पर्यावरणीय दुर्दशा: प्राकृतिक या मानव कार्य | Paryaavaraneey Durdasha: Praakrtik Ya Maanav Kaary! Read this Essay to learn about Environmental Degradation: Natural and Human Action in Hindi.

पर्यावरण अवकर्षण विविध रूपों में दृष्टिगत होता है, कहीं यह प्राकृतिक कारणों से होता है तो कहीं मानवीय और कभी दोनों के सामूहिक प्रभाव से । सामान्य रूप से वे कारक एवं तथ्य महत्वपूर्ण होते हैं जिनके कारण यह अवकर्षण होता है ।

वास्तव में पर्यावरण अवकर्षण जब प्रगट होता है तो उसमें एक से अधिक तत्वों का योग होता है, किंतु किसी प्रदेश में एक तत्व महत्वपूर्ण हो जाता है तो दूसरे में दूसरा, किन्तु इनका प्रभाव समग्र अथवा समन्वित रूप में प्रकट होता है ।

पर्यावरण अवकर्षण एकाएक भयंकर संकट का स्वरूप ग्रहण नहीं कर लेता अपितु यह क्रमिक प्रक्रिया है जिसमें कुछ वर्षों से सैकड़ों वर्षों का समय लगता है । यदि इसे प्रारंभिक अवस्था में ही नियंत्रित कर लिया जाये तो इसके संकट से बचा जा सकता है या उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है ।

जैसा कि वर्णित किया जा चुका है पर्यावरण अवकर्षण को दो प्रमुख श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, प्रथम प्राकृतिक एवं द्वितीय, मानवीय । यह विभाजन मात्र अध्ययन की सुविधा हेतु है, अन्यथा अनेक दशाओं में ये दोनों ही प्रकार समस्या को गंभीर बनाने में योग देते हैं । इनके पृथक् अध्ययन से इस समस्या को समझने एवं उसके नियोजन में सहायता मिल सकती है ।

1. प्राकृतिक पर्यावरण अवकर्षण (Physical or Natural Environment Degradation):

प्राकृतिक पर्यावरण अवकर्षण से तात्पर्य है वह अवकर्षण जो प्रकृति द्वारा या प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा होता हो अर्थात् उस क्रिया में मानवीय योग न हो अथवा न्यूनतम हो । प्रकृति में सदैव अनेक क्रियायें चलती रहती हैं जो पर्यावरण अवकर्षण का कारण बन जाती हैं जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, सूखा, भूस्खलन, भूरक्षण, समुद्री तूफान, मरुस्थलीकरण आदि ।

इन क्रियाओं से पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है, भूमि का उपजाऊपन समाप्त हो जाता है, भूमि बंजर हो जाती है, विशाल क्षेत्र मरुस्थली दशाओं से युक्त हो जाता है, वनस्पति का विनाश हो जाता है, जलवायु में परिवर्तन आने लगता है और कभी-कभी हजारों-लाखों लोग न केवल विस्थापित हो जाते हैं अपितु मौत के मुँह में चले जाते हैं । प्राकृतिक अवकर्षण के कतिपय स्वरूप जैसे मृदा अपरदन, भू-स्खलन, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़ एवं सूखा तथा मरुस्थलीकरण का समुचित विवेचन इनकी प्रकृति तथा प्रभाव को समझने के लिये आवश्यक है ।

I. मृदा-अपरदन द्वारा पर्यावरण अवकर्षण:

खनिज और कार्बनिक पदार्थों से युक्त तथा पादप-जीवन के पोषण में समर्थ भू-पृष्ठ की ऊपरी परत मृदा है । मृदा पर ही संपूर्ण कृषि-उत्पादन, वनस्पति या दूसरे शब्दों में जीव-जगत निर्भर है । मृदा पर्यावरण का अभिन्न अंग है, जिसके निर्माण में क्षेत्र की भूगर्भिक बनावट, जलवायु, धरातल की प्रकृति, वनस्पति आदि का योग होता है । मृदा पर्यावरण के तत्व के रूप में अन्य तत्वों द्वारा जहाँ प्रभावित होती है वहीं अन्य तत्वों को प्रभावित करती है ।

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यदि मृदा का आवश्यकता से अधिक कटान एवं बहाव हो जाता है तो पर्यावरण संतुलन में बाधा पड़ती है, वह क्षेत्र न केवल बंजर तथा अनुपजाऊ हो जाता है अपितु वहाँ वनस्पति का अभाव हो जाता है, फलस्वरूप यह कटान और अधिक होने लगता है जो पर्यावरण अवकर्षण का कारण होता है । मृदा-अपरदन प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारणों से होता है ।

सामान्य मृदा अपरदन के निम्न प्रकार होते हैं:

a. सामान्य अपरदन,

b. जलीय मृदा अपरदन,

c. वायु अपरदन,

d. समुद्री अपरदन,

e. मानव द्वारा किया गया मृदा अपरदन या त्वरित अपरदन ।

सामान्य मृदा-अपरदन मंद गति से होने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसका प्रभाव अपेक्षाकृत कम होता है, जबकि पानी या जल द्वारा मृदा का अपरदन अत्यधिक होता है तथा हजारों हेक्टेयर भूमि इसके द्वारा व्यर्थ हो जाती है जैसा कि चम्बल के किनारों पर हुआ है जिसके कारण वहाँ विशाल क्षेत्रों में बीहड़ बन गये हैं ।

जल द्वारा मृदा-अपरदन के चार प्रकार होते हैं:

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i. परतीय अपरदन,

ii. रिल अपरदन,

iii. अवनालिका अपरदन,

iv. तटवर्ती अपरदन ।

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जल के समान वायु भी मृदा-अपरदन का प्रमुख कारण है । यह मुख्यतया मरुस्थली एवं अर्द्ध- मरुस्थली प्रदेशों में अधिक होता है, जहाँ मृदा असंगठित होती है तथा वनस्पति का अभाव होने से वायु की गति भी तीव्र होती है ।

निरंतर प्रवाहित वायु मृदा को न केवल अपरदित करती है अपितु उसका स्थानांतरण कर दूसरे क्षेत्रों में जमा भी करती है । समुद्री अथवा सागरीय मृदा-अपरदन तटीय क्षेत्रों में होता है जहाँ लहरें निरंतर न केवल मृदा को बहा कर ले जाती हैं अपितु तटीय क्षेत्रों को भी काटती रहती हैं ।

प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त अनुपयुक्त प्रबंध तथा अविवेकपूर्ण कृषि पद्धतियाँ भी इसके लिये उत्तरदायी हैं । भूमि का गलत उपयोग, एक ही फसल को बार-बार बोना आदि कारण मृदा-अपरदन को तीव्रता प्रदान करते हैं । पर्वतीय ढालों पर होने वाली कृषि भी इसमें वृद्धि करती है ।

किसी भी प्रदेश में मृदा-अपरदन निम्न तथ्यों पर निर्भर करता है:

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a. मृदा की संरचना,

b. ढाल की प्रकृति,

c. वर्षा की तीव्रता,

d. वनस्पति आवरण की प्रकृति,

ADVERTISEMENTS:

e. मृदा प्रबंध व्यवस्था,

f. कृषि पद्धतियाँ,

g. पशुचारण की प्रकृति आदि ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मृदा-अपरदन से भूमि का कटाव होने से जहाँ गर्त, नालियाँ, अथवा बीहड़ बन जाते हैं वहीं दूसरी ओर उसकी उत्पादकता भी क्षीण हो जाती है, भूमि बंजर होने लगती है अर्थात् कृषि अयोग्य भूमि में वृद्धि हो जाती है, उसमें वनस्पति उगाने की क्षमता नहीं रहती और इन सबका सामूहिक परिणाम पर्यावरण अवकर्षण के रूप में होता है । मृदा-अपरदन का परिणाम विविध रूपों में दृष्टिगत होता है ।

जो निम्नलिखित है:

I. भूमि पर गर्त, नालियाँ एवं बीहड़ विकसित हो जाते हैं, अर्थात् संपूर्ण क्षेत्र असमतल एवं मानवीय उपयोग के अयोग्य हो जाता है ।

II. पर्वतीय ढालों से मिट्टी समाप्त हो जाती है जिससे अपरदन की गति तीव्र हो जाती है ।

III. भूमि कटाव से वनस्पति की जड़ों से मृदा हट जाती है और वह क्षेत्र वनस्पति विहीन हो जाता है । यह क्रिया पर्वतीय ढालों पर अधिक होती है, किंतु समतल प्रदेश भी इससे मुक्त नहीं हैं ।

IV. मृदा का उपजाऊपन कम हो जाता है और पानी के साथ अधिक मात्रा में मिट्टी कट कर बह जाती है ।

V. चरागाह समाप्त हो जाते हैं ।

VI. मरुस्थली प्रदेश का क्रमिक विस्तार होने लगता है ।

VII. बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप में वृद्धि हो जाती है ।

संक्षेप में मृदा-अपरदन पर्यावरण संतुलन में व्यतिक्रम उपस्थित करता है जिसका प्रभाव जल वर्षा, तापमान, प्राकृतिक वनस्पति एवं सम्पूर्ण जीव जगत् पर पड़ता है । भारत में मृदा-अपरदन की समस्या सभी प्रदेशों में है ।

