जलवायु परिवर्तन: एक जटिल समस्या पर निबंध | Essay on Climate Change : A Critical Problem in Hindi!

बढ़ता तापमान आज दुनिया के सामने सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है । अनेक संगठन इस स्थिति में है कि वे अब इसके क्षेत्रवार प्रभाव तक बता पाने में सक्षम हैं । परंतु विकसित देश खासकर अमेरिका इस खतरे की ओर से आँखें मूंदे हुए है ।

इस परिवर्तन से प्रत्येक बीता हुआ दिन सृष्टि के लिए अतिरिक्त जोखिम पैदा करता जा रहा है । सन् 1850 से अब तक के सर्वाधिक 12 गरम वर्षो की गणना करें तो हम पायेंगे कि सन् 1995 से लेकर 2009 तक के पन्द्रह में से चौदह वर्ष पिछले 100 वर्षो में सर्वाधिक गरम थे ।

नोबल पुरस्कार विजेता जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सरकारों की पैनल (आइपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट का सार पढ़ लेने मात्र से पर्यावरण संक्षिप्त और सटीक रूप में हम सबके सामने हैं । मात्र 23 पृष्ठीय यह रिपोर्ट (विज्ञान पर प्रभाव, पर्यावरण परिवर्तन के असर एवं पर्यावरण परिवर्तन को कम करने के लिए आवश्यक नीतियां) आईपीसीसी द्वारा पूर्व में जारी की गयी हजारों पृष्ठों में फैली तीन अलग-अलग रिपोर्टो का निचोड़ हैं ।

यह गंभीर किंतु संकलित रिपोर्ट हमें आसन्न चुनौतियों के बीच पृथ्वी पर जीवन को बचाए रखने के बारे में सुझाव भी देती है । उदाहरण के लिए पैनल सदस्य राजेंद्र पचौरी का कथन है कि हम भले ही उत्सर्जन को बहुत सीमित कर लें और वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को इसी स्तर पर बनाए रखें तो भी समुद्री जलस्तर 0.04 मीटर से 1.4 मीटर तक बढ़ने की आशंका बनी रहेगी, क्योंकि समुद्री जल के गर्म होने की क्रिया तो जारी रहेगी ही, जिसके फलस्वरूप समुद्री क्षेत्र में फैलाव होना लाजमी है ।

उन्होंने बताया कि यह खोज बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी वजह से तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन संभावित है जैसे-निचले क्षेत्रों में जल प्लावन के खतरे होंगे और नदियों के डेल्टा प्रदेशों एवं निचले द्वीपों में भी इस वजह से बड़े दुष्प्रभाव दिखाई देंगे । इस कार्य में शामिल 2500 वैज्ञानिक विश्लेषकों, 1250 लेखकों और 130 देशों की नीति निर्माताओं के साझा प्रयासों ने इसे इतना महत्वपूर्ण दस्तावेज बनाया है ।

रिपोर्ट का मुख्य संदेश यह है कि तापमान में हो रही बढ़ोतरी में संदेह की गुंजाइश नहीं है और इस वजह से हवाओं की रफ्तार और समुद्री जल का तापमान बढ़ेगा और समुद्रों का जल स्तर बढ़ने के साथ ही बर्फबारी और पहाड़ों पर जमी बर्फ में भी कमी आएगी।

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समुद्रों के जलस्तर की बढ़ती रफ्तार सन् 1961 के 1.8 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की तुलना में सन् 1993 में 3.1 मिलीमीटर प्रतिवर्ष तक जा पहुँची है । इसकी मुख्य वजह है कि बढ़ते तापमान से हो रही घनत्व वृद्धि और ग्लेशियरों व पहाड़ी चोटियों पर जमी बर्फ और ध्रुवों की बर्फ की चादरों का पिघलाव । अनुमान है कि 21वीं सदी के अंत तक समुद्री जलस्तर में वृद्धि का कड़ा 18 से 59 सेंटीमीटर का स्तर छू लेगा । तापमान में वृद्धि के कुछ असर आकस्मिक और अपरिवर्तनीय भी होंगे ।

