पुरुषार्थ पर निबंध: मानव पीछा का उद्देश्य | Essay on Purusartha: The Object of Human Pursuit.

पुरुषार्थ (Efforts):

हिन्दू शास्त्रकारों ने मनुष्य तथा समाज की उन्नति के निमित्त जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया उन्हें “पुरुषार्थ” की संज्ञा दी जाती है । पुरुषार्थों का सम्बन्ध मनुष्य तथा समाज दोनों से है । ये मनुष्य तथा समाज के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं, उन्हें नियमित बनाते हैं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियन्त्रित भी करते हैं ।

पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों के बीच सामंजस्य स्थापित करना है । भारतीय परम्परा भौतिक सुखों को क्षणिक मानते हुये भी उन्हें पूर्णतया त्याज्य नहीं समझती, बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती है ।

मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है । भौतिक सुखों को आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है, बाधक नहीं । दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । दोनों का समन्वित स्वरूप पुरुषार्थों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है ।

पुरुषार्थ चार हैं:

a. धर्म,

b. अर्थ,

C. काम तथा

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d. मोक्ष ।

इनमें अर्थ तथा काम भौतिक सुखों के प्रतिनिधि हैं जबकि धर्म तथा मोक्ष आध्यात्मिक सुखों का प्रतिनिधित्व करते हैं । ‘मोक्ष’ मानव जीवन का चरम लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति में शेष पुरुषार्थ सहायक हैं । मोक्ष की प्राप्ति सभी के लिये सम्भव नहीं है ।

अत: कालान्तर में तीन पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ तथा काम के पालन पर ही बल दिया गया । इन्हें ‘त्रिवर्ग’ कहा गया है जिनकी प्राप्ति सभी गृहस्थी के लिये सरल है । हिन्दू शास्त्रविदों का यह मत है कि तीनों पुरुषार्थों में कोई विरोध नहीं है तथा इनका पालन एक साथ हो सकता है । मानव-जीवन का पूर्ण विकास तभी सम्भव है जबकि सभी पुरुषार्थों का सम्यक् रूप से पालन किया जाये । अग्रलिखित पंक्तियों में विभिन्न पुरुषार्थों एवं उनके स्वरूप का विवेचन किया जायेगा ।

a. धर्म:

पुरुषार्थों में धर्म का सर्वप्रथम स्थान है जिसे हिन्दू जीवन-दर्शन में सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है । ‘धर्म’ शब्द मूलतः ‘धृ’ धातु से निष्पन्न होता है जिसका शाब्दिक अर्थ है धारण करना अथवा अस्तित्व बनाये रखना । यह वह तत्व है जो मनुष्य तथा समाज के अस्तित्व को कायम रखता है ।

यह सामाजिक व्यवस्था का नियामक है । प्राचीन शास्त्रों में इसकी विशद व्याख्या मिलती है । महाभारत में कहा गया है कि- ‘धर्म सभी प्राणियों की रक्षा करता है, सभी को सुरक्षित रखता है । यह सृष्टि का अस्तित्व बनाये रखता है ।’ आगे बताया गया है कि धर्म की व्यवस्था सभी प्राणियों के कल्याण के लिये की गयी है, जिससे सभी प्राणियों का हित होता है वही धर्म है ।

वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि- ‘जिससे लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण की सिद्धि होती है वह धर्म है ।’ प्राचीन साहित्य में आचार (सदाचार) को धर्म का लक्षण बताया गया है । मनुस्मृति में धर्म के चार सोत कहे गये हैं- वेद, स्मृति, सदाचार तथा आत्मतुष्टि अर्थात् जो अपनी आत्मा को प्रिय लगे ।

प्राचीन शास्त्रकारों ने वेद, स्मृति आदि धर्म-ग्रन्थों में जो कर्त्तव्य विहित हैं, उनके निष्ठापूर्वक पालन करने को ही धर्म बताया है । वस्तुतः धर्म से तात्पर्य आचरण की उस संहिता से है जिसके माध्यम से मनुष्य नियमित होता हुआ विकास करता है और अन्ततोगत्वा परम पद ‘मोक्ष’ की प्राप्ति कर लेता है ।

