Here is an essay on ‘Time-Space Geography’ in Hindi language!

समय-काल भूगोल की विचारधारा को स्वीडन के हैगरस्ट्रेण्ड (T. Haggerstrand) ने विकसित किया है । यह मानवीय धरोहर और उसके आचरण से सम्बन्धित है । समय और स्थान सहवर्ती शब्द है व परस्पर सम्बन्धित हैं । प्रत्येक भौगोलिक घटना अपने पीछे लम्बा इतिहास रखती है । यह इतिहास समय का द्योतक है, जो किसी विशेष स्थान पर ही संरचित होती है ।

समय-काल भूगोल उन घटनाओं का जो स्थान विशेष में क्रमवार व शृंखलावद्ध रूप घटित होती रही हैं, को प्राथमिकता देता है, जो निश्चित तौर पर समय और स्थान से आबद्ध होते हुए अपनी उपस्थिति का अहसास कराती है । इससे एक परिदृश्य का निर्माण होता है ।

हार्टशोर्न का कथन है कि समय इतिहास है व स्थान भूगोल है, और दोनों मिलकर ही वर्तमान परिदृश्य की रचना करते हैं पृथ्वी के किसी भी स्थान पर मिलने वाला परिदृश्य एक दिन की घटना नहीं है । जैसे भूमि के किसी भाग पर कृषि फसल का उत्पादन अचानक ही शुरू नहीं होता वह मानव की उस सूझ-बूझ का परिणाम है, जिसने उसको उस भूमि को कृषि उत्पादन के अनुकूल पाया हैं अत: स्थान विशेष को कृषि के अनुकूल मानता है, जिसको निश्चित करने में एक समय लगा है ।

वास्तव में समय व स्थान दोनों महत्वपूर्ण संसाधन है । यह मानव क्रियाओं को नियंत्रित करते है । मानव का आचरण स्थान व समय के अनुसार बदलता रहता है यह बदलाव स्थान की दृष्टि से क्षैतिजीय होते है, जबकि समय की दृष्टि से वह उर्ध्वाधर रूप ग्रहण करते है उदाहरणत: एक नगर जिस स्थान पर बसना शुरू होता है ।

वह उसका क्षैतिजीय रूप है, जब यह बसाव स्थान समय के साथ निर्माण का जो प्रतिरूप स्थापित कर लेता है, वह उसके ऐतिहासिक विकास (समय) का सूचक है । इसी प्रकार खाद्य शृंखला का आधार वह स्थल है, जो उत्पादन की श्रेणी में आता है, जबकि उस पर आधारित उपभोक्ता, जो एक दूसरे पर आश्रित होकर विकसित हुए, पिरामिडीय (लम्बवत) दृश्य का संकेतक हैं । इस प्रकार स्थान व समय परस्पर आबद्ध हैं, दोनों ही संसाधन है व गतिशील हैं । प्रत्येक भौगोलिक परिदृश्य का जीवन-काल उसके लम्बवत एवं क्षैतिजीय गतिशीलता के सम्मिलन का परिणाम है ।

इस प्रकार समय-स्थान भूगोल निम्न चार अवधारणाओं पर आधारित है:

1. स्थान व काल दोनों संसाधन हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति विशेष अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है ।

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2. मानव अपने उद्देश्यों की पूर्ति में तीन प्रकार के नियंत्रण (Constraints) में रहता है:

(i) क्षमता विषयक नियंत्रण:

इसमें व्यक्ति विशेष की क्षमता उसके भौतिक गुणों द्वारा नियंत्रित होती है। प्रत्येक स्थान व हर समय मानव की क्रिया क्षमता व साधन सुविधा समान नहीं रहती है । वह उन्हीं कार्यों को करता, है, जो उसकी क्षमता के अनुरूप होते हैं, अर्थात जिनको करने के लायक वह अपने आपको समर्थ पाता है । वह चाहे कृषि करें, या कारखाने चलाए, यह सब उसकी भौतिक क्षमता द्वारा नियंत्रित होते है । एक कृषि मजदूर, कभी भी औद्योगिक तकनीशियन नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वह क्षमता नहीं होती है ।

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(ii) संयोजन विषयक नियंत्रण:

इसमें स्थान विशेष और निर्धारित समयों पर कुछ व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों के समूह के क्रियाकलापों को नियंत्रित करने की क्षमता होती है । जैसे स्थान विशेष पर नगर का स्थापित मिलना व्यक्तियों की सम्मिलित क्रिया का परिणाम है । यह व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि व्यक्तियों नगरवासियों की आवश्यकता के अनुरूप विकसित किया गया है । यह दोनों संसाधनों का सामूहिक संयोजन है ।

