हवाला कांड पर निबन्ध | Essay on Hawala Scandal in Hindi!

प्रस्तावना:

लगता है ‘टेन कमान्हमेंट्‌स’ यानी दस मान्य नियमों का पालन करना छोड़ दिया जाता है तो ग्यारहवां नियम महत्वपूर्ण हो जाता है । अर्थात् ‘पकडे मत जाओ’ किन्तु हजार होशियारियों के बावजूद एक दिन भांडा तो फूटता ही है और इसके साथ ही ग्यारहवां नियम भी बाकी नैतिक मान्यताओं की तरह चकनाचूर हो जाता है । इन दिनों जिस हवाला घोटाले की चर्चा है वह इसी अर्थ में नया है कि अब यह गुप-चुप लेन-देनों की अंधेरी कोठरी से बाहर खुली रोशनी में आ गया है ।

चिन्तनात्मक विकार:

प्रश्न है कि हम क्यों कह रहे हैं कि जैन-बत्युओं की हवाला कारगुजारियों ने हमारी व्यवस्था की मूलभूत कमियों का पर्दाफाश किया है ? तथा, यह हवाला घोटाला किस अजूबे का नाम है ? इस मामले में सबसे अहम बात यह है कि ऐसे घोटाले अब किसी को चौंकाते नहीं हैं, खास कर पिछले पांच-सात सालों को तो भारतीय इतिहास का ‘घोटाला काल’ कहा ही जा सकता है ।

राजनैतिक नेताओं के हवाला काण्ड से सम्बंधित भंडाफोड़ ने यह तो दिखा ही दिया है कि कितनी गहरी और व्यापक हैं इस राजरोग की जड़ें । कुछ लोगों द्वारा मात्र ग्याहरवें नियम का पालन करने की असमर्थता ने हमारी राजनीति, अर्थनीति, खासकर विदेशी निजी क्षेत्र से लेन-देनों, कानून और व्यवस्था तन्त्र की पोल खोल दी है । इतना ही नहीं, इसने न्यायपालिका की महत्वपूर्ण सार्थक भूमिका को भी रेखांकित किया है ।

उपसंहार:

वस्तुत: राजनीतिक थैलियों का मुँह खोल कर लोकहित नहीं किया जा सकता । हवाला काण्ड मानवीय मूल्य एवं चरित्र के हास की उपज है । हवाला काण्ड ने भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के झूठे आदर्शो की हवा निकाल दी है । यदि हवाला के दोषी हवालात में भी पहुंचा दिये जाते हैं तो शायद यह एक मिसाल बने और हमारी व्यवस्था के शुद्धिकरण की शुरूआत कर सके ।

तस्करी, भ्रमण, विदेशी शिक्षा और दवा दारु तथा इलाज के लिए लोगों को विदेशी मुद्रा की जरूरत होती रहती है । आजकल लोग विदेशों में मकान खरीदने तथा काम-धन्धा शुरू करने के लिए भी विदेशी मुद्रा की ओर लालायित हैं । दूसरी ओर अप्रवासी भारतीय बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भेज रहे हैं । भारतीय निर्यातकों कोरर भी भुगतान के रूप में प्राय: बाजार भाव से नीचे रहने वाली विनिमय दर मंजूर करनी पड़ती है ।

यद्यपि विदेशी मुद्रा की कमाई पर से आयकर हटा लिया गया है परन्तु फिर भी नीची विनिमय दर, आवश्यकतानुसार विदेशी मुद्रा की उपलब्धि की सम्भावनाओं सम्बधी सशयो तथा सम्पत्ति कर, उपहार कर आदि की गिरफ्त से बचने के कारण गैर कानूनी रूप से विदेशी मुद्रा भुनाने तथा उसके विदेशों में जमा भण्डार बनाने में लोगों की रुचि बरकरार रहती है ।

इस तरह हम कह सकते हैं कि एक ओर ऐसा तबका है जो गुप-चुप तरीके से विदेशी मुद्रा के बदले भारतीय रुपये की मांग करता है, तो दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जिनके पास काफी मात्रा में विदेशी मुद्रा है और वे ज्यादा लाभप्रद शती पर उसे भारत में भेजने को तैयार रहते हैं ।

इस तरह कानून के दायरे से बाहर विदेशी मुद्रा का आवागमन शुरू हो जाता है । इस काम को बिचौलियों का जो तबका अंजाम देता है उन्हें हवाला डीलर और इस तरह गैर कानूनी, अनौपचारिक तौर पर विदेशी मुद्रा के एवज में भारतीय रुपयों के लेन-देन को ‘हवाला’ कहते हैं ।

