पुरातत्व पर निबंध | Read this essay in Hindi to learn about:- 1. पुरातत्व की परिभाषा तथा अध्ययन क्षेत्र (Definition and Study Area of Archeology) 2. पुरातत्व में उत्खनन की विधियाँ (Methods of Archeological Excavation) 3. मानविकी  (Humanities).

पुरातत्व की परिभाषा तथा अध्ययन क्षेत्र (Definition and Study Area of Archeology):

पुरातत्व को अंग्रेजी भाषा में Archaeology कहा जाता है । यह यूनानी भाषा के दो शब्दों Archaois तथा Logos से मिलकर बना है । प्रथम का अर्थ है पुरातन तथा दूसरे का ज्ञान । इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ पुरातन ज्ञान है । किन्तु पुरातत्व शब्द का प्रयोग मात्र इस संकुचित अर्थ में नहीं किया जाता अपितु आज इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक हो गया है ।

यह वह विज्ञान है जिसके माध्यम से पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदाई कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी पुरातत्व की परिभाषाओं पर दृष्टिपात करना भी आवश्यक प्रतीत होता है ।

प्रसिद्ध पुरातत्वशास्त्री गार्डन चाइल्ड के शब्दों में ‘भौतिक अवशेषों के माध्यम में मानव के क्रियाकलापों का ज्ञान ही पुरातत्व है’ । लियोनार्ड कोटेरेल के मतानुसार ‘मानव द्वारा छोड़े गये अवशेषों के माध्यम में ज्ञात, उसकी कहानी पुरातत्व है । ये अवशेष उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, घरेलू उपयोग की वस्तु, कब्र, मानव या पशु अवशेष सभी हो सकते है ।

ग्राहम क्लार्क ‘मानव अतीत के पुनर्निर्माण के साधन रूप में पुरावशेषों के क्रमबद्ध अध्ययन को पुरातत्व कहते हैं । बी॰ बी॰ लाल का विचार है कि पुरातत्व विज्ञान की वह शाखा है जो अतीत की मानव संस्कृतियों को व्याख्यायित करती है । एच॰ डी॰ संकालिया ‘पूरावशेषों के अध्ययन’ को पुरातत्व मानते है ।

क्रोफोर्ड का विचार है कि पुरातत्व विज्ञान की वह शाखा है जो अतीत के गर्भ में छिपी हुई मानव संस्कृतियों का अध्ययन करती है तथा व्यवहार में उसका प्रभाव एवं उद्देश्य आदिकालीन तथा प्रागैतिहासिक संस्कृतियों का विवरण प्रस्तुत करना है, इसी प्रकार लियोनार्ड बूली पुरातत्व का लक्ष्य ‘मानव सभ्यता के विकास को खोजना तथा उन्हें प्रदर्शित करना’ बताते है ।

डेनियल की धारणा है कि पुरातत्व का प्रयोग दो मुख्य अर्थों में किया जा सकता है:

1. प्राचीन काल के भौतिक अवशेषों का अध्ययन ।

2. प्रागैतिहासिक पुरावशेषों का अध्ययन ।

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प्रारम्भिक विद्वानों की दृष्टि में पुरातत्व एक सहायक विषय था । वाल्टर टेलर नामक अमेरिकी विद्वान् ने पुरातत्व को मात्र ‘साक्ष्य एकत्र करने की प्रणाली तथा तकनीकों का संग्रह बताया’ । उनके अनुसार पुरातत्ववेत्ता वस्तुतः एक तकनीशियन के अलावे कुछ भी नहीं होता ।

पिगट ने पुरातत्व को इतिहास की एक शाखा के रूप में निरूपित किया । किन्तु हाल के दशक में पुरातत्व संबंधी विचारधारा में परिवर्तन आया है तथा इसकी प्रतिष्ठा एक स्वतंत्र विषय के रूप में होने लगी है । पुरातत्व को एक स्वतंत्र विषय के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले विद्वानों में सर मार्टीमर ह्वीलर का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है ।

