ऊर्जा संकट पर दो निबंध | Oorja Sankat Par Do Nibandh | Read These Two Essays on Energy Crisis in Hindi.

#Essay 1: ऊर्जा संकट पर निबंध | Oorja Sankat Par Nibandh | Essay on Energy Crisis in Hindi!

पारिस्थतिकी-तंत्र के परिचालन में ऊर्जा की महती भूमिका है । दूसरे शब्दों में ऊर्जा ही इस तंत्र को परिचालित एवं नियंत्रित करती है । साथ ही ऊर्जा मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर विशाल उद्योगों एवं परिवहन को संचालित करती है ।

ऊर्जा का उपयोग वर्तमान युग में विकास का परिचायक बन गया है तथा इसकी कमी विकास में बाधक है । इसी क्रम में ऊर्जा के अधिकतम उपयोग की होड़ लगी हुई है, फलस्वरूप एक ओर ऊर्जा संकट उपस्थित हो गया है तो दूसरी ओर इसके अत्यधिक शोषण से पारिस्थितिकी पर भी विपरीत प्रभाव हो रहा है ।

विकास एवं प्रगति की अभिलाषा में आज तो ऊर्जा का अधिकतम उपयोग हो रहा है और जिस देश में जितनी अधिक ऊर्जा की खपत होती है उसे उतना ही विकसित माना जाता है । उदाहरणार्थ संयुक्त राज्य अमेरिका में ऊर्जा की खपत प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 11,626 किलोवाट है जबकि भारत में 210 किलोवाट और बँग्लादेश में मात्र 49 किलोवाट ।

उद्योगों में, परिवहन में तथा घरेलू उपयोग में ऊर्जा के उपयोग में निरंतर वृद्धि होने के कारण अनेक ऊर्जा स्रोतों की कमी होने लगी है तथा ऊर्जा संकट के प्रति आज संपूर्ण विश्व में चिंता व्याप्त है । यदि विगत 25 वर्षों के आँकड़ों पर दृष्टिपात करें तो यह तथ्य उभर कर आता है कि विश्व स्तर पर ईंधन की खपत दुगनी, तेल एवं गैस की खपत चौगुनी और बिजली की खपत सात गुनी बढ़ गई हैं ।

ऊर्जा के समस्त स्रोतों से होने वाली खपत में खनिज तेल तथा कोयला का प्रतिशत लगभग 44 और 39 है । जैसे-जैसे औद्योगिक एवं तकनीकी प्रगति का विस्तार हो रहा है ऊर्जा की खपत में वृद्धि हो रही है, जबकि इनके ज्ञात स्रोत सीमित हैं तथा समाप्त होने वाले हैं ।

स्पष्ट है कि ऊर्जा संसाधन तीव्र गति से समाप्त होते जा रहे हैं । इसके अतिरिक्त जल विद्युत एवं आणविक शक्ति का उपयोग दिन-प्रतिदिन अधिक होता जा रहा है तथा उनका प्रभाव पर्यावरण पर भी देखा जा सकता है । ऊर्जा के स्रोतों को मुख्यत: दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है ।

ये हैं:

(i) परंपरागत ऊर्जा स्रोत,

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(ii) गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोत ।

परंपरागत स्रोतों में कोयला पेट्रोलियम प्रमुख हैं साथ में विद्युत भी इसी श्रेणी में आती है । विद्युत उत्पादन जल विद्युत, तापीय विद्युत तथा आणविक शक्ति विधियों से होता है । जबकि गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, गोबर-गैस, व्यर्थ जल-मल द्वारा विद्युत उत्पादन आदि सम्मिलित होते हैं, गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों से पर्यावरण सुरक्षित रहता है ।

परंपरागत ऊर्जा का प्रमुख स्रोत खनिज तेल या पेट्रोलियम है, जिसके उत्पादक क्षेत्र विश्व में सीमित हैं तथा उपयोग में सर्वत्र वृद्धि हो रही है । यही कारण है कि पेट्रोलियम उत्पादन क्षेत्रों की सामरिक महत्ता अधिक होती है, जिसके लिये प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से संघर्ष भी होते रहते हैं ।

