी का हाथ होने के अलावा ब्रिटिश संगठन एम.ए.एस. का भी हाथ है, जिससे स्थिति भारत के लिए और भी चिंताजनक हो चुकी है ।”

सिंगापुर की एक अमेरिकी सहायक फर्म, जो रद्‌दी कागजों का निर्यात करती है, बड़ी मात्रा में भारत को ऐसे रद्‌दी कागज भेजती रही है, जिसमें ‘कुरान शरीफ’ केफटे हुए पन्ने भरे होते हैं । इस फर्म का संबंध इजराइल से रहा है । मलेशिया, श्रीलंका और बँगलादेश को एक वर्ष पूर्व भी कथित फर्म ने ऐसा ही रद्‌दी कागज भेजा था ।

कोलकाता बंदरगाह के मुसलमान कर्मचारियों को ‘कुरान शरीफ’ के फटे हुए पन्ने रद्‌दी कागजों के बोरे में देखकर बड़ी उत्तेजना हुई थी, लेकिन अधिकारियों ने तुरंत काररवाई की, वरना कोलकाता में भी वैसे ही दंगे होते जैसे मुंबई, भिवंडी और गुजरात में हुए थे ।

इन दृष्टांतों का आशय यह कदापि नहीं है कि भारत में दंगों का कारण सिर्फ विदेशी साँठ-गाँठ ही है । बहरहाल, दंगों का कारण कुछ भी रहा हो, हम भारतीयों को उन सभी को कुचल देना चाहिए जो धर्म-जाति के आधार पर झगड़े कराने की कोशिश करते हैं ।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पंजाब की घटनाओं में ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा और जर्मनी में काम कर रही अमेरिकी संस्थाओं तथा सीआईए का भी हाथ रहा है । दूसरी ओर, दक्षिण एशियाई देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में इस दृष्टि से कोई उल्लेखनीय निर्णय नहीं लिया जा सका । इधर, कुछ समय से समन्वयवादी सिद्धांतों को प्रतिपादित करनेवाले संगठनों ने इस समस्या का निराकरण मिल-बैठकर करने पर जोर दिया है ।

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कितना श्रेयस्कर होगा, यदि उससे पहले राजनयिक प्रयासों से क्षेत्रीय समस्याओं को उनकी प्रासंगिकता और प्राथमिकता के अनुसार सूत्रित कर लिया जाए । कारण यह कि इससे काल्पनिक एवं यथार्थ और क्षेत्रीय तथा द्विपक्षीय समस्याओं के बीच की धुंध छँट जाएगी, समस्याओं के निराकरण का रास्ता खुल जाएगा और उनके बीच का कार्य-कारण समझ में आ जाएगा ।

काठमांडू में एशियाई-अफ्रीकी देशों की सलाहकार समिति की जो ८ दिवसीय बैठक संपन्न हुई थी, उसकी काररवाई को देखते हुए समस्याओं का सम्यक् विवेचन और भी जरूरी प्रतीत होता है । वहाँ नेपाल ने अपने को शांत क्षेत्र घोषित किए जाने के प्रस्ताव को हठपूर्वक बार-बार क्यों उठाया ? इस प्रश्न की ज्वलंतता अथवा प्रासंगिकता की बात तो दूर रही, क्या यह कोई यथार्थ प्रश्न भी है ?

अमेरिका नेपाल की इस माँग का प्रथम अनुमोदक रहा है और काठमांडू में पाकिस्तान, चीन तथा बँगलादेश इसका सोत्साह समर्थन करते रहे । क्या इसमें कोई राजनीतिक सूत्रता और सोद्‌देश्यता दृष्टिगत नहीं होती ?

क्यों नेपाल और उसके काल्पनिक प्रश्न के समर्थक हिंद महासागर को शांत- क्षेत्र बनाने के प्रश्न के प्रति औपचारिक समर्थन के अलावा उदासीन ही रहे ? क्या यह भी उसी राजनीतिक सोद्‌देश्यता की एक और कड़ी नहीं है ?

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हिंद महासागर को हथियारों से मुक्त शांत-क्षेत्र बनाने के तात्कालिक मसले की तोड़-फोड़ में अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्रों की अग्रणी भूमिका किससे छिपी है ?