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काफी अरसे से आयात तथा निर्यात के गलत और झूठे बिल बनाकर देश से पूंजी का प्रयाण या पलायन भी होता आया है । इस पूंजी को जब दोबारा भारत लाया जाता है तो इसमें भी ‘हवाला’ ही सहायक होता है । हवाला प्रकरण पर अन्तिम टिप्पणी यह है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार अपनी हर मंजिल पार कर चुका है ।

हर बड़े राजनीतिक दल का हर कददावार नेता आर्थिक कदाचार के घेरे में आ जाये और हर दूसरे दल के कददावार नेता पर उसी प्रकार का आरोप लगाने लगे तो मानना चाहिए कि हमारा राजनीतिक तन्त्र हर नैतिक मर्यादा से मुक्त हो चुका है और उसकी एकमात्र चिन्ता किसी भी तरह और किसी भी कीमत पर सत्ता पर काबिज हो जाने की है ।

शुरू में जो हवाला चकित करता था अब सिर्फ मनोरंजन करता है, हवाला काण्ड ने फिर सिद्ध किया है कि अपने समाज में हर समस्या अन्तत: स्वयं ‘थक’ जाती है और जनता थोडी और ‘पक’ जाती है । प्रारम्भ में बिलबिलाने वाले नैतिक प्रश्न अब केवल राजनैतिक प्रश्न बनकर व्यवस्थित होने लगे हैं । थोड़े दिन बाद फिर कोई और ‘घोटाला’ कोई और ‘घपला’ सामने होगा और सत्ता में बैठे लोग उसे फिर थका देंगे ।

हवाला काण्ड जिस रूप में खुला, उसमें, ऐसा बहुत कम था जो जनता के बीच कोई नैतिक विमर्श पैदा करता । जिन्होंने इस्तीफा दिया और जिन्होंने शुरू में इस्तीफे में हिचकिचाहट दिखाई बाद में दिया बे सब मूलत: ‘सत्ता’ के विमर्श को ही साधने की जुगत भिड़ाने में व्यस्त रहे और अब तक हैं ।

अब यह स्थापित प्रमाणित तथ्य है कि भारत की लोकशाही और उसके मौजूदा कलपुर्जे काले धन के बिना गति नहीं कर सकते । भारत में काले धन का अर्थ है कि आम जनता के हितों और उसके आर्थिक अधिकारो की कीमत पर हर प्रकार की आपराधिक और असामाजिक गतिविधि के माध्यम से कमाया गया धन जो आपराधिक और असामाजिक गतिविधि को प्रशासनिक संरक्षण दिलाने के लिए राजनीति में प्रवाहित किग्रा जाता है ।

लोकवादी राजनईस्तइ के आज जो भी उपाय औजार हो सकते हें, वे सबके सब अवैध धन से तैयार किये जा रहे हैं । मतदाताओं को प्रचार के माध्यम से लुमाने से लेकर उन्हे मतदान केंद्रों तक पहुंचाने की हर प्रक्रिया काले धन के माध्यम से ही पूरी की जा रही है और उसके बाद मंत्रिमंडलों के गठन की प्रक्रिया में बहुमत बनाने की जोड़-तोड़ में विधायकों-सांसदों की बेचा बिक्री भी इसी धन के माध्यम से की जा रही है ।

हवाला प्रकरण ने जिस तथ्य को खुले तौर पर स्थापित किया है, वह यह कि काला धन न केवल राजनीतिक दलों के लिए सुलभ कराया जाता है, बल्कि इन दलों के बड़े-बड़े नेताओं को दल से अलग व्यक्तिगत स्तर पर भी यह धन भरपूर मात्रा में उपलब्ध कराया जाता है ।

हवाला काण्ड की जैन डायरी गंदे तालाब की बूँद भर है, जो एक जांच एजेंसी के हाथ अनायास ही लग गयी अन्यथा पूरे ताल में कहीं भी डुबकी लगा आइए, स्वच्छ जल की एक बूंद का स्पर्श नहीं मिलेगा । यह भी तय है कि अगर राजनीतिक भ्रष्टाचार की यही संस्कृति पनपती रही तो एक दिन सारा प्रशासनिक और सेवा तंत्र चरमरा जाएगा । सामान्य व्यक्ति इस चरमराहट को हर कदम पर महसूस कर रहा है, राजकीय सेवाएं चाहे वे बिजली पानी की हों अथवा प्रशासन और न्याय की, उसके लिए जी का जंजाल बनती जा रही हैं ।

