भारतीय राजनीति का गांधीवादी दृष्टिरकोण पर निबंध |Essay on Indian Politics’ Gandhian Views in Hindi!

जिसने भी गांधीजी की शिक्षाओं का गहराई से अध्ययन किया है, उसने इस बात पर अवश्य चिंतन किया होगा कि यदि आज गांधीजी भारत में आएं, तो उनकी बौद्धिक, नैतिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या होगी? निश्चित ही उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जिस असीम उत्साह और आशावादिता ने उन्हें और कांग्रेस में उनके समकालीन सहयोगियों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया था, वह गलत थी ।

स्वतंत्रता के बाद जिस सामाजिक-आर्थिक क्रांति की उन्होंने कल्पना की थी, उसे सिर्फ सार्वजनिक मैचों पर दिये गये भाषणों के अलावा व्यावहारिक रूप से हमेशा के लिए भुला दिया गया । आर्थिक समानता के बजाय असमानता की खाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है और वित्तीय शक्ति का केंद्रीकरण भी बढता जा रहा है ।

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संविधान द्वारा निंदित और गांधीजी की वसीयत के प्रभाव में बनाये गये विशेष अधिनियमों के बावजूद हमारे यहां जाति प्रथा बनी रही । कहीं-कहीं तो इसकी जड़ें और मजबूत हुई हैं । महिलाओं की स्थिति में सुधार और उनकी स्वतंत्रता की उन्होंने जो वकालत की थी, वह एक दिवास्वप्न ही रह गया है । केवल समाज के उच्च वर्ग में इस क्षेत्र में थोडा बदलाव देखने में आया है ।

भूमि और काश्तकारी संबंधी सुधार किसी छलावे से अधिक नहीं साबित हुए हैं । आज भी शिक्षा शारीरिक श्रम करने वालों और पढे-लिखे तबकों के बीच खाई बनाए रखने का माध्यम बनी हुई है । घोषित उद्देश्यों के सर्वथा विपरीत ग्राम्य जीवन को उन्नत बनाने के लिए सरकार द्वारा चलाये गये कृषि विकास कार्यक्रमों साख एवं अन्य सहकारी सेवाओं, सामुदायिक विकास, पंचायती राज और अन्य कार्यक्रमों से सिर्फ धनिकों को ही लाभ हुआ है ।

जैसा कि गांधी के समय में होता था, गांवों में रहने वाले आठ प्रतिशत से अधिक लोग आज भी तुलनात्मक रूप से जड़ता की स्थिति में बने रह गये हैं । भूमि और गांवों के आधे गरीब लोगों की स्थिति आज उससे कुछ ज्यादा ही बदतर हो गयी है, जितनी आज से 25 वर्ष पूर्व थी । गांधीजी के शब्दों में ये ‘बेजुबान अधभूखे लाखों लोग’ हैं । यह निर्विवाद है कि वे श्रेष्ठतर स्थितियों में तो नहीं ही हैं ।

निस्संदेह, जनसख्या विस्फोट की स्थिति ने, जिस पर आज भी काबू नहीं पाया जा सका है, गांधी की भविष्यवाणियों और ईमानदार अनुमानों को बहुत हद तक सफल सिद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । सवाल यह है कि क्या गांधीजी ने जनसंख्या विस्फोट और पशु संख्या विस्फोट के परिप्रेक्ष्य में अपने गर्भ निरोध और गौ पूजा संबंधी विचारों को परिवर्तित नहीं किया होता? चूंकि तर्कयुक्त उदारता गांधीजी की चिंतन प्रक्रिया का मुख्य आधार थी, अत: इस बात की सभावना से इनकार नहीं किया जा सकता ।

किसी भी स्थिति में उन्होंने इन बातों पर विशेष बल नहीं दिया होता और उन्हें राजनीति के क्षेत्र में होने वाली सामान्य विफलता के चक्रीय प्रभाव के रूप में देखा होता । स्वतंत्रता के बाद की भारतीय राजनीति के विकास की गांधीजी ने अवश्य कठोरता से आलोचना की होती । अगर उन्होंने इसमें निरंतर बढ़ती हुई अनैतिकता और भ्रष्टाचार को देखा होता, तो उन्हें बहुत दुख होता । राजनीति और समाज के दूसरे लोगों में आज काला धन कमाने की बढ़ती प्रवृत्ति ने एक कोढ़ का रूप ले लिया है । उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में पतन का एक और दृश्य देखा होता ।

