सत्संगुति पर निबंध !

संगति में सत् उपसर्ग लगाने से सत्संगति शब्द बनता है । सत् का अर्थ- अच्छा और संगति का अर्थ-मिलाप है । अर्थात् अच्छे लोगों से मेल-मिलाप रखना । सत्संगति में रहकर व्यक्ति योग्य और कुसंगति में पड़कर अयोग्य बनकर समाज और परिवार दोनों में निरादर प्राप्त करता है ।

मानव एक सामाजिक प्राणि है । अपने जीवन को दूसरे व्यक्ति की तरह भौतिक सुख से सम्पत्र कर शान्ति और प्रसन्नता चाहता है । भौतिक जीवन को सुखमय करके भी वह अशान्त रहा । उसकी और चाहने की इच्छा कभी भी समाप्त नहीं हुई ।

वह अशांत होकर आत्मिक सुख की ओर भागने लगा । जिसका केवल एक ही मार्ग है: सत्संगति । सत्संगति अपने प्रभाव से दूसरों को प्रभावित करती है । संगति के प्रभाव से स्वाति नक्षत्र की बूँद केले में कपूर, सीप में मोती, सर्प के मुख में विष बन जाती है ।

दूध में मिला जल दूध के भाव बिक जाना है । दूषित जल गंगा में जाकर पवित्र हो जाता है । छोटी-छोटी नदियों में जल एकत्रित होकर जब बहता है तब समुद्र का रूप ले लेता है । जल एक ही है लेकिन संगति के प्रभाव से भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित हो गया ।

भर्तृहरि ने अपने ‘नीतिशतक’ में सत्संगति के विषय में कहा है कि सत्संगति बुद्धि की जड़ता को दूर करती है, वाणी में सत्य का संचार करती है, सम्मान को बढ़ाती है, पापों का क्षय (नष्ट) करती है, मन को प्रसन्न करती है, यश को चारों ओर फैलाती है । कहो सत्संगति क्या नहीं करती ? अर्थात् सब कुछ करती है । नर को नारायण बनने का अवसर देती है ।

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जीजाबाई की संगति मे शिवाजी ‘छत्रपति शिवाजी’ बने, दस्यु रत्नाकर सुसंगति के प्रभाव से महागुनि वाल्मीकि बनें जिन्होंने ‘रामायण’ नामक अमर काव्य लिखा । डाकू अंगुलिमाल, महात्मा बुद्ध के संगति में आकर उनका शिष्य बन गया और नर्तकी आम्रपाली का उद्धार हुआ । महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का स्वजनों के प्रति मोह-भंग कर युद्ध के लिए तैयार किया ।

वहीं दूसरी ओर कुसंगति में पड़कर भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन आदि पतन की गर्त में गिरे । ये सभी अपने आप में विद्वान और वीर थे । लेकिन कुसंगति का प्रभाव इन्हें विनाश की ओर खींच लाया । विद्यार्थी जीवन में सत्संगति का विशेष महत्त्व है क्योंकि इस समय छात्र अपने स्वर्णिम भविष्य की ओर अग्रसर होता है । जैसी संगति में रहता है वैसा ही स्वयं बन जाता है ।

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जैसे कमल पर पड़ी बूंद मोती बन जाती है और गर्म लोहे पर पड़ी बूंद नष्ट हो जाती है उसी प्रकार कुसंगति व्यक्ति को अन्दर से कलुषित कर उसका सर्वनाश कर देती है । इसलिए कहा गया है कि- ”दुर्जन यदि विद्वान भी हो तो उसका संग त्याग देना चाहिए । मणि धारण करने वाला सांप क्या भयंकर नहीं होता ।” तुलसीदास का कथन है –

बिनु सत्संग विवेक न होई !

अत: मनुष्य का प्रयास यही होना चाहिए कि वह कुसंगति से बचे और सुसंगति में रहे । तभी उसका कल्याण निश्चित है ।

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