धर्म से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थों में जो विचार व्यक्त किये गये हैं, उन्हें देखने से स्पष्ट है कि यह एक व्यापक शब्द था जिसमें भारतीय मनीषा ने सदाचार, सामाजिक कर्तव्य, व्यक्तिगत गुणों आदि सभी का समावेश कर लिया था । अंग्रेजी का “रेलीजन” शब्द इसका पर्याय नहीं हो सकता ।

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धर्म व्यक्ति को नियन्त्रित करता है तथा समाज के प्रति उसके कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना सर्वाड्गीण विकास करता, समाज के सदस्य के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करता तथा अन्ततोगत्वा जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करता था । धर्म आद्योपान्त मनुष्य के साथ रहने वाला तत्व है । धर्म को कहीं-कहीं कर्तव्यों का संग्रह भी माना गया है ।

b. अर्थ:

इस शब्द का अर्थ संकुचित रूप में धन अथवा सम्पत्ति लगाया जाता है किन्तु प्राचीन भारतीयों की दृष्टि से यह एक व्यापक शब्द था जिससे तात्पर्य उन समस्त आवश्यकताओं और साधनों से था जिनके माध्यम से मनुष्य भौतिक सुखों एवं ऐश्वर्य- धन, शक्ति आदि को प्राप्त करता है ।

इसकी परिधि में वार्ता तथा राजनीति को भी समाहित कर लिया गया था । कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य वार्ता के क्षेत्र हैं (कृषि पशुपाल्यावाणिज्या च वार्ता) । राजनीति का सम्बन्ध राजशासन से है । अर्थ के माध्यम से व्यक्ति भौतिक सुख एवं ऐश्वर्य को प्राप्त करता है । यह सुख-सुविधा का साधन है ।

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प्राचीन शास्त्रों में अर्थ की महत्ता को स्वीकार किया गया है । महाभारत में इसे ‘परमधर्म’ कहा गया है जिस पर सभी वस्तुएँ निर्भर करती हैं । जिनके पास अर्थ नहीं है वे मृतक तुल्य हैं जबकि धनी व्यक्ति संसार में सुखपूर्वक निवास करते हैं । अर्थ के अभाव में जीवनयापन असम्भव है ।

बृहस्पति ने अर्थ को जगत का मूल स्वीकार किया है (धनं मूलं जगत्) । अर्थशास्त्र में इसे प्रधान तत्व निरूपित किया गया है । नीतिशतक में विवृत्त है कि जिसके पास धन है वही कुलीन है, पंडित है, वेंदों का ज्ञाता है, गुणवान् हैं, वक्ता है तथा दर्शनीय है । सभी गुण धन में ही होते हैं ।

किन्तु अर्ध की महत्ता स्वीकार करते हुए भी हिन्दू शास्त्रकारों ने उसे धर्म के अधीन बताया है तथा धर्मपूर्वक अर्थ की प्राप्ति पर बल दिया है । जो अर्थ, धर्म की हानि करता है वह अभीष्ट नहीं है । मनुस्मृति में स्पष्टतः कहा गया है कि धर्माविरुद्ध अर्थ तथा काम का त्याग कर देना चाहिए । आपस्तम्ब ने भी कहा है कि मनुष्य को धर्मानुकूल सभी सुखों का उपभोग करना चाहिए । इस प्रकार भारतीय जीवन-दर्शन में अर्थ वहीं तक अभीष्ट है जहाँ तक वह धर्मसंगत हो ।

c. काम:

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मानव-जीवन का तृतीय पुरुषार्थ काम था जिसका शाब्दिक अर्थ इन्द्रिय सुख अथवा वासना से है । किन्तु व्यापक अर्थ में इस शब्द से तात्पर्य मनुष्य की सहज इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों से है । महाभारत के अनुसार काम मन तथा हृदय का वह सुख है जो इन्द्रियों के विषयों से संयुक्त होने पर नि:सृत होता है ।

