सूचना संचार क्राति एवं ई-गवर्नेंस-समय की मांग पर निबंध!

सूचना-संचार क्राति और ई-गवर्नेंस (यानी सूचना-संचार तकनीक का प्रशासनिक कार्य-पद्धति सुधारने का प्रयोग) यह शब्द पिछले कई वर्षो से सरकारी और गैर-सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में प्रगति का बीज-मंत्र बन गये हैं .

लेकिन इसके बावजूद आज भी विज्ञान की इस महती देन से सरकारी काम-काज का ढंग बेहतर बनाने में बहुत ही कम सफलता मिली है । सांसदों-विधायकों-पार्षदों को लैप-टॉप मुहैया करने, कुछ निगम-स्कूलों में कंप्यूटर साँफ्टवेयर विकसित करने की जानकारी देते रहने जैसे कर्मकाण्ड जरूर सालभर होते रहते हैं ।

लेकिन चरणबद्ध ढंग से सम्पूर्ण सरकारी महकमों को सदी पुराने लालफीताधारी, धूलधूसरित कागजी फाइलों के अम्बारों से मुक्त कराने और उपलब्ध ब्योरों और आदेशों को चरणबद्ध ढंग से कालक्रम में संजोकर कम्प्यूटरीकृत करने के ठोस नमूने आज भी दुर्लभ ही है ।

एक ही देश में कार्यक्षेत्र की संस्कृति एक नयी खोज और उससे जुड़े विचारों को किस तरह पकड़ती या ठुकराती है, हमारे देश में आईटी उपयोग का परिदृश्य इसका बड़ा दिलचस्प उदाहरण हैं । राज्यस्तर पर अधिकार की उम्मीद के मुताबिक मांगी गयी सूचनाएं जनता को उपलब्ध कराने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि अधिकतर राज्यों में जिला और ब्लॉक स्तर पर सरकारी रिकॉर्ड कम्प्यूटरीकृत नहीं किये गये हैं । लिहाजा गुहार लगने पर वांछित रिकॉर्ड खोजना भूसे के ढेर से सुई निकालने जैसा बन जाता है ।

हाल के वर्षो में सूचनाधिकार के अलावा कई ऐसी महत्त्वाकांक्षी नयी जनहितकारी योजनाएँ (जैसे जवाहरलाल नेहरू शहरी पुनरूद्धार मिशन और रोजगार गारंटी योजना) लाई गयीं, जिनका जमीनी निष्पादन अगर कंप्यूटरीकरण और ई-गवर्नेंस का सहारा पा ले, तो वे सरपट चल निकलें । लेकिन लैपटॉपधारी पार्षदों के बावजूद म्युनिसिपैलिटी स्तर पर भी गहरा अज्ञान और वीतरागिता की भाव छाया है ।

पाँच साल पहले ‘नासकॉम’ संस्था ने एक तीन चरणों का बड़ा साफ-सुथरा ब्लूप्रिंट पेश किया था, जिसके तहत 2002-03 के बीच राज्य सरकारों को जरूरी हार्डवेयर, साँफ्टवेयर तथा आईटी सेवाओं की खरीद पर कुल बजट का 3 प्रतिशत हिस्सा 40:30:30 के अनुपात में निवेश करना था ।

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पहली श्रेणी के सभी सरकारी अधिकारियों को आईटी प्रयोग में प्रशिक्षित करना था, साथ ही टेण्डर देने के नियमों में सुधार और आईटी प्रशिक्षकों के लिए स्पष्ट कार्यकाल का प्रावधान करना था । दूसरे चरण में इस तंत्र को (2004 तक) पूरे राज्य में, जहाँ-जहाँ राष्ट्रीय परियोजनाएं चल रही थीं, उनसे जोड़ कर भूमि संबंधी रिकॉर्ड और राज्य की फंडिंग के ब्योरे कम्प्यूटरीकृत करने थे । और अंतिम चरण में 2005 तक नागरिकों को जरूरी सूचना और सलाह की सेवाएँ मुहैया कराने के साथ बुनियादी स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और आपदा प्रबंधन के पूरे क्षेत्र की जानकारियाँ कम्प्यूटर की मार्फत कारगर बनानी थी ।

रेलवे आरक्षण, रेलवे ट्रैकिंग तथा टिकट आवंटन का सफल कम्प्यूटरीकरण इस बात का सार्थक उदाहरण है, कि तमाम कथित अड़चनों के बावजूद कम्प्यूटरों के इस्तेमाल द्वारा हमारे देश में भी क्षेत्रविशेष में दशकों से व्याप्त कुहारा छाँटकर वहां व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सकता है, कार्यकुशलता बढ़ाई जा सकती है और जनता को जरूरत के वक्त तुरंत जरूरी जानकारियाँ दी जा सकती हैं ।

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लेकिन कुछ उदाहरण छोड़ दें, तो आज भी सूचनाएँ तथा रिकॉर्ड व्यवस्थित रखने के क्षेत्र में घोर अराजकता राज्य सरकारों की सबसे बड़ी कमजोरी है, और गत्यावरोध उनकी सबसे बड़ी शक्ति । ‘नासकॉम’ के सर्वे के अनुसार दक्षिण के तीन राज्यों-तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में ई-गवर्नेंस का काम चल निकला है ।

केरल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बंगाल, गुजरात तथा महाराष्ट्र भी धीमे-धीमे रफ्तार पकड़ते दिख रहे हैं, पर उत्तर के शेष राज्यों में सूचना तकनीक के सही प्रयोग को लेकर आज भी कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं है । और न ही वहाँ इस पर ज्यादा सोच-विचार होता है कि इसका बहुजनहिताय जमीनी प्रयोग राजकाज के कार्यान्वयन में किस तरह से किया जाये ।

