List of twenty four popular hindi essays for school going Childrens’ written in Hindi Langauge!

Contents:

  1. रंगो का त्योहार: होली पर निबन्ध | Essay on Holi : The Festival of Colour in Hindi
  2. पवीत्र घाटों का त्योहार: रक्षाबन्धन पर निबन्ध | Essay on Rakshya Bandhan : The Festival of Sacred Thread in Hindi
  3. भाईचारे का पर्व: ईद पर निबन्ध | Essay on Eid : The Festival of Brotherhood in Hindi
  4. क्रिसमस (बड़ादिन) पर निबन्ध | Essay on Christmas in Hindi
  5. राष्ट्रीय भाषा-हिन्दी पर निबन्ध | Essay on Hindi : The National Language in Hindi
  6. हिब्दी काव्य में प्रकृति चित्रण पर निबन्ध | Essay on Nature’s Depiction in Hindi Poetry in Hindi
  7. जीवन तथा साहित्य पर निबन्ध | Essay on Life and Literature OR Literature is the Mirror of the Society in Hindi
  8. रूपए की आत्मक्या पर निबन्ध | Essay on Autobiography of a Rupee in Hindi
  9. पुस्तक की आत्मकथा पर निबन्ध | Essay on Autobiography of a Book in Hindi
  10. नदी की आत्मकथा पर निबन्ध | Essay on Autobiography of a River in Hindi
  11. विश्व पुस्तक मेला पर निबन्ध | Essay on World Book Fair in Hindi
  12. दिल्ली का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला पर निबन्ध | Essay on International Trade Fair at Delhi in Hindi
  13. आध्रुनिक युग में खेलों का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Game in the Modern Age in Hindi
  14. पर्वतारोहण: एक दुस्साहसपूर्ण शौक पर निबन्ध | Essay on Mountaineering : An Hazardous Hobby in Hindi
  15. नई शिक्षा प्रणाली पर निबन्ध | Essay on New Education Policy in Hindi
  16. ऋतुराज बसन्त पर निबन्ध | Essay on Spring : The King of Seasons in Hindi
  17. वर्षा ऋत पर निबन्ध | Essay on Rainy Season in Hindi
  18. ग्रीष्म ऋतु पर निबन्ध | Essay on Summer Season in Hindi
  19. पुस्तकालय की उपयोगिता पर निबन्ध | Essay on Utility of Library in Hindi
  20. परिश्रम का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Labour in Hindi
  21. विज्ञापनों का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Advertisement in Hindi
  22. नारी शिक्षा का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Women’s Education in Hindi
  23. जीवन में अनुशासन का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of the Worth of Discipline in Life in Hindi
  24. विद्युत शक्ति का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Electricity in Hindi

Hindi Nibandh (Essay) # 1

रंगो का त्योहार: होली पर निबन्ध | Essay on Holi : The Festival of Colour in Hindi

प्रस्तावना:

रंगों का त्योहार होली हँसी-खुशी, नाचने-गाने, व्यंग्य विनोद करने तथा एक दूसरे से गले मिलकर गिले-शिकवे दूर करने का दिवस है । यह जीवन से सभी दुखों, निराशाओं, चिन्ताओं, कष्टों, रोगों तथा पीड़ा को दूर भगाकार आनन्द के सागर में डुबो देने वाला त्योहार है ।

यह धार्मिक एवं सामाजिक महत्त्व का त्योहार है । यह त्योहार सर्दी के गमन तथा गर्मी केआगमन का प्रतीक है । यह प्रकृति में वसन्त के यौवन का चिह है । यह त्योहार पृथ्वी पर हरियाली, फूलों की खूशबू तथा सुगन्धि का परिचायक है ।

ऋतु पूर्व होली मनाने की तिथि:

होली वसन्त-ऋतु का पर्व है । यह पर्व वसन्त-ऋतु के आरम्भ में फागुन मास की पूर्णिमा को पूरे भारतवर्ष में पूर्ण हर्षोल्लास से मनाया जाता है । पूर्णिमा को होली-पूजा तथा होलिका दहन होता है तथा उसके दूसरे दिन रंग (फाग) खेला जाता है जिसे ‘दुल्हण्डी’ भी कहते हैं ।

वसन्त ऋतु के आने पर हर ओर हरियाली हो जाती है । वृक्ष नए पत्ते धारण कर लेते हैं तथा बगीचों में रंग-बिरंगे फूलों की छटा दर्शनीय होती है । इस समय तक फसल पककर तैयार हो जाती है ।

इस नवान्न को देवता को समर्पित करने के लिए नदान्तोष्टि का विधान है । किसान अपनी पकी हुए फसल देखकर फूले नहीं समाते । इसीलिए कृषि प्रधान देश भारतवर्ष में होली प्रसन्नता का प्रतीक पर्व माना जाता है ।

सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व का पर्व:

होली का त्योहार अपने साथ सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व भी लेकर आता है । प्राचीन समय में इस दिन यज्ञ में कच्चे धान व अनाज की आहुति डालकर उसे खाना आरम्म करते थे । संस्कृत में भुने हुए अन्न को होलक’ तथा हिन्दी में ‘होली’ कहते हैं । इसी आधार पर इस पर्व का नाम होली पड़ा । इसी दिन लोग आग को प्रथम अन्न की आहुति देकर अन्न का प्रसाद एक दूसरे को बाँटते हैं तथा खुशी से गले मिलते हैं ।

इस त्योहार से सम्बन्धित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं । कहा जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नामक एक कपटी, अत्याचारी, दुराचारी तथा निरंकुश शासक था । सारी प्रजा उससे भयभीत रहती थी । वह स्वयं को ही भगवान मानता था ।

ADVERTISEMENTS:

उसका पुत्र प्रहलाद ईश्वर का परम भक्त था तथा वह दिन रात ईश्वर भक्ति में मग्न रहता था । हिरण्यकश्यप से यह सब सहन नहीं हुआ । हिरण्यकस्पप ने अपने पुत्र प्रहलाद को अपना परम विरोधी मानकर उसे अनेक प्रकार की यातनाएँ दिलवाई ।

जब उन यातनाओं के बावजूद भी प्रहलाद अपनी भक्ति से विचलित नहीं हुआ तब उसने अपनी बहन होलिका को यह आदेश दिया कि वह प्रहलाद को लेकर आग में बैठ जाए जिससे वह जलकर भस्म हो जाए । होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि आग भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी ।

इस प्रकार होलिका प्रहलाद को लेकर आग में बैठ गयी, लेकिन प्रहलाद की सच्ची भक्ति ने उसे बचा लिया तथा होलिका उसी अग्नि में जलकर भस्म हो गई । होलिका के बुरे कर्मों और प्रहलाद की अटल भक्ति भावना की याद में फालुन पूर्णिमा की रात को होलिका दहन किया जाता है ।

होलिका के साथ मदनन्दहन का प्रसंग भी जुड़ा हुआ है । ऐसा माना जाता है कि भगवान शंकर जी की समाधि भंग करने का प्रयत्न करने वाले कामदेव (मदन) को उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिया था । तभी यह महादेव द्वारा मदनन्द्रहन का स्मृति-पर्व के रूप में भी मनाया जाता है । इसके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूतना वध की घटना का भी इससे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है ।

इसी कारण भगवान कृन की रास-लीलाओं में होली खेलने का विशेष महत्त्व है । इस शुभ अवसर पर जैन सम्प्रदायी आठ दिन ‘तक सिद्ध चक्र की पूजा अर्चना करते हें जिसे अष्टाहिका पर्क कहते हैं । इन सभी घटनाओं के कारण ही होली एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक महत्त्व का पर्व है ।’

होली तथा फाग मनाने की विधि:

होली का पर्व अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित सभी लोग पूर्ण हर्षोल्लास से मनाते हैं । इस त्योहार में बच्चे, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी एक दूसरे पर रंग गुलाल मलते हैं, रंग भरी पानी पिचकारियों में भरकर डालते हैं तथा ज्वारों में रंग भरा पानी भरकर एक दूसरे के ऊपर फोड़ते हैं ।

कुछ लोग इनसे बचना भी चाहते हैं तो कई लोग बुरा भी मान जाते हैं तब लोग बड़े प्यार से कह देते हैं ”बुरा न मानो होली है ।” जब गलियों में चौराहों पर रंगे हुए लोगों की टोलियाँ नाचती गाती नारे लगाती गुजरती हैं तो रंग से डरकर घरों में छुपे लोगों का भी मन मचल उठता है ।

सभी के कपड़े तथा चेहरे इन्द्रधनुषी रंगों में रंगे होते हैं तथा सभी एक जैसे प्रतीत होते हैं । इससे पूर्व पूर्णिमा की रात को लोग अपने मुहल्लों एवं चौसखें पर होली जलाते हैं । उसमें गेहूँ जौ आदि की बालें भूनकर खाते हैं । श्री नरेन्द्र ने खेली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है:

”बज रहे कहीं ढप डोल, झाँझ, पर झूलत दूर, गा रही संग मदमस्त मौइजूरो की टोली । कल काम धाम करना सबको पर नींद कहाँ ? है एक बर्ष में एक बार आती होली ।

ADVERTISEMENTS:

होली का त्योहार तो मुगलशासन काल में भी अपना एक अलग महत्त्व रखता था । जहाँगीर ने अपने रोजनामचे तुजुक-ए-जहांगीरी से कहा है कि यह त्योहार हिन्दुओं में संवत्सर के अन्त में आता है । इस दिन लोग आग जलाते हैं, जिसे होली कहते हैं ।

अगली सुबह होली की राख एकदूसरे पर फेंकते तथा मलते हैं । अल बरुनी ने अपने यात्रा वृत्तान्त में होली का सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है । ग्यारहवीं सदी के प्रारम्म में जितना वह देख सका, उस आधार पर उसने बताया कि होली पर विशेष पकवान बनाए जाते हैं इसके बाद वे पकवान ब्राह्मणों को देने के पश्चात् आपस में आदान-प्रदान किये जाते हैं । बहादुर शाह जफर ने अपनी एक रचना में होली का वर्णन इस प्रकार किया है:

”क्यो मोपे रंग की डारे पिचकारी देखो सजन जी दूंगी मैं भारी भाग सकूँ मैं कैसे मोसो भागा नहिं जात बड़ी अब देखूँ और तो सनमुख गात ।।

इसके पश्चात् ब्रजवासियों की होली तो जग-प्रसिद्ध है । बह्म तो आज भी लोग कीचड़, कोडो आदि से होली खेलते हैं । कविवर पद्माकर की इन पंक्तियों में ऐसी ही स्थिति का चित्रांकन किसी गोपिका द्वारा श्रीकृष्ण से होली खेलने के प्रसंग में किया गया है:

ADVERTISEMENTS:

”फाग के भीर अहीरन में, गई गाबिन्द ले गई भीतर गोरी । छाई करी मन की ‘पद्माकर’ अपर नाई अबीर की झोरी । छीनी पितम्बर कम्मर, सु विदाकरी भी कपोलन होरी । नैन बचाइ क्सै मुसकाई, लला फिर आइयो खेलन होरी ।।”

वर्तमान समय में होली का स्वरूप:

आज तो प्रदर्शन का युग है, जीवन के सभी क्षेत्रों में कृत्रिनता की प्रधानती, विद्यमान है । आज हम होली के वास्तविक महत्त्व को क्त रहे हैं तथा इसे एक दिखावे के रूप में मनाने लगे हैं । धनी लोग नए-नए प्रकार के रासायनिक रंगों का प्रयोग करते हैं, जो महँगे भी होते हैं साथ ही त्वचा तथा आँखों के लिए हानिकारक भी होते हैं ।

दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों में लोग ऊंची-ऊंची इमारतों की छतों पर से गुब्बारे फेंकते हैं जो बहुत चोट पहुँचाते हैं । अनेक लोग चोरी भी करते हैं तथा शराब पीकर स्त्रियों से साथ भद्दा व्यवहार भी करते हैं । यह होली का अत्यन्त विकृत रूप है ।

उपसंहार:

होली तो एक दूसरे से गले मिलकर मुबारकबाद देने तथा गुलाल लगाकर मुँह मीठा कराने का पर्व है । होली को उसके पवित्र तथा सहज रूप में मनाया जाना चाहिए । यह पर्व सुप्त प्राय: जीवन में नव-चेतना तथा जागृति का सन्देशवाहक है । इस दिन तो लोग पुराने बैर-भाव भुलाकर मित्र बन जाते हैं इसलिए होली को उत्सवों की रानी कहना अनुचित न होगा ।


Hindi Nibandh (Essay) # 2

पवीत्र घाटों का त्योहार: रक्षाबन्धन पर निबन्ध | Essay on Rakshya Bandhan : The Festival of Sacred Thread in Hindi

प्रस्तावना:

ADVERTISEMENTS:

रक्षाबन्धन का तात्पर्य रक्षा के लिए बन्धन से है अर्थात् जिसके हाथ पर रक्षा (राखी) बाँधी जाती है वह बींधने वाले की रक्षा कुा वचन देता है ।

इस प्रकार रक्षाबन्धन का त्योहार भारतीय लोक-संस्कृति की एक सुन्दर परम्परा है । यह स्नेह का त्योहार, बलिदान का उत्सव एवं प्रतिज्ञा का पर्व है । यह लेह, मिलन, हर्ष, उल्लास तथा भाई-बहिन के पवित्र प्रेम का द्योतक है । इस त्योहार के विषय में कुहा भी गया है:

”कच्चे धागों में बहनों का प्यार है । देखो, राखी का आया त्योहार है ।”

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स्नेह के प्रतीक रूप में:

रक्षाबन्धन का त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को बड़ी धूमधाम व उल्लास के साथ मनाया जाता है इसलिए इसे ‘श्रावणी’ भी कहते हैं । प्राचीनकाल में स्वाध्याय के लिए यज्ञ तथा ऋषि मुनियों के लिए तर्पण कर्म करने के कारण इसका नाम ऋषि तर्पण भी पड़ गया ।

यज्ञ आदि के उपरान्त रक्षा सूत्र बाँधने की प्रथा के कारण बाद में यह पर्व ‘रक्षाबन्धन’ या ‘राखी पर्व’ कहलाया । रक्षाबन्धन केवल भाई-बहन के पवित्रं स्नेह का ही बन्धन मात्र नहीं है, अपितु दो आत्माओं, दो हृदयों एवं दो प्राणों की एक दूसरे के प्रति घनिष्ठता का प्रतीक है । इन राखी के कच्चे धागों का मान रखने के लिए कई भाइयों ने अपनी जान तक की बाजी लगा दी ।

पौराणिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व-पुराणों के अनुसार एक बार देवताओं तथा राक्षसों के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें देवता हारने लगे । तभी इन्द्र की पत्नी शची ने देवताओं को राखी बाँधी और रक्षा का वचन लिया ।

वचनबद्ध देवताओं ने भी राक्षसों को युद्ध में हरा दिया । उपरोक्त कथा रक्षाबन्धन के प्राचीन स्वरूप को उजागर करती है साथ ही नारी प्रतिष्ठा को भी दर्शाती है । नारी शक्ति का महत्त्व अमूल्य है तथा वह सदा ही पुरुष के लिए प्रेरणा एवं शक्ति का संचार करने वाली है ।

धार्मिक दृष्टि से इस त्योहार का आरम्भ एवं प्रचलन अति प्राचीन है । विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने जब वामन का अवतार लिया था, तब उन्होंने सुप्रसिद्ध अभिमानी राजा बलि से केबल तीन पग धरती दान में माँगी थी ।

बलि द्वारा स्वीकार करने पर भगवान वामन ने सभूर्ण धरती को नापते हुए बलि को पाताल में भेज दिया । इस कथा में कुछ धार्मिक भावनाओं को जोड़कर इसे रक्षाबन्धन के रूप में याद किया जाने लगा । परिणामस्वरूप आज भी ब्राह्मण अपने यजमानों से दान लेते हैं तथा उनको रक्षा सूत्र बाँधते हैं तथा उन्हें विविध प्रकार के आशीर्वाद भी देते हैं ।

इसी पवित्र विचारधारा से प्रभावित होकर श्रद्धालु ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा करते हैं तथा उन्हें अपनी श्रद्धा उपहारस्वरूप भेंट करते हैं । स्मृति-ग्रन्धों एवं सूत्र-ग्रन्धों में रक्षा-सूत्र का महत्त्व एक अन्य सन्दर्भ में भी मिलता है । प्राचीन भारत में ऋषि महर्षि, साधु तपस्वी आदि श्रावण से कार्तिक मास तक के चार महीने अर्थात् चौमासे’ में भ्रमण नहीं करते थे, अपितु एक ही स्थान पर रहकर भजन, कीर्तन, यज्ञादि से सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों के हाथों में यज्ञ सूत्र बाँधते थे । इस रक्षा सूत्र का उद्देश्य भी उन व्यक्तियों की रक्षा करना ही होता था ।

ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह त्योहार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । मध्यकालीन भारत के मुगलकालीन शासन काल से इसका सम्बन्ध है । सर्वप्रथम, जब सिकन्दर तथा पुरु का युद्ध हुआ तो सिकन्दर की प्रेमिका ने राजा पुरु के हाथ में रखी बाँधकर उससे यह वचन लिया था कि उसके हाथों सिकन्दर की मृत्यु नहीं होगी ।

इसी प्रकार जब गुजरात के शासक बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तो महारानी कर्मवती अपनी सुरक्षा का कोई रास्ता न पाकर बहुत दुखी हुई । उसने कोई और उपाय न देखते हुए हुमायूँ के पास रक्षा-सूत्र भेजा और अपनी सुरक्षा के लिए उसे ‘भाई’ शब्द से सम्बोधित करते हुए प्रार्थना की ।

बादशाह हुमायूँकर्मवती द्वारा ऐसा करने से बहुत अधिक प्रभावित हुआ । उसने सम्मानपूर्वक वह रक्षा-सूत्र स्वीकारते हुए चित्तौड़ की रक्षा के लिए बहुत बड़ी सेना लेकर बहन कर्मवती के पास पहुँच गया । एक मुसलमान होते हुए भी हुमायूँ राखी के बन्धन को न भूल सका तथा राखी बँधन के त्योहार के मूल्य को ठीक प्रकार से समझा ।

पारिवारिक महत्त्व:

ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक के अतिरिक्त इस त्योहार का पारिवारिक महत्त्व भी है । इस दिन बहने अपने भाइयों की कलाइयों पर रक्षा सून बाँधती है तथा भाई के सुखद भविष्य की कामना करती है । भाई भी अपने स्नेह के प्रतीक रूप में बहिन को उपहार तथा धन राशि भेंट करते हैं ।

बहिन के अतिरिक्त कहीं-कहीं ब्राह्मण भी यजमानों को राखी बाँधते हैं । इस दिन महिलाएँ सुबह सबेरे उठकर सफाई आदि करती हैं । घरों में स्वादिष्ट पकवान बनते हैं तथा भाइयों की प्रतिक्षा में बहने सज सँवर कर तैयार होती हैं ।

विवाहित महिलाएँ अपने भाई के घर जाकर भाइयों, भतीजों तथा भाभियों के भी राखी बाँधती हैं । अत: स्नेह का यह पर्व सुखद एवं आनन्ददायक है । कई स्थानों पर इस उपलक्ष में मेले भी आयोजित किए जाते हैं । बच्चे नए-नए कपड़े पहनते हैं तथा खिलौने आदि लेते हैं ।

उपसंहार:

इस त्योहार का मूल उद्देश्य नारी रक्षा एवं देश-रक्षा है, परन्तु आज के भौतिकवादी युग में इन मान्यताओं ने कृत्रिमता का चोला पहन लिया है । बुद्धि तथा विज्ञान के विकास के कारण जीवन की सरस आस्थाएँ भी लुप्त प्राय: होती जा रही है ।

आजकल राखी का पवित्र भावनात्मक मूत्य भी धन द्वारा का जाने लगा है । यह बड़ी क्षुद्र भावना है । हमें इस त्योहार के वास्तविक अर्थ को समझते हुए भाई बहन में पवित्र स्नेह को जीवित रखने का प्रयास करना चाहिए । किसी कवि ने ठीक ही कहा है:

”बहन तुम्हारी इस राखी का, मूल्य भला क्या दे पाऊँगा । बस इतना तेरे इंगित पर, बहन सदा बलि-बलि जाऊँगा ।।”


Hindi Nibandh (Essay) # 3

भाईचारे का पर्व: ईद पर निबन्ध | Essay on Eid : The Festival of Brotherhood in Hindi

प्रस्तावना:

ईद इस्ताम धर्म का पवित्र पर्व है । मुसलमानों के लिए प्रत्येक ईद का विशेष महत्त्व होता है । ईद एकता, प्रेम और भाईचारे का त्योहार है । सभी मुसलमान ‘ईद’ को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं ।

भाईचारे के इस उत्सव की शुरुआत अरब से हुई बताई जाती है लेकिन ‘तुजके जहाँगीसई’ में लिखा गया है कि इस त्योहार को लेकर जो जोश, खुशी एवं उमंग भारतीयों में पाई जाती है, वह कंधार, बुखारा, खुरासान तथा बगदाद जैसे शहरों में नहीं पाई जाती, जबकि इन स्थानों पर इस्ताम का जन्म भारत से पहले हुआ था ।

‘ईद का चाँद’ जैसे प्रचलित मुहावरे का सम्बन्ध ‘ईद’ नामक त्योहार से ही है क्योंकि ईद की गणना, आगमन एवं इसका मनाया जाना चन्द्रमा के उदय होने पर ही निर्भर करताहै । ईद का त्योहार प्रसन्नता, सुन्दरता एवं पारस्परिक प्रेम का द्योतक है । ईद-कुरान शरीफ की वर्षगाँठ-इस्ताम धर्म के प्रवर्त्तक मोहम्मद साहब का जन्म 570 ई. में अरब देश में हुआ था ।

आपके माता-पिता का आपकी बाल्यावस्था में ही देहावसान हो गया था इसीलिए आपके चचाजान, अबू तालिन ने आपका लालन-पालन किया था । आपका निकाह बेगम खरीजा से हुआ तथा 40 वर्ष की आयु में ही आपने लौकिक आकर्वजों का परित्याग कर नबूवत प्राप्त कर ली ।

मोहम्मद साहब ने मुसलमानों को प्रेम तथा त्याग का पाठ पढ़ाया तथा उनका उचित मार्गदर्शन किया । ‘कुरान’ इस्ताम धर्म का पवित्र ग्रन्य है । ईद का सम्बन्ध इस्ताम धर्म के पवित्र ग्रन्ध कुरान की उत्पत्ति से सम्बन्धित है । इस्ताम र्ष्म के मानने वाले ईद के इस पावन पर्व को कुरान शरीफ की वर्षगाँठ के रूप में भी मनाते हैं ।

ईद के विभिन्न प्रकार:

ईद का पवित्र पर्व एक वर्ष में दो बार आता है । एक को “ईद-उल-फ़ितर” अर्थात्, ‘मीठीईद’ कहते हैं तो दूसरी को ईदम्हल-जुहा’ या च्छरीद’ कहते हैं । ‘ईद-उल-फ़ितर’ से पूर्व रमजान का महीना आता है । इस पूरे माह मुसलमान दिन के समय ‘रोजा’ (उपवास) रखकर अपना सारा समय खुदा की इबादत (आराधना) में व्यतीत करते हैं तथा किसी भी अनैतिक कार्य को करने से बचते हैं ।

शाम के समय नमाज अदा कर रोजा खोलते हैं । इस प्रकार वे पूरे महीने यही प्रक्रिया दोहराते हैं । इस समय मुसलमान अधिक-से-अधिक दान-दक्षइणा देते हैं गरीबों को भोजन कराते हैं तथा लाचारों की सेवा करते हैं क्योंकि ऐसा करने से उन्हें ‘जन्नत’ नसीब होती है ।

जिस विशेष रात को ‘ईद का चाँद’ दिखाई देता है, उसके अगले दिन ‘ईद’ मनाई जाती है । ‘ईद-उल-फ़ितर’ के दिन घर-घर में तरह-तरह की मीठी सेवईयाँ पकती हैं तथा मित्रों एवं सम्बन्धियों में बीटी जाती हैं । मीठी ईद के दो महीने तथा नौ दिन बाद चाँद की दस तारीख को ‘ईद-उल-जुहा’ या ‘बकरीद’ मनाई जाती है । यह एक मांसाहारी ईद है क्योंकि इस दिन बकरे काटे जाते हैं तथा उनका गोश्त मित्रों तथा सम्बन्धियों में वितरित किया जाता है । इस दिन का अपना विशेष महत्त्व है ।

यह दिन कुर्बानी का दिन कहलाता है । परम्परा के अनुसार इब्राहीम नामक एक महान पैगम्बर थे । अल्लाह के द्व के आदेश पर वे अपने प्यारे बेटे की कुर्बानी देने के लिए गए । कुर्बानी देते समय इब्राहीम ने अपनी आँखों पर पट्‌टी बाँधकर ज्यों ही चाकू चलाया कि बीच में ही उनका प्रिय बकरा आ गया और इब्राहीम के बेटे के स्थान पर बकरे की बलि चढ़ गई ।

उसी दिन से यह प्रथा बन गई । कुर्बानी करने के भी कुछ नियम कायदे हैं जैसे कि उस बकरे की कुर्बानी नहीं दी जा सकती जो अपंग, बीमार या दुर्बल हो । कुर्बानी तो उसी बकरे की दी जानी चाहिए जिसे आपने बड़े प्यार से पाल-पोसकर बड़ा किया हो । इस दिन भी प्रात: मस्विदों में नमाज अदा कर मुस्तिम एक दूसरे के गले मिलकर ईद की मुबारकबाद देते हैं ।

ईद मनाने की बिधि:

ईद के दिन सभी सरकारी व निजी विद्यालय, ऑफिस, दुकाने आदि बन्द रहते हैं । ईद पर जगह-जगह मेलों का आयोजन होता है । प्रातःकाल होते ही स्त्री पुरुष, बच्चे बूढ़े सभी नए-नए वस्त्र धारण कर ईदगाह में जाकर नमाज अदा करते हैं ।

ईद के दिन हर मुसलमान के घर में तरह-तरह के पकवान बनते हैं तथा घर में मेहमानों का आबागमन चलता रहता है । इस शुभ अवसर पर बड़े-बूढ़े बच्चों को ‘ईदी’ देते हैं । सभी आपस में एक दूसरे को ईद की मुबारकबाद, मिठाईयाँ तथा उपहार आदि भी देते हैं ।

उपसंहार:

ईद का दिन सामाजिक महत्त्व का दिन है । यह पर्व समग्र मुस्तिम समुदाय में नवजीवन का संचार करता है । यह आज के संघर्षमय जीवन में नवीनता, सरसता तथा उमंग का संचार करता है । यह त्योहार हमें प्रसन्नता, समानता, भाई चारे तथा निःस्वार्थ प्रेम का सन्देश देकर जाता है इसीलिए प्रत्येक मुस्तिम इन ईदों को पूरे जोश एवं उमंग से मनाता है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 4

क्रिसमस (बड़ादिन) पर निबन्ध | Essay on Christmas in Hindi

प्रस्तावना:

प्रत्येक पर्व मानव की उन्नत भावनाओं, अनवरत श्रद्धा व अटूट विश्वास का प्रतीक होता है । भारतवर्ष तो मानो त्योहारों की ही भूमि है जहाँ प्रत्येक धर्म के लोग कितने ही त्योहार मनाते हैं ।

इनमें से कुछ त्योहारों की सृष्टि प्रकृति के आधार पर हुई है तो कुछ त्योहारों का आधार अतीत में उन महापुरुषों का जीवन होता है, जिनसे मानव जीवन का बहुत हित हुआ है । इन महापुरुषों ने अपने अद्‌भुत कार्यों द्वारा संसार को प्रकाशवान किया है ।

‘बड़ा दिन’ अथवा ‘क्रिसमस’ ईसाई धर्म के प्रवर्त्तक ‘ईसा मसीह’ के जीवन पर आधारित है । यह त्योहार बहुत कुछ हिन्दुओं की रामनवमी एवं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से मिलता जुलता है । इस पर्व को न केवल भारतीय ईसाई, अपितु विश्व के प्रत्येक कोने में बसे ईसाई पूरे हर्षोल्लास से मनाते हैं ।

क्रिसमस मनाने की तिथि एवं कारण:

क्रिसमस का पर्व ईसामसीह के जन्म दिवस के रूप में प्रतिवर्ष 25 दिसम्बर को पूरे विश्व में बड़ी खुशी व जोश के साथ मनाया जाता है । क्रिसमस को ‘बड़ा दिन’ भी कहते हैं क्योंकि भूगोल की दृष्टि से यह दिन वर्ष भर का सबसे बड़ा दिन होता है ।

यह दिन सभी को महात्मा ईसा मसीह के जीवन से बलिदान तथा सहिष्णुता की भावना ग्रहण करने की प्रेरणा देता है । आज से सैकड़ों सालों पूर्व ईसा मसीह का जन्म 25 दिसम्बर की रात को बारह बजे वेथलेहम शहर में एक गौशाला में हुआ था ।

उनकी माता का नाम ‘मरियम’ था तथा आपके पिता जोसफ जाति के यहूदी थे । आपकी माँ दाऊद वंश की थी । आपकी माँ ने आपको एक साधारण कपड़े में लपेटकर धरती पर लिटा दिया था । जन्म के समय ईसा का नाम ‘एमानुएल’ रखा गया था, जिसका अर्थ ‘मुक्ति प्रदान करने वाला’ होता है ।

ईसा मसीह के जन्म की खबर सुदूर पूर्व में बसने वाले तीन धार्मिक पुरुषों को दैवीय प्रेरणा से मिली । कहते हैं कि आकाश में एक जगमगाता तारा उगा और ये तीनों धार्मिक पुरुष उस तारेक्रा अनुकरण करते हुए उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ यीशु (ईसा) ने जन्म लिया था ।

उन लोगों ने उस आलौकिक बालक को देखकर उसके चरणों में सिर झुका दिया । तभी से 25 दिसम्बर को ईसा के जन्म दिवसु को ‘बड़ा दिन’ के रूप में मनाया जाने लगा है । आज भी श्रद्धालु 25 दिसम्बर को ईसा मसीह के पुनर्जन्म की कामना करते हैं तथा उनकी याद में विभिन्न प्रार्थनाएँ तथा मूक भावनाएँ प्रस्तुत करते हैं ।

ईसा का जीवन-चरित्र:

ईसा मसीह सत्य, अहिंसा तथा मानवता के सच्चे संस्थापक थे । वे सादा जीवन तथा उच्च विचार के प्रतीकात्मक तथा संस्थापक थे । ईसा मसीह ने भेड़ बकरियों को चराते हुए अपने समय के अंधविश्वासों तथा रुढियों के प्रति विरोधी स्वर को फूँक दिया था, इसीलिए उनकी जीवन-दिशाओं से क्षुब्ध होकर कुछ लोगों ने इसका कड़ा विरोध भी किया ।

उनके विरोधी अधिक होने के कारण उन्हें प्रसिद्धि मिलने में अधिक समय नहीं लगा । ईसा के विचारों को सुन यहूदी लोग घबरा उठे । यहूदी अज्ञानी होने के साथ-साथ अत्याचारी भी थे । वे एक ओर तो ईसा को मूर्ख कहते थे तथा दूसरी ओर उनकी लोकप्रियता से जलते भी थे ।

उन्होंने ईसा का कड़ा विरोध करना प्रारम्भ कर दिया । यहूदियों ने तो ईसा मसीह को जान से मार डालने तक की योजना बनानी शुरू कर दी थी । जब ईसा मसीह को यहूदियों की योजनाओं के बारे में पता चला तो वे यहूदियों से कहा करते थे- ”तुम मुझे मार डालोगे तो मैं तीसरे दिन ही जी उठूँगा ।” प्रधान न्यायकर्त्ता विलातस ने शुक्रवार के दिन ईसा को भूली पर लटकाने का आदेश दे दिया, इसलिए शुक्रवार को ईसाई लोग ‘गुड फ्राइडे’ कहते हैं ।

क्रिसमस मनाने की बिधि:

क्रिसमस परघरों एवं गिरिजाघरों में सफाई-पुताई आदि की जाती है । फूलो बैनरो तथा लकड़ी व धातु से बने हुए ‘क्रॉसों’ को सजाया जाता है । ‘जीसस क्राइस्ट’ एवं ‘मदर मैरी’ की प्रतिमाओं को मोमबत्तियों एवं फूलों से सजाया जाता है ।

सभी ईसाई बच्चे-बूढे, स्त्रियाँ, धनी व निर्धन इस त्योहार को समान खुशी व उल्लास से मनाते हैं । बाजारों दुकानों, गिरिजाघरों सभी की शोभा देखते ही बनती है । इस दिन लोग सुबह सवेरे नहा धोकर नए कपड़े पहनते हैं । सभी एक दूसरे को ग्रीटिंग कार्ड, तथा उपहार आदि देते हैं तथा ‘क्रिसमस डे’ की बधाई भी देते हैं ।’

लोग गिरिजाघरों में जाकर प्रार्थना करते हैं तथा ईसा की प्रतिमा के समक्ष मोमबत्ती जलाते हैं । लोग एक दूसरे के घर मिठाईयाँ ले जाते हैं तथा सायंकाल को ‘बड़ा दिन’ के उपलक्ष में प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है, जिसमें सभी सम्बन्धी तथा मित्रगण भी हिस्सा लेते हैं ।

मध्य-रात्रि से लेकर दूसरे दिन सायंकाल तक लोग राग-रंग में डूबे हुए उत्सव मनाते हैं । संगीत, नृत्य आदि की हर ओर धूम होती है । सभी बड़े दिन के गीत गाते हैं । बच्चे इस दिन सान्ताक्लाज की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करते हैं क्योंकि वह बच्चों के लिए तरह-तरह के खिलौने, उपहार तथा टॉफियाँ आदि लेकर आते हैं ।

क्रिसमस मनाने के लिए घर के किसी मुख्य भाग में क्रिसमस वृक्ष का निर्माण भी किया जाता है । उस वृक्ष को चमकीले रंग-बिरंगे कागजों, खिलौनों, सुनहरे तारो, गुब्बारों, घंटियों, फलों, फूलों, मेवो व मिठाईयों आदि से सुसज्जित किया जाता है । इस वृक्ष के चारों ओर ईसाई लोग एकत्रित होकर ईसा मसीह की प्रार्थना करते हैं तथा गीत गाकर सभी के सुख एवं समृद्धि की कामना करते हैं ।

उपसंहार:

इस दिन की ईसाई लोगों द्वारा बड़ी उत्सुकतापूर्ण प्रतीक्षा की जाती है । इस संसार में महाप्रभु ईसा मसीह के जन्मदिन को बड़ी पवित्रता तथा आस्थापूर्वक मनाया जाता है । पैगम्बर ईसा के स्तीब पर लटकाए जाने के बाद पुनर्जीवित हो उठने से ईसाईयों को जो प्रसन्नता हुई, उसी कारण से इन दिन को बड़ा दिन’ कहा जाने लगा ।

यह पर्व हमें दीन-दुखियों से प्रेम करने, उनकी सेवा करने, उन्हें दान देने की शिक्षा देता है । ईसा ने अपना पूरा जीवन मानव उद्धार में लगा दिया था । हर वर्ष उनका जन्म दिबस भी हमें उन्हीं के बताए सत्य, अहिंसा निष्ठा, दयाभाव आदि रास्तों पर चलने की प्रेरणा देता है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 5

राष्ट्रीय भाषा-हिन्दी पर निबन्ध | Essay on Hindi : The National Language in Hindi

प्रस्तावना:

जिस प्रकार एक मनुष्य दूसरे से भिन्न होता है, एक समाज दूसरे समाज से भिन्न होता है एक देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी प्रकार हर राष्ट्र की भाषा दूसरे राष्ट्र की भाषा से भिन्न होती है ।

भारत वर्ष की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी है तथा इसके महत्त्व को समझते हुए इसको विकसित करना हम सभी भारतीयों का धर्म भी है तथा कर्त्तव्य भी है । हिन्दी साहित्य को समृद्ध करना हिन्दी साहित्यकारों का दायित्व है तथा दैनिक जीवन में इसका प्रयोग करना हमारा उत्तरदायित्व है ।

स्वन्त्रता प्राप्ति से पूर्व हिन्दी का स्वरूप:

15 अगस्त, 1947 से पूर्व हमारा देश अंग्रेजो का गुलाम था इसलिए हमारे देश में उन्हीं के रीति-रिवाज, सभ्यता तथा संस्कृति को प्राथमिकता दी जाती थी । राज्य के समस्त कार्य अंग्रेजी भाषा में ही किए जाते थे । हर तरफ अंग्रेजी का बोलवाला था ।

हिन्दी में लिखे गए प्रार्थना-पत्रों तक को फाड़कर रद्‌दी की टोकरी में फेंक दिया जाता था । मजबूरीवश भारतीयों को मन मारकर अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी बोलना तथा लिखना पड़ता था । कुछ भारतीय ऐसे भी थे जो अंग्रेजी बोलने-लिखने में अपना गौरव समझते थे ।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हिन्दी का स्वरूप:

15 अगस्त, 1947 को हम भारतवासियों के भाग्य ने करवट पलटी और हम अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो गए । जब देश का सविधान बनने लगा तो यह विचार किया गया कि देश की राष्ट्रभाषा कौन सी हो, अनेक पहलूजो पर विचार करने के पश्चात् राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दईत् को स्वीकार किया गया ।

आज हमारे देश में सौ से भी अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं जिनमे हिन्दी का स्थान सर्वोपरि है तथा उर्दू मराठी, पंजाबी, बंगाली, तेलगू, तमिल आदि अन्य भाषाओं का स्थान हिन्दी के बाद आता है ।

हिन्दी भाषा के गुण:

हिन्दी भाषा को ऐसे ही राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया गया वरन् अनेक तर्क इसके पक्ष में प्रस्तुत किए गए-सर्वप्रथम तो यह एक भारतीय भाषा है दूसरी बात यह कि यह बोलने तथा लिखने में बहुत सरल है इसलिए सबसे अधिक भारतीय हिन्दी-भाषी है ।

तीसरी मुख्य बात यह है कि चाहे हिन्दी बोलने वाले लोग कम है लेकिन समझने वाले सबसे ज्यादा हैं । हिन्दी की लिपि, जो कि देवनागिरी’ है, बहुत ही वैज्ञानिक तथा सुबोध है जिसे जैसे बोला जाता है, वैसे ही लिखा भी जाता है ।

इसकी मुख्य विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा शैक्षणिक सभी प्रकार के कार्य व्यवहारों के संचालन की पूर्ण क्षमता है । हिन्दी की उन्नति की शर्त-हिन्दी भाषा की उन्नति तभी सम्भव है जब हिन्दी की मौलिकता को बनाए रखा जाए । हिन्दी के विकास के लिए हमें सरकार, साहित्यकारों, जनता तथा हिन्दी प्रेमियों के सहयोग की अति आवश्यकता है ।

हिन्दी की प्रगति तभी सम्भव है जब हिन्दी के साहित्यकार तथा हिन्दी-प्रेमी इसके प्रति सेवा तथा निष्ठा की भावना रखें । वे गर्व से हिन्दी बोलें न कि अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करें । इसके लिए हिन्दी साहित्य का सशक्त होना आवश्यक है ।

हिन्दी की उन्नति के लिए यह भी आवश्यक है कि हिन्दी में हो रहे अव्यवहारिक तथा गलत प्रयोग पर अंकुश लगाया जाए । अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी ज्ञाताओं को भी हिन्दी-शब्दकोश में नए-नए शब्दों का समन्वय करना चाहिए, जिससे लोगों की रुचि बनी रहे । हिन्दी भाषा के माध्यम से अपनी आजीविका कमाने वाले हिन्दी अध्यापको, प्राध्यापको, अधिकारियों, लेखकों तथा सम्पादकों को हिन्दी के विकास में अपना यथासंभव योगदान देना चाहिए ।

हिन्दी भाषा के विकास के दूसरे उपाय:

हिन्दी भाषा के विकास के लिए हमें हर सम्भव प्रयत्न करने होंगे । सर्वप्रथम अहिन्दी-भाषी प्रान्तों से पत्र-व्यवहार हिन्दी-भाषा में ही हो । ऐसे प्रान्तों तथा विश्व के राष्ट्रों में महत्त्वपूर्ण तथा ज्ञानवर्धक हिन्दी भाषी पुस्तकें तथा पत्र-पत्रिकाएँ मुफ्त उपलब्ध करायी जानी चाहिए ।

सबसे अधिक अवहेलना हमारी राष्ट्रीय भाषा की दक्षिण भारत में होती है । दक्षिण भारतीय लोग हिन्दी को ‘राष्ट्र भाषा’ के रूप में स्वीकार नहीं करते । वे सोचते हें कि उन पर यह भाषा थोपी जा रही है । इस भ्रान्ति को दूर करने के लिए हिन्दी के ज्ञाताओं तथा पत्रकारों को अहिन्दी भाषियों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए ।

यदि ऐसा हो जाता है तो हिन्दी पूरे राष्ट्र की भाषा बन जाएगी । दूसरे सरकारी दफ्तरों तथा व्यक्तिगत दफ्तरों में भी समुर्ण कार्य हिन्दी भाषा मे ही होना चाहिए । विभाग, संस्थान तथा अधिकारियों के नामों की सूची हिन्दी में होनी चाहिए ।

उपसंहार:

हिन्दी भाषा को विकसित करने के लिए अनेक नेताओं ने भारत के बाहर जाकर हिन्दी में भाषणदिए तथा हिन्दी में ही वार्तालाप किया । लेकिन सभी नेता ऐसा नहीं सोचते, वे तो हिन्दी में बोलना, लिखना अपनी शान के खिलाफ मानते हैं ।

यह सब देखकर हमें बहुत दुख होता है कि राष्ट्रभाषा के होते हुए भी हम विदेशी भाषा को अधिक महत्त्व दे रहे हें । भारतीय होने के नाते हमारा यह कर्त्तव्य है राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी’ को सच्चे हृदय से अपनाएँ, तभी निश्चय ही हिन्दी का सर्वागीण विकास होगा तथा हम गर्व से कह सकेंगे कि स्म भारतीयों की राष्ट्रीय भाषा ‘हिन्दी’ है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 6

हिब्दी काव्य में प्रकृति चित्रण पर निबन्ध | Essay on Nature’s Depiction in Hindi Poetry in Hindi

प्रस्तावना:

प्रकृति शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘स्वभाव’ । किसी पदार्थ या प्राणी का वह विशिष्ट भौतिक सारभूत तथा सहज एवं स्वभाविक गुण या तत्त्व जो उसके स्वरूप के मूल में होता है तथा जिसमें कभी कोई भी परिवर्तन अथवा विकार नहीं होता ।

उदाहरण के तौर पर, प्रत्येक वस्तु अथवा प्राणी का जन्म और मृत्यु प्रकृति का स्रई अंग हैं । अधिकतर दार्शनिक प्रकृति को ही सारी सृष्टि का एकमात्र उपादान कारण मानते हैं अर्थात् ”यह समूर्ण दृश्य जगत् जिसमें मनुष्य, प्रभु-भली, पेड़गैथे आदि अपने मौलिक अथवा स्वभाविक रूप से दिखाई देते है” प्रकृति ही है ।

प्रकृति जीवनयापन का वह सरल तथा सहज रूप है जिस पर आधुनिक सभ्यता का प्रभाव नहीं पड़ता । प्रकृति के इस अनूठे योगदान के कारण ही हिन्दी काव्य में कवियों ने प्रकृतिऊ का पूर्ण चित्रण किया है ।

काव्य प्रकृति का सही अर्थ:

काव्य की दृष्टि से प्रकृति को अकृत्रिम वातावरण कहा जा सकता है । प्रकृति ईश्वर की क्रिया का र्छ कारण है । अत: प्रकृति तथा मनुष्य का बहुत निकट सम्बन्ध है । मनुष्य को प्रकृति से अलग करना नामुमकिन है । आज विज्ञान का विकास हो रहा है किन्तु प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में विज्ञान भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है ।

वन्य पशु-पक्षी, जीव-जन्तु आज भी प्रकृति की गोद में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं । मानव तो आदिकाल से ही प्रकृति से जुड़ा रहा है । आज का सभ्य मानव बड़े-बड़े बंगलों में रह रहा है किन्तु ये भी तो प्रकृति के बिना नहीं बनाए जा सकते ।

भारतवर्ष की प्राकृतिक सुन्दरता ही ऐसी है जो कवियों को अपनी ओर बरबस ही खींच लेती है । इसके उत्तर में हिमालय है । विशाल नदियाँ घने बन, गहरे सागर तथा बड़ी-बड़ी झील तथा मरुस्थल भी भारत जैसे विश्व के किसी भी देश में नहीं हैं ।

भारत भूमि की प्राकृतिक छटा अवर्णनीय है । बर्फीली चोटियों, कल-कल करते झरने एवं नदियाँ, सूर्य की चमचमाती किरणे प्रात: एवं सायं सहसा किसके मन को आकर्षित नहीं करती । जयशंकर प्रसाद ने भी भारत की प्राकृतिक छटा का वर्णन इस प्रकार किया है:

”हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार । उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार । जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक । व्यभक्ता पुंज हुआ नष्ट, अखिल संस्कृति हो उठी अश्येम ।”

हिन्दी साहित्य तथा काव्य में प्रकृति-चित्रण:

अलग-अलग साहित्यकामें ने अपने साहित्य में प्रकृति को विभिन्न रूपों में दर्शाया है । महाकवि कालिदास का ‘मेघदूत’ पूर्णतया प्रकृति पर आधारित काव्य है । कालिदास के पक्ष को सांत्वना देने वाला एकमात्र मेघ ही है उससे अच्छा कोई दूसरा दूत हो नहीं सकता । श्रीराम भगवान प्रकृति के माध्यम से ही 14 वर्षों तक वनवास झेल पाए थे । वे तो सीता हरण के पश्चात् अपनी पत्नी का पता प्रकृति से ही श्ले थे-