वह किसी भी सेवा को अपने पक्ष में लाने में असहाय महसूस करने लगा है, लेकिन हवाला कांड का एक चीखता सबक यह भी है कि वे लोग जो स्वयं को हर नियम कानून से ऊपर समझते हैं और भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति के केन्द्र मैं बैठकर स्वयं को सुरक्षित समझने लगते हैं, वे भी अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रह सकते ।

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हवाला का मसला जिन लोगों के विरुद्ध उठाया गया ये वे लोग थे जो अपनी-अपनी जगह होते हुए भी वास्तविक शक्ति केन्द्र की आख की किरकिरी बन गये थे । शक्तिशालियों गुट दूसरे शक्तिशालियों को अपनी राह का रोड़ा पा रहा था, इसलिए उसने न्याय और की खातिर नहीं, बल्कि न्याय और व्यवस्था की आड में दूसरे पर पटाखा उछाल दिया ।

अगर आज के अभियुक्त कल वास्तविक शक्ति केन्द्र में प्रतिष्ठित हो जाते हैं तो ये लोग भी दूसरों वही करेंगे, जो आज उनके साथ हुआ है । अराजक राज्य व्यवस्था में अपराध शक्ति का जाता है तो हर व्यक्ति स्वयं अपराधी होते हुए भी दूसरे को अपराधी ठहराने का लाइसेंस कर लेता है ।

कोई व्यक्ति चाहे आज कितना भी ताकतवर क्यों न दिखे, अपराध के में खड़ा किया जा सकता है । राज्य व्यवस्था और उसकी प्रणालियों को अगर आज एक लिए इस्तेमाल कर सकता है, तो कल कोई दूसरा व्यक्ति इसे उसके विरुद्ध भी कर सकता है । इसलिए आज की अराजक राज्य व्यवस्था केवल सामान्य व्यक्ति के लिए नहीं बनी है, उनके लिए भी संकट बनने की प्रक्रिया में है, जो उसके जनक, पोषक हैं ।

यह है कि भ्रष्टाचार की यह बाढ अब किसी भी वैधानिक, प्रशासनिक तरीके से नहीं अंतत: विधान और प्रशासन अगर मौजूदा मानसिकता से ही संचालित होते हैं, तो जाहिर भी उसी तरह भ्रष्ट हो जाना है, जिस तरह अब तक होते रहे हैं ।

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अगर कोई रास्ता विधान प्रशासन की परिधि से बाहर जन मानसिकता में समग्र बदलाव के स्तर पर है और यह सामान्य कार्य नहीं है । जन मानसिकता में बदलाव को अगर हवाला परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह और भी असाध्य प्रतीत होता है ।

राजनीतिक दलों के कि- पर ‘हवाला का हलवा’ खाने के आरोप हैं, उन्हें अपने-अपने दलों की दलीय राजनीति करना पड़ा है । जैन बंधुओं के यहां पडे छापे के बाद केन्द्रीय जांच ब्यूरो को जो डायरी उसमें कुल एक सौ पंद्रह राजनेताओं और नौकरशाहों के नाम शामिल हैं, जिन्होंने हवाला प्राप्त की थी ।

लेकिन केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने अभी तक केवल साठ नामों का ही खुलासा । हवाला काण्ड का प्रभाव प्राय: सभी दलों पर है । लगभग सभी उच्च पद पर आसीन पर लाखों रुपया लेने का आरोप है । ये जरूर है कि पैसा लेने के पीछे सभी नेताओं भिन्न-भिन्न हैं ।

कालखण्ड गहरी चिन्ता जगा रहा है । कल्पना भी नहीं की जा सँकती थी कि आजादी के मात्र पांच दशकों में यह सब घटित हो जाएगा और वह पीढ़ी जिसने स्वतंत्रता संघर्ष न, और कई बार स्वतंत्रता के बाद भी नेताओं की अनेकानेक लक्ष्यगत जेल यात्राएं देखी इस दौर के नेताओं की इन आपराधिक जेल यात्राओं को भी देखेगी ।

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वह जेल यात्राएं के आत्मबल, देश प्रेम और जनहित के विशिष्ट मुद्‌दों पर उनके विशिष्ट नीतिगत आग्रहों क्ष्य में होती थीं और जब 1996 के प्रथम चरण में देश के शीर्ष नेताओं को जेल के दरवाजे गये तो उसके पीछे भ्रष्टाचार, घूसखोरी, दायित्चहीनता तथा देश समाज के प्रति आपराधिक परिप्रेक्ष्य है ।

