निजीकरण की अवधारणा और इसका औाचत्यॅ पर निबन्ध |  Privatization in Hindi!

सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था को एक ही धारा में प्रवाहित करने का प्रयास लगातार तेज होता जा रहा है । इस प्रयास में अमरीका तथा उसके सहयोगी देशों और विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व व्यापार संगठन जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को पर्याप्त सफलता मिल रही है ।

उदारीकरण के अर्न्तगत व्यापार, उद्योग एवं निवेश पर लगे ऐसे प्रतिबंधों को समाप्त किया जा रहा है, जिनके फलस्वरूप व्यापार, उद्योग एवं निवेश के स्वतंत्र प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है । प्रतिबंधों को समाप्त करने के अतिरिक्त विभिन्न करों में रियायत सीमा शुल्कों में कटौती तथा मात्रात्मक प्रतिबधो को समाप्त करने जैसे उपाय भी किए जा रहे हैं ।

निजीकरण का अभिप्राय यह है कि आर्थिक क्रियाओं में सरकारी हस्तक्षेप को उत्तरोत्तर कम किया जाए, प्रेरणा और प्रतिस्पर्धा पर आधारित निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाए, सरकारी खजाने पर बोझ बन चुके अलाभकारी सरकारी प्रतिष्ठानों को विक्रय अथवा विनिवेश के माध्यम से निजी स्वामित्व एवं नियंत्रण को सौंप दिया जाए, प्रबन्ध की कुशलता को सुाrनोश्एचत करने के लिए सरकारी प्रतिष्ठानों में निजी निवेशकों की सहभागिता बढायी जाय और नये व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना करते समय निजी क्षेत्र को प्राथमिकता दी जाए । निजीकरण राष्ट्रीयकरण का प्रतिलोम भी है ।

निजीकरण का औचित्य:

आज निजीकरण प्रत्येक देश की अर्थनीति का एक अभिन्न अंग बन चुका हे । कुछ वर्षों पूर्व तक जो देश पूर्ण राजकीय स्वामित्व वाली केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था चला रहे थे उन देशों में भी निजीकरण की प्रक्रिया जोर पकड़ने लगी है ।

क्योंकि राजकीय स्वामित्व और केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था असफल साबित हुई और उन देशों की आर्थिक बदहाली के कारण के रूप में इन्हें देखा जाने लगा । सरकारी स्वामित्व और नियंत्रण वाले अवसाय और उद्योग के सम्बन्ध में भारत जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश का अनुभव भी अच्छा नहीं रहा ।

स्वतंत्र बाजार वाली अर्थव्यवस्था में विश्वास करने वाले देशों में पहले से ही निजी क्षेत्र की प्रमुखता थी । फिर भी कृषि, उद्योग एवं सेवा-क्षेत्र का जो हिस्सा सरकारी नियंत्रण मे था उनसे अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हुए और उन्हें निजी क्षेत्र के हवाले करना पड़ा ।

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम संतोषप्रद ढंग से काम नहीं कर पा रहे हैं । इसके कारण हैं:

1. छोटे-बड़े क्रयों विक्रयों एवं अनुबंधों में रिश्वतखोरी का बोलबाला रहा ।

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2. स्थापित और पारम्परिक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए बड़े लोगों के चहेतों को विभिन्न पदों पर नियुक्त करने के कारण प्रबन्ध और संचालन अकुशल हाथों में चला गया ।

3.सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की मोटरगाडी, हवाई जहाज और अतिथिगहों का निजी प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया गया और इनके प्रचार साधनों का दुरुपयोग होता रहा ।

4. आर्थिक एवं तकनीकी कारकों की अवहेलना करके प्रभावशाली राजनेताओं के राजीनतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उनके चुनाव क्षेत्रों में प्रतिष्ठानों की स्थापना को तरजीह दी गई ।

5. मानवीय स्पर्श तथा सामाजिक उद्देश्यों को अत्यधिक महत्व दिया गया और आर्थिक यथार्थ की उपेक्षा की गई ।

6. नये आर्थिक वातावरण के अनुरूप व्यवसाय, वित्त और विपणन के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा की क्षमता विकसित करने में ये प्रतिष्ठान सफल नहीं हो पाये ।

7. मूल्यवान संसाधनों का दुरुपयोग

8. अत्यधिक नियंत्रण एवं नियमन

9. उत्तरदायित्व की कमी

10. कामगारों के हितों की रक्षा करने के लिए निजी क्षेत्र के कई बीमार उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया जो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की 60 प्रतिशत हानियो के लिए उत्तरदायी है ।