विश्व में पेट्रोल का कुल भण्डार 671 अरब बैरल का अनुमान है और उपयोग का यही क्रम जारी रहा तो यह आगामी 50 वर्षों में समाप्त हो सकता है । पेट्रोल उत्पादों की खपत में निरंतर वृद्धि हो रही है । भारत जैसे विकासशील देश में भी पेट्रोल उपभोग निरंतर अधिक होता जा रहा है ।

वर्तमान में भारत प्रतिवर्ष 3.40 करोड़ टन उत्पादन कर रहा है जबकि अनुमान के अनुसार आठवीं पंचवर्षीय योजना तक आवश्यकता 7 करोड़ 70 लाख मीट्रिक टन हो जायेगी । इसके आयात पर भारत को वर्ष 1989-90 में 7400 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े जबकि पेट्रोल का मूल्य 14 डालर प्रति बैरल था और उसके पश्चात् यह मूल्य 27 डालर प्रति बैरल हो गया, जिससे 7000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष का अधिक भार पड़ रहा है ।

इससे तात्पर्य यह है कि पेट्रोल ऊर्जा के स्रोत के रूप में उपयोगी है किंतु इसके समाप्त होने का संकट मुँह बाये खड़ा है । यही नहीं, अपितु तेल कुंओं एवं अन्य पेट्रो रसायनों से पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है तथा जल प्रदूषण भी हो रहा है ।

1990 में खाड़ी युद्ध में सागरीय जल में तेल फैल जाने से न केवल सामुद्रिक जीव-जंतुओं का विनाश हुआ अपितु पारिस्थितिक-तंत्र में भी व्यवधान आया । इसी प्रकार, कुवैत के कुंओं में लगाई आग लगभग आठ महीनों में शांत हो पाई ।

इससे न केवल वहाँ का अपितु संपूर्ण पश्चिमी एशिया का पर्यावरण अत्यधिक प्रभावित हुआ है और दूरस्थ क्षेत्रों पर भी इसका वर्षों तक प्रभाव रहेगा । पेट्रोल के समान प्राकृतिक गैस भी ऊर्जा प्राप्त करने का एक साधन है जो अधिकांशत: पेट्रोल उत्पादक क्षेत्रों से प्राप्त होती है ।

इसका उपयोग ईंधन के साथ-साथ अनेक उद्योगों में हो सकता है । वर्तमान में इसका समुचित उपयोग नहीं हो रहा है । अकेले भारत में वर्तमान तक लगभग 1.2 खरब घन मीटर प्राकृतिक गैस के भण्डारों का पता लगाया जा चुका है ।

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इसके उपयोग में वृद्धि द्वारा वनों के विनाश को रोका जा सकता है क्योंकि यह एक उपयुक्त एवं सस्ता ईंधन प्रदान करता है । कोयले का उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में सर्वाधिक होता है । विश्व में वर्तमान ऊर्जा उपयोग का लगभग 44 प्रतिशत कोयले से ही प्राप्त होता है ।

कोयले से जहाँ स्टील चालित इंजनों एवं विविध उद्योगों को ऊर्जा प्राप्त होती है, वहीं इससे तापीय विद्युत भी उत्पन्न की जाती है । विश्व में कोयला उत्पादक क्षेत्र सीमित हैं और उनमें से अधिकांश निरंतर कोयला निकालने के कारण अत्यधिक गहरे हो गये हैं ।

नये क्षेत्रों का पता लग सकता है किंतु वे सीमित होंगे क्योंकि कोयला केवल विशिष्ट परतदार शैलों से ही उपलब्ध होता है और एक बार निकालने के पश्चात् इसका पुनर्निर्माण संभव नहीं । अत: दिनों-दिन समाप्त होता कोयला भण्डार चिंता का विषय है । यही नहीं, अपितु कोयला उत्पादन एवं उपयोग से पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

पर्यावरण पर कोयला उद्योग का प्रभाव निम्नलिखित प्रकारों से होता है:

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(i) कोयला खानों से विशाल क्षेत्र में भूमि गर्त बन जाते हैं तथा धरातल असमतल हो जाता है,

(ii) इन खानों के क्षेत्र में वनों का विनाश हो जाता है,

(iii) खानों से अच्छा कोयला निकाल लिया जाता है तथा व्यर्थ पदार्थ एवं अनुपयोगी कोयले के ढेर पर्यावरण में प्रदूषण फैलाते हैं,