नेतागण एक दौर में अपनी राजनीतिक शक्ति के चलते अजेय समझे जाते थे और अपनी लोक लुभाऊ शैली के चलते सार्वजनिक जीवन में अनुयायियों की फौज लिये चलते थे, आज बेहद असहाय, निरीह और बौने नजर आ रहे हैं ।

पहले जब कोई नेता जेल जाता था तो कानून भले ही उसके साथ न होता हो, लेकिन व्यापक जन समर्थन सम्बल बनकर उसके पीछे खडा रहता था, लेकिन आज की इन जेल यात्राओं में न जनता की सहानुभूति उनके साथ है और न जन समर्थन ।

स्थिति गुणात्मक रूप से बदली हुई हे । हवाला काण्ड के उजागर होने से हमारा पूरा राजनीतिक तन्त्र ही नगा हो गया है । ‘राष्ट्रीय चरित्र’ इत्यादि की दुहाई देने वाले नेतागणों में ऐसा कोई नैतिक बल नहीं है जिसके सहारे वे अपने चेहरों की चमक वापस ला सके ।

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तकनीकी चालें और फिर निर्ल्लज्जता और मैं चोर तो तू भी चोर की बोली की लड़ाई में दूसरे की चीज बचे न बचे, अपनी चीज कतई नहीं बचती । आज ‘सत्ता’ के लिए जीने वाले दल हैं । ‘सत्ता’ और पैसे का गहरा गठजोड़ इन्हीं के चलते बना है ।

सत्ता ओर धन दोनो पर खुले आम जीने वाली पार्टी के जिन नेताओं ने इस्तीफा दिया उन्होंने बेमन से दिया । वे कुर्सी नहीं छोड सकते । जान दे सकते थे । लेकिन कुर्सी छोड़नी पडी । इसका मलाल सबके चेहरे पर दिखता है ।

इससे स्पष्ट है कि नेतागण निर्लज्ज तो हो गए है लेकिन अच्छे अभिनेता अभी नहीं बने हैं । वे अपने पिटे चेहरों को छिपाने की कला नहीं जानते । हवाला काण्ड के तात्कालिक परिणाम जितने मनोरजक हैं, दूरगामी परिणाम उतने ही चिन्ताजनक ।

तात्कालिक परिणाम मनोरंजक इसलिए हैं क्योंकि इस काण्ड ने खासकर उन लोगों के होश उडा दिए हैं जो अपने आप को सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के ठेकेदारों के रूप में देखते थे । हवाला के दूरगामी परिणाम चिन्ताजनक इस अर्थ में हैं कि इस काण्ड से केवल कुछ नेता और पार्टियों की ही नहीं, समूची लोकतात्रिक राजनीतिक प्रक्रिया की ही साख दांव पर लग गयी है ।

अपने देश में वैसे ही ऐसे महानुभावों की कमी नहीं है जो किसी न किसी बहाने लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्थान पर नामजद विशेषज्ञों की सरकार या फिर सीधे सैनिक शासन ले आना चाहते हैं । हवाला काण्ड से उत्पन्न सनसनी में एक और महत्वपूर्ण तथ्य की उपेक्षा हो रही है । वह यह कि जैन बंधु हवाला के इकलौते एजेंट नहीं हैं, और न ही बिकने के लिए उत्सुक राजनेताओं की खरीदारी का यह एकमात्र तरीका-हूं ।

असल में पिछले पांच वर्ष में सरकार ने देश को घोटालों की आदत ही डाल दी है । प्रतिभूति, चीनी और अब हवाला । इस तरह के गंभीर मामलों को तुच्छ राजनीतिक लाभों के लिए, घटिया मजाक में तब्दील करने का श्रेय विरोधी पार्टियों को जाता अब हवाला काण्ड से उठने वाले सवालों को परखें ।

बात केवल भ्रष्टाचार की नहीं, भ्रष्टाचार के प्रति रवैये की भी होनी चाहिए । आप भ्रष्टाचार को सिर्फ अपनी रामनामी झलकानें का बहाना मानते हैं या सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही का आप सचमुच भ्रष्टाचार को सामाजिक-राजनीतिक जीवन से उखंड फेकना चाहते हैं या भ्रष्टाचार को लोकतंत्र ही का सत्यानाश कर लेने का बहाना बनाना चाहते हैं । असली सभारनात ये हैं ।