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11. सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ प्रतिष्ठान अनुपयुक्तता प्रौद्योगिकी के साथ गलत स्थानों पर राजनीतिक कारणों से स्थापित किये गये जहाँ कच्चे माल का अभाव था ।

12. अत्यधिक सरकारी नियंत्रण, स्वायत्तता की कमी, प्रबन्धकों के लिए प्रेरणा का अभाव, प्रबन्धकों एवं कामगारों को अपर्याप्त वेतन तथा संचालक मंडल में केवल सरकारी प्रतिनिधियों को शामिल करने और बाहरी पेशेवर प्रबन्धकों एवं विशेषज्ञों को शामिल करने के फलस्वरूप सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों का कुशल प्रबन्ध सम्भव नहीं हो पाया ।

13. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों की नियुक्ति तथा कर्त्तव्यनिष्ठा के अभाव के फलस्वरूप लागत पर नियंत्रण नहीं रह सका और इस क्षेत्र में निवेशित विशाल धनराशि से उचित प्रत्याय (रिटर्न) प्राप्त नहीं होने के कारण कई इकाइयों की लाभप्रदता धीरे-धीरे कम होती गई और सार्वजनिक क्षेत्र की बीमार इकाइयों की सूची लम्बी होती चली गई ।

14. शोध, विकास, प्रयोग और आविष्कार पर ध्यान नहीं दिया गया ।

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15. आदेश के अनुरूप समय पर आपूर्ति करने में ये उपक्रम विफल रहे ।

16. राजनीतिक हस्तक्षेप, निर्णयों पर एकाधिकार तथा उच्च एवं सम्प्रांत लोगों को अनुचित लाभ प्रदान करने से भी इनकी स्थिति बिगड़ने लगी ।

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की उपर्युक्त कमियों और कमजोरियों के कारण इस क्षेत्र के अधिकतर उपक्रम हानियों पर चल रहे हैं अथवा अच्छी स्थिति में नहीं है फलत: ये सरकारी खजाने और वस्तुत: देश के करदाताओं पर बोझ बन गये हैं और अनिश्चतकाल तक राजकोषीय समर्थन पर इनका सम्पोषण नहीं किया जा सकता है ।

अलाभकारी प्रतिष्ठानों के सरकारी सम्पोषण के फलस्वरूप राजकोषीय घाटे में वृद्धि होती है और देश की अर्थव्यवस्था को स्वाभाविक प्रतिकूल परिणाम भुगतना पड़ता है । निजीकरण के माध्यम से इस स्थिति से निजात मिल सकती है । अलाभकारी सरकारी उपक्रमों से वे सामाजिक और कल्याणकारी उद्देश्य पूरे नहीं हो सके जिनके लिए इनकी स्थापना हुई थी ।

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राष्ट्रीयकरण को समाजवाद स्थापित करने के लिए एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया गया था । किन्तु समाजवाद का सिद्धान्त और राष्ट्रीयकरण का अस्त्र समय की कसौटी पर खरा नहीं उतरा । सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार के लिए अब तक जो भी प्रयत्न किये गये वे सफल नहीं हो पाये और अब यह महसूस किया जा रहा है कि इन्हें पटरी पर लाने के प्रयास के बजाय इनका स्वामित्व और संचालन निजी क्षेत्र को सुपुर्द कर देने में ही देश का हित है ।

निजीकरण के अनेक उद्देश्य हो सकते हैं । प्रत्येक देश की अपनी अलग समस्याएँ होती हैं । उन समस्याओं के निराकरण के लिए वह देश निजीकरण की अपनी अलग कार्ययोजना तैयार करता है । ऐसी स्थिति में विभिन्न देशों के लिए निजीकरण का अलग-अलग उद्देश्य होना स्वाभाविक है । फिर भी निजीकरण के कुछ उद्देश्य ऐसे हैं जो सभी देशों के लिए एक समान होते हें, जैसे:

1. अधिक कार्यकुशलता और उत्पादकता,

2. शिक्षित एवं उद्यमशील युवाओं को अवसर प्रदान करके रोजगार में वृद्धि,

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3. राजकोषीय सन्तुलन को बिगाड़ने वाले हानिप्रद सरकारी उपक्रमों को समाप्त करके राजकोषीय घाटे में कमी,

4. आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाकर कर एवं गैर-कर राजस्व में वृद्धि,

5. निर्यात प्रोत्साहन के माध्यम से विदेशी मुद्रा की आय में वृद्धि,

6. विदेशी ऋणों पर निर्भरता में कमी,

7. प्रौद्योगिकी का उन्नयन, 8. विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकजुटता, 9. विशाल औद्योगिक परियोजनाओ में निवेश करने के बजाय सामाजिक क्षेत्रों के लिए साधनों की बचत तथा देश के स्वल्प का सर्वोत्तम एवं कुशल उपयोग ।