(iv) संपूर्ण कोयला खानों के निकटवर्ती क्षेत्रों में कार्बन के कण वायु मण्डल में फैल जाते हैं,

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(v) कोयले पर आधारित तापीय विद्युत केन्द्र सर्वाधिक वायु प्रदूषण फैलाते हैं जो मानवीय स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं ।

जल विद्युत ऊर्जा का एक ऐसा स्रोत है जो जल प्रवाह से संबंधित होने के कारण अनवरत रह सकता है । संपूर्ण विश्व में जल विद्युत का लगभग 7500 अरब किलोवाट उत्पादन होता है । इसका उपयोग उद्योगों, परिवहन, कृषि, सिंचाई एवं घरेलू कार्यों में किया जा रहा है और इस उपयोग में निरंतर वृद्धि हो रही है ।

भारत में भी जल विद्युत का अत्यधिक विकास किया जा रहा है फिर भी लगभग 2 करोड़ यूनिट विद्युत की कमी है । विद्युत उत्पादन हेतु अनेक वृहत् एवं छोटे बांधों का निर्माण किया जा चुका है और 43 निर्माणाधीन हैं । जल विद्युत को ऊर्जा का ऐसा स्रोत माना जाता रहा है जिसका पारिस्थितिकी-तंत्र पर विपरीत प्रभाव नहीं होता किंतु यह धारणा गलत है । जल विद्युत हेतु बनाये गये बांधों से अनेक पारिस्थितिक-प्रभाव होते हैं ।

जैसे:

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(i) बांध निर्माण से भू-संतुलन में बाधा आती है और वह क्षेत्र भूकंप से प्रभावित हो सकता है,

(ii) बाँध से बनने वाले जलाशयों से विस्तृत कृषि भूमि जलमग्न हो जाती है,

(iii) इससे विस्तृत क्षेत्रों में वनों का विनाश होता है । इस कारण पारिस्थितिकी-तंत्र में परिवर्तन आना स्वाभाविक है ।

वर्तमान विश्व में आणविक शक्ति का एक प्रमुख ऊर्जा स्रोत के रूप में उभरा है जो मानवीय विकास का परिचायक है । इसमें परमाणु खनिज जैसे- यूरेनियम, थोरियम आदि का उपयोग कर तकनीकी प्रक्रिया से विद्युत उत्पादित की जाती है ।

विश्व के न केवल विकसित देशों जैसे- अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, जापान, रूस आदि में परमाणु विद्युत का विकास हुआ है अपितु भारत में भी नाभिकीय ऊर्जा का विकास तीव्र गति से हो रहा है और इसका विश्व में सातवाँ स्थान है ।

परमाणु विद्युत उत्पादन की दिशा में आज विश्व के अनेक देश तकनीक प्राप्त करने में संलग्न हैं और वह दिन दूर नहीं जब परमाणु विद्युत प्रमुख ऊर्जा स्रोत होगा । सामान्यतया परमाणु ऊर्जा से पर्यावरण को संकट नहीं है, किंतु जरा सी भूल संपूर्ण क्षेत्र को तबाह कर सकती है ।

इसके रिसाव या विस्फोट से न केवल हजारों-लाखों की मृत्यु हो सकती अपितु रेडियोधर्मिता के विस्तार से संपूर्ण पर्यावरण कई दशकों तक इसके प्रभाव से संपूर्ण जीव जगत को हानि पहुँचा सकता है । इसका एक छोटा उदाहरण सोवियत संघ में चेरेनोबिल परमाणु भट्टी के रिसाव से हुई हानि से लगाया जा सकता है ।

वास्तव में परमाणु भट्टी का निर्माण, रख-रखाव एवं सुरक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है अन्यथा लाभ के स्थान पर जो हानि होगी उसका प्रकोप वर्तमान को ही नहीं अपितु भविष्य की पीढ़ियों को भी भुगतना होगा । ऊर्जा संकट एवं परंपरागत ऊर्जा स्रोतों से उत्पन्न पर्यावरण संकट को दृष्टिगत रखते हुए यह वर्तमान समय की आवश्यकता है कि हम गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करें । इस प्रकार के स्रोत हैं सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, जैविक ऊर्जा आदि ।