इन दिनों निजी क्षेत्र के साथ (राज्य और केन्द्र दोनों ही स्तरों पर) सरकारें भी कुशल आईटी प्रशिक्षित कामगारों के भारी अभाव से जूझ रही हैं । उधर चुस्त अनुशासन के अभाव में सरकारी क्षेत्र के कर्मचारी अभी ई-साक्षरता में निजी क्षेत्र के कर्मचारियों से कई प्रकाश-वर्ष पीछे बने हुए हैं । गोपनीयता और उसके मार्फत भ्रष्टाचार परोसने वाले ऐसे अजगरी बाबुओं को प्रशिक्षित कराने की बजाय सरकारी विभाग तथा निगम अक्सर आउटसोर्सिग का सुगम रास्ता पकड़ कर विभागीय आईटी जरूरतें निजी क्षेत्र से ठेके पर पूरी करा रहे हैं ।

इसका दोहरा नुकसान हैं: एक तो जिन बाहरी एजेंसियों को वे (प्राय: कुशलता से ‘इतर’ आधारों पर) ठेके दे रहे हैं, वे पूरी फीस वसूल कर भी सरकारी काम में अपनी ‘बी’ या ‘सी’ श्रेणी की ही टीमों को लगा रही है । उनके द्वारा जरूरी सरकारी काम प्राय: कैसे घटिया तरह से निबटाए जा रहे हैं, इसका प्रमाण मंत्रालयों की उबाऊ वैब साइट्‌स हैं।

उधर इस सुविधावादी रूख के चलते लगातार तनख्वाह-बढ़ोतरी तथा महँगाई भत्ते डकारने के बावजूद खुद हमारा सरकारी अमला कम्प्यूटरों का इस्तेमाल सीखने और काहिली त्यागने को कतई बाध्य नहीं हो पा रहा हैं? सरकारी खरीद की प्रक्रिया ही इतनी जटिल (और प्राय: अपमानजनक भी) बना दी गयी है, कि अच्छी कंपनियाँ सरकारी काम का ठेका उठाने की कोई इच्छा नहीं रखतीं । क्यों रखें? आईटी के अच्छे कर्मियों की आज निजी क्षेत्र में भी भारी माग है, और वहाँ से ठेका पाना उनके लिए कहीं अधिक आसान और चोखा सौदा प्रमाणित हो रहा है ।

सरकार के साथ सम्मानजनक साझेदारी हो सकती है, दोस्ती के साथ रहा जा सकता है, और सूचना-संचार तकनीक सरकार और जनता को करीब लाने का सबसे सशक्त औजार बन सकती है । हमारे यहां भी इसका प्रमाण कर्नाटक सरकार की ‘भूमि-प्रोजक्ट’ योजना है ।

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इसके तहत 30 हजार गाँवों की सारी जमीन के (स्वामित्व से लेकर उसके स्वरूप तक के) ब्योरे ऑन-लाइन उपलब्ध करा दिये जाने से 70 लाख ग्रामवासी अब जरूरी जानकारियाँ बटन दबाते ही पा सकते हैं । इसी तरह पूरे आंध्र प्रदेश में ई-गवर्नेंस के प्रताप से बिजली, पानी, जीवन बीमा आदि के बिलों को ऑन लाइन भुगतान करना और जिला-तालुकावार जन्म-मृत्यु दर्ज कराना संभव बन गया है ।

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स्वस्थ परंपरा बदलाव आसानी से पचा सकती है । उसका वैज्ञानिक या तकनीकी प्रकृति से कोई अनिवार्य विरोध नहीं होता । आईटी तकनीकी और संचार प्रौद्योगिकी को विकसित करने वाले एशिया में जापान या स्वीडन-नार्वे जैसे कई ऐसे पश्चिमी देश हैं, जो अपनी पुरातन परंपराओं से जुड़े हुए हैं और आईटी का खूब प्रयोग कर रहे हैं ।

इसलिए हमारी राजनैतिक पार्टियों का, जो चुनाव-काल और लिंगवार जटिल तालिकाएँ ई-तकनीक द्वारा बनाने में बड़े माहिर हो गये है, यह कहना गले नहीं उतरता कि सरकारी कामकाज में वे ई-गवर्नेंस की सुस्त चाल तेज नहीं करा सकते ।

जनता के मुख में टीवी तथा इंटरनेट की कृपा से खुली-पारदर्शी सूचना का स्वाद लग चुका है, और पुलिस और प्रशासन तथा स्कूली माफिया तक के घपले लगातार बेपर्दा किये जाने लगे हैं । गोहाना से लेकर भागलपुर तक सड़कों पर उफनता जनाक्रोश जाहिर करता है कि अब चौबीस घंटे के टीवी के इस युग में राजनेता या प्रशासन पुराने ढंग की अपारदर्शी कार्यपद्धति और दबंगई के हथकण्डों से अपना राज कायम नहीं रख सकते ।

उन्हें नये का सदुपयोग सीखना ही होगा । ई-गवर्नेंस तथा सूचनाधिकार का हथियार देकर राजनेताओं ने ही हमारे लोकतंत्र में मीडिया को ‘राजा नंगा है’ कहने का साहस दिया है । क्या उन्हें यह कहते वक्त यह ख्याल नहीं था कि राजा भी वे ही हैं?

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