Here is an essay on ‘Environmental Management’ in Hindi language!

Essay # 1. पर्यावरण प्रबन्धन की परिभाषा:

पर्यावरण समस्याएँ आज हम सभी के लिए चिन्ता का विषय है । मानव के स्वस्थ एवं देना आवश्यक है । इसलिए पर्यावरणीय संरक्षण के लिए कृत संरक्षण का बुनियादी लक्षण प्राकृतिक संसाधनों के वह वर्तमान पीढ़ी के लिए दीर्घकालीन लाभ प्रदान कर सकें की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सक्षम रहें ।

विकास हमारे लिए अति आवश्यक है, अत: पर्यावरणीय समस्याओं के कारण विकास कार्यों पर रोक लगाना बिल्कुल उचित नहीं है, वरन इन कार्यों से पर्यावरणीय समस्याओं का अध्ययन एवं उचित समय पर उनका निदान करके ही प्रत्येक क्षेत्र में बहुमुखी प्रगति सम्भव है ।

वर्तमान समय में जनसंख्या के बढ़ते हुए दबाव तथा पहाड़ों और मैदानों में स्थित उद्योगों द्वारा भूमि, जल तथा खनिज संसाधनों के अन्धाधुन्ध दोहन से पर्यावरण को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं । पर्वतीय पर्यावरण पर मानव प्रभाव अधिक तेजी से महसूस किया जा रहा है, क्योंकि भूस्खलन और भू-कटाव के रूप में वहां के पर्यावरणीय आधार का तेजी से ह्रास हो रहा है ।

मानव अपने दैनिक कार्यकलापों तथा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं के परिपालन में जाने अनजाने में पर्यावरण को हानि पहुँचा रहा है, जिसका दुष्परिणाम प्रकृति के सभी अंगों विशेषकर जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों पर पड़ता है, किन्तु अंतत: सबसे अधिक मानव समाज ही इसका दुष्प्रभाव झेलता है । जो जल हमारे जीवन के लिए इतना जरूरी है वही प्रदूषित हो जाने पर मानव को बीमारियाँ देकर मौत का सबसे बड़ा कारण बनता हैं ।

Essay # 2. पारिस्थितिकी संतुलन:

इकोलोजी (Ecology) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग प्रसिद्ध जन्तु शास्त्री रेटर (Reiter) ने 1865 में किया था । इसका शाब्दिक अर्थ जीवित प्राणियों (पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं) के स्वाभाविक गुणों का अध्ययन करना है । वर्तमान समय में इकोलोजी शब्द की परिभाषा इस प्रकार है । यह वह विज्ञान है, जो विभिन्न जैविक प्राणियों एवं उनके प्राकृतिक पर्यावरण के बीच के सम्बन्धों का वर्णन करता है ।

यह जैविक प्राणी अर्थात पेड़-पौधे कहाँ पाये जाते हैं ? क्यों पाये जाते है ? किन-किन प्राकृतिक परिस्थितियों में उनकी उत्पत्ति व वृद्धि होती है ? तथा उनमें जीवमण्डल के अन्य घटकों के साथ क्या सम्बन्ध व अन्तर्निर्भरता है, आदि का अध्ययन पारिस्थितिकी विज्ञान (Ecology) में किया जाता है ।

थल व जल में उत्पन्न होने वाले सभी पेड़-पौधे शाकाहारी पशुओं को प्रमुख आहार प्रदान करते हैं, और शाकाहारी पशु, इसके बदले मांसाहारी पशुओं को आहार प्रदान करते हैं । यह अन्तर्निर्भरता ही इस विज्ञान का प्रमुख विषय है ।

सभी जैविक प्राणी किसी न किसी रूप में सौर ऊर्जा पर निर्भर करते हैं । इनकी सापेक्षिक संख्या जीवमण्डल में इस तरह मिलती हैं कि किसी भी जैविक प्राणी को आहार का अभाव महसूस नहीं हो । छोटे व निर्बल जीव अधिक संख्या में होते है, तथा इनकी वृद्धि दर बड़े जीव-जन्तुओं की अपेक्षा अधिक होती है । इसके विपरीत बड़े व शक्तिशाली जीव-जन्तु संख्या में कम होते हैं, तथा मंद गति से बढ़ते हैं ।

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यदि इनमें से कोई भी एक प्रकार जीव जन्तु विशेषतया: बड़े जीव जन्तु तीव्रगति से बढ़ जाए तो उनको आहार प्राप्त करना कठिन हो जाएगा । उदाहरण के लिए, यदि माँसाहारी पशु शेरों की संख्या शाकाहारी पशुओं की अपेक्षा तीव्रगति से बढ़ जाए, तो शेरों को आहार मिलना असंभव हो जाएगा ।