इनको ध्यान में रख कर देखें तो बोफोर्स से लेकर हवाला काण्ड तक का घटनाक्रम क्या सूचना देता है । बोफोर्स को जब मुख्यत: सार्वजनिक जवाबदेही और देश की सुरक्षा में लापरवाही का सवाल बनाने का प्रयत्न किया गया था तब बडी हद तक कामयाबी भी मिली थी ।

उन दिनों बोफोर्स का मामला व्यक्ति विशेष द्वारा की गयईरा रिश्वत का नहीं, उच्च पदासीन लोगों की जवाबदेही का मामला बन गया था । नतीजा यह निकला कि भ्रष्टाचार और जवाबदेही का सवाल किसी संतुलित और सशक्त राजनीतिक एजेंडा का हिस्सा बनने की बजाय, एक ऐसे गठबंधन की रणनीति बन कर रह गया, जिसमें राजनीतिक सहमति संभव नहीं थी ।

आज हमारी राजनीति में भ्रष्टाचार केवल राजनेताओं के आपसी आरोप प्रत्यारोरा बन कर रह गया है- बजाय एक वास्तविक राजनीतिक मुद्‌दे के । हवाला काण्ड के परिणाम इसलिए चिन्ताजनक बल्कि विस्फोटक हैं, क्योकि इस काण्ड ने एक या दो व्यक्तियों के नहीं, बल्कि समूची राजनीतिक प्रणाली के भ्रष्ट आचरण को उजागर कर ।

लोगों में संसद के प्रति अब आस्था नहीं रह गयी है । यह अनास्था यदि समाप्त न देर-सबेर इस देश से लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा । हवाला काण्ड एक घटना विशेष के जितना शर्मनाक है, उससे कहीं अधिक वह एक प्रक्रिया के सूचक के रूप में खतरनाक वाला काण्ड में फसे राजनेताओ की तकदीर का फैसला ये धाराएँ करेंगी-निरोधक कानूनः-यह कानून 9 सितम्बर, 1988 को लागू हुआ ।

घूसखोरी और रष्टाचार को रोकने के लिए इस कानून की आवश्यकता पड़ी थी । इससे पहले के जो कानून कई कमिया थीं, जिनका लाभ अभियुक्त को मिल जाता था और वह कानून के पंजे निकलता था । यह कानून की धाराएं मुख्य रूप से उन्हीं पर लागू होती हैं, जो ‘लोक है सरकारी नौकर, एमएल ए.एम.पी. मत्री आदि लोकसेवक की श्रेणी में आते हैं । इस में कुल 31 धाराए है । हवाला में फंसे नेताओं और नौकरशाहों पर न्यायालय में धारा 7,2 और 13 के तहत मुकदमा चलेगा ।

धारा 7:

इस कानून की यह महत्वपूर्ण धारा है । इस धारा के अनुसार कोई लोकसेवक अपने रहते हुए यदि किसी को किसी भी प्रकार का अनुचित लाभ पहुंचाता है तो वह इस कानून रेधि में आ जाएगा । दोष सिद्ध होने पर उसको कम से कम 6 माह एवं अधिक से अधिक की सजा हो सकती है । इसके अतिरिक्त उसे जुर्माना भी हो सकता है । जुर्माने की धनराशि धारण का अंतिम अधिकार न्यायाधीश को है ।

धारा 11:

कोई भी लोकसेवक अरइनुचित प्रकार से कोई मूल्यवान वस्तु अपने पद का लाभ हुए किसी से ले ले या बिना उसकी अनुमति से अपने पद के प्रभाव के कारण हथिया किसी प्रकार व्यापार आदि में संलग्न हो जाये तो भी यह लोकसेवक भ्रष्टाचार निरोधक की इस धारा के अंतर्गत दोषी मोना जाएगा । भारतीय दंड संहिता की धारा 165 की ही रिवर्धित धारा है ।

धारा 12 :

धारा 7 और 11 में वर्णित अपराधों के लिए किसी को उकसाने वाले व्यक्ति के फ भी इस धारा के तहत छह माह से पाच साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है ।

धारा 13 :