ये सभी स्रोत ऊर्जा के असीमित स्रोत हैं क्योंकि सूर्य, वायु एवं ज्वार प्रकृति द्वारा संचालित हैं जो समाप्त नहीं होंगे । इन ऊर्जा स्रोतों का एक लाभ जो सर्वोच्च महत्ता रखता है वह है इनसे पर्यावरण प्रदूषण नहीं होता और पारिस्थितिकी-तंत्र यथावत् रहता है ।

विगत कुछ दशकों में सौर ऊर्जा पर पर्याप्त अनुसंधान हो रहे हैं और इसका प्रयोग भी होने लगा है । सौर ऊर्जा का प्रयोग मकानों को ठण्डा अथवा गर्म रखने में, जल गर्म करने में, सौर पंप द्वारा पानी निकालने में, सौर शुष्कक, सौर वातानुकूलन, सौर कुकर, सौर रेफ्रिजरेटर, सौर इंजन, सौर सेल द्वारा विद्युत उत्पादन आदि में होने लगा है ।

जिन देशों में (जैसे- दक्षिणी-पूर्वी एशिया, अफ्रीका, पश्चिमी एशिया के देशों में) वर्षपर्यंत सूर्य की किरणें उपलब्ध हैं वहाँ वर्ष भर निर्बाध रूप से सौर ऊर्जा का उपयोग संभव है । भारत के भू-भाग पर लगभग 10” जी.डब्ल्यू. सौर ऊर्जा प्रतिवर्ष उपलब्ध होती है । इस ऊर्जा हेतु विभिन्न प्रकार के संचायकों (कलेक्टर) का उपयोग किया जाता है । सौर ऊर्जा का विस्तृत उपयोग सौर विद्युत मीनार, सौर फार्म, सौर सरोवर, सौर चुम्बक द्रव गतिकीय संयंत्र में किया जाता है ।

वास्तव में सौर ऊर्जा मानव के हाथ में अक्षय ऊर्जा का स्रोत है, आवश्यकता है इसे उत्पादित एवं संचय कर उपयोग करने की । इस दिशा में पर्याप्त शोध हो रही है और वह दिन दूर नहीं जब इसका उपयोग सामान्य हो जायेगा ।

सौर ऊर्जा के समान ही वायु द्वारा ऊर्जा प्राप्त करना प्रचलित है । इसके लिये पवन चक्कियों का प्रयोग किया जाता है । जिन स्थानों पर वायु प्रवाह की गति लगभग 10 कि.मी. प्रति घंटा हो वहाँ पवन चक्की का उपयोग कर विद्युत उत्पादन कर इसका विविध प्रकार से उपयोग किया जा सकता है ।

इसी प्रकार समुद्र तटीय भागों में ज्वारीय ऊर्जा सामुद्रिक लहरों द्वारा उत्पन्न की जा सकती है । इसका अति सीमित प्रयोग होने लगा है । सीमित ऊर्जा उत्पादन में गोबर गैस प्रमुख है । जानवरों के गोबर एवं अन्य अपशिष्ट पदार्थों को एक साधारण प्लांट में डालकर उसमें उपस्थित मिथेन, कार्बन-डाई-ऑक्साइड, कुछ मात्रा हाइड्रोजन सल्फाइड आदि गैसों का ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है ।

कभी-कभी छोटे इंजन चलाने में भी इसका उपयोग किया जाता है । जैव पदार्थ से ऊर्जा प्राप्त करने की भी पर्याप्त संभावनायें हैं । विभिन्न पौधों से एथानोल का उत्पादन कर उनका उपयोग डीजल, नेफ्ता तथा गैसोलीन के विकल्प के रूप में किया जा सकता है ।

गैसोलीन में 20 प्रतिशत के अनुपात से एथानोल मिलाकर उसकी खपत कम की जा सकती है । एथानोल गन्ना, लकड़ी, चुकन्दर, मक्का, कसावा आदि के अपशिष्टों द्वारा उत्पादित किया जा सकता है । ऊर्जा संकट को हल करने तथा पर्यावरण को उनसे होने वाली हानि से सुरक्षित रखने हेतु गैर परंपरागत ऊर्जा सोत ही आशा की किरण हैं । इनका समुचित विकास एवं सर्वसाधारण में प्रचलन हेतु अभी पर्याप्त अनुसंधान की आवश्यकता है ।