अत: प्रकृति ने इन सबकी संख्या में एक संतुलन बना रखा हैं, इसी स्थिति को पारिस्थितिकी संतुलन कहते हैं । यह वह स्थिति है, जिसमें एक विशेष पर्यावरण में बदलाव जीवमण्डल में जीवों की सापेक्षिक संख्या में घटा बड़ी अथवा मानव कार्य-कलापों आदि के कारण संभव होता हैं ।

जनसंख्या की तीव्रवृद्धि ने पारिस्थतिकी संतुलन को बिगाड़ दिया हैं । मनुष्य ने अपनी विभिन्न आवश्यकताओं के लिए जंगलों को बुरी तरह काट दिया हैं । इससे जंगली जीव जन्तुओं की तो अनेक नस्लें लुप्त सी हो गयी है, पेड़ों को बुरी तरह काटे जाने से भूमि अपरदन की समस्याएँ उत्पन्न हो गई है ।

इन कार्यों से पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ गया है, और अनेक स्थानों पर पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हो गया है । कहीं भूमि की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो गयी है, कही भंयकर सूखा तो कहीं विनाशकारी बाई, शुद्ध वायु का न मिलना, स्वच्छ जल का अभाव आदि बातें पारिस्थितिकी संतुलन में बिगाड़ की ओर संकेत करती हैं ।

इस पारिस्थितिकी संकट ने स्वयं मानव के अस्तित्व को खतरा पैदा कर दिया हैं । यदि मनुष्य को जीवित रहना है, तो उसे इस संतुलन को बनाये रखना होगा । इसके लिए उसे प्राकृतिक जीव जन्तुओं, पेड़-पौधों, मृदा, जल आदि का संरक्षण करना होगा ।

Essay # 3. पारिस्थितिकी कारक:

पर्यावरण के अनेक कारक जैसे मृदा, जल, वायु आदि जीव-जन्तुओं पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं । यह सभी कारक पारिस्थितिकी कारक कहलाते हैं ।

इन कारकों को चार वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. जलवायु कारक:

इसमें प्रकाश, ताप, वायुमण्डल की गैसें, वर्षा की मात्रा, वायुमण्डलीय नमी आदि शामिल हैं । विभिन्न जीव जन्तु, पेड़-पौधे सूर्य प्रकाश से ही ऊर्जा प्राप्त करते हैं । यह उनकी वृद्धि और पुन: उत्पादन के लिए अति आवश्यक होता है । यह (पेड़-पौधे) प्रकाश संशलेषण (Photosynthesis) प्रक्रिया की सहायता से सूर्य प्रकाश द्वारा अजैविक तत्वों में अपना आहार प्राप्त करते है ।

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इन पर प्रकाश की अवधि विशेषता व मात्रा का भी प्रभाव पड़ता है, जैसे डंडा प्रदेश में प्रकाश का अभाव पेड़-पौधों को पनपते नहीं देता । ताप ऊर्जा का एक रूप है । सूर्य की किरणें इसका मुख्य सत्रों है, जल, मिट्टी तथा जैविक पदार्थ सूर्य से ताप प्राप्त करते हैं । पृथ्वी स्वयं भी ताप का एक छोटा सत्रों है । वास्तव में पृथ्वी सूर्य में ही ताप विकिरण विधि द्वारा प्राप्त करती है ।

पृथ्वी से यह ताप पेड़-पौधों व जन्तुओं को प्राप्त होता है । वायु भी पृथ्वी के सम्पर्क में आकर ताप प्राप्त करती है । ताप के अभाव में वायु में गति, नमी की मात्रा, बादलों का बनना व उनका वर्षा प्रदान करना, समुद्री धाराओं का संचालन पृथ्वी की चट्टटानों का छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटकर मिट्टी के कणों का निर्माण तथा अनेक जैविक प्रक्रियाएँ होती हैं ।

ताप की भिन्नता पेड़-पौधों की भिन्नता को जन्म देती है । ऊंचा ताप व नमी की अधिक मात्रा दोनों मिलकर पौधों की अतिश्य वृद्धि में सहायक होते हैं । भूमध्य रेखीय प्रदेश इसका स्पष्ट उदाहरण है । इसके विपरीत ऊंचा ताप नमी के अभाव में वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया को बढ़ा देता है ।