यदि कोई लोकसेवक आपराधिक दुराचरण में दोषी पाया जाता है तो उसको 6 से लेकर 5 वर्ष तक की सजा व जुर्माना हो सकता है । इस धारा के प्रावधानों के मुताबिक हर लोकसेवक की अपनी संपत्ति और आय का विस्तृत देना पड़ेगा । यदि कोई लोकसेवक निर्धारित आय से इतर धन कमाता है या ऐसी संपत्ति करता है, जिसका उसके पास समुचित हिसाब-किताब नहीं है तो वह कानून की इस की गिरफ्त में आ जाएगा ।

धारा-27 :

भ्रष्टाचार निरोधक कानून की इस धारा के अनुसार विशेष न्यायालय के फैसले 70 सारगर्भित हिन्दी निबन्ध के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील एवं पुनर्निरीक्षण के लिए जाने का प्रावधान है ।

भारतीय दण्ड संहिता : धारा 120 (बी): आपराधिक षड्‌यन्त्र के लिए दण्ड विधान:

यदि कोई व्यक्ति ऐसे आपराधिक षड्‌यन्त्र में लिप्त होकर अपराध करता है, जिसकी सजा मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक की कठोर कारावास होती हे तो ऐसे व्यक्ति को उसी प्रकार दंडित किया जाएगा जैसे इन अपराधों को अंतिम अंजाम देने वाले व्यक्तियों को दंडित किया जाता है । यानी आपराधिक षड्‌यंत्र में शामिल व्यक्ति अपराध करने वाले व्यक्ति के समान ही दंड का भागीदार होता है ।

धारा 161 :

यदि कोई व्यक्ति उपरोक्त दंडनीय अपराध करने के लिए आपराधिक षड्‌यंत्र से भिन्न किसी आपराधिक षड्‌यंत्र में शामिल होने का दोषी पाया जाता है तो उसे कम से कम छह माह (इससे अधिक नहीं) का कारावास या जुर्माना या दोनों ही सजाएं हो सकती हैं ।

धारा 161 :

यदि कोई लोकसेवक अपने पद पर रहते हुए या होने की प्रत्याशा में वैध पारिश्रमिक से भिन्न किसी भी प्रकार का कोई पारितोषण अपने या किसी अन्य व्यक्ति के लिए इसलिए लेता है कि वह उसके बदले में उस व्यक्ति को फायदा पहुंचाएगा तो उस लोकसेवक को तीन वर्ष का कारावास या आर्थिक जुर्माना या दोनों सजाए हो सकती हैं ।

धारा 165 :

यदि कोई लोकसेवक किसी भी व्यक्ति से कोई मूल्यवान वस्तु ग्रहण करता है, जिससे कि उसका कोई निर्णय किसी के पक्ष या विपक्ष में प्रभावित हो सकता हो तो वह तीन वर्ष की कैद या आर्थिक दंड या दोनों सजाओं का भागीदार होगा ।

धारा 465 :

यदि कोई व्यक्ति धोखाधड़ी जैसे अपराध करने का दोषी पाया जाता है तो वह दो वर्ष तक की कैद या आर्थिक दड या दोनों सजाओं का भागीदार होगा ।

फेरा:

इन धाराओं के अलावा कई एक नेताओं पर विदेशी मुद्रा विनियम नियंत्रण कानून मेरा की धाराए 8,9 और 56 के तहत भी मुकदमा चलेगा । इस अधिनियम की धारा 8 कहती है- ‘डरिजर्व बैंक ऑफ इडिया की स्वीकृति के बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार की’ विदेशी मुद्रा न ले सकता, न दे सकता है और न ही विनिमय कर सकता है ।”

धारा 9 के अनुसार- बिना रिजर्व बैंक की अनुमति के विदेशी मुद्रा का कोई भी व्यक्ति किसी धनराशि के बदले में किसी तरह का भुगतान भी नहीं कर सकेगा । फेरा के इन धाराओं में फंसे अभियुक्तों के विरुद्ध अपराध एवं दण्ड प्रावधानों का विस्तृत उल्लेख करते हुए धारा 56 कहती है: यदि अभियुक्त ने एक लाख रुपये अथवा उतने ही या उससे अधिक मूल्य की विदेशी मुद्रा का लेन-देन किया है तो उसे न्यूनतम छह माह और अधिकतम सात वर्ष कारावास की सजा और जुर्माना हो सकता है ।

