छात्र और उनुशासन पर निबंध | Essay on Students and Discipline in Hindi!

किसी भी देश या राष्ट्र का भविष्य वहाँ के छात्रों पर ही निर्भर करता है । यदि वहाँ के छात्र सच्चरित्र, विनीत, सुशील, सहिष्णु कर्तव्यनिष्ठ एवं अनुशासन-प्रिय होंगे तो राष्ट्र अवश्य सुखी, संपन्न, समुन्नत और प्रगतिशील होगा; क्योंकि आज के छात्र कल के कर्णधार होते हैं ।

नन्हे-मुन्ने कोमल शिशुओं की सुकुमार भावनाओं में देश का भविष्य निहित रहता है, किंतु खेद है कि आज का छात्र-समुदाय एक विपरीत दिशा की ओर जा रहा है । उसमें स्वेच्छाचारिता, उद्‌दंडता, अनुशासनहीनता तथा धृष्टता चरम सीमा तक पहुँच गई है ।

गुरुजनों से अशिष्टता करना, सभा-सम्मेलनों में उत्पात मचाना, राह चलती छात्राओं को छेड़ना, निराधार और अनावश्यक हड़ताल व अनशन आदि करना तथा भावावेश में आकर तोड़-फोड़ करना उनका स्वभाव सा वन गया है । एक समय था जब छात्र देश की अमूल्य निधि और अनुपम विभूति समझे जाते थे । वे अपने कार्यों से राष्ट्र तथा समाज का मस्तक सदा उन्नत रखने की चेष्टा करते

थे । गुरुजनों से शिक्षा प्राप्त कर वे राष्ट्र के ऐसे आदर्श नागरिक बनते थे, जिनकी प्रशंसा शासक वर्ग मुका कंठ से करते थे । किंतु आज उसी देश के छात्र अनुशासनहीन होकर अपना ही नहीं बल्कि अपने देश का भविष्य बिगाड़ रहै हैं ।

छात्रावस्था में अनुशासन अति महत्त्वपूर्ण है । छात्रावस्था अबोधावस्था होती है । उसमें न तो बुद्धि परिष्कृत होती है और न विचार । ऐसी स्थिति में छात्र के माता-पिता तथा उसके गुरुजन उसकी बुद्धि का परिष्कार करके उसमें विवेक-शक्ति जाग्रत् करते हैं और उसे कर्तव्य पालन का पाठ पढ़ाते हैं । वे उससे अपनी आज्ञाओं का पालन कराते हैं और उसे अनुशासन में रहने की प्रेरणा देते हैं ।

अनुशासन छात्र-जीवन का प्राण है । अनुशासनहीन छात्र न तो अपने देश का सभ्य नागरिक बन सकता है और न अपने व्यक्तिगत जीवन में ही सफल हो सकता है । यों तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन की परम आवश्यकता है, परंतु सफल छात्र-जीवन के लिए तो यह एकमात्र कुंजी है ।

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छात्र-जीवन में अनुशासन में रहने की शिक्षा विद्यालय में मिलती है । विद्यालय में छात्र अध्यापक के अनुशामन में रहकर ही पढ़ना-लिखना, आपस में मिल-जुलकर रहना, खेलना-कुदना और हँसना-बोलना सीखते हैं । अध्यापक के अनुशासन में रहने से ही उनके चरित्र का निर्माण होता है और उनमें सामूहिक रूप से कार्य करने की क्षमता उत्पन्न होती है ।

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छात्र समय का सदुपयोग करना अध्यापक के अनुशासन में रहकर सीखते हैं । अध्यापक के अनुशासन का अर्थ है- उनकी आज्ञाओं का पालन करना । जो छात्र अनुशामन-प्रिय होते हैं, वे अपने अध्यापकों की आज्ञाओं का पालन निष्ठापूर्वक करते हैं । वे अपने गुरुजनों की आलोचना नहीं करते । अध्यापकों की आज्ञा को न मानना अनुशासनहीनता है ।

छात्रों में अनुशासनहीनता का मुख्य कारण माता-पिता का लाड़-प्यार है । सर्वप्रथम विद्याथी माता-पिता के संस्कार ही ग्रहण करते हैं । छात्र की प्राथमिक पाठशाला उसका घर हें । वह सर्वप्रथम अपने घर में ही सदाचार की शिक्षा प्राप्त करता है । जिस घर में वालकों को माता-पिता की ढिलाई के कारण सदाचार की शिक्षा नहीं मिलती, वे ही विद्यालय में जाकर अनुशासनहीनता करते हैं ।

माता-पिता के अत्यधिक दुलार के कारण जब वे हठी हो जाते हैं तब निर्भय होकर बड़े-हों की आज्ञा का उल्लंघन करने लगते हैं और विद्यालय में पहुँचकर वहाँ का वातावरण विषाक्त बना देते हैं । उन्हें इस दोष से मुक्त करने की पूरी जिम्मेदारी माता-पिता पर है । जो माता-पिता अपने हठी बालकों को विद्यालय में भेजकर चुपचाप बैठ जाते हैं और यह आशा करते हैं कि उनके बालक आदर्श नागरिक बनकर विद्यालय से निकलेंगे, तो वे भूल करते हैं । विद्यालय में अध्यापक उनके सहयोग से ही उनके हठी बालकों को सुधारने में सफल हो सकते हैं ।

विद्यालय में मुख्यत: जीविका की यानी किताबी शिक्षा दी जाती है । नैतिक शिक्षा विद्यालयों में नहीं मिल पाती । जीवन की शिक्षा देना धर्म का एक अंग समझा जाने लगा है । यह वर्तमान शिक्षा-प्रणाली का एक ऐसा दोष है जिसे दूर करना अत्यंत आवश्यक है । वालकों को विद्यालयों में जीवन की शिक्षा के साथ-साथ जीविका की भी शिक्षा मिलनी चाहिए । ऐसा करने से ही छात्र अनुशासनप्रिय हो सकते हैं ।

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