#Essay 2: ऊर्जा संकट पर निबंध | Essay on Energy Crisis in Hindi

विश्व के सभी देश आज विकास के पथ पर सबसे आगे निकल जाने को बेताब है । इसके लिए वे औद्योगीकरण से लेकर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तक के हर सम्भव-असम्भव उपाय कर रहे हैं । पिछली शताब्दी में ऊर्जा के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत दोहन हुआ है ।

जिस तरह यह दोहन वर्तमान में हो रहा है, यदि इसी तरह आगे भी होता रहा, तो वर्ष 2050 के बाद पृथ्वी पर इन संसाधनों का अभाव हो जाएगा । ऊर्जा के संसाधनों के अभाव की यह स्थिति ऊर्जा संकट कहलाती है ।

ऊर्जा संकट को ठीक से समझने के लिए हमें सबसे पहले यह जानना होगा कि ऊर्जा क्या है? ऊर्जा वह शक्ति है, जिसकी सहायता से कोई क्रिया सम्पन्न की जाती है । मनुष्य को कार्य करने के लिए ऊर्जा भोजन से मिलती है । हम अपने दैनिक जीवन में वैज्ञानिक यन्त्रों का प्रयोग करते हैं ।

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इन वैज्ञानिक यन्त्रों को चलाने के लिए ह्में खनिज तेल एवं विधुत की आवश्यकता होती है । इस तरह, वैज्ञानिक यन्त्रों (मोटरगाड़ी, ट्रेन इत्यादि) की ऊर्जा का स्रोत खनिज तेल या विद्युत होता है । जिन संसाधनों से हमें ऊर्जा प्राप्त होती है, उन्हें हम ऊर्जा के स्रोत कहते है ।

कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, सूर्य, पवन, जल इत्यादि ऊर्जा के विभिन्न स्रोत हैं । कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस इत्यादि का प्रयोग सदियों से हो रहा है, इन्हें ऊर्जा के परम्परागत स्रोत कहा जाता है । ऊर्जा के ये परम्परागत स्रोत सीमित हैं ।

इन्हें जीवाश्म ईंधन भी कहा जाता है, इन्हें प्राकृतिक रूप से निर्मित होने में लाखों वर्ष का समय लगता है । जिस अनुपात में औद्योगीकरण में वृद्धि हो रही है, उससे यह अनुमान लगाया जाता है कि अगले 40-60 वर्षों के भीतर इन संसाधनों के समाप्त होने के आसार है ।

पूरा विश्व मुख्य रूप से इन्हीं उर्जा संसाधनों पर निर्भर है । कोई भी देश अपने आर्थिक विकास को मन्द करने की कीमत पर ऊर्जा संरक्षण नहीं करना चाहता, इसलिए भी दिनों-दिन ऊर्जा सकट की स्थिति गम्भीर होती जा रही है ।

ऊर्जा संकट के समाधान के लिए इसके गैर-परम्परागत स्रोतों का विकास करना आवश्यक हो गया है । सूर्य, पवन, बायोगैस, भूताप इत्यादि ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत है । आज दुनिया के कई विकसित देशों द्वारा सौर ऊर्जा के प्रयोगों पर काफी जोर दिया जा रहा है ।

भारत में भी इस क्षेत्र में प्रयोग किए जा रहे है, किन्तु केबल गैर-परम्परागत स्रोतों के विकास से ही ऊर्जा संकट का समाधान सम्मव नहीं है, हमें पास्परिक उर्जा संसाधनों का भी संरक्षण करना होगा । सभी प्राकृतिक संसाधन पृथ्वी पर सीमित मात्रा में हैं ।

जिस तरह से विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है, उससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्ष 2030 तक यह बढकर 8 अरब से भी अधिक हो जाएगी तथा जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है, उसका दुष्परिणाम यह होगा कि आने वाली पीढ़ियों के लिए आवश्यक प्राकृतिक संसाधन भी पृथ्वी पर उपलब्ध नहीं होंगे, किन्तु मानव को जीने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना ही होगा, क्योंकि इसके बिना जीवन सम्भव नहीं है ।