यदि न्यायाधीश अभियुक्त को छह महीने से कम कारावास की सजा देता है तो उसे अपने आदेश में ऐसा करने के लिए विशिष्ट कारणों का उल्लेख करना अनिवार्य होगा । राजनीति के प्रसंग में यह न्यायिक प्रक्रिया दो बातें मुख्य रूप से सामने ला रही हे । पहली यह कि न्यायपालिका के एक हिस्से में राजनीतिक व्यक्तियों और व्यवहारों के प्रति गहरा अविश्वास है और न्यायपालिका का यह हिस्सा राजनीतिक गन्दगी को बुहाने की जिम्मेदारी स्वयं अपने कन्धों पर लेता हुआ दिख रहा है ।

मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के प्रति जन आस्था निरंतर घट रही है, विखंडित हो रही है, हवाला कांड विखडन की इस प्रक्रिया को और तेज करेगा । जन आस्था के विखंडन से राज्य की भ्रष्टाचार नियंत्रण क्षमता और अधिक घट जाएगी । इसका परिणाम सीधे-सीधे अराजकता में होगा । अराजकता और अधिक अनास्था को जन्म देगी, अनास्था और अधिक अराजकता को । इस समय समूचा भारतीय राष्ट्र राज्य ही दांव पर लगा है ।

जब भारतीय अस्मिता ही दांव पर लगी हो, तब किसी भी राजनीतिक दल को और अधिक नंगई करने की इजाजत नहीं दी जा सकती । अगर भौगोलिक भारत और भारतीय जनता का अस्तित्व ही संकट में आ जाये और बेहूदे राजनीतिज्ञों द्वारा संचालित राजनीतिक दल केन्द्र पर काबिज होने के प्रयास में हर मूल्य और आदर्श की बलि चढाने को तत्पर दिखायी दें तो बेहतर है कि मूल्यों और आदर्शो की खातिर उस राजनीतिक ढांचे को ही बलि चढ़ा दिया जाये, जिसकी चादर तले भ्रष्ट राजनीतिक दल कबड्‌डी खेल रहे हैं ।

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भारतीय जनता के लिए अब यह तय करने का वक्त है कि उसे अपनी अस्मिता की सुरक्षा चाहिए या इस बोदे राजनीतिक तंत्र की ? किसी भी राजनीतिक दल के शीर्ष नेतागण जो कदाचार संस्कृति के अभ्यस्त हो गये हैं, उनसे किसी निर्णायक परिवर्तनकारी कदम की अपेक्षा करना मूर्खता है । अपेक्षा उनसे की जा सकती है यानी उन युवा नेताओं से अपेक्षा की जा सकती है, जो राजनीति में आ तो गये हैं, लेकिन अभी भी नैतिकता और ईमानदारी का जच्चा बनाये हुए हैं ।

अगर कोई पहल हो सकती है, तो उन्हीं की ओर से हो सकती है । सबसे पहले उन्हें अपनी दलवादी प्रतिबद्धताओं के घेरे को तोडना पड़ेगा । उन्हें अपने से भिन्न हर राजनीतिक दल के युवा और ईमानदार नेतृत्व के साथ एकजुट होकर राजनीतिक प्राथमिकताएं तय करनी पड़ेगी ।

जो मुद्‌दे राष्ट्रीय अस्मिता और समूची भारतीय जनता के साथ जुडे हों, उन पर उन्हें दलीय प्रतिबद्धताओं से हटकर एकरूप सोचना पडेगा । वैसे भी जहां सार्वजनिक जीवन में आचरण के मूल मानक ही खतरे में पड़ जायें, वहां किसी भी राजनीतिक दल की तात्कालिक जय-पराजय का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।

सार्वजनिक शुचिता के प्रश्न पर अब हर राजनीतिक दल या हर सामाजिक संगठन को एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श के मंच पर आ जाना चाहिए । इस समय दलीय प्रतिबद्धता की खातिर सार्वजनिक शुचिता के सवाल को पृष्ठभूमि में डाल देने से बडा राजनीतिक अपराध दूसरा नहीं है ।

कृाईई भी राजनीतिक दल भारतीय जनता की अस्मिता से बड़ा नहीं है । जब तक भारतीय जन की अस्मिता कायम है, तभी तक राजनीतिक दल और उनके राजनीतिक मंतव्य वैध हैं । यह अस्मिता चरमराती है, तो भारतीय राष्ट्र राज्य के होने या न होने का ही क्या अर्थ होगा ? और उसी तरह किसी भी राजनीतिक दल के होने या न होने का ही क्या अर्थ होगा ?