‘हे खग मृग मघुर कर श्रेणी, तुम देखी सीता मृग नैनी ।’

इसी प्रकार कालिदास की शकुन्तला की ही भांति सीता की सखी प्रकृति से अच्छी और कोई हो ही नहीं सकती । प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण आदिकाल से ही कवि अपने काव्य में करते आए हैं । चन्द्र वरपाई एक विद्यापति थे । उनके काव्य-अध्ययन से पता चलता है कि आदिकाल के कवि भी प्रकृति से प्रभावित रहे हैं । उन्होंने प्रकृति को उपमा, उद्दीपन एवं मानवीकरणस्म में चित्रित किया है ।

भक्तिकालीन कवियों ने भी प्रकृति का अपने काव्य में उचितु चित्रण किया है । कबीर का रहस्यवाद तो पूर्णतया प्रकृति पर ही निर्भर है- सम्पूर्ण जगत् तथा ब्रह्मा के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने ऊमलिकि का सहारा लिया- काहे री नलिनी तूँ कुमहिलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी । ठीक इसी प्रकार सूरदाह जी का वियोग बर्णन भी प्रकृति के माध्यम से समूर्ण हुआ है:

”मधुबन तुम कट राहत हरे, देखियत कालिन्दी अतिकसि ।”

रीतिकालीन कवियों ने भी प्रकृति चित्रण में कोई कमी नहीं छोड़ी है । प्रसिद्ध रीतिकाल कवि बिहारी का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है:

”साधन कुंज छाया सुबक-मिल मन्द समीर । मन है जात अजौ बही, अहि जमुना के तीर ।”

बिहारी ने तो प्रकृति चित्रण का अरब रूप ही प्रस्तुत किया है:

“सोहत आठेपित पट, स्याम सलौने गात । मनौ नीलमनी सैल पर, आतपु परयौ प्रभात ।”

प्रकृति के प्रति लगाव आधुनिक कवियों में भी कम नहीं है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के युग में प्रकृति के आलम्बन, उद्दीपन एदै उपमा रूप के दर्शन होते हैं । हरिऔध अयोध्यासिंह उपाध्याय एवं मैथिलीशरण गुप्त के प्रकृति चित्रण अवर्णनीय है ।

‘प्रिय प्रवास’ में कवि ‘हरीऔध’ ने प्रकृति के विभिन्न चित्र अंकित किए हैं जैसे-

”दिवस का अवसान समीप्य गगन मन कुछ लोहित हो चला । तरूशिखा पर भी अब रखती । कमलिनी-कुंज वल्लभ की प्रभा ।

प्रकृति के ही कवि सुमित्रानन्दन पन्त का तो पूरा काव्य ही प्रकृति के रंग में रंगा है:

”प्रथम रश्मि का आना रंगिणी, तूने कैसे पहिचाना । कहाँ-कहाँ है बाल बिहांगीनी, पाया तूँ ने यह गाना ।”

कुछ कवियों ने प्रकृति को अलंकार से सुसज्जित कर प्रस्तुत किया है । रामकुमार वर्मा के काव्य का एक उदाहरण यह है:

”इस सोते संसार बीच, जगकर-सजकर स्वनी वाले । कहाँ बेचने ले जाती हो, ये गजरे तारो वाले ।”

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की मीठी वाणी से निकला प्रकृति का एक रूपक चित्रण देखिए:

”आए मस्त बसन्त मखमल के झूले पड़े हाथी सा टीला बैठे किशूक छगलगा बाँध पाग पीला ।

उपसंहार:

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रकृति के महत्त्व को किसी भी युग में कम नहीं का जा सकता । मनुष्य प्रकृति से न तो अलग हुआ है और न ही हो सकता है । प्रकृति के दिस मनुष्य तो जीवित ही नही रह सकता ।


Hindi Nibandh (Essay) # 7

जीवन तथा साहित्य पर निबन्ध | Essay on Life and Literature OR Literature is the Mirror of the Society in Hindi

प्रस्तावना:

साहित्य तथा समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । साहित्य एक ऐसी लिखित सामग्री है जिसके शब्द तथा अर्थ में लोकहित की भावना सन्निहित रहती है । साहित्यकार समाज का सबसे चेतन, जागरूक एवं उत्तरदायी प्राणी होता है ।

वह समाज से अलग इसलिए शई नहीं हो सकता क्योंकि उसकी अनुभूतियों का सम्पूर्ण विषय समाज, उसकी समस्याएँ एवं मानव जीवन के सुख-दुख होते हैं । वह साहित्य सही अर्थके में साहित्य नहीं है जिस ग्रन्ध में समष्टिगत हित और चिन्तन न से । प्रत्येक युग का श्रेष्ठ साहित्य अपने युग के प्रगतिशील विचारों द्वारा किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित होता है ।

साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध:

साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध शरीर एवं आत्मा जैसा है । समाज यदि शरीर है तो साहित्य उसमें निवास करने वाली आत्मा । दोनों का अस्तित्व एक दूसरे से ही है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा उसकी शिक्षा-दीक्षा एवं पालन-पोषण तत्कालीन सामाजिक परिवेश में ही होते हें । साहित्य पर भी समाज का पूरा प्रभाव पड़ता है । प्रत्येक साहित्यकार अपने समय की परिस्थितियों के अनुक्त ही अपनी रचना लिखता है ।

अत: समाज की धार्मिकता, भौतिकता, विलासिता, नैतिकता सभी का प्रभाव उस समय के साहित्य में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । साहित्यकार तो सबसे अधिक भावुक होता है फिर वह अपने समाज के सुखत्युएंखों से अछूता कैसे रह सकता है ? साहित्य में तो वह ताकत होती है जो तोप या तलबार में भी नहीं होती ।

जो काम बग नहीं कर सख्ती वह काम ‘कलम’ से पूरा हो जाता है । इतिहास इस बात का गवाह है कि अनेक देशों की क्रान्तियाँ वहाँ के प्रतिभा के धनी साहित्यकारों की ही देन है । वास्तव में साहित्य समाज को एवं समाज साहित्य को अवश्य प्रभावित करते हैं ।

साहित्य का महत्त्व:

जिस प्रकार पेट की क्षुधा केवल भोजन से ही शान्त हो सकती है । संस्कृत के आचार्यों ने साहित्य की इस प्रकार दी है:

“सहितस्य भाव साहित्य”, अर्थात् साथ रहने का भाव ही ‘साहित्य’ है । किसी भी समय के साहित्य को पढ़कर उस समय के इतिहास, रहन-सहन, रीति-रिवाजों, संस्कृति, सभ्यता तथा परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त होता है ।

साहित्य के द्वारा ही हम किसी भी युग की भाषा, वेशभूषा, धार्मिक ग्रन्यों इत्यादि के बारे में जान सकते हें । सैकड़ों वर्ष पहले हमारा भारतवर्ष शिक्षा तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर था तथा उस समय नारी का समाज में बहुत आदर होता था, यह बात हमें तत्कालीन साहित्य द्वारा ही ज्ञात होती है ।

इस प्रकार जिस देश के साहित्य तथा साहित्यकार जितने अधिक जागरूक होते हैं वह देश उतना ही धनी तथासमृढ़ होता है । वह देश गौरवशाली है जिसकी अनगिनत सालों पहले की परम्पराओं के बारे में जाना जा सकता है ।

साहित्य ही समाज का दर्पण:

जिस प्रकार दर्पण के समक्ष रखी हुई वस्तु का रूप स्पष्ट अंकित हो जाता है उसी प्रकार किसी भी देश का साहित्य दर्पण की ही भाँति उस देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक परिस्थितियों को प्रतिबिम्बित करता है । सामाजिक विपदाओं, गुण-दोषों, कुरीतियों, अंधविश्वासों, सामाजिक मान्यताओं का चित्रण करना ही साहित्य का मुख्य उद्देश्य होता है ।

साहित्य ही समाज की प्रतिध्वनि प्रतिबिम्ब एवं प्रतिच्छाया होती है । साहित्य समाज का न केवल कुशल चित्र है अपितु समाज के प्रति उसका दायित्व भी है । वह सामाजिक दायित्वों का बहन करता हुआ उनको अपेक्षित रूप से निभाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

किस प्रकार रीतिकालीन विलासी जीवन में हम अपनी विकृतावस्था से अज्ञानान्धकार में भटक रहे थे यह बात हमारे साहित्य में ही चित्रित हैं । तभी तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कथन ‘साहित्य ही समाज का दर्पण है’ अक्षरक्ष: सत्य है ।

साहित्य पर समाज का प्रभाव:

साहित्य तथा समाज एक दूसरे से अमिन्न रूप से जुड़े हैं तभी तो समाज के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य में भी परिवर्तन आता है । जिस काल से जिस जाति की जैसी सामाजिक परिस्थिति होगी उसका साहित्य भी वैसा ही होगा ।

आदिकाल अर्थात् वीर गाथा काल एक ‘युद्धकाल’ के रूप में जाना जाता है । तभी तो इस युग का साहित्य भी युद्ध एवं आश्रयदाताओं की प्रशंसा से परिपूर्ण है । उस काल के साहित्य में वीर एवं शृंगार रस का पूर्ण समावेश है । इसके पश्चात् मध्यकाल में भक्ति का सामंजस्य रहा ।

तभी तो इस काल के कवियों ने भी भक्तिकाव्य की रचना करते हुए अपने आराध्य की भरपूर प्रशंसा की । इसी युग में सूर, कबीर, तुलसी, जायसी जैसे कवियों ने जन्म लेकर भारत भूमि को धन्य किया । मध्यकालीन सामन्तीय समाज रीतिकालीन कवियों को भी सामने ले आया, जिसमें कृष्ण तथा राधा का पवित्र रूप भी बिगड़ गया । भक्ति रस में शृंगार रस आ गया ।

इसके बाद युग बदला तथा हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ गया । देश तथा देशवासी तो जैसे निराशा के अंधकार में खोने लगे । ऐसी विषम परिस्थितियों में भी साहित्यकारों ने: अपना उत्तरदायित्व निभाया ।

जयशंकर प्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी प्रेमचन्द्र जैसे जागरूक साहित्यकारों ने अपनी ज्ञानवर्धक रचनाओं के माध्यम से निराश भारतीयों में एक नए उत्साह, विश्वास तथा नव-चेतना को जागृत करते हुए समय की पुकार सुनी अर्थात् भारतवासियों को अपने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए मर-मिटने का सन्देश दिया ।

सोए हुए निराश भारतीयों को उठकर देश के लिए न्यौछावर होने की प्रेरणा दी । माखनलाल चतुर्वेदी की ये पक्तियाँ देशवासियों को मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने की प्रेरणा देती है:

”मुझे तोड लेना बनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक । मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावे वीर अनेक ।” अर्थात् फूल के माध्यम से देशभक्ति की भावना को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया है ।

उपसंहार:

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि साहित्य तथा समाज पूर्णतया एक दूसरे के पूरक हैं । रामायण, महाभारत, गबन, गोदान, कामायनी, साकेत आदि और भी अनेक ग्रन्ध इसके ज्वलन्त उदाहरण है । साहित्यकार अपने युग का चित्रकार होता है ।

अन्तर केवल इतना सा है कि चित्रकार अपनी कूंची से अपनी भावनाएँ कैनवस पर उतारता है, वही साहित्यकार अपनी कलम से अपने तत्कालीन समाज की परिस्थितियों अपनी भावनाओं के साथ जोड़कर कागज पर उकेर देता है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 8

रूपए की आत्मक्या पर निबन्ध | Essay on Autobiography of a Rupee in Hindi

प्रस्तावना:

‘बाप बड़ा न मैया, सबसे बड़ा रुपैया’ वाली कहावत तो हर किसी ने अवश्य ही सुनी होगी । यह रुपैया मैं ‘रूपय’ ही हूँ जिसके लिए लोग अपनी जान तक देने को तैयार रहते हैं । में ही सारे विश्व का सरताज हूँ तथा मैं ही सारे विश्व को अपनी अँगुली के इशारे पर नचाने की ताकत रखता हूँ ।

मेरा शरीर चाँद की चाँदनी की भाति सफ्ते तथा उसकी किरणों की भांति चमकदार है । मेरा मुँह गोल है अर्थात् मैं इतना आकर्षक हूँ कि सभी मेरे दीवाने हैं । मुझे तो सभी इतना स्नेह करते हैं की वे मेरी खातिर अप्तस में लड़ भी पड़ते हैं । भाई-भाई का दुश्मन बन जाता है तथा मेरे कारण ही मित्र दूसरे मित्र का शत्रु बन जाता है ।

जम्म परिचय एवं प्रारम्भिक जीवन:

मेरा जन्म उत्तरी अमेरिका के मैक्सिको प्रदेश में आज से सदियों पहले चाँदी के रूप में हुआ था । वर्तमान समय में मेरा जन्म टकसाल में हुआ था । उन्हीं लोगभ्येंइ मेरा नामकरण क्रपया रख दिया । वहाँ विभिन्न धातुओं को गलाकर मेरे सुन्दर रूप का निर्माण किया गया ।

आज से वर्ष र्झ तक मैं शुद्ध चाँदी क्य ही होता था परन्तु आज मैं कई धातुओं का मिश्रण बन चुका हूँ । मैं धरती माता की सन्तान हूँ । वही मेरी माता और पिता दोनों हैं । सालों मैं अपनी धरती माँ की गोद में सुख-चैन की नींद सोता रहा हूँ । वह दुनिया अन्धकारपूर्ण तो जरूर थी लेकिन स्वर्ग से भी अधिक शान्तिपूर्ण थी । अपना धर तो सभी को प्यारा ही होता है ।

धरती के गर्भ से टकसाल तक की यात्रा:

मैं तो माँ की गोद में आराम से सो रहा था परन्तु निर्दयी श्रमिकों ने मेरी माँ के शरीर को क्षत-विक्षत कर मुझे उससे छीन लिया । मैं अपनी माँ से बिछुड़कर दुखी था, परन्तु वे खुश थे और कह रहे थे कि आखिर चाँदी मिल ही गयी ।

बाहर लाते ही मुझे जलती हुई अग्नि की भयानक लपटों में ऐसे डाल दिया गया जैसे कि वे मुझसे मृणा करते हों । सीता माँ की भांति मेरी भी अग्निपरीक्षा हुई, किन्तु मैं क्ष्म होकर बाहर निकला और ठण्ड पाकर मैं जम गया । अब तो मेरा रूप एकदम निखर गया था । तब लोगों ने मेरा नाम ‘रजत’ रखा ।

इसके पश्चात मुझे पानी के जहाज द्वारा यात्रा करने क्त अवसर मिला । मैं एक देश से दूसरे देश होता हुआ किसी तरह भारत पहुँचा । जलयात्रा के दौसन मुझे बल अच्छा लगा । मेरे चारों ओर समुद्र तथा ऊपर नीला आसमान था । भारतीय बन्दरगाह पहुँचने पर कुलियों ने मुझे गोदियों में भरकर उतारा ।

वहाँ फिर से मुझे कोलकाला स्थित टकसाल में भेज दिया गया । वहाँ फिर से मुझे अग्नि के हवाले कर दिया गया । भट्‌टी की गर्मी के कारण मैं न जाने कब बेहोश हो गया । होश तो मुझे तब आया जब मैंने स्वयं को गोलाकार रूप में पाया ।

मेरे एक ओर ‘एक रुपया’ लिखा था तथा दूसरी ओर ‘शेर का चिहन’ अकित था । मेरी आकृति पूर्णिमा के चाँद की भांति गोल थी । जिस ओर मेरा नाम लिखा था उसमें मेरा जन्म सत्र भी लिखा गया जिससे लोगों को मेरी आयु का पता चलता रहे । मेरे जैसे मेरे हजारों साथी थे परन्तु हम सभी साथी बिछुड़ गए । टकसाल के पडितों ने हमारा कम ‘रुपया’ रख दिया और तभी सें मैं ‘पुरुषबाचक’ बन गया ।

मेरी जीवन यात्रा का आरम्भ:

अब मेरी जीवन यात्रा प्रारम्भ हुई । अपने अनगिनत सेवकों खरा मुझे लोहे के सन्दूकों में बंद कर बैंक लाया गया, जिसका नाम रिजर्ब बैंक ऑफ इण्डिया था । वहाँ कुछ दिन तक छोटे-बड़े कोषाध्यक्षों के साथ मैं उछलता-झूलता जीवन का मधुर आनन्द लेने लगा ।

लेकिन कुछ समय बाद इतना शोरगुल सुन मैं परेशान रहने लगा । किसी तरह मैं एक सेठ के हाथ लग गया । अब मुझे कुछ स्वतन्त्रता तथा शान्ति प्राप्त हुई । इसके बाद मेरा भ्रमणकारी जीवन प्रारम्भ हो गया । वर्षो तक घूम फिर कर मैं अनेक लोगों के पास जाता रहा ।

मैं जिसके पास भी जाता, सभी मेरा पूरा ध्यान रखते, यहाँ तक कि यदि गलती से मैं र्फ्या पर गिर जाता तो मुझे उठाकर माथे से लगाते । इसके पश्चात् मैंने बाजार में वस्तुएँ खरीदने का कार्य प्रारम्भ कर दिया । मेरे माध्यम से लोग तरह-तरह के सामान खरीदते । मैं किसी को सोना खरीदवाता, तो किसी को चाँदी ।

कोई मेरे माध्यम से मीठा खरीदकर खाता तो स्त्रियाँ साड़ियों खरीदकर प्रसन्न हो शती । मैं लोगों के ज्ञान अर्जन के लिए पुस्तकें भी खसईदवाता । बच्चे खिलौने खरीदते तो खे लाक्यिाँ भी मेरे माध्यम से खतईद पाते । मुझे भी घूमने-फिरने में आनन्द आता । दूसरों के चेहरे पर प्रसन्नता देकर मैं भी खुश हो जाता ।

लेकिन जो लोग मुझे दबाकर रखते हैं मुझे उनसे घृणा होती है और मैं सोचता हूँ कि मैं किसी ऐसे व्यक्ति के पास चला जाऊँ जो मुझे स्वतन्त्र रखे । मैंने अपने सैकड़ों साथियों के साथ देशाटन भी किया है तथा अनेक धार्मिक स्थानोंपर भीमैं जाचुका हूँ । अयोध्या, उब्जैन काशी, हरिद्वार, इलाहाबाद तथा और भी न खाने कितने तीर्थस्थानों पर मैंने यात्राएँ की हैं ।

मैं कभी धनी की कीमती तिजोरी में रहा तो तभी निर्धन की झोपड़ी में । अरर्थात् जितना में घूमता हूँ शायद ही कोई घूम पाता ह्मे । मॅन अपने गोल स्म को सार्थक कर दिया है क्योंकि मैं भी गोल पहिए की भांति घूमता ही रहता हूँ ।

उपसंहार:

जब तक मेरा रूप मनमोह रहता है मेरी चमक-दमक बनी रहती है सभी मेस सम्मान करते हैं । मैं पूजा की थाली में भी स्थान पाता हूँ कन्याओं की माँग में सिन्दूर भी मेरे द्वारा ही भरा जाता है । महानतम ऋषि मुनि भी मेरे बिना नहीं रह सकते ।

विश्व के अनेक युद्ध मेरे कारण ही लड़े जाते हैं । परन्तु मानव बहुत स्वार्थी होता है । जब घूमघूम कर मैं थक जाता हूँ तथा मेरी चमक कम हो जाती है तथा मेरे शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं तो बे मुझे ‘खोटा’ कहकर छोड़ देते हैं और मेरी कीमत भी कम समझने लगते हैं । परन्तु जब मैं नवीन शरीर धारण कर लेता हूँ तो बे पुन: मुझसे प्यार करने लगते हैं ।


Hindi Nibandh (Essay) # 9

पुस्तक की आत्मकथा पर निबन्ध | Essay on Autobiography of a Book in Hindi

प्रस्तावना:

मैं पुस्तक, छोटे-बड़ो, बच्चों-बूढ़ों सभी की सच्ची साथिन हूँ । मैं ज्ञान तथा मनोरंजन दोनों का स्रोत हूँ । विद्यार्थियों के लिए मैं विद्या अध्ययन करने का साधन हूँ छात्रों के लिए परीक्षा में सफलता प्रदान करने वाली कुंजी हूँ हिन्दुओं की गीता तथा रामायण भी मैं ही हूँ, मुस्लिमों की कुरान, सिखों का ‘गुरुग्रन्ध साहिब’ तथा ईसाइयों की चाइबिल भी मैं ही हूँ ।

जीवन परिचय एवं नामकरण संस्कार:

मेरी माँ ‘देवी सरस्वती’ है । मेरा सूष्टा लेखन, कहानीकार, कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार आदि हैं । मेरे इन सृष्टाओं ने मुझे अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया है । पुस्तकालयों में मुझे सजा-सँवारकर रखा जाता है तथा मेरी साफ-सफाई पर भी पूरा ध्यान दिया जाता है ।

मानव की अनेक जातियों की भाँति मेरी भी कई जातियाँ हैं । इन जातियों में उपन्यास, कविता, निबन्ध, एकाँकी, नाटक, आलोचना आदि कुछ प्रमुख नाम हैं । समाज शास्त्र, विज्ञान, अर्थशास्त्र, साहित्य शास्त्र आदि विषयों के रूप में भी मेरी पहचान है इसीलिए मेरे नाम भी अनगिनत हैं ।

मेरा आदिकालीन स्वरूप:

आदिकाल में मेरा सूष्टा विशाल पत्थरों के ऊपर चित्रों एवं तस्वीरों के रूप में मेरा निर्माण करता था, आज भी मेरे इस रूप को शिलाओं अथवा कन्दराओं में देखा जा सकता है । लेखनकाल के विकास के साथ-साथ मेरा स्वरूप भी बदला तथा मुझे भोजपत्रों पर लिखा जाने लगा ।

यदि कोई मेरा वह रूप देखना चाहे तो अजायबधर में देख सकता है । किन्तु कागज के आविष्कार के साथ मेरे स्वरूप में बहुत परिवर्तन आया । छपे हुए रूप में मेरा निर्माण सर्वप्रथम चीन देश में हुआ था ।

मेस आधुनिक रूप:

कागज के निर्माण एवं मुद्रण कला की प्रगति ने तो जैसे मेरी कायाकल्प ही कर डाली । आज तो मैं नए-नए रंग-बिरंगे रूपों में आपके समक्ष प्रस्तुत होती हूँ । मेरी सुरक्षा के लिए मेरे ऊपर मजबूत कवर चढ़ाया जाता है ।

इस वर्तमान स्वरूप को पाने के लिए मुझे अनेक दुखों एवं काँटों की चुभन सहन करनी पड़ी है । मेरा सूष्टा पहले अपने बिचारों तथा भावों को कलम द्वारा कागज पर लिपिबद्ध करता है, जिसे पाण्डुलिरि कहते हैं । फिर मेरे इस रूप को टाइप कर कागज पर बड़ी-बड़ी मशीनों द्वारा छाप दिया जाता है ।