(iii) प्रशासकीय संस्था अथवा परिचालन संस्था नियंत्रण:

यह मानव क्रियाओं को समय व स्थान विशेष को नियंत्रित करती है, अथवा उसे परिभाषित करती है । जैसे नगर के किस भाग में कौन सा कार्य कब स्थापित किया जाए, यह किसी प्रशासकीय संस्था द्वारा ही नियंत्रित होता है । इसी प्रकार भारी वाहन के चालन मार्गों पर शिक्षा संस्थाओं की स्थापना पर रोक लगाना, ऐसा ही नियंत्रण है ।

उपरोक्त तीनों नियंत्रण समय स्थान के दर्शन को परिभाषित करते है । इसमें व्यक्ति विशेष द्वारा एक स्थान पर रहकर समय-समय पर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उठाए गए कदमों को शामिल किया जाता है ।

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3. नियंत्रणों का योगात्मक होना:

समय व स्थान के प्रभावी नियंत्रण अन्तर्क्रिया रखने वाले है, ने कि योगात्मक (Additive) । इनका सम्मिलित रूप उन संभावनाओं को निर्धारित करता है, जो व्यक्ति विशेष की आवश्यकताओं का पूर्ति के लिए स्थान विशेष पर उपलब्ध होते हैं । उदाहरणत: समय विशेष पर मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति किस स्थान से कर सकता है । खानाबदोश पशुचारक को पता होता है कि कौन सा स्थान एक विशेष मौसम में उसके पशुओं के लिए चारे की आपूर्ति करने में सक्षम हो सकता है ।

4. संरचनात्मक साँचा सम्बन्धी नियंत्रण:

मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्थापित संरचनात्मक साँचे के अनुसार कदम उठाता है । वह उससे बाहर कदम नहीं उठा पाता है । एक भूखण्ड पर यदि उसने रिहाइशी मकान का निर्माण किया है । तो वह उसमें सुधार तो कर सकता है, लेकिन उसके स्थान पर अन्य कार्य विकसित नहीं कर सकता ।

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समय-काल भूगोल को अवस्थिति पारिस्थितिकी (Situation Ecology) का नाम भी दिया गया है । जीवों व उनकी पारिस्थितिकी की विशेषताओं को समाविष्ट करते हुए सामाजिक नियमों की रचना करती है । विभिन्न जीवों ने समय के साथ अपनी परिस्थितियों के साथ किस तरह सामंजस्य स्थापित किया है । यह विषय प्रादेशिक व ऐतिहासिक भूगोलवेत्ताओं के लिए महत्वपूर्ण है । वर्तमान मानव भूगोलवेत्ता भी इसमें अपना सम्बन्ध जोड़ते है ।

समय-स्थान भूगोल मानव के व्यक्तिगत एवं सामूहिक अस्तित्व की झलक दिखलाता है । मानव समय विशेष पर अपने अस्तित्व के लिए किन प्रक्रियाओं से होकर गुजरा है, यह सबको निर्देशित करना इस भूगोल का उद्देश्य है ।

यह उसके स्थान विशेष का समय के साथ किए गए आचरण (व्यवहार) का विश्लेषण करता है । इसको वह व्यक्ति ही नहीं व्यक्तियों के समूह के संदर्भ में देखता है । यह भूगोल मानवतावादी चिन्तन पर आधारित है । यह इस बात को जानने की प्रयास करता है कि मानव का कौन सा कदम मानवीय गुणों से युक्त है, इस प्रकार यह विशिष्ट मानवीय परिस्थितियों का विश्लेषण करता है ।

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कुछ विद्वानों विशेष रूप से बेकर (Baker) ने इस विचारधारा का समर्थन किया है, और इसको भौगोलिक परिदृश्यों के समय व स्थान के संदर्भ में इसके विवेचन को व्यक्तिगत स्तर, लघु पैमाने पर क्षणिक समय अवधि के लिए उपयोगी माना है ।

व्यक्तियों के समूह को ध्यान में रखकर दीर्घ अवधि के लिए इसका विवेचना तर्कसंगत दिखाई नहीं पड़ता । अत: संस्थागत विचार व्यक्तितत्व को वरीयता नहीं प्रदान करते । यह व्यक्तिगत सोच, निर्णय, कार्य क्षमता को प्रभावित करते हैं ।

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