पुरातत्व को मात्र तकनीकों का समूह मानने वालों को सटीक उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि पुरातत्ववेत्ता केवल वस्तुओं को ही नहीं खोदता अपितु चढ़ मनुष्यों को भी खोदता है । वह तथ्यों का अन्वेषक होता है । उसके तथ्य मनुष्य की उपलब्धियों के भौतिक वृत्त (Material Records) होते हैं ।

ये यद्यपि निर्जीव होते हैं तथापि पुरातत्ववेत्ता उन्हें अपनी विश्लेषणात्मक शक्ति से सजीव बना देता है । उसके पास एक कलाविद् एवं दार्शनिक जैसी कल्पना शक्ति भी होती है जिसका उपयोग करते हुए वह निर्जन स्थलों एवं वस्तुओं में जीवन का संचार कर देता है । इस दृष्टि से वह मानववादी है ।

इस प्रकार पुरातत्व का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । लिखित साक्ष्य अधिक से अधिक 5000 वर्ष प्राचीन हो सकते है जबकि मनुष्य का आविर्भाव तीस लाख वर्ष पहले हुआ । कालक्रम की दृष्टि से मानव सभ्यता का .001 प्रतिशत भाग ही इतिहास की परिधि में आता है ।

इसके पूर्ववर्ती प्रागैतिहासिक एवं आद्य ऐतिहासिक काल है । इनके सुदीर्घ काल में मनुष्य की गतिविधियों का अध्ययन पुरातत्व के माध्यम से ही संभव है । भौतिक अवशेषों के द्वारा पुराविद् मानव के सम्पूर्ण पारवेश को निर्मित कर देता है । प्रागैतिहासिक एवं आद्यैतिहासिक काल का इतिहास तो पूर्णतया पुरातात्विक अन्वेषणों पर ही आधारित है जबकि ऐतिहासिक काल के इतिहास को पुरातत्व वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है ।

पुरातत्व के अध्ययन क्षेत्र में ही हम संस्कृति की व्याख्या का प्रामाणिक आधार प्राप्त कर लेते है जिससे सांस्कृतिक परिवर्तन की भी व्याख्या की जा सकती है । मानव अतीत के सूक्ष्मातिश्ल विषयों का ज्ञान हमें पुरातत्व के माध्यम से ही होता है क्योंकि लिखित साक्ष्यों में प्रायः जन-सामान्य की गतिविधियाँ गौण होती है ।

पुरातत्ववेत्ता उत्खनन के दौरान प्राप्त की गयी सामग्रियों का सुनियोजित ढंग से कालक्रम को ध्यान में रखते हुए अध्ययन करता है तथा यहां उसका कार्यक्षेत्र व्यापक हो जाता है । वह किसी संस्कृति विशेष के स्वरूप, उसमें उपकरणों के प्रकार, उसका विस्तार क्षेत्र के साथ ही साथ उसके विकसित एवं विलुप्त होने की प्रक्रिया को जानने का प्रयास करता है ।

वह प्राचीन मानव समुदाय की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दशा पर प्रकाश डालता है एवं भौतिक जगत में मानव द्वारा किये गये परिवर्तन का भी ज्ञान कराता है । वह भौतिक उपकरणों तथा अवशेषों का मानवतावादी रखते हुए नियंत्रित कल्पनाशक्ति मरा प्राचीन संस्कृति का यथासंभव जीवन्त इतिहास निर्मित कर देता है ।

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इस दृष्टि उसकी कार्य पद्धति एक कलाकार और वैज्ञानिक जैसी होती है । वह मानव-ज्ञान को विस्तृत कर देता है तथा मनुष्यों में संकीर्ण राष्ट्रीय भावना से ऊपर उठकर विश्व के सभी प्राचीन मानव समुदायों की रीति-रिवाजों के प्रति सहानुभूति एवं करुणा उत्पन्न कर देता है ।

प्राचीन मनुष्यों के रहन-सहन, खान-पान, आवास, उपकरण आदि का अध्ययन पुरातत्ववेत्ता को करना पड़ता है । वह यह भी जानने का प्रयास करता है कि प्राचीन लोगों के धार्मिक अनुष्ठान क्या थे, उनमें मूर्तिपूजा का प्रचलन था या नहीं, जादू-टोने में किस सीमा तक उनका विश्वास था, मृतक संस्कार का स्वरूप कैसा था आदि ।