उपर्युक्त उद्‌देश्यों के अतिरिक्त निजीकरण का एक प्रमुख उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की कार्यक्षमता में सुधार करना भी है । जब सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है तो उसे अपनी कार्यक्षमता में सुधार करने के लिए विवश होना पड़ता है । साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार समाप्त हो जाता है और उपभोक्ताओं को इसका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ प्राप्त होता है ।

भारत में निजीकरण:

निजीकरण आर्थिक सुधार का एक विश्वव्यापी कार्यक्रम बन गया है । यह कार्यक्रम यूरोप, अमेरिका और जापान तक ही सीमित नहीं है, बल्कि साम्यवाद का परित्याग कर प्रजातांत्रिक पद्धति अपनाने वाले देशों साम्यवादी देशों और विकासशील देशों में भी अपनाया जा रहा है ।

विलम्ब से ही सही किन्तु भारत ने भी निजीकरण के सिद्धान्त को अपनाया है । राजनीतिक विरोध और वैचारिक मतभेदों के कारण निजीकरण की गति धीमी है लेकिन इस कार्यक्रम को तेजी से लागू करने के प्रयास चल रहे हैं ।

यह प्रयास 1991 में प्रारम्भ हुआ जब परम्परागत औद्योगिक एवं आर्थिक नीति को छोड़कर उदारीकरण और निजीकरण पर आधारित नई आर्थिक नीति को अपनाया गया । भारत में 1991 की नई आर्थिक नीति के साथ ही उदारीकरण और निजीकरण का शंखनाद हुआ ।

अब भारत में इस बात पर सर्वानुमति है कि सरकार को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से दूर रहना चाहिए इसके दो प्रमुख कारण हैं एक तो यह कि सरकार के पास संसाधनों की कमी है और दूसरे यह कि सार्वजनिक क्षेत्र के कई प्रतिष्ठान अकुशल हैं और घाटे पर चल रहे हैं ।

सार्वजनिक क्षेत्र के सम्बन्ध में सरकारी नीति के निम्नलिखित प्रमुख तत्व हैं:

1. गैर सामरिक सार्वजनिक उपक्रमों में सरकारी भागीदारी को घटाकर 26 प्रतिशत या इससे भी कम कर दिया जाय ।

2. जिन सार्वजनिक उपक्रमो में सुधार की सम्भावनाएँ हों उनका पुनर्गठन करके उन्हें जीवन्त बनाया जाय ।

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3. जिन सार्वजनिक उपक्रमों को जीवन्त बनाने की सम्भावना नहीं हो, उन्हें बन्द कर दिया जाय ।

4. उपयुक्त कार्यक्रमों को लागू करते समय कामगारों के हितों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जाय ।

भारत में विनिवेश ही निजीकरण का मुख्य आधार रहा है । विनिवेश के माध्यम से सार्वजनिक उपक्रमों के अंश स्वदेशी या विदेशी निजी निवेशकों के हाथ बेचे जाते है । वर्ष 1991-92 या 2001-2002 तक कुल मिलाकर, 65,300 करोड़ रूपये विनिवेश के माध्यम से अर्जित करने का लक्ष्य रखा गया, जबकि सिर्फ 19,435 करोड़ रूपये (अक्टूबर 2001 तक) वास्तव में प्राप्त किये जा सके । दूसरे शब्दों में, मात्र 29.76 प्रतिशत लक्ष्य ही पूरा किया जा सका ।

भारत में निजीकरण का कार्यक्रम विनिवेश तक ही सीमित नहीं है । औघोगिक एवं व्यावसायिक लाईसेन्स की नीति, विदेशी विनिमय की नीति, आयात-निर्यात की नीति तथा कर-नीति को उदार बनाकर निजी क्षेत्र के निवेशकों को प्रोत्साहित किया जा रहा है ।

अब निजी क्षेत्र के किसी प्रतिष्ठान के राष्ट्रीयकरण की बात नहीं हो रही है । रेल और सुरक्षा क्षेत्र को छोड़कर अन्य सरकारी प्रतिष्ठानों के अंश निजी निवेशकों के हाथ बेचे जा रहे हैं या उन पर विचार किया जा रहा है । कई क्षेत्र शत-प्रतिशत निवेश के साथ विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिए गए हैं भारतीय निवेशकों के साथ मिलकर अन्य क्षेत्रों में विदेशी निवेशको की भागीदारी में उत्तरोत्तर वृद्धि की जा रही हैं ।

