कैसे स्वस्थ होगी बीमार उच्च शिक्षा पर निबंध | Essay on Higher Education in Hindi!

तेजी से बढ़ता हुआ सेंसेक्स, 8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही आर्थिक विकास दर, लगातार बढ़ती अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या विदेशी कंपनियाँ खरीदते भारतीय और अनिवासी भारतीय-कितना कुछ है देश की प्रगति पर प्रसन्न होने के लिए ।

दूसरा पक्ष भी अपनी जगह है-30 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे, भवनविहीन स्कूल जहाँ न अध्यापक, न ब्लैक बोर्ड, नवजात से 3 वर्ष तक के 49 प्रतिशत बच्चे कुपोषित । इस पक्ष को उठाने पर उत्तर एक ही मिलता हैं-ऊपर का वैभव नीचे की ओर तेजी से आ रहा है । प्रतीक्षा करें ।

ऐसे परिदृश्य में जब देश के उच्च शिक्षा संस्थानों के कुलपति मिलते हैं और वहाँ उच्च शिक्षा की वस्तुस्थिति पर व्यावहारिक तथा जमीनी स्तर की सच्चाई पर चर्चा होती है तो सुखद आश्चर्य होता है । कुछ समय पहले तक सभी यह मान बैठे थे कि भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में शिक्षा का अर्थ है: अल्पसंख्यक संस्था, उर्दू मदरसा, आरक्षण और सच्चर समिति ।

ADVERTISEMENTS:

ऐसे सक्रिय मंत्रालय से जब यह स्वीकृति आती है कि उच्च शिक्षा ‘बीमार बालक’ के समान है तो लगता है कि मत्रालय की सोच भी स्वास्थ्य लाभ ले रही है । सुधार की कुछ आशा बँधी है प्रसन्नता का विषय है.

कुछ तथ्य तो कुलपति, सरकारें, यूजीसी तथा केन्द्रीय सरकार के पास पिछले 20-25 वर्षो से सर्वविदित थे । राज्य सरकारें, विश्वविद्यालयों पर स्ववित्तपोषित पाठ्‌यक्रम चलाने का जोर डाल रही थी । इसमें अनेक प्रकार की अवांछित प्रवृतियों और विकृतियों का आना स्वाभाविक था ।

विश्वविद्यालय अपवादों को छोड़कर 10-15 साल तक कोई नियमित नियुक्ति प्राध्यापकों या प्रवक्ताओं के स्तर पर नही कर पा रहे थे । वे पद जिनका सारा आर्थिक भार उठाने के लिए पहले पाँच साल तक यूजीसी तैयार थी-भरे नहीं जा सके क्योंकि राज्य सरकारें पाँच साल बाद भी आर्थिक बोझ उठाने को तैयार नहीं थीं ।

भारी संख्या में प्रति लेक्चरर या नाममात्र के मानदेय पर गेस्ट लेक्चरर नियुक्त होने लगे । स्तर घटा, प्रतिबद्धता घटी और विद्यार्थी भी मजबूरी में इस निराशाजनक स्थिति में उपाधियाँ प्राप्त करते रहे । कुलपतियों के करने के लिए इसमें कुछ ज्यादा था ही नहीं । राज्यों के विश्वविद्यालयों या केन्द्र सरकार पोषित संस्थाओं में बहुप्रचारित स्वायत्ता का अर्थ होता है- वह सब मानना जो सरकारी प्रतिनिधि कहे । वास्तविकता यही है ।

जब लगातार अनेक वर्ष तक नियुक्तियाँ नहीं होगी तो अध्यापकों की कमी तो होगी ही । इसकी शिकायत आज वही कर रहे हैं जिन्होने यह स्थिति पैदा की । जो युवा शोध में रूचि लेते थे, डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर विश्वविद्यालयों में पद प्राप्त करने के लक्ष्य रखते थे, वे धीरे-धीरे निराश होकर अन्यत्र रूचि लेने लगे बजाय इसके कि नियमित नियुक्तियाँ बड़े पैमाने पर की जाएँ, आरक्षण का सहारा लेकर सेवानिवृत्ति की आयु केंद्रीय संस्थाओं में 62 से 65 साल कर दी गई । पहले से ही निराश युवा वर्ग शोध तथा अध्यापन से और दूर कर दिया गया ।

ADVERTISEMENTS:

भारत की शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्चा करने के वादे हर सरकार करती है मगर यह हमेशा उससे कम रह जाता है । अब सरकारी तंत्र यह आश्वासन दे रहा है कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक यह पाँच प्रतिशत तथा बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 6 प्रतिशत हो जाएगा उच्च शिक्षा की स्थिति इससे कितनी सुधरेगी, कहना कठिन है । आगे के वर्षों में भी प्रारंभिक शिक्षा को सभी तक पहुँचाने, माध्यमिक शिक्षा को ‘युनिवर्सलाइजेशन’ करने के वादे भी निभाने हैं ।