वह यह भी जानते का प्रयास करता है कि किसी क्षेत्र विशेष में एक ही तरह की संस्कृति की उत्पत्ति कैसे हुई, उसके निवासी स्वदेशी थे अथवा अव्रजक, उन्नत संस्कृति एक क्षेत्र में विकसित होकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में प्रसारित हुई अथवा अलग-अलग क्षेत्र के निवासियों ने स्वतंत्र रूप से उसका अविष्कार किया ।

इस संबंध में डीलर का कथन वस्तुतः महत्वपूर्ण है कि जिस प्रकार एक सैनिक मानचित्र को सामने रखकर उसमें दिखाये गये ठिकानों से नहीं बल्कि उसके सैनिकों से युद्ध करता है, उसी प्रकार पुराविद् के लिये भी एक प्रकार से कहा जा सकता है कि वह उत्खनन में वस्तुओं को नहीं अपितु उनका निर्माण और प्रयोग करने वाले मनुष्यों को खोजता है ।

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वह कल्पनाशील तो होता है परंतु उसकी कल्पनाशक्ति नियंत्रित होती है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है जिसके अन्तर्गत मानव से सम्बन्धित समस्त क्रियाकलापों-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक-का अध्ययन सम्मिलित है । साथ ही यह मानव के क्रमवद्ध सांस्कृतिक विकास को भी व्याख्यायित करने का प्रमुख साधन है ।

पुरातत्व में उत्खनन की विधियाँ (Methods of Archeological Excavation):

पुरातत्व में उत्खनन का विशेष महत्व है क्योंकि इसी के माध्यम से भूगर्भ में छिपी हुई पुरा-वस्तुओं को प्रकाश में लाया जाता है । बीसवीं शती के पूर्व तक उत्खनन का कार्य अव्यवस्थित ढंग से किया जाता था । इसके प्रारम्भिक स्तर पर निर्धारित क्षेत्र में दूर-दूर तक गड्ढे खोदे जाते प्रो और यदि किसी भवन अथवा दीवार का कोई अंश मिल जाता था, तो उसके ज्ञान के लिये इन्हें मिला दिया जाता था । किन्तु कालान्तर में वैज्ञानिक तकनीक विकसित होने के फलस्वरूप व्यवस्थित ढंग से उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया ।

सम्प्रति उत्खनन की दो प्रमुख विधियां व्यवहार में लाई जाती है:

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i. लम्बवत् उत्खनन

ii. क्षैतिज उत्खनन

इनका विवरण इस प्रकार है:

i. लम्बवत उत्खनन:

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जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें किसी स्थान की लम्बा-लम्बी खुदाई की जाती है । यह खुदाई तब तक चलती रहती है जब तक कि प्राकृतिक मिट्टी (Natural Soil) न मिल जाये । इसमें ऊपर से नीचे खोदा जाता है । यह सामान्यत स्थल के कुछ भाग तक ही सीमित होती है ।

इसके द्वारा सम्पूर्ण सभ्यता का प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता अपितु हम विभिन्न संस्कृतियों के कालक्रम का ज्ञान प्राप्त कर सकते है । दूसरे शब्दों में इससे यह जानकारी मिलती है कि सम्बन्धित स्थल कितने समय तक तथा किन व्यक्तियों द्वारा विकसित किया गया ।

इसी कारण ह्वीलर ने इस विधि को काल मापन अथवा संस्कृति मापन (Time Scale or Culture Scale) की संज्ञा प्रदान की है । इस उत्खनन के द्वारा यह जाना जा सकता है कि उस क्षेत्र में किस संस्कृति के लोग कब आये तथा उनका विनाश कब हुआ ।