इसी तरह नेपाल ने और भी ऐसे सवाल उठाए थे, जो उसके और भारत के बीच के द्विपक्षीय सवाल हैं अथवा अलग-अलग दक्षिण एशियाई देशों के बीच के । मसलन, स्थल से घिरे नेपाल के लिए समुद्री द्वार तक पहुँच का प्रश्न अथवा एक से अधिक देशों से होकर बहनेवाली नदियों के पानी के बँटवारे का प्रश्न ।

इन्हें अफ्रीकी-एशियाई या किसी भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर हठपूर्वक उठाना, इनके निदान से खि मूँद, निराकरण को दूर रखते हुए राजनीतिक उद्‌देश्य सिद्ध करने का प्रयास मात्र हो सकता है । बेवजह की त्राहि-त्राहि की गुहार आपसी सद्‌भाव और विश्वास के साथ गंभीर वार्त्ता का स्थान कदापि नहीं ले सकती ।

जहाँ तक इन देशों के बीच हितों के टकराव और विग्रह की स्थितियों का प्रश्न है, मूल रूप में वे इनके औपनिवेशिक अतीत की विरासत हैं । इस निदान में मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन समस्याओं का निराकरण करने की बजाय ये और भी उग्र क्यों होती गई हैं ? इस प्रश्न का उत्तर दृष्टि में थोड़ी सी वस्तुपरकता लाने पर तत्काल प्राप्त हो जाएगा ।

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बँगलादेश की ओर से भी बेरुखी ही ज्यादा है तथा रुझान अमेरिका और चीन की ओर है तथा नेपाल मिठबोलेपन के साथ आड़ी-तिरछी राजनीतिक चालें चल रहा है । अमेरिका को भी उसकी सुरक्षा की गहरी चिंता हो गई है ।

शांत-क्षेत्र बनाने के लिए हथियारबंदी और सैन्यीकरण करना अमेरिका का एक जाना-माना नुस्सा है । सवाल हिंद महासागर का हो, दक्षिण एशिया का, चाहे यूरोप का, वह इसी नुस्से को नेपाल पर भी लागू करना चाह रहा है । उपर्युक्त विषय से भारत-पाक संबंधों का संदर्भ सीधा जुड़ा है । पाकिस्तान की जनता तो अपनी आर्थिक समस्याओं का निराकरण और लोकतंत्र की ‘वास्तविक बहाली’ की माँग कर रही है ।

ऐसे में वह ‘कम्युनिज्य’ के विरुद्ध अमेरिका की रणनीति-मुठभेड़ की व्यूह-रचना-में बड़े गर्व के साथ अग्रिम मोरचा पंक्ति का राज्य तथा अफगानिस्तान की ‘अप्रैल-क्रांति’ पर अमेरिका की नाराजगी की रणनीति का मोहरा क्यों बन रहा है, साथ ही, भारत के विरुद्ध इतनी बेकाबू हथियारबंदी का जुनून अपने सिर पर क्यों लिये फिर रहा है ? भारत के विखंडन की सी.आई.ए. की योजना में उसकी दिलचस्पी और शिरकत का भी क्या औचित्य है ?

बंगलौर में आयोजित दक्षिण एशिया के ७ राष्ट्रों के द्वि-दिवसीय ‘सार्क शिखर सम्मेलन’ (१६ – १७ नवंबर, १९८६) में दक्षिण एशियाई देश अपना-अपना राग अलापते रहे । उन दो दिनों में शायद ही कोई ऐसा पल आया हो, जब अलग-अलग राग ‘समवेत स्वरूप’ अख्तियार कर पाए हों ।

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पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मो. खान जुनेजो ने भारत-पाक संबंधों की दरारों पर आत्मीय दृष्टि देने की जरूरत तक नहीं समझी थी । हाँ उपस्थित प्रतिनिधियों ने ‘आतंकवाद से निबटने के उपाय’ पर गंभीरता से सोचा और विचार किया था तथा आतंकवाद के विरुद्ध सामूहिक काररवाई करने की आम राय कायम हुई थी, पर अफसोस कि सारी नीतियाँ सारे निर्णय मात्र ‘शाब्दिक सहयोग’ तक सीमित रहे ।

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जम्यू कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा प्रतिदिन कोई-न-कोई निर्दोष जिंदगी खत्म कर दी जाती है और यह बात जग-जाहिर हो चुकी है कि उन आतंकवादियों को पाकिस्तान प्रशिक्षित कर भारत की एकता-अखंडता को खंड-खंड करने में लगा है ।