यह संसार की प्रथम एवं प्रमुख प्रवृत्ति है । इसी के वशीभूत ही मनुष्य सन्तानोत्पत्ति करता है, गृहस्थ जीवन के विविध आनन्दों को भोगता है तथा एक दूसरे के प्रति आकर्षण रखता है । हिन्दू शास्त्रकारों ने मानव जीवन में काम के महत्व को स्वीकार करते हुए उस पर धर्म का अंकुश लगाया तथा यह प्रतिपादित किया कि धर्मसंगत काम का आचरण ही व्यक्ति एवं समाज की उन्नति कर सकता है ।

इसके विपरीत होने पर यह मनुष्य के अध:पतन का मार्ग प्रशस्त करता है । काम के निरंकुश आचरण से व्यक्ति का विकास अवरुद्ध हो जाता है । काम की तृप्ति न होने पर क्रोध तथा क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह से स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश तथा बुद्धिनाश से मनुष्य का पूर्ण विनाश हो जाता है ।

इसी कारण कृष्ण अपने को सभी प्राणियों में धर्मयुक्त काम बताते हैं । मत्स्यपुराण में कहा गया है कि- ‘धर्मरहित काम बन्ध्या पुत्र के समान है (धर्महीनस्य कामार्थो बन्ध्यासुत समौ ध्रुवम्) । महाभारत की मान्यता है कि जो व्यक्ति धर्माविहीन काम का अनुसरण करता है वह अपनी बुद्धि को समाप्त कर देता है तथा कठिनाइयों में शत्रु द्वारा हँसी का पात्र बनाया जाता है ।’

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इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हिंदू शास्त्रकारों ने धर्म संवलित काम का आचरण किये जाने पर ही बल दिया है । इसी से व्यक्ति का सम्यक विकास सम्भव है । काम का उच्छृंखल आचरण व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिये हानिकारक है ।

d. मोक्ष:

हिन्दू विचारधारा में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी का परम साक्ष्य है । चार्वाक् के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधारायें इसे स्वीकार करती हैं । मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना । आत्मा अजर, अमर एवं परमात्मा का ही अयश है ।

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शरीर बंधन का कारण है । संसार मायाजाल है । मनुष्य जब इस तथ्य को जान लेता है तो सांसारिक विषयों से अपना ध्यान हटाकर परमात्मा की ओर लगाता है । ज्ञान भक्ति एवं कर्म मोक्ष प्राप्ति के साधन है । गीता में इनका समन्वय मिलता है । उपनिषदों में मोक्ष सम्बन्धी विचारधारा का सम्यक् विश्लेषण मिलता है । उपनिषद् व्यक्ति के सारभूत तत्व आत्मा तथा जगत के सारभूत तत्व ब्रह्मा का तादात्म्य स्थापित करते हैं । यही मोक्ष की अवस्था है ।

इसके लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति में इन्द्रिय तथा मन का संयम, सांसारिक भोगों से विरक्ति, संसार की अनित्यता का ज्ञान तथा मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल उत्कण्ठा हो । तत्पश्चात् उसे किसी योग्य गुरु से वेदान्त का उपदेश ग्रहण करना चाहिए । गुरु शिष्य को ‘तुम ही ब्रह्म हो’ (तत् त्वम् असि) का बोध कराता है ।

गुरु की इस उक्ति का मनन करते हुए तथा दृढ़तापूर्वक उसका आचरण करते हुए व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तथा इस अवस्था में उसे ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ की अनुभूति होती है । यही पूर्ण ज्ञान है तथा इसी को मोक्ष कहा गया है । मोक्ष प्राप्ति के बाद जीवन के दु:खों का नाश हो जाता है तथा मनुष्य परमानन्द की प्राप्ति करता है ।

प्रायः सभी भारतीय दर्शन अविज्ञा तथा अज्ञान को ही बन्धन का कारण मानते हैं । अत: मोक्ष तभी सम्भव है जब व्यक्ति अज्ञान के बन्धन को काट दे । गीता में कहा गया है कि काम-क्रोध से रहित, जीते हुए मन वाले ज्ञानी पुरुष परमात्मा की प्राप्ति करते हैं ।

इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष स्वयंमेव प्राप्त हो जाता है । गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देती है तथा मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा को आवश्यक बताती है । कृष्ण अर्जुन से कहते है कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ ।

मैं तुम्हें अभी पापों से मुक्त करूँगा । जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी अविज्ञा के विनाश को ही मोक्ष का उपाय माना गया है । जैन इसके लिये त्रिरत्नों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र) एवं बौद्ध अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, संकल्प, वाक्, कर्मान्त, आजीव, व्यायाम, स्मृति तथा समाधि) का विधान प्रस्तुत करते हैं ।

मनुस्मृति में विहित है कि इन्द्रिय विरोधी राग-द्वेष रहित तथा अहिंसा परायण व्यक्ति ही मोक्ष की प्राप्ति करता है । पुराणों में मोक्ष के लिये दया, प्राणियों में समभाव, क्षमा, अक्रोध, सत्य, लोभ, मोह, कामादि का त्याग आदि गुणों का आचरण आवश्यक बताया गया है ।

इस प्रकार मोक्ष हिन्द जीवन-दर्शन का चरम लक्ष्य था । ब्रह्मचर्य आश्रम में ही विद्यार्थी को इसका बोध हो जाता था तथा जीवन-पर्यन्त वह अपनी समस्त क्रियाओं को उसी ओर नियोजित करता था । जीवन के अन्तिम आश्रम सन्यास से इस लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती थी ।

पुरुषार्थ हिन्दू विचारधारा की अपनी व्यवस्था है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में सर्वथा अप्राप्य है । पाश्चात्य संस्कृति जहाँ भौतिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है वहाँ भारतीय संस्कृति में भौतिकता को महत्वपूर्ण मानते हुये भी आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दी गयी है ।

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पुरुषार्थों के माध्यम से भारतीय मनीषा ने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, आसक्ति एवं त्याग के बीच सुन्दर समन्वय स्थापित किया है । यहाँ काम तथा अर्थ साधन है जबकि धर्म एवं मोक्ष साध्य स्वरूप हैं । त्रिवर्ग में तीनों पुरुषार्थों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । इनमें धर्म की स्थिति सर्वोच्च है । अर्थ तथा काम का उचित उपभोग धर्म के माध्यम से ही सम्भव है । मनुस्मृति में तीनों के समन्वय पर बल दिया गया है ।

तदनुसार ‘कुछ कहते हैं कि मनुष्य का लाभ धर्म तथा अर्थ में है, कुछ के अनुसार यह काम तथा अर्थ में है, जबकि कुछ लोग केवल धर्म में ही मनुष्य का लाभ देखते हैं । किन्तु वस्तु-स्थिति यह है कि मनुष्य का कल्याण तीनों पुरुषार्थों के समुचित समन्वय में ही निहित है ।’

मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक भट्ट का विचार है कि लौकिक दृष्टि से अर्थ एवं काम महत्वपूर्ण हैं किन्तु पारलौकिक दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही एकमात्र अभीष्ट रह जाता है तथा अन्य पुरुषार्थ इसकी प्राप्ति में सहायक बन जाते हैं ।

पुरुषार्थों का सम्बन्ध मनुष्य तथा समाज दोनों से है । वे मनुष्य तथा समाज के बीच के सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए उन्हें न्यायसंगत बनाते हैं । दोनों के उचित सम्बन्धों पर वे प्रकाश डालते हैं तथा उनके अनुचित सम्बन्धों को उजागर करते हैं ताकि मनुष्य उनसे बच सके ।

वस्तुतः पुरुषार्थ मनुष्य एवं समाज एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के नियामक हैं । आश्रमों के द्वारा जीवनयापन करता हुआ व्यक्ति विभिन्न पुरुषार्थों के माध्यम से समाज एवं परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पूर्ण निर्वाह करता है ।

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