यह विधि विभिन्न संस्कृतियों के पूर्वापर कम तथा पारस्परिक सम्बन्ध ज्ञात करने में भी सहायता करती है । चूँकि यह उत्खनन एक सीमित क्षेत्र में ही किया जाता है, अत: इसके माध्यम से किसी संस्कृति अथवा सभ्यता का सम्पूर्ण चित्र हमारे सम्मुख उपस्थित नहीं हो पार है ।

इससे किसी संस्कृति के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि पक्षों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती जो मानव के विस्तृत इतिहास लेखन के लिये आवश्यक है । अत: लम्बवत् उत्खनन किसी संस्कृति के कालक्रम रख स्तरीकरण के ही ज्ञान में सहायक हो सकता है ।

ह्वीलर के शब्दों में- “By vertical excavation is meant the excavation of a restricted area in depth with a view to ascertaining the succession of cultures or of phases and so producing a time scale or culture scale for the site”.

ii. क्षतिज उत्खनन:

इससे तात्पर्य है समस्त टीले अथवा उसके वृहत भाग की खुदाई करना । इसमें खुदाई लम्बवत् न होकर विस्तार में की जाती है । इस तरह की खुदाई से हम सम्बन्धित स्थल की काल विशेष की संस्कृति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही सम्बन्धित सभ्यता के अप्रत्यक्ष अवशेष भी प्राप्त कर सकते है ।

इससे यह उद्‌धाटित होता है कि सभ्यता को विकसित करने में किसी स्थान विशेष का क्या योगदान रहा । किसी सभ्यता के सम्यक्-स्वरूप का निरूपण क्षैतिज उत्खनन के माध्यम से ही होता है । ह्वीलर के अनुसार क्षैतिज उत्खनन से तात्पर्य किसी संस्कृति का सर्वांगीण परिचय प्राप्त करने के लिये किसी पुरास्थल के काल विशेष से सम्बन्धित सम्पूर्ण अथवा उसके विस्तृत भाग की खुदाई करना है ।

इस प्रकार क्षैतिज उत्खनन किसी स्थान विशेष की सम्पूर्ण संस्कृति के ज्ञान के लिये आवश्यक है । इस विधि का प्रयोग सर जॉन मार्शल ने 1944-45 ई॰ में तक्षशिला के सिरकप के टीले पर करके पार्थियन युग की संस्कृति का चित्रण प्रस्तुत किया था ।

इसी प्रकार मोहनजोदडो के क्षैतिज उत्खनन से वहाँ के भवनों, सड़कों, गलियों, नालियों, दुर्ग, नगर-विन्यास आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ लेकिन लम्बवत् उत्खनन के अभाव में उनके विकास कम की कोई जानकारी नहीं हो पाई ।

क्षैतिज उत्खनन व्यय साध्य होने के कारण बहुत कम किया गया है । फलस्वरूप उत्खननों से प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक अवस्थाओं के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र हमारे सामने प्रस्तुत नहीं हो पाता ।

पुराविद् उत्खनन की उपर्युक्त दोनों विधियों को एक दूसरे की पूरक मानते है । किसी भी स्थान पर दोनों का प्रयोग अलग-अलग नहीं किया जा सकता । अत: उत्खनित क्षेत्र की पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिये लम्बवत् तथा क्षैतिज दोनों का प्रयोग आवश्यक है ।

लम्बवत उत्खनन द्वारा किसी क्षेत्र की प्राचीनता, उसके निवासियों के स्वरूप तथा उनके उत्थान-पतन की जानकारी मिल जाती है । तत्पश्चात् क्षैतिज विधि से उत्खनन करके उस स्थल की सभ्यता या संस्कृति का पूर्ण गान प्राप्त किया जा सकता है ।

इस प्रकार किसी स्थल का क्षैतिज उत्खनन करने के पहले लम्बवत् उत्खनन द्वारा उसके स्तर विन्यास का विधिवत् अध्ययन कर लेना अभीष्ट है । अन्यथा सभ्यता का निर्धारण ठीक का से नहीं किया जा सकता । वस्तुत: इन दोनों विधियों से प्राप्त जानकारी से ही हम किसी काल के इतिहास एवं उसकी संस्कृति का पुनर्निर्माण कर सकते हैं ।