एक ओर हिमालय के ढाल प्रदेश हैं जहाँ निरंतर वर्षा का जल मृदा-अपरदित कर रहा है । जम्मू-कश्मीर, हिमाचल-प्रदेश, उत्तर-प्रदेश, बिहार, असम, अरुणाचल, सिक्किम आदि राज्यों के पर्वतीय क्षेत्र एवं वहाँ प्रवाहित नदी-नाले मृदा-अपरदन द्वारा पर्यावरण अवकर्षित कर रहे हैं । दूसरी ओर राजस्थान का मरुस्थली प्रदेश वायु-अपरदन एवं मरुस्थलीकरण की समस्या से ग्रसित है । चम्बल के बीहड़ मृदा-अपरदन की विकरालता के लिये प्रसिद्ध हैं ।

एक अनुमान के अनुसार भारत की 17 करोड़ 50 लाख हैक्टेयर भूमि अर्थात् कुल भौगोलिक क्षेत्र की लगभग 53 प्रतिशत मिट्टी अपरदन की समस्या से ग्रसित है । एक अन्य अनुमान के अनुसार भारत की नदियाँ प्रतिवर्ष लगभग 60 करोड़ टन मिट्टी व्यर्थ बहाकर समुद्र में ले जाती हैं ।

सरकार इस समस्या के प्रति सचेष्ट है और अनेक उपाय भी कर रही है किंतु प्रगति मंद है । मृदा एक अति महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है, जिस पर देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं अपितु पर्यावरण संतुलन निर्भर है । अत: इसका संरक्षण एवं उचित प्रबंधन करना आवश्यक है । इस कार्य को जहाँ एक ओर प्रशासन को करना है वहीं दूसरी ओर नागरिकों को भी करना है ।

सामान्य रूप से मृदा संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय करना उचित है:

i. वृक्षारोपण,

ii. वन संरक्षण,

iii. अवनालिका नियंत्रण द्वारा,

iv. वेदिका निर्माण द्वारा,

v. पट्टीदार खेती,

vi. फसल चक्रीकरण,

vii. रक्षण मेखला का निर्माण,

viii. जल के अपवाह मार्ग को परिवर्तित कर कटान रोकना,

ix. नियंत्रित पशुचारण,

x. छोटे बाँधों द्वारा जल प्रवाह का नियंत्रण,

xi. मृदा को बाँधने वाले पौधे जैसे- सूर्या, सण्डोन, सेकेरम, स्पाण्टेनियम आदि को लगाना,

xii. समोच्च बंदी द्वारा,

xiii. मृदा-अपरदन के प्रति जागरूकता द्वारा और

xiv. उचित मृदा-प्रबंध की व्यवस्था द्वारा ।

वास्तव में क्षेत्रीय परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए मृदा-अपरदन को रोकने के समुचित उपाय करना आवश्यक है ।

II. भूस्खलन:

भूस्खलन एक प्राकृतिक आपदा है । इसमें भूमि का एक भाग टूट कर अथवा खिसक कर अलग हो जाता है । यह क्रिया गुरुत्वाकर्षण द्वारा प्राकृतिक रूप में भी होती रहती है और इसमें मानवीय सहयोग भी होता है । अधिकांशत: यह क्रिया पर्वतीय ढालों पर अधिक होती है । भूस्खलन को परिभाषित करते हुए स्थ्रेलर ने लिखा है- ”पर्वतीय ढाल पर कोई भी चट्टान गुरुत्व के कारण नीचे की ओर खिसकती है तो उसे भूस्खलन कहते हैं ।”

यदि यह खिसकाव ऊपरी परत का मंद एवं सीमित होता है तो इसे मृदा-खिसकाव कहते हैं । जब बड़े-बड़े खण्ड या ब्लॉक के रूप में यह खिसकाव होता है तो इसे भू-स्खलन कहते हैं और जब विशाल प्रस्तरखण्ड टूट कर एकाएक गिरते हैं तो उसे चट्टानों का टूटना कहते हैं ।

भू-स्खलन एवं अवलान्च वास्तव में अत्यधिक हानिकारक होते हैं जिससे न केवल जान-माल की हानि होती है अपितु पर्यावरण संतुलन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है । इसकी विशालता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि वर्ष 1911 में पामीर क्षेत्र में सात से आठ हजार टन का प्रस्तरखण्ड खिसका जिससे नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया और सेरेज झील बन गई जो लगभग 80 कि.मी. लम्बाई में है ।

यह प्राकृतिक बांध 600 मी. ऊँचा, 2 कि.मी. लंबा और लगभग 5 कि.मी. चौड़ा था । मणिपुर में आइजोल के निकट हुए भू-स्खलन (10.8.92) में 80 से अधिक लोग मौत के मुँह में चले गये थे । विश्व के अनेक भागों में भू-स्खलन की समस्या है । भारत में हिमालय की तलहटी वाले भागों में यह समस्या अत्यधिक है । जम्मू-कश्मीर में भू-स्खलन की गंभीर समस्या है जिसके कारण जम्मू-श्रीनगर मार्ग वर्ष में अनेक बार बंद हो जाता है ।

इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर-प्रदेश के उत्तराखण्ड में भी यह समस्या है । नैनीताल क्षेत्र में वर्ष 1880 में इतना विशाल भू-स्खलन हुआ कि उसमें 150 से अधिक लोग मर गये । इसी प्रकार जून, 2013 में उत्तराखंड में वर्षा तथा भूस्खलन से हजारों लोगों की जान गई तथा पर्यावरण को हानि पहुँची । उत्तर-पूर्वी भारत में भी यह समस्या है । भू-स्खलन से जान-माल की हानि के साथ-साथ पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ता है विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ यह क्रिया अनवरत होती रहती है ।

III. ज्वालामुखी द्वारा पर्यावरण अवकर्षण:

ज्वालामुखी का उद्गार एक प्राकृतिक घटना है, जो संसार के अनेक क्षेत्रों में नियमित अथवा यदाकदा होती रहती है । ज्वालामुखी विस्फोट में पृथ्वी के अंदर का गर्म लावा, गैस, प्रस्तर खण्ड, राख आदि तीव्र गति से किसी छिद्र या दरार से निकलते हैं ।

यह पदार्थ जब निकलता है तो एक विस्फोट होता है तथा गड़गड़ाहट के साथ आकाश में पिघली शैल, लावा और गैस का बादल ऊपर ही ऊपर उठता है । लावा एवं पिघली शैल चारों ओर बहती जाती है तो दूसरी ओर गैस का विशाल बादल आग की लपटों से निकल कर वायुमण्डल में फैल जाता है ।

इसी के साथ जलते हुए गर्म शैल पहले ऊपर जाते हैं और फिर पुन: नीचे गिरते हैं अर्थात् संपूर्ण रूप से यह एक विध्वंस का दृश्य उपस्थित कर देते हैं तथा जहाँ भी यह क्रिया होती है वहाँ पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है जिसका मानव पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

ज्वालामुखी का विस्फोट पृथ्वी की आंतरिक हलचलों, वलन क्रिया, रेडियोधर्मीय विखण्डन, भूकंप अथवा जल का आंतरिक क्षेत्रों में रिसाव हो जाने के कारण होता है । संसार में ज्वालामुखी प्रशांत महासागर के तटीय क्षेत्रों, इसके द्वीपों, अफ्रीकन रिफ्ट घाटी क्षेत्रों में, हिन्द महासागर के द्वीपों और अल्पाइन, हिमालच मेखला के क्षेत्रों में ही होते हैं ।

यहाँ इनके कारण अथवा वितरण के विस्तार में न जाकर पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव तक ही हमारा विवेचन सीमित है । ज्वालामुखी विस्फोट से निकले पदार्थ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं । इनके विस्फोट से ठोस, द्रव एवं गैसीय पदार्थ निकलते हैं ।

ठोस पदार्थ में चट्टानों के छोटे-बड़े खण्ड होते हैं दूर-दूर तक जाकर गिरते हैं । स्ट्राम्बली ज्वालामुखी से निकले एका/दो टन के टुकड़े तीन कि.मी. की दूरी तक जाकर गिरे । द्रवित पदार्थ भी ऊपर जाकर जब नीचे आता है तो ठोस पिण्ड बन जाता है, यदि इनका व्यास 32 मि.मी. से अधिक होता है तो इन्हें ज्वालामुखी बम कहते हैं । इसी के साथ वृहत् मात्रा में राख के कण भी वायु मण्डल में विस्तीर्ण हो जाते हैं ।

ज्वालामुखी से निकला द्रव पदार्थ मैगमा होता है जिसे बाहर निकलने पर लावा सात कहते हैं । यह गर्म द्रवीय पदार्थ ज्वालामुखी से चारों ओर ढाल के अनुरूप बहता है । इसमें रायोलाइट, बेसाल्ट और एंडेसाइट होता है किंतु कालांतर में सैकड़ों वर्षों के बाद जब यह मिट्टी का रूप ले लेता है तो यह उपजाऊ मृदा बन जाता है ।