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एक ओर तो हिंसा बढ़ रही है, बिना किसी विशेष तर्कपूर्ण राजनीतिक उद्देश्य के दंगे हो रहे है, वहीं दूसरी ओर पुलिस की बर्बरता बढ़ रही है । अकसर ऐसा कहा जाता है कि हिंसक वारदातें उस समय से भी अधिक बढ़ गयी हैं, जब अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष होते थे और तब भी हिंसा होती थी । तब तो गांधीजी ने हिंसा को निंयत्रित कर लिया था, जिसका कुछ श्रेय अंग्रेजों को भी रहा है ।

उन्होंने संभवत: भारतीय राजनीति की रुग्णता को अपनी उस सिफारिश के औचित्य के रूप में स्वीकारा होता, जबकि आजादी के बाद उन्होंने कहा था कि अब कांग्रेस को राजनीति से अलग होकर समाज के विकास के लिए एक ऐच्छिक संगठन के रूप में कार्य करना चाहिए, जबकि नेहरू तथा अधिकांश काग्रेसी नेताओं ने इस सलाह के विरुद्ध कार्य करना पसंद किया था ।

संभवत: गांधी के विचार के विरोध के पीछे यह दृष्टिकोण रहा होगा कि प्रजातंत्र को चलाने के लिए राजनीतिक दलों की आवश्यकता होती है और कांग्रेस को, जो एक ऐसे विस्तृत संगठन के रूप में मौजूद है, जो एक राष्ट्रीय दल का रूप ले सके, तोड़ा जाना ठीक नहीं होगा ।

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यह विचार उचित भी था । कांग्रेस के प्रभुत्व ने देश को पहले दस वर्षो तक निस्संदेह एक सफल सरकार दी थी । किंतु उन्हीं दस वर्षो में सामाजिक-आर्थिक क्रांति का स्थगन स्वीकार किया जा चुका था, वह क्रांति जो गांधी, नेहरू और दूसरे लोगों की उच्च आशाओं को पूरा किये जाने के लिए अनिवार्य थी ।

यदि गांधीजी 25 वर्षो के बाद भारत लौट सकते, तो उन्हें यह स्वीकार करना पड़ता कि वह कांग्रेस आदोलन के अन्य नेताओं सहित अति आशावादी थे । यह भी उतना ही निश्चित है कि वह अपने आधारभूत मूल्यांकनों से चिपके रहते, क्योंकि वे उनकी नैतिक मान्यताओं और उनके धर्म से संचालित थे । यह सोचा भी नहीं जा सकता कि आज वह शांत और बेकार बैठते । वह उच्च, उच्च मध्य वर्ग के सामाजिक-आर्थिक विचारों को परिवर्तित करने के लिए अपने जेहाद को नये सिरे से आरंभ करते ।

साथ ही साथ, वह जन सामान्य को अपनी जड़ता व सुरती से उबरने के लिए भी उभारते । सिर्फ यही नहीं, बल्कि पहले की तरह विभिन्न परस्पर-विरोधों, परिवेशों से उनके अनुगामी आते, जिन्हें वह अपने विश्वास, साधन संपन्नता और विनोद भावना द्वारा एकत्रीभूत शक्ति की तरह संगठित रखते ।

अक्सर जब कोई भारत की लड़खड़ाती हुई विकास की समस्याओं पर विचार करता है, तो वह विश्वासपूर्वक अनुभव करता है कि विदेशी सहायता और आवर्ती आपात स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में नीतियों में होने वाले दैनंदिन समायोजनों के अतिरिक्त इस महान देश को गांधीजी जैसी महानता, प्रेम भाव और निर्भयता रखने वाले आध्यात्मिक नेताओं की आवश्यकता है ।

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वह उन तमाम देशप्रेमियों के साथ खड़े होते, जो राष्ट्र को ऊर्जावान बनाने की क्षमता रखते हैं । वह उन समस्त क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए तैयार दिखते, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं तथा दृष्टिकोणों और रीतियों में किये जानै हैं और जिनकी इस समय अत्यत आवश्यकता है ।

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