यहां जल के अभाव में पौधों द्वारा इतना वाष्प हो जाता है कि वह सुख जाते है । इसके विपरीत अति न्यून तापमान पौधों के विकास में अवरुहता ला देता है । पौधों की विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे बीज का अंकुरण, बीज के पकने का समय, पौधों की वृद्धि फलने फूलने आदि के लिए अलग-अलग तापमान की आवश्यकता पड़ती है ।

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वायु गति का प्रभाव पौधों के विकास व उनकी आकारकीय संरचना पर पड़ता है । हवा जिस दिशा से आती है, उस ओर पेड़ों पर पत्तियों व फलों का विकास कम होता है । जबकि इसके विपरीत की ओर का भाग हरी भरी पत्तियों से लद जाता हैं । वायु पौधों की वृद्धि व उनके जीवन के लिए भी आवश्यक हैं । पौधे कार्बनडाईआक्साइड गैस ग्रहण करते हैं, तथा बदले में हमको आक्सीजन प्रदान करते हैं ।

वर्षा प्राप्ति वाले क्षेत्रों मैं पेड़ पौधों की अधिकता मिलती है । गर्म हवाएँ विभिन्न जलाश्यों समुद्रों से नमी जल वाष्प के रूप में ग्रहण करती हैं । यह जल वाष्प युक्त हवाएँ वायुमण्डल में ऊपर उठकर ठण्डी होती हैं, वहां पर यह जल-वाष्प संघनित होकर बूंदों के रूप में पृथ्वी पर बरस पड़ती है ।

अधिक व मध्यम ताप वाले क्षेत्रों में यह जल की बड़ी बूँदों के रूप में गिरती हैं, जबकि कम ताप वाले क्षेत्रों में यह बूँद के रूप में बरस पड़ती हैं, ऐसा विशेष रूप से पर्वतों के ऊंचे भागों में होता है । हिम ग्रीष्म काल में पिघलकर पुन: नदियों में आती है, जहाँ से पुन: समुद्र में मिल जाती है ।

तटीय प्रदेशों, वृष्टि प्रदान करने वाली हवाओं के सम्मुख वाले क्षेत्रों, समुद्र के निकटवर्ती भू-भागों पर वर्षा की प्राप्ति अधिक होती है । ऐसे स्थानों पर पेड़-पौधों व वनस्पति की अधिकता पाई जाती है । कम वर्षा वाले भागों में पेड़-पौधों का विकास मंद गति से होता है ।

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समुद्र से दूरवर्ती भागों व शुष्क प्रदेशों में वनस्पति का अभाव पाया जाता है । उष्ण कटिबन्धीय मरुस्थलीय क्षेत्रों जैसे सहारा, थार, अरब में पेड़ पौधों का अभाव पाया जाता है । इसके विपरीत भूमध्यरेखीय प्रदेशों, उष्ण कटिबन्धीय भागों में जहाँ अधिक वर्षा व उच्च ताप होता है, वहाँ पर सघन वनस्पति मिलती है । जिन प्रदेशों में वर्ष भर वर्षा व ऊंचा तापमान रहता है वहाँ सदाबहार वृक्ष मिलते हैं, इसके विपरीत जहाँ पर वर्ष में कुछ समय मौसम शुष्क रहता है, वहाँ पर पर्णपाती वृक्ष मिलते हैं ।

वायु में विद्यमान नमी की मात्रा को आर्द्रता (Humidity) कहते हैं । जब वायु जलवाष्प से पूर्ण रूप से सम्मन हो जाती है, तो ऐसी वायु को सम्पृक्त वायु (Saturated Air) कहते हैं । चूंकि यह वायु और नमी जलवाष्प ग्रहण नहीं कर सकती है, तो ऐसी आर्द्रता को अधिकतम आर्द्रता कहते है । वायु के ताप में यदि वृद्धि हो जाए, तो वह अपनी नमीधारण करने की क्षमता बढ़ा लेती है ।

एक निश्चित तापमान पर वायु में जो नमी की मात्रा उपस्थित होती है, उसे वास्तविक आर्द्रता (Absolute Humidity) कहते हैं, तथा इसी तापमान पर वायु की नमी धारण करने की अधिकतम क्षमता अधिकतम आर्द्रता (Maximum Humidity) कहलाती है, जब इन दोनों आर्द्रताओं का अनुपात प्रतिशत में व्यक्त किया जाए तो उसे सापेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity) कहते है, वहाँ पेड़ पौधों की अतिशय वृद्धि होती है । सापेक्षिक आर्द्रता पर वायु ताप एवं दाब के अतिरिक्त वायु गति, मृदा की विशेषता व वनस्पति की उपस्थिति का भी प्रभाव पड़ता है ।