घूम-फिरकर उच्च शिक्षा का प्रसार निजी निवेशकों के हाथों में अधिक जाता जाएगा । नियम बनाने से न रैगिंग रूकती है और न निजी संस्थानों की विभिन्न प्रकार की फीस पर कोई नियंत्रण हो पाता है । देश के कुलपतियों ने फीस बढ़ाने पर सहमति नहीं दी है । कारण, जो स्वीकार नही किए जाएंगे, स्पष्ट है । उन्हें अपने विश्वविद्यालय शांतिपूर्ण ढंग से चलाने हैं, तोड़फोड़ हड़ताले रोकनी है । अपने कार्यकाल निर्वहन ढंग से पूरे करने हैं ।

भारत में शिक्षा को तथ्यात्मक स्तर पर जानने के लिए वर्ल्ड बैंक, यूनेस्को तथा यूनीसेफ की रिपोर्ट का सहारा अब सरकार के विभाग भी लेने लगे हैं । अभी प्रकाशित यूनेस्कों की रिपोर्ट ‘ग्लोबल एजुकेशन डाइजेस्ट 2007’ में अनेक रूचिकर कड़े सामने आए हैं । भारतीय परिवार स्कूल शिक्षा पर अपनी आमदनी का 28 प्रतिशत व्यय करते हैं । वैसे यह शिक्षा कम-से-कम आठ तक निःशुल्क मानी जाती है ।

ADVERTISEMENTS:

लड़कियों के लिए अनेक आगे के स्तरों तक निःशुल्क है, ऐसी घोषणाएँ सरकार समय-समय पर करती रहती है । इसी यूनेस्को रिपोर्ट में ये तथ्य भी सामने आए हैं कि भारतीय परिवार उच्च शिक्षा पर अपनी आमदनी का केवल 14 प्रतिशत खर्च करते हैं । प्राइवेट ‘पब्लिक स्कूलों’ का बढ़ना, उनकी फीस का बढ़ना इस स्थिति को स्पष्ट करते हैं । सरकारी अनुदान से चलने वाले विश्वविद्यालय फीस में छोटी-मोटी वृद्धि करने का साहस नही कर पाते हैं ।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो विद्यार्थी प्रतिवर्ष लाखों रूपए फीस देकर प्राइवेट स्कूलों से विश्वविद्यालय आते हैं और उतनी फीस देने की क्षमता उच्चशिक्षा में भी रखते हैं-वहाँ आकर नाममात्र की फीस देते हैं । उच्च शिक्षा को निजी निवेश का चारागाह बनने देने के बजाय सरकार द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों में आनुपातिक रूप से फीस बढ़ाने का निर्णय सैद्धांतिक रूप से उचित माना जाएगा ।

यह व्यावहारिक रूप देने का कर्मठ प्रयास आवश्यक है । यदि शिक्षा में श्रेष्ठता ‘एक्सीलेंस’ लानी है और उसका विस्तार करना है तो ऐसे कदम उठाना आवश्यक है । आधिकारिक तौर पर समस्याओं के समाधान के प्रयास अनेक पक्षों में आवश्यक है । अध्यापकों के रिक्त पदों को भरा जाना, उन्हें प्रारंभिक प्रशिक्षण देना इसमें सर्वप्रथम है ।

हर पाँच वर्ष बाद प्रत्येक अध्यापक के पुनर्प्रशिक्षण का प्रावधान उन्हें अच्छे स्तर के अध्ययन तथा शोध के प्रावधान सुदृढ़ करने होंगे । पीएचडी शोध के स्तर तो चिंताजनक हैं ही, उनकी लगातार घटती संख्या भी और चिंताजनक है । सालभर में अमेरिका के 26 हजार, चीन के 16 हजार के मुकाबले भारत में 5 या 6 हजार शोध प्रबंध ही बनते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

अंतत: उच्च शिक्षा की गुणवत्ता तभी सुधरेगी जब स्कूल शिक्षा तथा अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता सुधारी जाएगी । शिक्षा तंत्र में निरंतरता को स्वीकार करना होगा । इसे अनेक स्तरों में बाँटकर सुधार करना संभव नहीं है । शिक्षा जगत् में मूल्यहीनता बड़ी है, इसे भी स्वीकार करना चाहिए । ऐसा न करने पर वांछित परिणाम मिलना लगभग संभव नहीं लगता ।

Home››Education››