सर्वाधिक प्रदूषण ज्वालामुखी से निकलने वाली गैसों से होता है । गर्म गैस तीव्र गति से निकल कर विशाल बादल का रूप ले लेती है जो ठण्डी होकर वर्षा करती है । लावा के साथ निकलने वाली हाइड्रोजन वायु में उपस्थित ऑक्सीजन से संयुक्त होकर भाप बना देती है । इससे निकलने वाली गैस में कार्बन-डाई-ऑक्साइड, भाप अवस्था में गंधक, क्लोरीन, फ्लोरीन आदि होती हैं जो वायु प्रदूषण का कारण बनती हैं । ज्वालामुखी उद्गार विध्वंस का कारण होता है ।

1902 में पश्चिमी द्वीप समूह में माउण्ट पेली में ज्वालामुखी फटने से वहाँ से आठ कि.मी. दूर स्थित सेंट पियरे नगर में 28,000 में से केवल दो व्यक्ति जीवित बचे थे । इटली के एटना और विसूवियस ज्वालामुखियों ने अनेक बार हानि पहुँचाई हैं ।

विसुवियस 1500 वर्षों में 10 बार फटा है जबकि सिसली का स्ट्राम्बली ज्वालामुखी प्रत्येक 15 मिनिट बाद फटता रहता है । 1943 में मैक्सिको नगर से 320 कि.मी. पश्चिम में पेरिक्यूटिन नामक ज्वालामुखी जब फटा तो 167 मीटर ऊँचे पर्वत का निर्माण हो गया ।

1912 में कटमाई ज्वालामुखी से 12.50 लाख टन हाइड्रो-क्लोरिक पदार्थ और 2 लाख टन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की वर्षा हुई । वर्ष 1991 में जापान तथा फिलीपाइन में फटे ज्वालामुखियों से पर्याप्त जन-धन की हानि हुई थी । इसी वर्ष में अंडमान द्वीप पर भी एक छोटे ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ जिससे वहाँ के पर्यावरण पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा ।

इसका लावा समुद्र में बह जाने से सामुद्रिक जीवन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा । स्थ्रेलर ने सही ही लिखा है- ”ज्वालामुखी विस्फोट एवं लावा प्रवाह पर्यावरण विपदा का अति गंभीर खतरा है जिससे जीव-जंतुओं, वनस्पति एवं मानव निर्मित कार्यों की अत्यधिक क्षति होती है ।”

IV. बाढ़, सूखा और अकाल:

बाढ़ और सूखा प्राकृतिक विपदायें हैं, जिनका संबंध जल वर्षा से है । यदि किसी प्रदेश में वर्षा अधिक होती है तो वहाँ नदियों में उफान आ जाता है ओर बाढ़ का प्रकोप हो जाता है, दूसरी ओर अल्प वर्षा या वर्षा का न होना सूखा एवं अकाल का कारण बन जाता है ।

ये दोनों ही स्थितियाँ पर्यावरण के लिये संकट हैं, जिनका प्रभाव क्षेत्रीय पारिस्थितिकी पर पड़ता है । बाढ़ अति वर्षा अथवा अतिरिक्त जल के कारण किसी भी नदी बेसिन में आ जाती है और विस्तृत क्षेत्र में बाढ़ का पानी फैल जाता है । कहीं-कहीं यह नियमित रूप से आती है तो कहीं आकस्मिक तथा इसके विस्तार एवं गति पर विनाश की मात्रा निर्भर करती है ।

किन्तु बाढ़ सदैव विनाशकारी हो यह आवश्यक नहीं, अपितु इससे उपजाऊ मिट्टी का विस्तार भी होता है और संसार के उपजाऊ मैदानों में मिट्टी का नवीनीकरण बाढ़ द्वारा ही होता है । यह भी सत्य है कि आकस्मिक एवं वृहत् बाढ़ प्रकोप न केवल जन-धन की हानि का कारण होता है अपितु पर्यावरण को भी क्षति पहुँचाता है ।

वह क्षति साधारण भी हो सकती है और भयंकर रूप में भी, जैसा कि सेन ने लिखा है- “बाढ़ की आपदा एक क्षेत्र के पर्यावरण के लिए गंभीर समस्याओं को जन्म देती है क्योंकि इससे अनेक प्राकृतिक क्रियाओं में एकाएक परिवर्तन आ जाता है जैसे अपरदन की गति में वृद्धि हो जाती है, परिवहन क्रिया अधिक होती है । साथ में जमाव (निक्षेप) भी अधिक होने से मृदा की संरचना एवं पर्यावरण के अन्य पक्षों पर प्रभाव पड़ता है ।”

बाढ़ से मृदा-अपरदन अधिक हो जाता है और दूरवर्ती क्षेत्रों में मृदा का जमाव भी होता है । जल के गर्तों में जमे रहने से अनेक प्रकार के जीवों का उद्भव होता है जो विभिन्न प्रकार के रोगों का कारण होते हैं । बाढ़ से एक ओर अधिवासों, सड़कों, पुलों, रेलमार्गों आदि की हानि होती है तो दूसरी ओर वनस्पति तथा सूक्ष्म-धरातल भी प्रभावित होता है । कभी-कभी विशाल जनसंख्या एवं जीव-जंतु इससे न केवल प्रभावित होते हैं अपितु मर जाते हैं । यह भी सत्य है कि विश्व के बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र सघन वर्षा क्षेत्र हैं अत: इससे वहां हानि अधिक होती है ।

बाढ़ आने के कई कारण होते हैं, सामान्यतया बाढ़ निम्नलिखित कारणों से आती है:

(i) मौसम की विशेष दशाओं के कारण जब अत्यधिक वर्षा हो जाती है । यह चक्रवात द्वारा, मौसमी तूफान द्वारा या बादल फटने द्वारा हो सकती है । इसका एक उदाहरण जुलाई 1981 में जयपुर में हुई अप्रत्याशित वर्षा है जिससे नगर के अनेक भाग जलमग्न हो गये थे ।

(ii) भूकंप द्वारा ।

(iii) नदियों के उद्भव क्षेत्र में वनों का विनाश होना ।

(iv) बाँधों का टूट जाना या एकाएक अतिरिक्त पानी की निकासी ।

(v) अत्यधिक शहरीकरण ।

बाढ़ द्वारा प्रभावित क्षेत्र विश्वव्यापी हैं । अधिकांशतया निचले नदी के मैदान, डेल्टा प्रदेश एवं तटीय क्षेत्र इसकी चपेट में अधिक आते हैं । मानसूनी जलवायु प्रदेशों में बाढ़ का प्रकोप अधिक होता है क्योंकि वर्षा काल सीमित होता है तथा मूसलाधार वर्षा होती है ।

बंगाल की खाड़ी के मानसून से बाँग्लादेश प्रतिवर्ष ही बाढ़ की चपेट में आता है, क्योंकि अधिक वर्षा के साथ-साथ यह गंगा का डेल्टाई प्रदेश भी है । मिकांग, इरावदी, नील, मिसीसिपी आदि नदियों के डेल्टा प्रदेश भी बाढ़ से प्रभावित रहते हैं । भारत का विशाल भाग बाढ़ग्रस्त रहता है ।

भारत के प्रमुख बाढ़ग्रस्त क्षेत्र हैं:

(i) गंगा की ऊपरी, मध्य एवं निचली घाटी अर्थात् उत्तर-प्रदेश, बिहार और पं. बंगाल,

(ii) ब्रह्मपुत्र एवं इसकी सहायक नदियों का क्षेत्र,

(iii) महानदी, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा नदियों के डेल्टाई प्रदेश,

(iv) हिमालय की तलहटी वाला प्रदेश । घागरा, गंडक, सोन, दामोदर, महानंदा आदि नदियाँ अपनी बाढ़ के विनाशकारी प्रभाव के लिये प्रसिद्ध हैं । क्षेत्रीय नदियाँ भी बाढ़ द्वारा अत्यधिक हानि पहुँचाती हैं ।

बाढ़ के प्रकोप को रोकने तथा उस पर नियंत्रण करने हेतु विविध उपाय किये जाते हैं । सामान्यतया बाढ़ आने पर करोड़ों की धनराशि व्यय की जाती है, किंतु इसके लिये उचित प्रबंध एवं योजना की आवश्यकता है जिससे हानि भी न हो तथा जल का उपयोग हो सके ।

इसके लिये कतिपय सुझाव निम्नलिखित हैं:

(i) जल ग्रहण क्षेत्र में अपरदन रोका जाये,

(ii) जल ग्रहण क्षेत्र में वनों की कटाई पर रोक लगाई जाये तथा सघन वृक्षारोपण प्रारंभ किया जाये,

(iii) उपयुक्त स्थानों पर बाँधों का निर्माण किया जाये,

(iv) छोटी नदियों एवं नालों पर बाँध एवं अवरोधक बना कर उनका जल उपयोग में लिया जाये,