इसलिए अर्थशास्त्रियों, पर्यावरणविदों एवं वैज्ञानिकों ने इस समस्या का हल यह बताया कि हमें अपने बिकास के लिए उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ये बचे रहें । इस तरह सतत विकास (सस्टेनेबल डेबलपमेण्ट) की अवधारणा का बिकास हुआ ।

सतत बिकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं में भी कटौती न हो ।  सतत विकास में सामाजिक एवं आर्थिक विकास के साथ-साथ इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पर्यावरण भी सुरक्षित रहे ।

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विकास एवं पर्यावरण एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं । सन्तुलित एवं शुद्ध पर्यावरण के बिना मानव का जीवन कष्टमय हो जाएगा । हमारा अस्तित्व एवं जीवन की गुणवत्ता स्वस्थ पर्यावरण पर निर्भर है । बिकास हमारे लिए आवश्यक है और इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग भी आवश्यक है, किन्तु ऐसा करते समय हमें सतत विकास की अवधारणा को अपनाने पर जोर देना चाहिए ।

परमाणु ऊर्जा का प्रयोग कर कोयला एवं खनिज तेल जैसे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण किया जा सकता है । नाभिकीय विखण्डन के दौरान उत्पन्न ऊर्जा को नाभिकीय या परमाणु ऊर्जा कहा जाता है ।  जब यूरेनियम पर न्यूट्रनों की बमबारी की जाती है, तो एक यूरेनियम नाभिकीय विखण्डन के फलस्वरूप बहुत अधिक ऊर्जा व तीन नए न्यूट्रनों उत्सर्जित होते हैं ।

ये नव उत्सर्जित न्यूट्रनों यूरेनियम के अन्य नाभिकों को विखण्डित करते हैं । इस प्रकार यूएरनियम नाभिकों के विखण्डन की एक श्रृंखला बन जाती है । इसी श्रृंखला अभिक्रिया को नियन्त्रित कर परमाणु रिएक्टरों में परमाणु ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है ।  जहाँ 1,000 वाट के थर्मल पावर सयन्त्र को चलाने के लिए 300 लाख टन कोयले की आवश्यकता होती है, वहीं इतना ही विद्युत उत्पादन नाभिकीय रिएक्टर में मात्र 30 टन यूएरनियम से सम्भव है रिएक्टर से प्राप्त विद्युत उर्जा का उपयोग विभिन्न उद्योगों में किया जाता है ।

ऊर्जा संकट की समस्या के समाधान के लिए आधुनिक उर्जा स्रोतों में जल-विद्युत को भी विशेष महत्व दिए जाने की आवश्यकता है । जीवाश्म ईंधन के विपरीत यह ऊर्जा स्रोत एक बार प्रयोग के बाद नष्ट नहीं होता । इसे ‘नवीकरणीय ऊर्जा’ स्रोत कहा जाता हे । इसके अतिरिक्त, बायोडीजल का व्यापक प्रयोग भी ऊर्जा संकट का एक अच्छा समाधान हो सकता है ।

बायोडीजल बनाने के लिए सोयाबीन, अलसी, महुआ, अरण्डी जैसे कृषिजन्य उत्पादों से प्राप्त वसा या बनस्पति तेल का प्रयोग किया जाता है बायोडीजल वह बैकल्पिक ईंधन है, जो पूरी तरह से जलकर ऊर्जा देता है ।बढती जनसंख्या हेतु ऊर्जा की आपूर्ति करना विश्व के लिए एक समस्या का रूप लेता जा रहा है आने वाले समय में पूरे विश्व में ऊर्जा की माँग में काफी वृद्धि होने का अनुमान है । बढ़ती जनसंख्या, फलती-फूलती अर्थव्यवस्था और अच्छे जीवन स्तर की चाह के कारण प्राथमिक ऊर्जा खपत में भी वृद्धि हुई हे । ऐसी स्थिति में पूरे विश्व के लिए ऊर्जा संरक्षण को विशेष महत्व देना अनिवार्य हो गया है ।

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