दक्षेस (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) की कार्य समिति की द्वि-दिवसीय बैठक (१६- १७ जून, १९८७) विज्ञान भवन, नई दिल्ली में आयोजित हुई थी तथा (१८ – ११ जून, १९८७) को विदेश मंत्रियों की द्वि-दिवसीय बैठक भी यहीं हुई थी, जिनमें क्रमश: भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, बँगलादेश, नेपाल, भूटान तथा मालदीव के विदेश सचिव तथा विदेश मंत्रियों ने भाग लिया था ।

‘दक्षेस’ की स्थायी समिति ने संघ के सदस्य देशों में आतंकवादी काररवाइयों से निबटने के लिए व्यापक कार्यक्रम के प्रारूप को अंतिम रूप दिया था । विशेषज्ञ समिति द्वारा तैयार इस प्रारूप में आतंकवादियों के प्रत्यर्पण के संबंध में महत्त्वपूर्ण प्रावधानों की व्यवस्था है ।

इससे अब आतंकवादी गतिविधियों का कठोरता से सामना किया जा सकता है । इसमें यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्यर्पण के समय आतंकवादी राजनीतिक शरण नहीं ले सकता । विशेषज्ञ समिति ने ऐसे आतंकवादी अपराधों की सूची तैयार की है, जो प्रत्यर्पण के उद्‌देश्य से राजनीतिक नहीं माने जाते ।

उपर्युक्त ७ देशों के बीच मादक पदार्थों की तस्करी की रोकथाम करने से संबंधित भारत के एक प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अनुमोदन प्राप्त हो गया था । इस तरह से आतंकवाद तथा तस्करी की रोकथाम के लिए एक व्यापक कार्यक्रम पर समझौता हुआ था ।

दक्षेस के कार्यक्रमों के लिए भारत ने १.२५ करोड़, श्रीलंका ने ६० लाख, पाकिस्तान ने १.२५ करोड़, बँगलादेश ने ७५, लाख, नेपाल ने ७० लाख, भूटान ने २० लाख तथा मालदीव ने २.५२ लाख का अंशदान करने की घोषणा की थी । सभी देश अपनी-अपनी मुद्रा में धनराशि देंगे ।

कुछ वर्षों पूर्व ७ देशों के विदेश मंत्रियों ने पाँच महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों को अंतिम रूप दिया था:

१. आतंकवाद का सामना करने के लिए इन देशों में आपसी संधि के लिए कानूनी विशेषज्ञों की एक समिति गठित की जाएगी ।

२. पहले कदम के रूप में ‘दक्षिण एशिया खाद्य सुरक्षा भंडार’ स्थापित किया जाएगा ।

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३. सदस्य देशों के बीच पर्यटन की सुविधा और पर्यटकों की सीमित मात्रा में एक-दूसरे की मुद्रा की खरीद-फरोख्त की सुविधाएँ दी जाएँगी ।

४. सदस्य-देशों के बीच दृश्य और श्रव्य सामग्री का आदान-प्रदान किया जाएगा ।

५. एक दक्षिण एशियाई ‘समाचार एजेंसी’ शुरू की जाएगी तथा अपने क्षेत्र के एक पत्रकार को प्रति वर्ष पुरस्कार प्रदान किया जाएगा ।

इन सारे प्रस्तावों, निर्णय-समझौतों को ‘एक रचनात्मक उपलब्धि’ की संज्ञा दी जा सकती है, किंतु उल्लिखित खतरनाक काररवाइयों के विरुद्ध इन सदस्य देशों ने अपनी जबान तक नहीं खोली । वर्तमान में दक्षिण एशिया में जिन-जिन मूल्यों की टकराहट है, उनके कारणों के मूल पर यदि इन बैठकों में गंभीर चर्चा-परिचर्चा करके संतोषजनक निर्णय लिये जाते तो ‘अस्तित्व का संकट’ काफी हद तक दूर हो सकता था, पर अफसोस |

ऐसी स्थिति में, दक्षिण एशिया के देशों के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि वे क्षेत्रेतर हितों की रणनीति से बाहर रहने के लिए कृत-संकल्प हों । तभी उन्हें क्षेत्रीय हितों की परस्पर पूरकता का एहसास हो सकेगा और परस्पर चिंता की स्वस्थ दृष्टि प्राप्त हो सकेगी ।

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