(v) बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में उच्च धरातल पर अधिवास स्थापित किये जायें,

(vi) नदियों के अतिरिक्त जल की निकासी के लिये नालियों की उचित व्यवस्था की जानी चाहिये,

(vii) बाढ़ नियंत्रण बाढ़ आने की पूर्व सूचना देने हेतु उचित प्रबंध आवश्यक हैं ।

सूखा भी एक प्राकृतिक विपदा है जिसका संबंध जलवायु या विशेषकर जल वर्षा से है । सूखे को विविध दृष्टिकोण से परिभाषित किया गया है । मौसमवेत्ताओं के अनुसार यह वर्षा रहित काल है, जबकि जल विशेषज्ञों के अनुसार भूमिगत जल स्तर का अत्यधिक नीचे पहुँच जाना है ।

कृषिवेत्ता इसे नमी उपलब्ध न होने के कारण कृषि विनाश का काल व्यक्त करते हैं । जबकि अर्थशास्त्री इसे विविध आर्थिक क्रियाओं का प्रतिकूल समय व्यक्त करते हैं सामान्य रूप से सूखे की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब वर्षा सामान्य से 25 से 50 प्रतिशत कम होती हो ।

किंतु इस कमी की मात्रा यदि 50 प्रतिशत से भी अधिक होती है तो सूखा भयंकर होता है । सूखा यदि सामान्य होता है तो उसका प्रभाव सीमित होता है किंतु अधिक होने पर ‘अकाल’ का रूप ले लेता है, जिससे मानव, पशु एवं अन्य संसाधनों की हानि होती है ।

विश्व के अनेक भागों में यदा-कदा सूखा पड़ता रहता है और अकाल की छाया पड़ती रहती है । यद्यपि जल संसाधनों के विकास एवं उचित उपयोग से इसका प्रभाव दिनों-दिन कम होता जा रहा है फिर भी ‘अकाल’ पड़ना असामान्य नहीं है । हमारे देश में ही कुछ भागों में अकाल एवं सूखा पड़ता रहता है ।

सूखा या अकाल पड़ना जहाँ एक ओर जलवायु की दशाओं पर निर्भर करता है वहीं मानवीय कारक भी इसके लिये उत्तरदायी होते हैं, विशेषकर वनों की अत्यधिक कटाई इसके लिये उत्तरदायी है, यद्यपि मानसूनी जलवायु में मानसून का न आना या पर्याप्त वर्षा न होना भी इसका कारण है ।

भारत में सूखे और अकाल की समस्या अत्यधिक है । वर्ष 1899 में भारत में पड़ा ‘छप्पनिया अकाल’ तथा 1917 का अकाल प्रसिद्ध है जिसमें लाखों लोगों की जानें गईं और अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई । भारत में अकाल की चपेट में राजस्थान सर्वाधिक आता है, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश भी सूखे की चपेट में आ जाते हैं और मानसून के विफल हो जाने पर तो तीन-चौथाई भारत अकाल की चपेट में आ जाता है जैसा कि वर्ष 1986-87 में हुआ ।

सूखा एवं अकाल पर्यावरण को अवकर्षित करते हैं, इनका प्रभाव तात्कालिक ही नहीं अपितु दूरगामी भी होता है । इस समस्या का समाधान वृक्षारोपण के साथ सिंचाई के साधनों के विकास द्वारा किया जा सकता है । वनों की अत्यधिक कटाई से वायुमण्डलीय नमी में न्यूनता, अनियंत्रित पशुचारण एवं मरुस्थलीकरण की प्रकृति ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है ।

V. मरुस्थलीकरण:

मरुस्थलीकरण का सामान्य अर्थ है उपजाऊ एवं अमरुस्थली भूमि का मरुस्थली भूमि में परिवर्तित हो जाना । जबकि पारिस्थितिविद् एवं पर्यावरणवेत्ता इसे एक क्रमबद्ध प्रक्रिया मानते हैं जो जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा, जीव-जंतु एवं मानवीय क्रियाओं का परिणाम है तथा इसे मानव द्वारा पारिस्थितिक क्रम में अवरोध माना जा सकता है ।

मरुस्थलीय क्षेत्रों का विस्तार भी इसी क्रम का अंग होता है । वास्तव में मरुस्थलीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो अल्प वर्षा वाले, शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में चलती रहती है, इसमें एक ओर प्राकृतिक तत्वों का योग होता है तो दूसरी ओर मानवीय कार्य-कलापों का ।

केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र शोध संस्थान (CAZRI) के पूर्व निदेशक मान के अनुसार- ”मरुस्थलीकरण से तात्पर्य उन सभी प्रक्रमों के सामूहिक प्रभाव से है जिनके कारण एक विशेष पारिस्थितिक-तंत्र में मूलभूत परिवर्तन आ जाता है तथा जिससे अमरुस्थली क्षेत्र मरुस्थल में परिवर्तित होने लगता है । यह जलवायु एवं जैविक तत्वों की क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम होता है ।”

यह प्रक्रिया मरुस्थल बनने से पूर्व ही प्रारंभ हो जाती है और मरुस्थल इसी का परिणाम है । यह प्रक्रिया मरुस्थली दशाओं को सघन एवं जटिल बनाती जाती है, फलस्वरूप सीमावर्ती क्षेत्रों में मरुस्थल विस्तार होता जाता है ।

विश्व में शुष्क मरुस्थली क्षेत्रों का पर्याप्त विस्तार है । विश्व के लगभग 35 प्रतिशत भाग मरुस्थली हैं, जो यूरोप के 2 प्रतिशत, अमेरिका के 19 प्रतिशत, एशिया के 31 प्रतिशत, अफ्रीका के 34 प्रतिशत तथा आस्ट्रेलिया के 75 प्रतिशत भाग पर हैं ।

सहारा, आस्ट्रेलियन, अरब, गोबी, कालाहारी, तकला-मकन, थार, अटाकामा, काराकुम, सोमानी आदि प्रमुख मरुस्थल हैं । ये मरुस्थली भाग स्थिर नहीं हैं, अपितु प्राकृतिक और मानवीय कारणों से इनका विस्तार होता जाता है । विश्व में प्रतिवर्ष हजारों हेक्टेयर भूमि मरुस्थल में बदल जाती है । एक अनुमान के अनुसार विगत 100 वर्षों में मरुस्थलों ने ऐसे विशाल क्षेत्रों को निगल लिया है जो किसी समय वनों से युक्त अथवा उपजाऊ प्रदेश थे ।

दजला-फरात नदियों की घाटियाँ किसी समय प्राचीन सभ्यता के केन्द्र थे वहाँ आज रेत का सागर है । थार के मरुस्थल में भी सरस्वती एवं दृषद्वती नदियों का प्रवाह वैदिक युग में होने के प्रमाण मिलते हैं जो कालांतर में मरुस्थल में बदल गये ।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार अविवेकपूर्ण मानवीय क्रियाओं के कारण विश्व में 1 करोड़ 30 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में मरुस्थली भूमि हो गई है । विश्व में यह प्रक्रिया अनवरत रूप से चल रही है अर्थात् मरुस्थलीकरण संपूर्ण विश्व में पर्यावरण की एक प्रमुख समस्या है । भारत में थार का मरुस्थल भी इसी प्रक्रिया का शिकार है, इसके कारण यहाँ का पर्यावरण अवकर्षित हो रहा है ।

विश्व में मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

I. मानव द्वारा वनस्पति का निर्ममता से उन्मूलन,

II. अनियंत्रित पशु चारण,

III. वायु अपरदन एवं स्थानान्तरण द्वारा विस्तार,

IV. भूमिगत जल स्तर में निरंतर गिरावट,

V. न्यून वर्षा के कारण सूखा पड़ना,

VI. मरुस्थली प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि,

VII. कृषि भूमि में लगातार एक ही फसल का बोना,

VIII. मृदा की लवणता आदि । स्पष्ट है कि मरुस्थलीकरण में पर्यावरण एवं पारिस्थितिक-तंत्र में परिवर्तन के फलस्वरूप शुष्कता का विस्तार होता है । इस विस्तार में प्रमुख भूमिका चार कारकों की रहती है ।

वे हैं:

i. वनस्पति आवरण में क्षति, फलस्वरूप वायु मण्डल की नमी में कमी, तापमान में वृद्धि तथा मिट्टी का कटान,

ii. वायु द्वारा शुष्क प्रदेशों में निरंतर मृदा-अपरदन,

iii. यदा-कदा जल-अपरदन एवं

iv. भूमि की लवणता से उपजाऊपन का क्षीण होना ।

प्रारंभ में यह प्रक्रिया सीमित होती है जो मरुस्थलीकरण की प्रारंभिक अवस्था होती है । इस अवस्था में इस समस्या पर सामान्यतया ध्यान न देने से अवकर्षण क्रमश: अधिक होता जाता है ।