ह्वीलर ने लम्बवत् उत्खनन को क्षैतिज उत्खनन का पूर्वगामी माना है । दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में उनका कहना है कि लम्बवत् उत्खनन गाड़ी के बिना ही रेल समय-सारिणी है जबकि क्षैतिज उत्खनन समय-सारिणी के बिना ही रेलगाड़ी है ।

जिस प्रकार समय-सारिणी से क्रमश: एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन की जानकारी तो हो जाती है लेकिन संस्कृति रूपी गाड़ी के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता । इसी प्रकार क्षैतिज उत्खनन बिना समय-सारिणी के रेलगाड़ी की भाँति है जिसके विषय में यह ज्ञात नहीं हो पाता कि कब छूटी, किन-किन स्टेशनों पर रुकी तथा कहाँ पहुंची । इसी प्रकार क्षैतिज उत्खनन से किसी सभ्यता के विस्तार क्रम का ज्ञान नहीं हो सकता । अस्तु उत्खनन की दोनों विधियों का प्रयोग करके ही हम सभ्यता के सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर सकते है ।

यह आवश्यक है कि पहले किसी पुरास्थल का लम्बवत् उत्खनन कर उसकी संस्कृतियों का कम निर्धारित किया जाय तथा फिर विभिन्न संस्कृतियों अथवा किसी संस्कृति विशेष के पुरास्थल का क्षैतिज उत्खनन करवाया जाय । सभी संस्कृति अथवा सभ्यता के कालानुक्रमिक विकास एवं सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो सकता है । किसी भी पद्धति के अभाव में संबंधित संस्कृति विषयक का सम्पूर्ण पक्ष उजागर नहीं हो सकता ।

पुरातत्व का मानविकी तथा अन्य विज्ञानों में सम्बन्ध (Humanities of Archeology and Relations in Other Sciences):

पुरातत्व का मुख्य ध्येय भूगर्भ में छिपे हुए मनुष्य के भौतिक पुरावशेषों को उद्‌घाटित कर उसकी सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रकाश डालना है । अपने साक्ष्यों के संकलन एवं उनकी व्याख्या के सम्बन्ध में पुरातत्व मानविकी एवं अन्य प्राकृतिक विज्ञानों से सहायता लेता है और इस प्रकार वह इन विषयों से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित है ।

मानविकी के अन्तर्गत इतिहास, भूगोल, नृतत्व विज्ञान एवं समाजशास्त्र की गणना की जाती है जबकि प्राकृतिक विज्ञान में भूतत्व विज्ञान (Geology), भौतिकी (Physics), रसायन (Chemistry), वनस्पति (Botany) तथा प्राणिविज्ञान (Zoology) सम्मिलित है । इन सभी का सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार से पुरातत्व के साथ रहता है ।

जहाँ तक इतिहास का प्रश्न है, हम यह देखते है कि पुरातत्व इसका सर्वाधिक प्रमाणिक साधन है । इतिहास तथा पुरातत्व दोनों के केन्द्र में मनुष्य होता है तथा दोनों अपने-अपने ढंग से अतीत का पुनर्निर्माण करते है । अभिलेख, सिक्कों तथा प्राचीन स्मारकों की खोज पुरातत्व द्वारा ही की गयी है और इन सबके सहयोग से जिस इतिहास का पुनर्निर्माण किया जाता है, वह काल्पनिक न होकर तथ्यात्मक होता है ।

भारत में लिखित साक्ष्य मिलने के पूर्व का इतिहास प्रधानतः पुरातत्व की सहायता से ही जाना जाता है । हमारी प्राचीनतम सैन्धव सभ्यता एकमात्र पुरातत्व की ही देन है । प्रत्येक पुराविद् के लिये इतिहास की जानकारी आवश्यक है ताकि वह प्राप्त सामग्रियों को काल-विशेष अथवा घटना-विशेष के साथ संयुक्त कर कोई निष्कर्ष प्रस्तुत कर सके ।

