विरासत में प्राप्त गुंडाराज: सन्दर्भ मुम्बुई में उत्तर भारतीय मुद्दा पर निबंध | Essay on North Indian Issue in the Context Mumbai in Hindi!

‘मंकी’ से काफी पहले ‘भैया’ हुआ करते थे । 1979 में रणजी ट्रॉफी के दौरान मुम्बई और दिल्ली के बीच वानखेड़े स्टेडियम में खेला गया मैच ‘भैया’ संबोधन का साझी बना था ।

मदनलाल जब भी गेंद फेंकने आते ‘भैया’ शब्द फिजाओं में तैरने लगता था । एक-दो वर्ष बाद जब मदनलाल ने इसी स्टेडियम पर इंग्लैंड के खिलाफ भारत को ऐतिहासिक जीत दिलाने में महती भूमिका अदा की तो पूरा मैदान उनकी सराहना से गूंज उठा था ।

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एक तरह से यह विरोधाभास मुंबईया शैली का परिचायक है । एक तरह उत्साही, गले लगाने को तैयार और महानगरीय भव्यता में रचा-बसा मुंबई है तो दूसरी तरफ संकीर्णता से ग्रस्त, बददिमाग और क्षेत्रीयता के जहर में डूबी मुंबई है । मुंबई हमेशा से क्षणिक याददाश्त वाला शहर रहा है । मदनलाल ने इसका अहसास तीन दशक पहले कर लिया था । अब अमिताभ बच्चन को इस कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ रहा है ।

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने कुछ समय पूर्व मुंबई के जिस स्याह पक्ष को सामने लाने का काम किया है, उसे देख कोई हैरत नहीं होती है । आज से चार दशक पहले मुंबई के बिंदास अंदाज को क्षेत्रवाद और संप्रदायवाद से कड़ा मुकाबला करना पड़ा था । शहरीकरण के सभी कारकों पर गर्व करने वाले इस शहर में हमेशा हिंसा और भय परछाई के रूप में पनाह पाते रहे हैं ।

राज ठाकरे द्वारा उत्तर भारतीयों को ‘भीतरी शत्रु’ ठहराने से काफी पहले उनके चाचा बाल ठाकरे भी मुंबई के राजनीतिक परिदृश्य पर ऐसे ही जिन्न का खेल-खेल चुके हैं । अगर राज ठाकरे ने आज बिहार और उत्तर प्रदेश से आए टैक्सी ड्राइवरों को निशाना बना रहे हैं, तो 40 वर्ष पहले बाल ठाकरे ने कर्नाटक और तमिलनाडु से आए दक्षिण भारतीयों की दुकानों और रेस्तरांओं को निशाना बनाया था ।

अवसरवादी वरिष्ठ ठाकरे के नफरत के प्रतीक इन बीते वर्षो में बदलते गए । दक्षिण भारतीय विरोधी मुहिम से शुरूआत करने वाली शिवसेना ने बाद में कम्युनिष्ट और फिर मुस्लिमों को अपना ‘शत्रु’ करार दिया । इस लिहाज से देखें तो भतीजा अपने चाचा की विरासत को आगे बढ़ा भर रहा है ।

पिछले चार दशकों में हिंसा का खुला समर्थन कर और उत्तेजक घोषणाओं के जरिये सुर्खियों में आने की कला को बाल ठाकरे ने अच्छे से साधा । इस प्रक्रिया में उनकी छवि भी विशालकाय हो गई । एक ऐसी छवि जिससे आप अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार डर सकते हैं या प्रेरणा ले सकते हैं । अपने चाचा की तरह राज मूल सेना के सर्वेसर्वा के पदचिन्हों पर चलने की कोशिश की है ।

बात सीधी-सी है आज की मुंबई 1966 की बांबे नहीं है, जब शिवसेना का गठन हुआ था । 1966 में महाराष्ट्र एक नया-नया राज्य था, जिस पर उसे अस्तित्व में लाने वाले भाषायी आंदोलन का गहरा प्रभाव था । महाराष्ट्रियन के रूप में सांस्कृतिक गर्व का अहसास बहुत तगड़ा था, तो बाहरी तत्वों का डर भी कम गहरा नहीं था ।