मरुस्थलीकरण प्राकृतिक कारणों से होने पर इसे प्राकृतिक मरुस्थलीकरण की संज्ञा देते हैं जबकि तकनीक द्वारा होने पर मानवीय अथवा तकनीक-जनित मरुस्थलीकरण कहते हैं । सामान्यतया दोनों ही कारक एक क्षेत्र में क्रियाशील रहते हैं । सारांश के रूप में मरुस्थलीकरण से तात्पर्य है- मरुस्थली दशाओं का क्रमश: सघन होते जाना । यह वह प्रक्रिया है जिससे जैविक उत्पादकता में बाधा पड़ती है जिसके कारण पादप जीवोम में कमी होती जाती है ।

उस प्रदेश की पशु धारण करने की क्षमता, उत्पादन क्षमता कम हो जाती है फलस्वरूप विकास का क्रम क्षीण होने लगता है । यह विचार संयुक्त राष्ट्र संघ की वैज्ञानिक शाखा द्वारा स्वीकृत है जो मरुस्थलीकरण की प्रकृति को ही नहीं अपितु उसके प्रभाव को भी स्पष्ट करती है ।

भारत में शुष्क क्षेत्र का विस्तार देश के लगभग 12 प्रतिशत क्षेत्र अर्थात् 3,20,000 वर्ग कि.मी. से अधिक है । यह राजस्थान में 62 प्रतिशत, गुजरात में 19 प्रतिशत, पंजाब और हरियाणा में 9 प्रतिशत तथा आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में 10 प्रतिशत है ।

इसमें राजस्थान के पश्चिम में थार का मरुस्थल, मरुस्थलीकरण का एक उदाहरण है । थार का मरुस्थल सदैव से मरुस्थल नहीं था, अपितु इसका पर्याप्त भाग प्राचीन काल में सरस्वती एवं दृषद्वती नदियों का हराभरा प्रदेश था, जहाँ सभ्यता का विकास हुआ ।

वर्तमान घग्घर नदी का तल इसी का अवशेष माना जाता है, जहाँ सिंधु घाटी काल की सभ्यता के अवशेष कालीबंगा, रंग महल आदि स्थानों पर देखे जा सकते हैं । कालांतर में प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन, वनों का कटना, अत्यधिक पशुचारण, बाढ़ आदि से यह क्षेत्र रेत के टीलों में बदल गया अर्थात् इसका मरुस्थलीकरण हो गया ।

वर्तमान समय में भी मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो रही है यह तथ्य सभी विद्वान स्वीकार करते हैं । यद्यपि इस मरुस्थल का विस्तार हो रहा है या नहीं इस पर विद्वानों में मतभेद हैं । एक ओर बिड़ला शोध संस्थान के विद्वान इसका अरावली पर्वत के दूसरी ओर विभिन्न अंतरालों से इसके विस्तार का विचार रखते हैं । किंतु केन्द्रीय शुष्क शोध अनुसंधान ‘कजरी’ के वैज्ञानिक इसको विस्तृत होना नहीं मानते, यद्यपि ये स्वीकार करते हैं कि मरुस्थलीकरण का फैलाव हो रहा है, मरुस्थल का नहीं ।

थार के मरुस्थल के लिये एक ओर जहाँ जलवायु की प्रतिकूलता उत्तरदायी है, वहीं दूसरी ओर संसाधनों का अत्यधिक शोषण तथा मानव एवं पशुओं की संख्या में वृद्धि है, जैसा कि ‘कजरी’ के पूर्व निदेशक शंकर नारायणन् ने लिखा है कि भारतीय मरुस्थलीय प्रदेश में एक ओर जहाँ परिवर्तित एवं अतिशयतायुक्त जलवायु हैं, जहाँ दैनिक तापान्तर अत्यधिक होता है वहीं उसकी दो प्रमुख समस्यायें हैं- मानव जनसंख्या एवं पशुओं की संख्या ।

अन्य प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त ये दोनों अर्थात् जनसंख्या में वृद्धि, पशुओं की अनियंत्रित चराई भी मरुस्थलीकरण के लिये जिससे मरुस्थल का पर्यावरण और अधिक अवकर्षित हो जाता है ।

थार के मरुस्थल के क्षेत्र में मरुस्थलीकरण की प्रकृति के मुख्य कारण हैं:

1. जलवायु की कठोरता, उच्च तापमान-न्यून वर्षा,

2. वनस्पति का दिनों-दिन कटते जाना,

3. जनसंख्या की वृद्धि,

4. पशुओं की संख्या में वृद्धि एवं अनियंत्रित पशुचारण,

5. भूमिगत जल स्तर में गिरावट,

6. संसाधनों का अत्यधिक शोषण,

7. निरंतर सूखा और अकाल पड़ना,

8. भू-क्षरण द्वारा मिट्टी का अनुपजाऊ एवं विस्तृत होना,

9. वायु-अपरदन में वृद्धि होना,

10. यदा-कदा बादल फटने से जल-अपरदन,

11. जहाँ सिंचाई का विस्तार हो रहा है वहाँ लवणता, जल संचयन एवं रिसाव की समस्या आदि ।

वास्तव में मरुस्थलीकरण का मूल कारण संसाधनों (प्राकृतिक एवं मानवीय) का निर्ममता से शोषण है अर्थात् मानव स्वयं इसके लिये अधिक उत्तरदायी है, अत: इसको नियंत्रित करने के प्रयास भी उसे ही करने होंगे । कतिपय उपायों से मरुस्थलीकरण को नियंत्रित किया जा सकता है ।

उनमें प्रमुख हैं:

1. मरुस्थली वनस्पति की कटाई पर रोक ।

2. पारिस्थितिकी के अनुरूप वृक्षों का लगाना, जोधपुर के केन्द्रीय शुष्क अनुसंधान केन्द्र ने अनेक पौधे एवं झाड़ियाँ विकसित की हैं या पहचानी हैं जो सीमित नमी में विकसित हो सकती हैं ।

3. चरागाहों का विकास, जिससे पशुओं को चारा उपलब्ध हो सके और अनियंत्रित पशुचारण पर रोक लगाई जा सके ।

4. वायु के मार्ग में वृक्षों की पेटी का विकास किया जाये ।

5. भूमि संरक्षण उचित भूमि प्रबंध द्वारा किया जाये ।

6. बालू के स्तूपों का स्थाईकरण किया जाये, इस प्रकार की विधियाँ विकसित की गई हैं जिससे रेत के टीलों का स्थानांतरण रोका जा सकता है ।

7. उपलब्ध जल (भूमिगत एवं वर्षा का) उचित उपयोग किया जाये ।

8. नमी संरक्षण एवं शुष्क कृषि का विकास किया जाये ।

9. जहाँ जल उपलब्ध हो उसका उचित उपयोग हो जिससे लवणता एवं संचयन द्वारा उत्पन्न समस्या न हो ।

10. राजस्थान में राष्ट्रीय जल संभर विकास कार्यक्रम मरुस्थलीकरण को रोकने के लिये चलाया जा रहा है । 1986 में यह कार्यक्रम प्रारंभ हुआ जो वर्तमान में भी जारी है ।

11. इस समस्या के प्रति जन-जागृति पैदा की जाये ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मरुस्थलीकरण एक प्राकृतिक विपदा है जिसे मानव ने अपने क्रिया-कलापों से और विकट बना दिया है, जो आने वाले समय में विकटतम रूप धारण कर सकते है । अत: इस समस्या के प्रति सचेष्ट आवश्यक है और शासकीय एवं सामाजिक प्रयासों से एवं उचित प्रबंधन द्वारा इस समस्या को सीमित किया जा सकता है तथा इसके द्वारा होने वाले पर्यावरण अवकर्षण से बचा जा सकता है ।

VII. गरजती-आंधी, टारनेडो, उष्ण-चक्रवात:

वायुमण्डलीय दशाओं में हुए एकाएक परिवर्तन के फलस्वरूप तूफान, आंधी, गर्जन, हिम वर्षा, टारनेडो, उष्ण कटिबंधीय चक्रवात, समुद्री तूफान आदि आते हैं, ये सभी पर्यावरण के संतुलन में बाधक होते हैं । इनसे जन-धन, वनस्पति, जीव-जंतु आदि की हानि होती है तथा प्राकृतिक दशाओं पर भी प्रभाव पड़ता है ।

इनका प्रभाव तात्कालिक होता है किंतु यदि ये तीव्रतम क्षमता के होते हैं तो लंबे समय तक भी इनका प्रभाव देखा जा सकता है । गर्जन के साथ तेज हवायें सघन स्थानीय तूफान हैं, जिसमें तेज गति से हवायें ऊपर को उठती हैं, फलस्वरूप गर्जन और बिजली गिरना इसके साथ होता है तथा तेज वर्षा जो बादल फटने के कारण होती है ।

इसमें हवायें 6 से 12 कि.मी. की ऊँचाई तक उठ जाती हैं । यह विषुवत् रेखीय प्रदेशों एवं मानसूनी प्रदेशों में वर्षा काल से अधिक होता है । इसी के साथ यदि हिम के टुकड़े सम्मिलित होते हैं तो उसे हिमानी तूफान कहते हैं । हिमानी तूफानों से फसलों को अत्यधिक हानि होती है ।