पर्याप्त इतिहास ज्ञान के बिना पुरातात्विक निष्कर्ष निकल सकना सम्भव नहीं है, वहीं दूसरी ओर पुरातत्व के बिना इतिहास का विवरण काल्पनिक ही रह जाता है । दोनों पद्धतियाँ एक दूसरे की पूरक है । उदाहरण के लिये बौद्ध ग्रन्थ बुद्ध के समकालीन विभिन्न नगरों, शिल्पों आदि का उल्लेख करते हैं ।

दूसरी ओर पुरातात्विक उत्खनन से इसी काल के सिक्के, मुहरें आदि प्रकाश में आये हैं जो समृद्ध नगर जीवन की पुष्टि कर देते है । इस प्रकार बुद्धकालीन विकसित नगरीकरण साहित्य तथा पुरातत्व दोनों ही प्रमाणों से स्पष्टतः पुष्ट हो जाता है । अतः इतिहास तथा पुरातत्व परस्पर घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित है । अधिकांश विद्वान् पुरातत्व को इतिहास की ही एक शाखा मानते हैं ।

इतिहास का भूगोल से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और इस प्रकार इतिहास की शाखा पुरातत्व भी भूगोल के साथ सम्बद्ध है । किसी भी देश के इतिहास और संस्कृति के ज्ञान के लिये भौगोलिक स्थिति पर विचार करना आवश्यक हो जाता है । प्रकृति ने भारत को एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई प्रदान की है । फलस्वरूप वह अपनी स्वतंत्र संस्कृति का विकास कर सका है ।

प्रागैतिहासिक संस्कृति को विकसित करने में भौगोलिक परिस्थितियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । इस काल की संस्कृति के अध्ययन के लिये पुरातत्ववेत्ता को जलवायु, वातावरण तथा प्राकृतिक स्थिति का गन रखना आवश्यक है ।

प्रातिनूतन काल में जो जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन हुए उसका ज्ञान तत्कालीन संस्कृति के अध्ययन के लिये आवश्यक है । उत्खन्नकर्त्ता को वनस्पति, जीव-जन्तु, भूखी पर प्रवाहित होने वाली जल की मात्रा के विषय में जानकारी भी रखनी होती है । इस प्रकार भारतीय संस्कृति के प्रागैतिहासिक स्वरूप की संरचना में भूगोल का विशेष योगदान है ।

नृतत्व अथवा नृशास्त्र (Anthropology) के अन्तर्गत मनुष्य की शरीर संरचना, उसके समाज एवं संस्कृति, भाषा आदि का अध्ययन किया जाता है । आदिम जनजातियों एवं उनकी प्रथायें नृतत्व के अध्ययन का प्रमुख क्षेत्र है । प्रागैतिहासिक पुरातत्व में भी इसी का अध्ययन किया जाता है ।

धीरेन्द्र नाथ मजूमदार के शब्दों में ‘वस्तुतः प्रागितिहास नृतत्व का वह अंग है जो उत्पत्ति के अध्ययन में रुचि रखता है । आदि मानव के कृतियों के अध्ययन द्वारा यह जैविक एवं सांस्कृतिक नृतत्व के अटूट सम्बन्ध तथा संबद्ध पार्थक्य को पूर्ण रूप से स्थापित करता है ।

साथ ही यह भी निश्चित करता है कि मानव जीवन श्रेणियों और विभागों में नहीं रहा करता । समग्रता और बारम्बरता इसके प्रमुख गुण हैं । इस प्राकर प्रागितिहास नृतत्व की समन्विता की पुष्टि करता है ।

किन्तु नृतत्व एवं पुरातत्व की अध्ययन पद्धति में कुछ मूलभूत अन्तर भी है । पहली बात तो यह है कि नृतत्व में मानव समुदायों के अध्ययन पर बल दिया जाता है ।

इसके विपरीत पुरातत्व का विषय विलुप्त मानव समाज तथा मृत मानव है । दूसरी बात यह है कि नृतत्वविद् मानव के विषय में ही अध्ययन करता है जबकि पुराविद् मानव के क्रियाकलापों, उपकरणों, औजारों, पुरावशेषों आदि का अध्ययन प्रमुख रूप से करता है ।