2. मृदीय कारक:

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पौधे मृदा से पोषक तत्व एवं जल ग्रहण करते है । पौधे मृदा में फैलकर स्वयं भी आहार प्राप्त करते हैं तथा मृदा को जैविक अँश (Humus) प्रदान करते हैं । वास्तव में मृदा में मिलने वाले खनिज पदार्थ, मृदा में रहने वाली वायु एवं जल पेड़ पौधों की बढ़वार में सहायक होते हैं । मृदा का निर्माण, भौतिक, रसायनिक व जैविक परिवर्तनों के कारण होता है, यह परिवर्तन सतत रूप में मृदा की परतों में होते रहते हैं ।

मृदा निर्माण एक धीमी प्रक्रिया का परिणाम है । इसके निर्माण पर जलवायु, टूटे फूटे पदार्थों की विशेषता, धरातलीय दशा आदि बातों का प्रभाव पड़ता है। जलवायु चट्टानों को तोड़ने में सक्षम होती हैं, यह चट्टानों के टुकड़ों में मिलने वाले रसायनिक व खनिजीय अंश मृदा की उपजाऊ शक्ति को निर्धारित करते हैं ।

तीव्र ढाल वाली भूमि मृदा की पतली परत तथा मंद ढाल वाली भूमि मिट्टी की मोटी परत रखती है । नदी घाटियों, निम्न मैदानों की मृदा की मोटी परत चार प्रमुख परतों में बांटी जा सकती है । मृदा की यह काट (परतें) परिच्छेदिका (Soil Profile) बनाती हैं ।

यह परतें इस प्रकार हैं:

(i) ऊपरी परत:

इसे संस्तर अ (Horizon A) भी कहते है । यह परिच्छेदिका का सबसे ऊपरी भाग (Top Soil) होता है । मृदा की यह परत सूक्ष्म प्रकार के कण और उपजाऊ अंश (Organic Matter) रखती है । यह अंश उसे पेड पौधों के सड़ने से प्राप्त होता है ।

(ii) मध्य परत:

इसे संस्तर ब (Horizon B) कहते है इसमें ऊपरी परत से हटाए गए पदार्थ मिलते हैं, जो मृदा की संरध्रों में होकर जल द्वारा वहाँ पहुंच जाते हैं । इसमें कणों का आकार मध्यम व मिश्रित होता है । इसमें चट्टानों का टूटा फूटा चूर्ण, बलुही, चीका आदि मिलते है । इसमें जीवांश कम होता है ।

(iii) निम्न परत:

इसे संस्तर स (Horizon C) कहते है । इसमें मातृ पदार्थ (Parent Rock) विखंडित पदार्थ (Weathered Material) के रूप में होता है । इसी चट्टान की रसायनिक विशेषता, मृदा को प्राप्त होती है ।

(iv) निम्नतम परत:

इसे संस्तर द (Horizon D) कहते हैं । यह अविखंडित मातृ चट्टान (Unweathered Parent Rock) वाली परत होती है । यह सख्त चट्टान के रूप में होती है।

3. स्थलाकृतिक कारक:

स्थलाकृतिक कारकों में धरातल की ऊँचाई, ढलान की मात्रा, ढलान की दिशा को शामिल किया जाता है । यह तीनों विशेषताएँ पेड़ पौधे की बढ़वार पर प्रभाव डालते हैं ।

(i) धरातल की ऊँचाई:

ऊँचाई के बढ़ने पर ताप में कमी व वायुदाब में वृद्धि हो जाती है, इसका प्रभाव वनस्पति पर पड़ता है । ऊँचाई में वृद्धि के साथ वनस्पति के प्रकार में भिन्नता आ जाती है । सबसे नीचे उष्ण कटिबन्धीय, फिर मरुस्थल अथवा घास के मैदान, पर्णपाती वन, कोणधारी वन, छोटी झाड़ियों वाले वन तथा सबसे ऊपर हिम मिलती है ।

(ii) ढलान की मात्रा:

जिस स्थान पर भूमि का ढाल तीव्र या अधिक होता हैं, वहां जल कम रुकता है एवं मृदा अपरदन अधिक होता है, तथा पौधों का विकास कम हो पाता है ।

(ii) ढलान की दिशा:

पर्वतों के वह हाल जो सूर्य प्रकाश की अधिक मात्रा प्राप्त करते हैं, संघन वनस्पति रखते हैं । हिमालय के दक्षिणी व पूरबी ढाल इसके उदाहरण हैं । इसके विपरीत सूर्य प्रकाश की कम मात्रा प्राप्त करने वाले हाल बहुत कम वनस्पति रखते है । ऐसे ढालों पर वायु में नमी का भी अभाव होता है ।

(iv) जैवीय कारक:

प्रत्येक पौधा अथवा जीव जन्तु दूसरे पौधों अथवा जन्तुओं के साथ रहकर समुदाय (Community) बनाता है । एक समुदाय के सभी सदस्यों का परस्पर एवं उस स्थान के पर्यावरण से सीधा सम्बन्ध होता है । इसे पारिस्थितिकी का जैवीय कारक कहते है । इसमें जीवाणु, शैवाल कवक, परजीवी, सहजीवी, मृतोपजीवी पादप व विभिन्न जन्तु शामिल होते है । यह सभी जीव एक पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) बनाते हैं ।

इनको निम्न तरह से समझा जा सकता है:

सभी प्रकार के जीवीय घटकों या अंशों को उनकी आहार आदतों (Food Habits) व श्रोत के आधार पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है:

(a) स्वपोषित अंश:

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यह जीव अपने पोषण के लिए स्वयं भोजन का निर्माण अकार्बनिक पदार्थों (Inorganic) से करते हैं । यह सूर्य प्रकाश से प्रकाश संषलेषण (Photosynthesis) विधि द्वारा ऊर्जा प्राप्त करते हैं, जो उनका भोजन होता है । सभी प्रकार के हरे पौधे, नीले हरे शैवाल (Algae) जीवाणु इस वर्ग में आते हैं ।

इनको उत्पादक (Producer) का नाम भी दिया जाता है । यह घटक अधिक मात्रा में उत्पादित खाद्य पदार्थों का विभिन्न प्रकार से संचय करते हैं । यह संचित खाद्य पदार्थ अन्य सभी प्रकार के जीवों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से आहार के रूप में काम आते हैं ।

(b) परिपोषित अंश:

यह जीव स्वयं अपना भोजन उत्पादित नहीं करते, बल्कि इसके लिए अन्य जीव जन्तुओं, पेड़ व पौधों पर निर्भर करते है । यह जीव उपभोक्ता (Consumers) अथवा अपघटनकर्त्ता (Decomposers) कहलाते हैं ।

इन उपभोक्ताओं को निम्न तीन वर्गों में रखा जा सकता है:

(I) प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता:

यह जीव अपना आहार उत्पादकों से सीधे प्राप्त करते हैं । यह शाकाहारी (Herbivorous) होते है, जैसे गाय, खरगोश, चूहा, हिरन, बकरी इत्यादि ।

(II) द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता:

यह जीव अपना आहार शाकाहारी जीव जन्तुओं से प्राप्त करते है । यह शाकाहारी जन्तुओं को खाते हैं, अत: यह माँसाहारी (Carnivorous) कहलाते हैं जैसे मेढक, सर्प, शेर, चीता इत्यादि ।

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(III) तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता:

ऐसे जीव जो शाकाहारी व माँसाहारी दोनों प्रकार के जीव जन्तुओं पर अपने आहार के लिये निर्भर करते हैं, इसलिए इन्हें उच्च उपभोक्ता (Top Consumers) भी कहते ई । मनुष्य भी स्वयं भोजन का बड़ा उपभोक्ता है । उसके भोजन में पौधे, व सभी प्रकार के जीव जन्तु शामिल रहते हैं, इसीलिये उसे सर्वभक्षी या संर्वाहारी (Omnivorous) कहते हैं ।

(IV) अपघटक:

ऐसे जीव विभिन्न कार्बनिक पदार्थो को उनके अवयवों में तोड़ देते हैं । इनमें बैक्टीरिया, कवक (Fungi) व मिट्टी के कीड़े (Earthworm) शामिल हैं । यह मृत पौधों व पशुओं के मृत शरीरों का अपघटन करतें है तथा मृदा में मिला देते है । यह अपघटक कार्बनिक पदार्थों को अकार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं ।

यह पोषक तत्व पौधों की खुराक का काम करते हैं । इस प्रकार एक पारिस्थितिकी तन्त्र में खाद्य शृंखला (Food Chain) पाई जाती हैं । इसके घटकों में किसी एक की कमी या अधिकता इस शृंखला को बिगाड़ देती हैं और पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ जाता है ।

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