संयुक्त राज्य अमेरिका में नेब्रास्का, कनसास, ओकलहामा राज्यों में इसके द्वारा प्रतिवर्ष गेहूँ की फसल को पर्याप्त हानि होती है । मध्य अक्षांशों में वायु समूहों के संगम से तेज तूफानी हवायें चलती हैं उन्हें टारनेडो कहते हैं ।

यह एक छोटा सघन चक्रवात होता है जिसमें वायु की गति अत्यधिक होती है । इसमें कुप्पीनुमा बादल आकाश से धरती की ओर आता नजर आता है जो अन्धकार-सा कर देता है जिससे तेज हवायें चलती हैं, जिनकी अधिकतम गति 400 कि.मी. प्रति घंटे तक होती है जिससे अत्यधिक हानि होती है ।

19 फरवरी, 1984 को वर्जीनिया, करोलिना, जार्जिया, अलबामा, टेनेसी, केन्टुकी (यू.एस.ए.) में प्रात: 10 बजे से मध्य रात्रि तक 60 टारनेडो आये, जिनसे लगभग 40 लाख डॉलर मूल्य की हानि हुई, 800 व्यक्ति मर गये, 2500 घायल हुए और 10,000 से 15,000 व्यक्ति बेघर हो गये ।

इसी प्रकार 3-4 अप्रेल, 1974 को संयुक्त राज्य के मध्य राज्यों में 148 टारनेडो आये जिसे ‘Jumbo Outbreak’ का नाम दिया जाता है, जिससे अत्यधिक हानि हुई । इसी प्रकार के विध्वंसात्मक तूफान उष्ण कटिबंधीय चक्रवात होते हैं, जिन्हें हरीकेन या टाइफून भी कहते हैं । ये मुख्यतया 8° से 15° उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशों में आते हैं । ये वृत्ताकार रूप में चलते हैं, जिनमें हवा की गति 120 से 200 कि.मी. प्रति घंटा होती है तथा साथ में तेज वर्षा होती है ।

ये जब समुद्री क्षेत्र से तट की ओर आते हैं तो समुद्री जल दूर-दूर तक प्रवेश कर जाता है, जिससे अपार जन-धन की हानि होती है । इससे होने वाली हानि का उदाहरण बाँग्लादेश है जहाँ इनके द्वारा भयंकर हानि होती रहती है ।

बांग्लादेश में उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में मरने वालों की संख्या 1822 में 40,000, 1876 में एक लाख, 1889 में 1.75 लाख, 1970 में 3 लाख और मई 1991 में 5 लाख थी । अनेक समुद्री द्वीप इन तूफानों से पूर्णतया क्षतिग्रस्त हो जाते हैं ।

सभी प्रकार के तूफान चाहे वे धरातलीय हों या समुद्र पर, अत्यधिक हानि पहुँचाने वाले होते हैं । समुद्र तटीय क्षेत्रों एवं द्वीपों के निवासियों को इस खतरे का सदैव भय बना रहता है । तूफानों में जो तेज हवा चलती है उससे वनस्पति एवं उन पर पल रहे जीव-जंतुओं की सर्वाधिक हानि होती है ।

तूफान द्वारा समुद्री जल आंतरिक क्षेत्रों में फैल कर न केवल दलदल में वृद्धि करता है अपितु इससे अनेक बीमारियाँ फैल जाती हैं । इन पर नियंत्रण पाना संभव नहीं है, किंतु पूर्व सूचना द्वारा इनसे होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है ।

आज मौसम विभाग इस स्थिति में है कि तूफानों की पूर्व सूचना दी जा सके । ये तूफान पर्यावरण की दशाओं में आकस्मिक परिवर्तन ला देते हैं, किंतु ये स्वत: प्राकृतिक रूप में पुन: स्थापित भी हो जाते हैं अर्थात् पर्यावरण अपने पूर्ववर्ती स्वरूप में स्वत: आ जाता है ।

2. मानवीय क्रियाकलापों द्वारा पर्यावरण अवकर्षण (Environmental Degradation by Human Action):

प्राकृतिक कारकों द्वारा पर्यावरण अवकर्षण के विवरण से स्पष्ट है कि उनको अधिक प्रभावशाली बनाने में मानव की भूमिका है, किंतु दूसरी ओर मानव अपने उपयोग के लिये, विकास के लिये अथवा प्रगति के नाम पर अनेक ऐसे कार्य करता है जो पर्यावरण अवकर्षण की अनेक समस्याओं को जन्म देते हैं ।

ये समस्याएँ आज विश्व में पर्यावरण संकट के लिए उत्तरदायी हैं क्योंकि पर्यावरण का उपयोग करते समय मानव उसे इतनी निर्दयता से शोषण करता है कि उसे भविष्य का ध्यान नहीं रहता । यही कारण है कि आज न केवल विकासशील देश अपितु विकसित देश भी इस समस्या से ग्रसित हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक इसके लिये प्रयत्न किये जा रहे हैं । मानव द्वारा पर्यावरण को जो हानि पहुँचाई जा रही है उसी का प्रतिफल ‘पर्यावरण प्रदूषण’ है ।

जल, वायु, ध्वनि प्रदूषण ही नहीं अपितु भू-प्रदूषण, रेडियोधर्मिता द्वारा प्रदूषण आज संपूर्ण विश्व को त्रस्त किये हुए हैं, इनका विस्तार से विवेचन अध्याय 5, 6 और 7 में किया गया है । यहाँ उन क्रियाओं का वर्णन कर रहे हैं जो उपर्युक्त के अतिरिक्त पर्यावरण अवकर्षण का कारक हैं, जैसे- वनों का विनाश, बांधों का निर्माण, खनिज खनन, कीट नाशकों का प्रयोग, शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण आदि ।

I. बड़े बाँधों का पर्यावरण पर प्रभाव:

जल का उचित उपयोग, सिंचाई पेयजल एवं विद्युत उत्पादन हेतु नदियों पर बांध बनाये जाते हैं । निःसंदेह बाँध विकास प्रक्रिया को गति देते हैं और अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक होते हैं, किंतु उनका वृहत स्वरूप पर्यावरण एवं मानव को अनेक त्रासदियों का शिकार बना देता है, अत: इनका निर्धारण प्राकृतिक परिस्थितियों एवं पर्यावरण पर प्रभाव को दृष्टिगत रख कर किया जाना चाहिये । बाँधों के कारण हजारों गाँव जलमग्न हो जाते हैं और इनके निवासी विस्थापित बन जाते हैं, जिन्हें अन्यत्र बसना होता है । यह कष्ट किसी तरह मानव सह जाता है किंतु इनका पर्यावरण पर जो प्रभाव होता है ।

जैसे:

(i) विस्तृत वन क्षेत्र का जल मग्न होना,

(ii) वन्य जीवों का विनाश,

(iii) भूतल अस्थिर होने से भूकंप की आशंका,

(iv) पानी के जमाव की समस्या,

(v) क्षारीयता एवं अम्लता की समस्या,

(vi) उपजाऊ मृदा का नदी के मैदानी भागों में न पहुँचना आदि विचारणीय तथ्य हैं ।

इससे यह तात्पर्य नहीं कि बाँधों का निर्माण न किया जाये अपितु छोटे बाँधों का अधिक से अधिक निर्माण किया जाये और निर्माण से पूर्व पर्यावरण के सभी पक्षों पर समुचित विचार कर उसे क्रियान्वित किया जाये क्योंकि अनेक बार तात्कालिक लाभ के लिये दूरगामी परिणामों को नजरअंदाज कर दिया जाता है ।

इस संदर्भ में भारतीय स्थिति पर विवेचन उचित होगा । स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में अनेक नदियों पर बाँध बनाये गये, जैसे- भाखड़ा-नांगल, हीराकुण्ड, दामोदर, तुंगभद्रा, कोसी, रिहन्द, चम्बल, मयूराक्षी, बेतवा, भद्रावती, कृष्णा आदि । इन सभी बाँधों से सिंचित भूमि का विकास हुआ, विद्युत उत्पादन में वृद्धि हुई एवं अन्य अनेक आर्थिक लाभ हुए, किंतु इनका पर्यावरण पर निःसंदेह प्रभाव हुआ है ।

इसी प्रकार विष्णु प्रयाग बाँध अलकनंदा पर बनने को है जो दुनिया का सबसे ऊँचा बाँध होगा । 1266 करोड़ रुपयों की इस महत्वाकांक्षी योजना से 480 मेगावाट बिजली उत्पन्न होगी । बड़ी ही लुभावनी योजना है, किंतु पर्यावरण की दृष्टि से इसे घातक माना जा रहा है ।

जोशी मठ के क्षेत्र में खतरे की घंटी बज रही है । वनों के कटने से यह क्षेत्र बाढ़ से ग्रस्त है, बाँध बनने से विनाश का तांडव नृत्य हो सकता है । विश्व प्रसिद्ध समृद्ध ‘फूलों की घाटी’ गरीब हो रही है, अनेक वनस्पतियों एवं जीव जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं । निःसंदेह बड़े बाँधों के निर्माण पर्यावरण के लिए संकट का कारण बनते हैं ।