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समाजशास्त्र के अध्ययन का क्षेत्र मानव समाज की रचना, रीति-रिवाज, संस्कार एवं प्रथायें आदि है । अतः प्राचीन युग की सामाजिक (परिवार, विवाह आदि) एवं राजनीतिक संस्थाओं की जानकारी प्राप्त करने के लिये पुरातत्ववेत्ता को समाजशास्त्र का ही सहारा लेना पड़ता है ।

इसके ज्ञान के बिना पुराविद् इतिहास एवं संस्कृति का पुनर्निर्माण नहीं कर सकता । समाजशास्त्र से ही यह पता चलता है कि आदिम जातियों में मातृसत्तात्मक परिवार एवं बहुपतित्व या पत्नीत्व विवाह की प्रथा प्रचलित थी । इस प्रकार समाजशास्त्र तथा पुरातत्व भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है ।

प्राकृतिक विज्ञानों में सर्वप्रथम भूतत्व विज्ञान (Geology) का उल्लेख किया जा सकता है जिसके साथ पुरातत्व घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है । उल्लेखनीय है कि मानव के उद्‌भव तथा विकास के विषय में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डार्विन का सिद्धान्त भूतात्विक अनुसंधानों का ही परिणाम था ।

पुरातत्व ने स्तरीकरण (Stratification) का सिद्धान्त भूतत्व से ही ग्रहण किया है । भूतत्व वैज्ञानिकों ने ही सर्वप्रथम यह पता लगाया कि पृथ्वी के अन्दर परतें होती है तथा नीचे की परतें ऊपरी परतों की अपेक्षा प्राचीन है । इसी आधार पर पुरातत्वविदे ने यह निष्कर्ष निकाला कि उत्खनन में ऊपरी सतह से प्राप्त सामग्रियों नीचली सतह की सामग्रियों से कालक्रम की दृष्टि से बाद की हैं ।

इसी प्रकार ऊपरी स्तर की सभ्यता के अवशेष नीचले स्तर के अवशेषों के परवर्ती सिद्ध किये जाते हैं । भूतात्विक जमावों के आधार पर ही मानव द्वारा बनाये गये पूर्व पाषाण काल के औजारों की प्राप्ति का लगाया जाता है तथा जीवाश्मों (Fossils) का अध्ययन एवं उनकी तिथि निर्धारित की जा सकती है ।

साथ ही साथ औज़ार-हथियार बनाने के लिये प्रयुक्त पाषाण खण्डों एवं उनकी प्राप्ति स्थानों के विषय में भी भूतत्व की सहायता से जानकारी प्राप्त की जा सकती है । भौतिक विज्ञान ऐतिहासिक पुरावशेषों के काल निर्धारण में पुरातत्व की मदद करता है । इसी के आधार पर अवशेषों अथवा घटनाओं की प्राचीनता सिद्ध की जाती है। पोटेशियम/आर्गन (K40/Ar40) तथा रेडियोकार्बन (C14) जैसा तत्वों के आधार पर विकसित पद्धति से पुरा-वस्तुओं के तिथि निर्धारण में काफी सहायता प्राप्त हुई है। तो कालगणना की एक प्रामाणिक पद्धति है । रेडियो कार्बन विधि से तीस-चालीस हजार वर्षों तक की तथा कुछ प्रयोगशालाओं की सहायता से सत्तर से अस्सी हजार वर्षों तक की तिथियाँ प्राप्त की जा सकती हैं ।

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, मैसूर, केरल आदि के मध्यपूर्व पाषाणिक स्तरों से लगभग छत्तीस कार्बन तिथियाँ प्राप्त की गयी है जिनमें छ: उपकरणों से समबद्ध हैं । ए॰ एच॰ दानी ने शैखान देरी (पेशावर स्थित) के कुषाणकालीन अवशेषों की कार्बन तिथियाँ प्राप्त कर कनिष्क की तिथि को सुलझाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।