निवेशक काफी संख्या में संयुक्त उपक्रम स्थापित कर रहे हैं । सरकारी क्षेत्र में कोई नया औद्योगिक या व्यावसायिक उपक्रम स्थापित नहीं किया जा रहा है और जो उद्योग एवं व्यवसाय सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, उनमें से कई अब अनारक्षित कर दिये गये हैं और निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति प्रदान कर दी गई है ।

बीमा और बैंकिंग व्यवसाय के द्वार भी निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए हैं । विगत कई वर्षो से ऐसा लगने लगा है कि केन्द्र सरकार अपने राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए निजीकरण की प्रक्रिया को तेजी प्रदान करने के प्रयास कर रही थी ।

वर्ष 1997-98 तक अपने बजट भाषणों में वित्तमंत्री यह घोषणा करते आए थे कि लाभ अर्जित करने वाले किसी भी सार्वजनिक उघोग को निजी क्षेत्र को नहीं बेचा जाएगा । लेकिन जिस पर सरकार ने लगातार लाभ अर्जित करने वाले अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित सार्वजनिक उपक्रमों-बाल्को, सीएमसी. विदेश संचार निगम लि. आई.बी.पी का निजीकरण किया उससे अब सरकार की नियत पर सन्देह होने लगा है इसी के चलते सरकार द्वारा लाभ अर्जित करने वाले अन्य सार्वजनिक उपक्रमों- नालको, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम तथा सामरिक महत्व के अन्य उपक्रमों-भारतीय जहाजरानी निगम, राज्य व्यापार निगम, एयर इण्डिया तथा इण्डियन एयर लाइन्स के निजीकरण का देश में भारी विरोध हो रहा है । सत्तासीन लोकतांत्रिक गठबन्धन सरकार के घटक दल ही इन उपक्रमों को बेचने का भारी विरोध कर रहे है ।

निष्कर्ष:

निजीकरण का उद्देश्य केवल उत्पादकता और लाभदायकता में सुधार करने तक ही सीमित नहीं है । इन उद्देश्यों की पूर्ति से तो केवल अंशधारी या निवेशक लाभान्वित होंगे निजीकरण का लाभ उपभोक्ताओं को भी प्राप्त होना चाहिए ।

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यह तभी संभव है जब उन्हें उच्च-स्तर की वस्तु और सेवा कम कीमत पर उपलब्ध हों । अपेक्षाकृत गरीब उपभोक्ताओं के लिए विभेदात्मक न्यून कीमत की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उपभोक्तावाद की वर्तमान सस्कृति में वे भी अपने रहन-सहन के स्तर को यथासंभव नया आयाम दे सकें ।

निजीकरण के कार्यक्रम न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप विनियमन और उदारीकरण के वातावरण में चलाये जाते हैं । अर्थव्यवस्था बाजारीम्मुखी और अति प्रतिस्पर्धात्मक हो जाती है और इसका स्वाभाविक लाभ उपभोक्ताओं को प्राप्त होता है ।

फिर भी बाजार तक अल्प आय वर्ग के उपभोक्ताओं की पहुँच कठिन होती है । माँग के आधार को विस्तारित करने के लिए भी यह आवश्यक है कि उच्च एवं मध्य आय-वर्ग के उपभोक्ताओं के साथ-साथ निम्न आय वर्ग के उपभोक्ताओं के लिए भी अधिक-से-अधिक वस्तु एवं सेवा सुलभ हों । निजीकरण के दौड़ में विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी का आगमन होता है और उत्पादन प्रणाली में श्रमिकों का महत्व क्रमश: घटने लगता है, क्योंकि पूँजी-प्रधान तकनीकों से उत्पादन में वृद्धि करने की लागत अपेक्षाकृत कम होती है ।

उन्नत उपकरणों के प्रयोग के कारण नियोजित श्रमिकों की उत्पादन-क्षमता बढ़ जाती है, लेकिन रोजगार के नये अवसरों का सृजन नहीं हो पाता है । अर्थात जिस अनुपात से उत्पादन में वृद्धि होती है, उस अनुपात से रोजगार में वृद्धि नहीं होती है ।

लेकिन यह ध्यान देने की बात है कि संगठित क्षेत्रों और बड़े पैमाने के उद्योगों में भले ही रोजगार के कम अवसर उत्पन्न हों, निजीकरण के वातावरण में उद्यमशील प्रशिक्षित युवाओं के लिए स्वरोजगार की अपार सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं । जो भी हो, निजीकरण के फलस्वरूप विस्थापित कामगारों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराने अथवा पर्याप्त क्षतिपूर्ति उपलब्ध कराने के लिए सरकार को कारगर कदम उठाना चाहिए ।

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