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खासकर, उस मुंबई में जो सदियों से देशभर के लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती आ रही थी । इस संदर्भ में देखें तो शिवसेना के उदय को अधिसंख्य महाराष्ट्रियों ने एक ऐसे मंच के रूप में देखा, जहाँ वे अपने दुःख-दर्द, खासकर मध्य वर्ग को नौकरियों में मिल रही प्रतिस्पर्धा से उपजे आर्थिक आक्रोश को व्यक्त कर सकते थे ।

अब यह प्रश्न उठता है कि क्या महाराष्ट्र का मध्य वर्ग तबका आज भी उसी आक्रोश और अलग-थलग होने के अहसास से पीडित है । सही है मुंबई के कम होते संसाधनों खासकर, रहने की समस्या पर बहस हो सकती है लेकिन आज के संदर्भो के शत्रु की व्याख्या सही ढंग से परिभाषित नहीं है ।

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नई आर्थिक नीतियों ने महाराष्ट्रियों की नई पीढ़ी की इच्छाओं को अन्य समुदायों की ही तरह महज क्लर्की से कहीं ऊपर उठा दिया है । मराठी मध्य वर्ग की हृदयस्थली कहे जाने वाले शिवाजी पार्क-दादर का सर्वेक्षण बता देगा कि आज उनके परिवार के कितने बच्चे विदेशों में नौकरी कर रहे हैं । इसके साथ ही महाराष्ट्र की संस्कृति भी बॉलीबुड के आगाज के साथ ही पार्श्व में चली गई है । परंपरा और भाषा में गर्व का वह अहसास नहीं रह गया है ।

नतीजतन, कुछ बेरोजगार युवक ही राज ठाकरे स्टाइल की राजनीति की तरफ आकर्षित हो सकते हैं । यह एक सच्चाई है कि इस तरह की राजनीति की तरफ आकर्षित होने वाले लोगों की वह संख्या नहीं है, जो मूल शिवसेना की तरह एक आंदोलन का रूप ले सके ।

साठ के दशक और आज के जनसांख्यिकीय कड़े भी बहुत ज्यादा हैं । उस वक्त बकौल राज ठाकरे दक्षिण भारतीय लुंगीवाला महज पांच से छह फीसदी थे जिन्हें अल्पसंख्यक कह सकते थे । वहीं आज उत्तर भारतीयों का प्रतिशत 12 से 14 फीसदी है जिन्हें आप आसानी से नकार या नजरअंदाज नहीं कर सकते । राजनीतिक स्तर पर भी मुंबई का नक्शा पूरी तरह बदल चुका है ।

उदाहरण के तौर पर गोविंदा बगैर उत्तर भारतीयों के समर्थन के संसदीय सीट नहीं हासिल कर सकते थे । कांग्रेंस-एनसीपी गठबंधन भी इनके समर्थन के बगैर शहर की 34 विधानसभा में से 19 सीट हासिल नहीं कर सकता था । सेना के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे भी इस सीमा को समझ जाएंगे । ठीक उन्हीं की तर्ज पर समाजवादी पार्टी की ओर से जो उत्तर भारतीयों के तथाकथित प्रवक्ता बने घूम रहे हैं, उन्हें भी सच्चाई का पता चल जाएगा ।

संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित राजनीति मुंबई के लिए किसी सूरत में लाभकारी साबित नहीं होगी । राज ठाकरे अगर वास्तव में मुंबई के विकास के प्रति उत्सुक हैं तो उन्हें अपना ध्यान छठ पूजा से हटाकर प्रशासन की खामियों पर केन्द्रित करना होगा । पटना या गोरखपुर से आने वाली रेलगाड़ियों को तो नहीं रोका जा सकता है । अगर रोका जा सकता है तो वह है राजनीतिक भ्रष्टाचार का अजगर जिसने मुंबई के शरीर को तो चपेट में ले लिया है, अब उसकी आत्मा को भी डसने की फिराक में है ।

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