और अंत में, उनकी चर्चा भी कर ली जाए जिन्होंने हवाला काण्ड का श्रेय लेने के लिए बच्चों जैसे कुश्ती अखबारों में लड़ी और उनका भी जो कानूनी मंच पर सक्रिय नजर आते हैं । हवाला काण्ड के प्रकट होते ही, वे लोग ‘श्रेय’ लूटने निकल पडे जो पिछले कई वर्ष से इस मामले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटा रहे थे, और ‘जान की बाजी’ लगा रहे थे ।

सत्ता की ऊंची लड़ाई कुछ इस कदर ऊंची होती है कि सामान्य पत्रकारजनों को गड़बड़ियों की खबर तभी होती है, जब कोई बड़ा आदमी’ किसी गुट से नाराज हो जाता है या उसे बाहर कर दिया जाता है । जैन बंधुओं की डायरियां यदि किसी पत्रकार के हाथों लगी तो हम समझ सकते हैं कि उसके पीछे क्या-क्या संयोग काम कर रहे होंगे ।

हवाला काण्ड का मनोरंजक पहलू यह है कि अदालतों के गलियारे जगमगा गये, वकील लोग झुंडों में नजर आने लगे और प्राय: कैमरों की ओर देखने लगे । वे नये नायक हैं जो इस काण्ड के बाद बने हैं । वे प्रचार के भूखे दिखते हैं । मीडिया ने हवाला को जिस तरह एक सनसनीखेज कहानी बनाया उसमे ऐसा होना स्वाभाविक ही था ।

उसका सनसनीखेज बनाया जाना बताता है कि मीडिया ने उसे एक कहानी की तरह ही लिया है नैतिक प्रश्न की तरह नहीं । अदालतो के वकीलों का रोज-रोज टी.वी. पर दिखना उनके पेशे के महत्व को ‘गिरा’ सकता है, ये वे नहीं सोचते । अदालत में जाने के बाद हर प्रश्न राजनीति और सत्ता का प्रश्न बन जोता है, वह नैतिक नहीं रहता । हवाला काण्ड में जो थोड़े बहुत नैतिक प्रश्न थे, वे इसीलिए खत्म हो गये ।

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हवाला काण्ड ने हमारे राजनीतिक दलों, नेताओं की ‘वैधता’ से संबंधित प्रश्नों को उठा दिया लेकिन टिकने से पहले ही वे गिर गये । इसीलिए सारी बहसें विषय चक्रो में घूमती है । नितात पतित और घूणित नायकों की इस भीड़ में जनता सिर्फ दमनोरंजन को ही सत्य मानती है । यथार्थ, फिल्मो की कहानियों से आगे चला गया है । पूंजी की हवस ने, पैसे की मार ने लोगो के सहज ‘अपराध बोध’ को नष्ट कर दिया है ।

‘अपराधी’ कह रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और कैमरे के आगे वी फार विस्ट्री बनाते हैं । डर यह है कि एक दिन अदालतें भी कहीं इस घनघोर पतित कीचड यथार्थ मे लिप्त न हो जायें । चिंता है कि वे कब तक बची रहेगी पैसे के दबाव से’ ‘स्वतत्र’ अदालते कब तक ‘स्वतत्र’ रहेंगी?

दूसरी तरफ यदि हम तह तक जायें तो हमे पता चलेगा कि वास्तव में लोकतन्त्र मजबूत हो रहा है । अगर किसी अपराध कर्म या आर्थिक भ्रष्टाचार मे शामिल कोई बडे से बडा व्यक्ति मी कानून के शिकजे से अपना बचाव नहीं कर सकता तो माना जाना चाहिए कि देश का व्यवस्थागत ढाचा मजबूत हुआ है ।

इससे नेताओं को सबक मिलेगा कि वे भ्रष्टाचार से दूर रहें, साथ ही अन्य लोगों तक भी यह चेतावनी जाएगी कि जब सरकार के बडे-वरिष्ठ मत्री तक अपने कानूनेतर कर्मो को निर्बाध जारी नहीं रख सकते, तो वे किस खेत की मूली हैं ।

इस घटना से लोगों मे केद्रीय जाच अभिकरण और न्यायिक प्रणाली के प्रति भरोसा पैदा होगा, जो स्वत: ही लोकतत्र के प्रति भरोसे में बदल जाएगा तो एक सोच यह है । हो सकता है कि घटना खे थोडे बहुत निहितार्थ शुभ हों, परंतु भारतीय लोकतंत्र की प्रणालीगत सरचना इतनी सरल-सपाट नहीं है जो इस घटना के ऐसे पूर्णत: सरल-शुभ निष्कर्ष स्थापित कर सकने में सफल हो सके ।

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