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उदाहरण के लिए, ध्रुवों की बर्फ की चादर में हुआ थोड़ा-सा पिघलाव भी समुद्र के जलस्तर में कई मीटर की वृद्धि कर देगा, जिससे तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन होंगे । निचले क्षेत्रों में जल भराव होगा, नदियों के डेल्टा प्रदेशों और निचले टापुओं में भी जलप्लावन की सी स्थितियां निर्मित होंगी । रिपोर्ट तापमान वृद्धि के असर पर क्षेत्रवार प्रकाश डालती है । जैसे-अफ्रीका में 2020 तक 7.5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ लोगों को इसके दुष्परिणाम भुगतने होंगे ।

कुछ देशों में तो वर्षा आधारित कृषि घटकर 50 प्रतिशत रह जायेगी । संभव है कि 2050 तक मध्य दक्षिण, पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशिया में खासतौर से बड़े नदी संग्रहणों के मीठे जल में भारी कमी होगी । दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशिया के तटीय क्षेत्रों खास तौर से बड़ी आबादी वाले वृहद डेल्टा प्रदेशों में समुद्रों और नदियों की बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा होगा । संभावित जलवायु चक्र परिवर्तन की वजह से पूर्वी दक्षिण एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में बाढ़ और सूखा जनित डायरिया की वजह से प्रदूषण और मृत्युदर में वृद्धि होगी ।

रिपोर्ट के मुताबिक सन् 1850 से अब तक के सर्वाधिक 12 गरम वर्षों की गणना करें तो हम पायेंगे कि सन् 1995 से लेकर 2009 तक के पन्द्रह में से चौदह वर्ष पिछले 100 वर्षों के तापमान में 0.74 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है । आर्कटिक की बर्फ का दायरा 2.7 प्रतिशत प्रति दशक की दर से सिकुड़ता जा रहा है ।

गर्मियों में तो यह 7.4 प्रतिशत दशक की दर से सिकुड़ रहा है । पृथ्वी के गोलार्धो में ग्लेशियरों एवं बर्फ की मात्रा में कमी आई है । रिपोर्ट लगातार चेताती है कि यदि अब भी कदम न उठाए गए तो वैश्विक उत्सर्जन की मात्रा में सन् 2000 और 2030 के बीच 25 से 30 प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है ।

अगले बीस सालों में 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से तापमान वृद्धि की आशंका जताई गयी है और अगर ग्रीन हाउस गैसों और एयरोसोल के घनत्व को सन् 2000 के स्तर पर स्थिर भी रख लिया जाये तब भी इसके 0.1 डिग्री सेंटीग्रेट प्रति दशक की दर से बढ़ने का आकलन किया गया है । मौजूदा स्थिति आईपीसीसी द्वारा कुछ वर्ष पूर्व कराए गये आकलन से भी काफी खराब है ।

इसमें चिंता के पांच आधार बिंदु तय किये हैं:

1. 1980-1999 के स्तर से तापमान का वैश्विक औसत अगर 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से 2.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ता है तो वनस्पति और पशुओं की 20 से 30 प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्त होने के खतरे बढ़ जायेंगे ।

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2. सूखा, गर्म हवाएं, बाढ़ में वृद्धि और अनेक अन्य दूरगामी परिणाम भी अनुमानित है।

3. विभिन्न क्षेत्रों में असर भी भिन्न-भिन्न होगा, खासतौर से आर्थिक आधार पर पिछड़े लोगों पर पर्यावरण परिवर्तन का असर सर्वाधिक हुआ करता है ।

4. कम गर्म होने वाले क्षेत्रों में पर्यावरण परिवर्तन के प्रारंभिक बाजार आधारित लाभ ज्यादा होने का अनुमान किया गया है, जबकि ज्यादा गर्म होने वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक नुकसान आकलित है ।

5. सैंकड़ों वर्षों से जारी तापमान वृद्धि के परिणामस्वरूप हुई घनत्व वृद्धि की वजह से समुद्री जलरत्तर में वृद्धि बीसवीं सदी की अपेक्षा बहुत ज्यादा आकलित है, जिससे तटीय क्षेत्रों में कमी होगी और इससे जुड़े अन्य प्रभाव भी सामने आएंगे।

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रिपोर्ट समक्ष खड़े खतरे से निपटने के उपायों पर जिसमें-शमन (ऊर्जा, परिवहन, उद्योग आदि क्षेत्रों में निवारक उपाय अपनाकर स्थिति को बदतर होने से रोकना), अनुकूलन (दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय), वित्त प्रबंध एवं तकनीक शामिल हैं, पर चर्चा के साथ खत्म होती है ।

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