पुरातत्व का रसायन से भी सम्बन्ध है । पुरातात्विक स्थलों से जो अवशेष प्राप्त होते हैं, उनमें से अधिकांश जैसे सिक्के आदि सिल्ट, जंग आदि लगने के कारण धूमिल रहते हैं । इन्हें साफ करने के लिए रसायनिक विधियों का उपयोग किया जाता है । साथ ही साथ पुरावशेषों के संरक्षण एवं उनके रख-रखाव के लिये भी रसायनिक तत्वों जैसे बेरियम, कैल्शियम सल्फेट, सिल्वर नाइट्रेट, नाइट्रिक एसिड, नाइट्रोजन, कार्बन डाइआक्साइड आदि पदार्थ विशेष रूप से उपयोगी होते हैं ।

कालगणना के लिये प्रयोग में लायी जाने वाली विधियाँ कार्बन-14, क्लोरीन परीक्षा, आक्सीजन आइसोटोप विश्लेषण, पोटेशियम-विश्लेषण आदि रसायनिक विधियाँ ही हैं जो तिथिक्रम के निर्धारण में अत्यधिक लाभदायक सिद्ध हुई है । पुरातत्व का मेरुदण्ड तिथिक्रम ही है और यह रसायन विज्ञान के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है ।

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जहाँ तक वनस्पति शास्त्र का प्रश्न है, हम देखते हैं कि काल निर्धारण की कुछ विधियों जैसे पराग विश्लेषण (Pollen Analysis) तथा वृक्ष-वलय विश्लेषण (Dentro Chronology) पुरातत्व ने इसी शास्त्र से ग्रहण किया है । पराग विश्लेषण विधि के अनुसार पौधों में जो फूल निकलते है उनमें पराग कण होते हैं ।

सामान्यत: ये नष्ट नहीं होते बशर्ते कि वहाँ अम्लीय तत्व न हो परागयुक्त बीजों के आधार पर वनस्पतियों के प्रसार तथा उनके समय की जलवायु के विषय मैं जाना जा सकता हैं । वृक्ष वलय विश्लेषण विधि के अनुसार परिवृक्षों को बीच से काटा जाय, तो उनके कटे भाग पर गोल-गोल छल्लों की तरह बने हुए चिह्न दिखाई देते है । इसी को वलय (Ring) कहा जाता है ।

साधारण तौर से वृक्षों में एक वलय का निर्माण एक वर्ष में होता है । इन वलयों के आधार पर लकड़ी के किसी टुकड़े की तिथि निर्धारित की जा सकती है । किन्तु यह विधि पूर्ण नहीं है क्योंकि सभी वृक्षों के वलय समसामयिक नहीं होते । जलवायु के अनुसार वृक्ष की आयु भी कम या अधिक हो सकती है । इस प्रकार इस विधि से निर्धारित तिथियों में अनिश्चितता विद्यमान रहती है ।

प्राणिविज्ञान की एक शाखा पुरा-प्राणिविज्ञान (Paleontology) का पुरातत्वविद् तिथि निर्धारण में सहायता लेता है । इसमें जीवाश्मों का अध्ययन कर तिथि गणना की जाती है । यह ज्ञान पुरातत्ववेता के लिये आवश्यक है । इसी का सहारा लेते हुए पुरातत्ववेत्ता हाथी, घोड़े एवं अन्य पशुओं के जीवाश्मों के आधार पर प्रातिनूतन तथा अतिनूतन काल में पृथकता स्थापित करते हैं ।

अतीत की प्राकृतिक अवस्था तथा जलवायु के विषय में पुराविदों को पुराप्राणिविदो के निष्कर्षों पर ही निर्भर करना पड़ता है । प्राणिविज्ञान के ज्ञान से ही मनुष्य खाद्य-अखाद्य पदार्थों की जानकारी प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार पुरातत्व मानविकी एवं प्राकृतिक विज्ञान की विधिज्ञ शाखाओं के साथ किसी न किसी रूप में सम्बन्धित है । पुरातात्विक निष्कर्ष तभी पूर्ण होगा जब इन विविध विषयों का सहारा लिया जाय ।

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