संक्षेप में इनका प्रभाव निम्नलिखित होता है:

1. पारिस्थितिक-तंत्र में विसंगति आने से उस क्षेत्र के मानव को अनेक आपदाओं का सामना करना पड़ता है । इसका प्रमुख कारण विशाल क्षेत्र के जल मग्न होने से वन संपदा, जीव-जंतुओं का समाप्त होना है ।

2. इनके निर्माण से भू-संतुलन पर प्रभाव पड़ने से भूकंप आने की संभावना अधिक हो जाती है ।

3. बाँधों में अत्यधिक मिट्टी का जमाव होने से वे भरने लगते हैं और उनमें जले भराव क्षमता कम हो जाती है ।

4. नहरों की सिंचाई में जल एकत्रीकरण एवं क्षारीयता तथा लवणता की समस्या उत्पन्न होती है ।

5. बाँध का स्थिर जल अनेक बीमारियों का कारण बनता है ।

6. जल मग्न होने से असंख्य लोग विस्थापित होते हैं, गाँव एवं कस्बे उजड़ जाते हैं । अनेक जनजातियों के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो जाता है ।

7. प्रारंभ में इन बांधों पर कम खर्च का अनुमान होता है । बाद में इतना अधिक खर्च होता है कि लाभ का प्रतिशत कम हो जाता है ।

संक्षेप में, बड़े बाँधों के निर्माण के पक्ष और विपक्ष में संयोजन की आवश्यकता है । कई बार स्थानीय अथवा राजनीतिक कारणों से पर्यावरण के खतरों को अतिशयोक्ति के साथ प्रस्तुत किया जाता है । बाँधों से होने वाले लाभ को दृष्टिगत रखते हुए उनका निर्माण रोकना संभव नहीं, आवश्यकता इस बात की है कि सही मूल्यांकन हो तथा पर्यावरण के अवकर्षण से बचने के सभी उपाय प्रारंभ से ही किये जावें ।

II. खनिज खनन द्वारा पर्यावरण अवकर्षण:

खनिज प्रकृति प्रदत्त मूल्यवान संपदा है, जिसका मानव प्राचीन काल से उपयोग करता आ रहा है । यद्यपि प्राचीन काल में खनिजों का सीमित खनन होता था क्योंकि खनिजों की जानकारी नहीं थी तथा उन्हें प्राप्त करने की तकनीक का अभाव था और विश्वव्यापी खनिज व्यापार संभव नहीं था । औद्योगिक एवं तकनीकी प्रगति ने इस उपयोग को चरम सीमा तक पहुँचा दिया । फलस्वरूप खनिज खनन विश्वव्यापी हो गया तथा जहाँ-जहाँ जो भी उपलब्ध हुआ उसका अधिकतम शोषण प्रारंभ हो गया ।

इससे अनेक देशों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया, आय में वृद्धि हुई, किंतु इससे पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव हुआ और यह पर्यावरण अवकर्षण का कारण बन गया । पृथ्वी की चट्टानों में विभिन्न रासायनिक तत्वों से अकार्बनिक प्रक्रम द्वारा खनिजों का निर्माण होता है । इसका संबंध भूगर्भिक बनावट से होता है ।

संपूर्ण खनिजों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है:

(i) अधात्विक खनिज (Non-Metallic Minerals)- इसमें फैल्सपार, डोलोमाइट, क्रोमाइट, ग्रेफाइट, टेल्क, पाइरोलाइट, सोप-स्टोन, एस्बेस्टोस, अभ्रक, जिप्सम, फ्लोराइट, सभी प्रकार के इमारती पत्थर, बहुमूल्य खनिज आदि सम्मिलित हैं ।

(ii) धात्विक खनिज (Metallic Minerals)- इसमें लोहा एवं लौह मिश्रित धातु, अलौह धातुएँ जैसे- ताँबा, सीसा, एल्यूमिनियम, एन्टीमनी, चाँदी, सोना, प्लेटीनम, यूरेनियम, बहुमूल्य खनिज, केडमियम आदि सम्मिलित होते हैं ।

(iii) खनिज ईंधन (Mineral Fuels)- इसमें कोयला एवं पेट्रोलियम सम्मिलित हैं ।

इन सभी खनिजों को प्राप्त करने हेतु खनन या उत्खनन क्रिया की जाती है, जिसके अंतर्गत भूमि की परतों को परत-दर-परत खोदा जाता है और खनिज प्राप्त किये जाते हैं । यह खनन वर्तमान शताब्दी में इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि अब यह चिंता सता रही है कि भविष्य में खनिज उपलब्ध होंगे या नहीं । इसी कारण खनिज संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है । खनिज खनन से जहाँ एक ओर खनिजों की मात्रा में कमी आ रही है तो दूसरी ओर इससे पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है ।

III. खनिज खनन के दुष्प्रभाव:

खनिज खनन पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव डालता है, उसे प्रदूषित करता है । दूसरे शब्दों में उसे निम्नस्तरीय करने में योग देता है । खनिज खनन के अंतर्गत विस्तृत क्षेत्रों में भूमि को खोदा जाता है, फलस्वरूप भूमि पर स्थित वन तो समाप्त होते ही हैं, भूमि भी अनुपजाऊपन का शिकार हो जाती है, भूस्खलन में वृद्धि हो जाती है, साथ ही खनन से निकली भूल एवं गैस पर्यावरण को प्रदूषित करती हैं । खनिज खनन की प्रचलित पद्धतियाँ हैं- खुला खनन, विपट्टी खनन, अधस्थली खनन तथा द्रवचालित खनन । इसमें खुला खनन सबसे अधिक हानिकारक होता है क्योंकि इससे पर्यावरण अधिक प्रदूषित होता है ।

खनिज खनन का पर्यावरण पर निम्नलिखित दुष्प्रभाव पड़ता है:

i. विशाल गर्तों का निर्माण:

खनिजों के खनन से लाखों वर्ग कि.मी. का क्षेत्र विभिन्न आकार के गर्तों में बदल गया है । इससे अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 1,50,000 एकड़ भूमि अनुपयोगी हो गई है । प्रत्येक देश में जहाँ खनिज उपलब्ध हैं वहाँ यह समस्या है । कोयला, लोहा, अन्य अयस्क, इमारती पत्थर आदि से धरातल का मूल रूप समाप्त हो रहा है ।भारत के बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के कोयला क्षेत्रों का निरीक्षण करने से स्पष्ट होता है कि वहाँ दूर-दूर तक गर्त एवं व्यर्थ कोयले के ढेर हैं ।

न केवल ऊपरी परत अपितु खनिजों का गहराई तक दोहन करने से भूमि कमजोर एवं अनुपजाऊ हो जाती है । राजस्थान के कोटा, बूंदी, झालावाड़, भीलवाड़ा, सिरोही, नागौर, उदयपुर आदि में, जहाँ इमारती पत्थर निकाला जाता है, वहाँ विशाल भू-भाग पर गर्त ही गर्त नजर आते हैं ।

ii. वनस्पति विनाश:

खनिजों के दोहन के लिये विस्मृत क्षेत्रों में भूमि को खोदा जाता है । फलस्वरूप उस क्षेत्र में स्थित प्राकृतिक वनस्पति समाप्त हो जाती है । अत: वनस्पति विनाश से पर्यावरण को होने वाली हानि का भी उस क्षेत्र को दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है ।

iii. भू-स्खलन में वृद्धि:

अनेक बार खानों का ऊपरी व्यास कम होता है, उसे अंदर ही अंदर खोदा जाता है, उससे वह क्षेत्र खोखला हो जाता है । इससे जमीन धसकने एवं खानों की छतों के गिरने की घटनाएँ होती रहती हैं जिनमें दब कर श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है ।

iv. खनन धूलि से प्रदूषण:

खनन से पर्याप्त मात्रा में धूल वायु मण्डल में विस्तीर्ण हो जाती है । यह धूल की परत उस समय अधिक होती है जब विस्फोट द्वारा खनन होता है । इस धूल से पर्यावरण तो प्रदूषित होता ही है, इसमें मिश्रित हानिकारक पदार्थों से मानव स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है ।

v. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव:

खनन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव उन श्रमिकों के स्वास्थ्य पर पड़ता है जो खदानों में, विशेषकर गहराई पर कार्य करते हैं । उन्हें ऑक्सीजन की कमी के कारण कृत्रिम ऑक्सीजन सेवन करना पड़ता है । कोयला एवं अन्य खान मजदूरों को श्वसन एवं फेफड़ों की अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं तथा उनका जीवन काल कम हो जाता है । अनेक बार खानों से निकलने वाली विषैली गैसों से न केवल स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है अपितु अकाल मृत्यु भी हो जाती है ।

vi. अन्य प्रभाव:

(a) भूमि का बंजर होना,

(b) निकटवर्ती बस्तियों का उजड़ना,

(c) वन्य प्राणियों का नाश,

(d) खनिज समाप्त हो जाने पर बस्तियों का उजाड़ नगर बन जाना आदि । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अनियोजित एवं अनियंत्रित खनन पर्यावरण के लिये खतरा है तथा उसके अवकर्षण का एक कारण है ।

नियोजित विकास:

उपर्युक्त विवरण से यह तात्पर्य नहीं कि खनिज खनन समाप्त कर दिया जाये अपितु इस प्रकार से उसे नियोजित किया जाए कि खनिजों का संरक्षण भी हो सके और पर्यावरण को दूषित होने से भी बचाया जा सके । अनियंत्रित खनिज खनन भविष्य के लिए खतरा है क्योंकि एक बार खनिजों को निकाल लेने के पश्चात् उसका पुन: निर्माण संभव नहीं ।

पर्यावरण अवकर्षण को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित सुधारात्मक उपाय किये जा सकते हैं:

i. खानों के गर्तों को पुन: समतल बनाना,

ii. अनुपयोगी पदार्थों के ढेर का उपयोग करना या उसकी पुन: भराई,

iii. खनन क्षेत्र में पुन: वृक्षारोपण,

iv. खानों से निकली धूल का शुद्धीकरण एवं उसे शांत कर फैलने से रोकना,

v. खानों में पर्याप्त सुरक्षा एवं स्वास्थ्य के उपाय करना,

vi. खनन के, उजड़े क्षेत्रों को पुन: बसाना,

vii. खनिजों का विकल्प जैसे संश्लिष्ट पदार्थ, प्लास्टिक, ऊर्जा के नवीन स्रोत निकालना आदि,

viii. खनिज खनन संबंधी सरकारी नियमों का पालन करना,

ix. खनिज उपयोग के सुरक्षित भण्डार को दृष्टिगत रख योजना बनाना ।

IV. कीटनाशकों द्वारा पर्यावरण अवकर्षण:

कृषि की अधिक से अधिक उपज लेने हेतु संपूर्ण विश्व में आज विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है । इनके द्वारा फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले विभिन्न कीटों को समाप्त किया जाता है अथवा विभिन्न कृषि रोगों का विनाश किया जाता है ।

इनके प्रयोग से निःसंदेह न केवल फसलों को विभिन्न बीमारियों से बचाया जा रहा है अपितु उत्पादन में वृद्धि हो रही है । इनके प्रयोग किसी न किसी रूप में प्राचीन काल से होते आये हैं, मिस्र में ईसा से 1500 वर्ष पूर्व कीटनाशक के प्रमाण मिलते हैं, होमर ने 1000 ईसा पूर्व ‘कीटनाशक सल्फर’ के प्रयोग का उल्लेख किया है ।

यही नहीं, अपितु भारत में विभिन्न प्रकार की वनस्पति को जला कर फसलों की रक्षा का उल्लेख मिलता है, किंतु वृहत् कीटनाशकों का प्रयोग आधुनिक युग की देन है । आज 600 से भी अधिक रासायनिक यौगिकों का प्रयोग कीटनाशकों के रूप में किया जाता है ।

संपूर्ण कीटनाशकों को दो प्रमुख श्रेणियों में विभक्त किया जाता है:

a. प्रथम- आरगेनो-क्लोरीन कीटनाशक, इसमें डी. डी. टी. क्लोरडेन, डाइड्रिन, एल्ड्रिन, एन्ड्रिन, लिण्डेन, 2, 4-D, 2, 4, 5-T आदि हैं ।

b. द्वितीय- आरगेनोफासफोरस यौगिक ।

इसमें प्राथालियोन, मैलाथियोन, डिआनियोन, डी.डी.वी.पी., ट्रीक्लोरोफोन एवं अन्य इसी प्रकार के यौगिक हैं । ये सभी रसायन विषैले होते हैं तथा ये कीटों को तो समाप्त करते ही हैं साथ में पर्यावरण में, अर्थात् वायु एवं जल में मिश्रित होकर उसे प्रदूषित करते हैं ।

यही नहीं, अपितु कृषि उपजों में इनके अंश प्रविष्ट हो जाते हैं जो मानव शरीर में प्रविष्ट कर अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं । यही कारण है कि अनेक कीटनाशकों का प्रयोग विकसित देशों में रोक दिया गया है । इसका एक उदाहरण डी.डी.टी. के प्रयोग पर रोक लगाना है । अमेरिका में जहाँ इसका 1960 के दशक में आठ लाख पौण्ड का प्रयोग होता था वह अगले दशक में न केवल घट गया अपितु 1969 के पश्चात् अनेक राज्यों में और 1972 में पूर्ण रूप से इसके प्रयोग पर रोक लगा दी गई ।

जर्मनी, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क आदि देशों ने भी इसके प्रयोग पर रोक लगा दी है, किन्तु विकासशील देशों में इनका प्रयोग आज भी पर्याप्त किया जा रहा है । फलस्वरूप क्रमिक रूप से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है । कीटनाशकों का वायु, जल एवं मानव पर प्रभाव है ।

निःसंदेह कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से वायु और जल तो प्रदूषित होते ही हैं, मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है । भारत में हरित क्रांति के परिणामस्वरूप इनके प्रयोग में वृद्धि हुई है, अत: इनके परिणामों को दृष्टिगत रखते हमें ऐसे उपाय करने चाहियें कि इनका प्रतिकूल प्रभाव न हो ।

कीटनाशक का प्रयोग वर्तमान में आवश्यक-सा हो गया है किंतु इसके प्रतिकूल प्रभाव को रोकने के लिये वैज्ञानिकों को अनुसंधान करना आवश्यक है । इसके साथ ही उन क्षेत्रों का पता लगाना चाहिये जहाँ उनका प्रयोग आवश्यक है । जहाँ तक संभव हो स्थानीय पर्यावरण को दृष्टिगत रखते हुए उनका प्रयोग किया जाये । प्रयोगकर्त्ताओं को यह जानकारी देना भी आवश्यक है कि इनका पर्यावरण एवं स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है ।

इसके साथ ही कीटनाशक दवाओं की उत्तमता पर नियंत्रण आवश्यक है क्योंकि निम्न स्तरीय कीटनाशक अधिक हानिकारक होता है । कीटों से मुक्त करने के लिए समग्र कीट निवारण प्रबंध किया जाना चाहिये । ये समस्त उपाय भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अत्यधिक आवश्यक हैं ।

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V. तकनीकी विकास द्वारा पर्यावरण अवकर्षण:

आधुनिक विश्व को वर्तमान स्तर तक पहुँचाने और भविष्य में सुविधायुक्त तथा अधिक उच्च करने में तकनीकी विकास की महती भूमिका है । वर्तमान की औद्योगिक, परिवहन एवं वैज्ञानिक प्रगति का एक मात्र आधार तकनीकी विकास है । मानव का जीवन स्तर उठाने तथा राष्ट्रों की आर्थिक प्रगति तकनीकी विकास का ही परिणाम है ।

अत: यह कहना विरोधाभासी लगता है कि तकनीकी विकास भी पर्यावरण को निम्नस्तरीय बनाने में सहायक रहा है, किंतु यह सत्य है और यह भी सत्य है कि तकनीकी विकास द्वारा ही पर्यावरण के अवकर्षण को रोका जा सकता है । यहाँ संक्षेप में तकनीकी विकास द्वारा जिन कतिपय पर्यावरणीय समस्याओं का जन्म हुआ है उनका उल्लेख करना युक्तियुक्त होगा ।

उनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं:

I. औद्योगिकीकरण द्वारा पर्यावरण अवकर्षण एवं प्रदूषण विस्तार,

II. नये-नये खनिज क्षेत्रों की जानकारी एवं खोज के साथ ही अनियंत्रित खनिज खनन,

III. तीव्र गति से वनोन्मूलन,

IV. परिवहन द्वारा वायु प्रदूषण का विस्तार,

V. परमाणु अस्त्रों एवं परमाणु संयन्त्रों से रेडियोधर्मिता फैलने का खतरा,

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VI. पारिस्थितिक संवेदन क्षेत्रों के साथ छेड़-छाड़ से मानव अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है । ओजोन परत में छिद्र होने की प्रक्रिया, परा बैंगनी विकिरणों का बिना प्रतिरोध पृथ्वी पर आने की प्रक्रिया, एंटार्कटिका महाद्वीप के पर्यावरण को छेड़ना, उष्ण कटिबंधीय वनों को काटना आदि का भविष्य में पारिस्थितिक संतुलन पर असर पड़ेगा,

VII. शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि, मृत्यु दर में कमी, संसाधनों का निर्दयता से शोषण आदि का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ रहा है,

VIII. वन्य जल-जीवों एवं पक्षियों की प्रजातियों का विलुप्त होना,

IX. अनेक रोग, मानसिक तनाव एवं मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि पर्यावरण अवकर्षण आज एक विश्वव्यापी समस्या है और विश्व समुदाय एकजुट होकर ही इस समस्या का नियंत्रण कर, पृथ्वी पर मानव के भविष्य को उज्ज्वल बना सकता है ।

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