छपने के पश्चात् मैं दफ्तरी के हाथों में जाती हूँ वहाँ वह क्रमबद्ध कर मुझे सिल देता है तथा मैं पुस्तक रूप में प्रस्तुत हो जाती हूँ । फिर मैं पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों की शोभा बढ़ाती हूँ तथा वही से अपने चाहने वाले पाठक के हाथों में पहुँचकर उसकी ज्ञान पिपासा शान्त करती हूँ ।

मेरी उपयोगिता:

मानव जीवन में मेरी बहुत उपयोगिता है । मुझे पढ़कर लोग ज्ञान तथा मनोरंजन दोनों प्राप्त कर सकते हैं । मेरा उपयोग प्रत्येक क्षेत्र में किया जाता है । मैं थके हारे, चिन्तातुर व्यक्ति को शान्ति प्रदान करने की क्षमता रखती हूँ तो बच्चों का ज्ञानवर्धन भी करती हूँ ।

मैं मानव की सारी थकान व चिन्ता को दूर कर उसे सुख व शान्ति प्रदान करती हूँ । मेरे द्वारा समय का भी सही सदुपयोग हो जाता है । एक विद्वान ने मेरे बारे में ठीक ही कहा है, ”पुस्तकें अवकाश के समय मनोविनोद का सर्वोत्तम साधन है । रोचक पुस्तकों के माध्यम से मानव जीवन की समूर्ण चिन्ताओं का समाधान सम्भव है ।

मैं मानव की सच्ची तथा सर्वात्तम मित्र हूँ । चाहे मानव मेरा साथ छोड़ दे परन्तु मैं उसका साथ कभी नहीं छोड़ती । मेरे अध्ययन में जिसका मन लग जाता है, उसका कल्याण तो सुनिश्चित ही है । मेरे द्वारा ही मानव समस्त विषयों नए-नए शोधों आदि की जानकारी प्राप्त कर पाता है । जो मुझे पड़ता है वह ज्ञानवान, दयावान, निष्ठावान तथा सुभाषी बन जाता है । सभी लोग ऐसे व्यक्ति का सम्मान करते हैं । मैं मनुष्य का ज्ञानवर्धन करने के साथ-साथ उसे प्रेरणा एवं प्रोत्साहन भी प्रदान करती हूँ ।

मेरी उपयोगिता को किसी ने ठीक ही वर्णित किया है- “पुस्तक भी क्या दुर्लभ वस्तु है । यह न टूटती है, न सूखती है, न पुरानी होती है, न कभी साथ छोड़ती है ।’ यह परी वाली कहानियों की उस मिठाई जैसी हे जिसे जितना खाओगे, उतनी ही मीठी लगेगी ।”

उपसंहार:

आज के भौतिकवादी युग में मैं ज्ञान तथा मनोरंजन की सच्ची जा स्रोत हूँ । मुझे पड़े बिना किसी का भी भला नहीं हो सकता । जो मुझे सम्मान देते हैं तथा मेरी अच्छी तरह देखभाल करते हैं, मैं उनके पास ज्यादा समय तक रहती हूँ ।

मेरा दुरुपयोग करने वाले:

व्यक्ति निरक्षर रहकर दर-दर की ठोकरें खाते हैं तथा समाज में कोई भी उनका सम्मान नहीं करता । अत: मुझ सरस्वती देवी की पुत्री का सम्मान करने में ही सब का हित निहित है । एक विचारक ने तो यहाँ तक कहा है प्रा दिन मित्रों की गोष्ठी में समय बरबाद करने के स्थान पर केवल एक मण्टा प्रतिदिन मेरा अध्ययन कर लेना अधिक लाभदायक है । तिलक, गाँधी जी, नेहरू जी, गोखले आदि महापुरुषों का साथ मैंने कारावास में भी दिया था ।

उनका कारावास का अधिकतर समय मेरे अध्ययन तथा लेखन कार्य में ही व्यतीत होता था । उन्होंने मेरा बहुत सम्मान किया इसीलिए उन्हें पूरे विश्व ने बहुत सम्मान दिया । आप सब भी मेरा सम्मान एवं अध्ययन अवश्य किया करो ।


Hindi Nibandh (Essay) # 10

नदी की आत्मकथा पर निबन्ध | Essay on Autobiography of a River in Hindi

प्रस्तावना:

मेरा नाम भदीं है तथा छोटे रूप में मेरा नाम ‘नहर’ है । जब ऊँचे पर्वत-शिखरों पर स्थित बर्फ के ढेर पिघलने लगते हैं, तो मैं जन्म लेती हूँ ।

पर्वत मृखलाओं की गोद में उछलती, कूदती, मचलती हुई मैं धरती पर अवतरित होती हूँ । उस समय मुझ में बाल्यावस्था की चंचलता तथा स्वछंद मन का उत्साह होता है । कविवर गोपालसिंह पेपाली ने मेरे उसी स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है हिमगिरि से निकल-निकल,

यह विमल दूध – सा हिम का जल, कर – कर निनाद कलकल छलछल, बहता आता नीचे पल – पल, तन का चंचल, मन का विवहल ।

जीवन परिचय:

मेरे पिता श्री समुद्र है तो पर्वत मृखला मेरी माँ है । अपनी माँ के चल से निकलकर कहीं धारा के रूप में तो कहीं झरने के रूप में नाचती-गाती आगे बढ़ती हुई मैं धरती के वक्षस्थल का प्रक्षालन करती हूँ सिंचन करती हूँ तथा अन्त में अपने पिता की गोद, विशाल जलनिधि में शरण लेती हूँ ।

समय-समय पर मेरे नए नाम पड़ गए हैं जैसे नदी, नहर, तटिनी, सरिता, प्रवाहिनी, क्षिप्रा इत्यादि । कुछ लोगों ने मेरी विशालता देखकर मुझे ‘दरिया’ कहा तो कुछ ने सर-सर की ध्वनि करते हुए बहने के कारण मुझे- ‘सरिता’ भी कहा ।

कुछ ने मेरे तेज प्रवाह के कारण मुझे प्रवाहिनी भी कहा । दो तटों के मध्य बहने के कारण मेरा नाम ‘तटिनी’ पड़ा तथा तेज गति से बहने के कारण मैं ‘क्षिप्रा’ कहलाने लगी । इस प्रकार सबने अपनी रुचि के अनुरूप मेरा नामकरण किया ।

उद्गम एवं बिकास:

मेरा उद्‌गम बर्फानी पर्वतों की कोख से होता है । जब तक मैं वहाँ रहती हूँ तब तक शान्त रहती हूँ परन्तु कुछ समय पश्चात् शिला खण्ड के अन्तराल से उत्पन्न मधुर संगीत करती हुई आगे बढ़ती जाती हूँ । उस समय मेरी तीब्रता के समक्ष रास्ते के पत्थर, वनस्पतियाँ आदि भी मुझे रोक नहीं पाते हैं ।

कितनी ही बार मेरे पथ में बड़े-बड़े शिलाखण्ड आकर बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं, परन्तु मेरी निष्ठा के समक्ष वे भी झुक जाते हैं । तत्पश्चात् पहाड़ों व जंगलों को पार करती हुई मैं मैदानी क्षेत्रों में पहुँच जाती हूँ । मैं जहाँ-जहाँ से भी गुजरती हूँ वहाँ किनारों को ‘तट’ का नाम दे दिया जाता है ।

जहाँ पहुँच कर मेरा विस्तार होने लगता है, वहाँ मेरे किनारों पर पक्के तट तथा बाँध बना दिए जाते हैं । मैदानी इलाकों में मेरे तटों के आस-पास घाट तथा छोटी बड़ी अनेक बस्तियाँ स्थापित हो जाती हैं फिर शनै: शनै: वहाँ गाँव व नगर भी बस जाते हैं ।

अयोध्या, काशी, मधुरा, गया, अवन्तिका, तथा द्वारिका आदि असंख्य धार्मिक एवं पवित्र स्थान मेरे ही तट पर बसे हुए हैं । वर्तमान भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू इन्दिरा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गाँधी, चरण सिंह आदि की समाधियाँ भी मेरे तट पर ही विद्यमान हैं ।

लोग तो मुझे ‘मोक्ष दायिनी’ मानकर मेरी आरती भी उतारते हैं मेरी उपयोगिता मैं सदा प्राणिमात्र की सेवा में तत्पर रहती हूँ क्योंकि जन-कल्याण की कामना ही मेरा लक्ष्य है । मैं भूमि-सिंचन करती हूँ । मेरे अन्दर से नहरें निकलकर तथा बाँध बनाकर खेतों की सिंचाई की जाती है तथा सिंचाई से भूमि उपजाऊ होकर अन्न पैदा करती है ।

अनाज से पूरी दुनिया के प्राणी अपनी सुधा-पूर्ति करते हैं । इसके अतिरिक्त प्राणियों की प्यास भी बुझाती हूँ । लोग मेरे जल में स्नान करके स्वयं को पवित्र व आनन्दित महसूस करते हैं । इससे उनका स्वास्थ्यवर्धन भी होता है क्योंकि मेरा जल अमृत होता है ।

लोगों मत है कि यदि मरते व्यक्ति के मुँह मे मेरे जल की कुछ बूंदइ डाल दी जाए तो वह आसानी से मुक्ति पा लेता है । लोग मेरे अन्दर स्नान कर स्वयं को पुण्य का भागीदार मानते हैं तभी तो कार्तिक पूर्णिमा, अमावस्या, पूर्णमासी, कुम्भ-मान, गंगा-दशहरा तथा अन्य पर्वों पर मेरे दर्शन, मान तथा मेरे जल से सूर्य-वन्दन करते हैं ।

हिन्दू धर्म में मुझे बहुत उच्च स्थान प्राप्त है । इसके अतिरिक्त मुझे विधुत पैदा करने के लिए भी प्रयोग में लाया जाता है । मेरी जलधारा को ऊँचे झरने के रूप में परिवर्तित करके वियुत गैदा की जाती है । मैं परिवहन के लिए भी बहुत उपयोगी हूँ ।

प्राचीन काल में तो समूर्ण व्यापार ही मेरे द्वारा होता था किन्तु आज जब यातायात के नवीन साधनों का आविष्कार हो चुका है, तब भी मैं जन-सेवा कर रही हूँ । आज भी मेरे तट पर बसे नगर व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं ।

इसके अतिरिक्त मैं लोगों का मनोरंजन भी करती हूँ क्योंकि लोग मेरी जलधारा में तैरने व नौका-बिहार का आनन्द लेते हैं । मैं तो मनुष्य के मरने के पश्चात् भी उसकी अस्थियों को अपने भीतर समा लेती हूँ । मेरा कष्टकारी रूप-मेरा मनमोहिनी वाला रूप तो सभी पसन्द करते है किन्तु जब मैं अशान्त हो जाती हूँ तो सभी परेशान हो जाते हैं ।

अतिवृष्टि के कारण बरसाती नाले जब मुझमें समाते हैं तो मैं बाढ़ का रूप धारण कर चारों ओर विनाश लीला पैदा कर देती हूँ । जब-जब बरसाती नाले मेरे शुद्ध एवं पवित्र जल में मिलकर उसको अपवित्र करने लगते हैं तो मेरा वक्षस्थल फट जाता है ।

उस समय मेरा क्रोध सीतवें आसमान पर पहुँच जाता है और मैं धन, जन, सम्पत्ति, वनस्पति, पशु-पक्षी सभी का विनाश कर बैठती हूँ । परन्तु जैसे ही मेरा क्रोध शान्त होता है मैं पुन: अपने कल्याणकारी रूप में लौट आती हूँ ।

सागर से मिलन:

मैं निरन्तर बहती ही रहती हूँ अर्थात् मेरी जिद के आगे कोई भी नहीं टिक पाता । अनेक बाधाओं का पूरी हिम्मत से सामना करते हुए तथा एक लम्बी तथा दुर्गम यात्रा करते हुए मैं थक गई हूँ इसलिए अपने पिता सागर की गोद में सो जाना चाहती हूँ ।

मैंने पर्वतों से लेकर सागर तक की लम्बी यात्रा के दौरान अनेक घटनाएँ होते देखी हैं । अपने ऊपर बने पुलों पर से सैनिकों की टोलियो राजनेताओं, डाकुओं, राजा-महाराजाओं, संन्यासियों आदि को गुजरते हुए देखा है ।

उपसंहार:

मैं तो धैर्य और सन्तोष की साक्षात् प्रतिमा हूँ । मैं कभी भी अपने उद्देश्य से पथभ्रष्ट नहीं होती । आज लोग मुझे गन्दा कर रहे है मेरे अन्दर कहा-करकट डाल देते हैं, परन्तु मैं शान्त रहकर सब कुछ सहती रहती हूँ । ही, कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है इसलिए मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरी रक्षा करें, मैं भी सदा आपकी सेवा में तत्पर रहूँगी ।


Hindi Nibandh (Essay) # 11

विश्व पुस्तक मेला पर निबन्ध | Essay on World Book Fair in Hindi

प्रस्तावना:

देश की राजधानी दिल्ली में समय-समय पर अनेक मेलों का आयोजन होता रहता है जैसे बैशाखी मेला, रामनबमी मेला, दीपावली मेला, गुरुपर्व मेला इत्यादि । ये सब धार्मिक मेलों के अन्तर्गत आते हैं ।

दिल्ली का प्रगति मैदान धार्मिक मेलों के अतिरिक्त अन्य मेलों का आयोजन भी करता रहता है जैसे-अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला, कार मेला, कृषि मेला, हस्तशिल्प मेला, खिलौना मेला तथा पुस्तक मेला इत्यादि ।

प्रगति मैदान में पुस्तक मेला अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बित्त्व पुस्तक मेला के नाम से प्रतिवर्ष फरवरी के महीने में आयोजित किया जाता है । इस मेले में देश-विदेश से अनेक प्रकाशक आकर अपनी नवीनतम प्रकाशित पुस्तकों को प्रदर्शित करते हैं ।

अर्थ:

पुस्तक मेले का सामान्य अर्थ होता है-पुस्तकों का मेला अर्थात् ऐसा मेला जिसमें अनेक विषयों जैसे विज्ञान, साहित्य, हिन्दी, अंग्रेजी, गणित तथा अन्य सभी विषयों की पुस्तकें व्यक्ति को अपनी रुचिनुसार मिल जाती हैं क्योंकि इसमें न केवल हिन्दी, अपितु अन्य भाषाओं की पुस्तकों का भी नवीनतम एवं विशाल भंडार होता है ।

विश्व पुस्तक मेला:

पुस्तक मेले आज हर शहर में आयोजित होते रहते हैं क्योकि आज का नागरिक जागरुक हो चुका है तथा वह स्कूली शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् भी अपना ज्ञानवर्धन करना चाहता है ।

कुछ पुस्तक मेले छोटे स्तर पर आयोजित किए जाते हैं परन्तु दिल्ली में लगने वाला विस्थ पुस्तक मेला बहुत बड़े स्तर पर आयोजित किया जाता है । यह प्राय: बड़े हॉलों में लगता है । इसमें कुछ हॉल भारतीय भाषाओं के प्रकाशकों के होते हैं तथा कुछ अंग्रेजी व अन्य विदेशी भाषाओं के स्टील होते हैं ।

इस मेले में सरकारी, गैर-सरकारी प्रकाशक बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं । इसके अतिरिक्त देशी एवं विदेशी प्रकाशक भी अपने प्रकाशनों का प्रदर्शन करते हैं । यहाँ बच्चों की पुस्तकें, धार्मिक पुस्तकें, साहित्यिक पुस्तकें आदि बड़ी मात्रा में उपलब्ध रहती हैं ।

यह मेला-ज्ञान-विझान में रुचि रखने वालों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र होता है । इस मेले का आयोजन NBT (नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया) द्वारा किया जाता है ।

पुस्तक मेले का आंखो देखा हाल:

इस बर्ष यह पुस्तक मेला 2 फरवरी से 10 फरवरी तक चला था । मैं अपने कुछ मित्रों के साथ रविवार को विश्व पुस्तक मेला देखने प्रगति मैदान पहुँच गया । हम सभी बस द्वारा लगभग 10-30 बजे वहाँ पहुँचे । मेला खुलने का समय 11 बजे है इसलिए हमने शीघ्र ही अन्दर प्रवेश कर लिया ।

प्रवेश एकदम निशुल्क था अत: अन्दर जाने में हमें कोई परेशानी नहीं हुई । सर्वप्रथम हम विदेशी पुस्तकों के हॉल में घूमने गए क्योंकि मेले में आधे से भी अधिक पुस्तके बिदेशी प्रकाशकों जैसे ऑक्सफोर्ड, फिलिप्स आदि प्रकाशकों से सखन्धित थी ।

अधिकतर पुस्तके अंग्रेजी भाषा में थी । अंग्रेजी के अतिरिक्त फ्रेंच, जर्मन, रूसी, चीनी, जापानी आदि अनेक भाषाओं की पुस्तकों का क्षई अच्छा संग्रह था । सभी स्टीलों पर बहुत भीड़ थी क्योंकि इन प्रकाशकों की पुस्तकों का पेपर, कवर, छपाई, जिल्द: इत्यादि बहुत खूबसूरत तथा टिकाऊ भी लग रहे थे । अंग्रेजी पुस्तकों का मूल्य भी कम ही था ।

इन पुस्तकों में नवीनतम जानकारियाँ भी थी इसलिए हर कोई इनमें दिलचस्पी ले रहा था । हमने भी यहाँ से अंग्रेजी सीखने वाली एक पुस्तक खरीदी तथा मेरे मित्र ने दो उपन्यास खरीदे । वहाँ से निकलकर हम भारतीय भाषाओं वाले हॉल में गए । इस ओर सभी प्रकाशकों ने अपनी पुस्तकों को सुन्दर तरीके से सजा रखा था । पुस्तकों के शीर्षक तथा रंग-बिरंगे कवर देखकर लोग उन्हें देखते और फिर खरीद लेते । वहाँ पर सभी प्रकाशक अपने सूची पत्र मुफ्त में बाँट रहे थे ।

क्यों की किताबों वाली स्टीलों पर भी काफी भीड़ जमा थी क्योंकि बच्चे भी चित्रकारी, कहानियों, कविताओं इत्यादि की छ पुस्तकें खसईद रहे थे । सर्वाधिक भीड़ ‘स्वइलन वुक ट्रस्ट’ नामक प्रकाशक की स्टॉल पर थी क्योकि वहाँ पर प्रत्येक पुस्तक के साथ एक सुन्दर सा पैन मुफ्त में मिल रहा था ।

अनेक प्रकाशकों ने मेले में अपने गषमान्य लेखकों को भी आमन्त्रित किया हुआ था । वे लेखक अपनी हस्ताक्षरयुक्त पुस्तकें पाठकों में वितरित कर रहे थे । अनेक प्रकाशकों ने लेखकों व पाठकों के लिए चाय, कॉफी पानी तथा हल्के नाश्ते का भी प्रबन्ध किया हुआ था ।

इस प्रकार पुस्तक मेले द्वारा सभी प्रकाशक, पाठक तथा लेखक एक दूसरे के सम्पर्क में आ रहे थे । मेले के मुख्य आकर्षण-इस वर्ष के पुस्तक मेले का मुख्य आकर्षण था बाल साहित्य । इस मेले में कहानी से लेकर उपन्यास, नाटक, एकांकी इत्यादि सभी विषयों एब विधाओं की पुस्तकें नवीनतम जानकारी के साथ उपलब्ध थी ।

इस मेले में सभी प्रकाशक विशेष छूट भी दे रहे थे जिसका लाभ सभी उठा रहे थे । कोई दो पुस्तकों के साथ एक कहानी की किताब मुफ्त दे रहा था, तो कोई प्रकाशक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए पन्द्रह से बीस प्रतिशत की छूट दे रहा था ।

यहाँ कई मनोरंजक कार्यक्रम भी रखे गए थे तथा महात्मा गाँधी तथा पं. जवाहरलाल नेहरू पर विस्तुत मल्टीमीडिया सी.डी. हॉल नं. 4 के स्टील पर 2 से 10 पर उपलब्ध हो रही थी । इसके अतिरिक्त अन्य महापुरुषों पर भी बड़ी मात्रा में साहित्य उपलब्ध हो रहा था ।

बिस्व पुस्तक मेलों में हिन्दी पुस्तकों क्तई स्थिति:

दुर्भाग्यवश इस मेले में जितनी भीड़ अंग्रेजी विषयों की पुस्तकों की स्टीलों पर थी, उतनी हिन्दी पुस्तकों की दुकानों पर नहीं थी । कारण साफ है आज हिन्दी का गिरता स्तर तथा हिन्दी विषय पर उचित मात्रा में पुस्तकें उपलब्ध न होना ।

विज्ञान फैशन, राजनीति, सौन्दर्य आदि विषयों पर भी अधिकतर पुस्तकें अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध थी, जबकि हिन्दी प्रकाशक इस ओर ध्यान ही नहीं देते हैं । हिन्दी में आधुनिक विषयों की पुस्तकों का पर्याप्त अभाव है । मजबूरीवश हिन्दी भाषी प्रेमियों को भी नवीनतम जानकारी प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है ।

उपसंहार:

पुस्तक मेले में पुस्तकों की आवक्यकता उपयोग, उन्हें पाठकों तक पहुँचाने, छपाई आदि को सुधारने तथा लोगों में अध्ययन प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए अनेक गोष्ठियाँ भी आयोजित की जाती है । इन गोष्ठियों के माध्यम से विद्वान लेखक तथा चिन्तक अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत करते हैं तथा श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध कराने के लिए उपाय सुझाते हैं ।

निःसन्देह पुस्तक मेला विद्वानों, प्रकाशकों तथा पाठकों की त्रिवेणी का संगम स्थल होता है । अन्त में पूरा पुस्तक मेला घूमकर, खरीददारी करके तथा खा-पीकर हम रात आठ बजे घर लौट आए । हम अपने साथ ज्ञान रूपी प्रकाश भी लेकर आए थे ।


Hindi Nibandh (Essay) # 12

दिल्ली का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला पर निबन्ध | Essay on International Trade Fair at Delhi in Hindi

भूमिका:

‘प्रदर्शनी’ अर्थात् ‘अनेक दर्शनीय वस्तुओं का प्रदर्शन’ । प्राचीन शब्द पैठ अथवा मेले का आधुनिक नाम ही ‘प्रदर्शनी’ है । प्रदर्शनी कई प्रकार की होती है जैसे-कृषि पदार्थो की प्रदर्शनी, डाक टिकटों की प्रदर्शनी, कारों की प्रदर्शनी, कपड़ों की प्रदर्शनी, खिलौनों की प्रदर्शनी इत्यादि ।

इनमें से कुछ प्रदशनियाँ जैसे डाक टिकटों, फूलों, जूतों आदि की प्रदर्र्शानेयी छोटे स्तर पर आयोजित की जाती है परन्तु कुछ प्रदर्शनियाँ जैसे कृषि व औद्योगिक वस्तुओं, वस्त्रों, किताबों आदि की प्रदर्शनियाँ बड़े स्तर पर आयोजित होती है, जिन्हें बड़े खुले मैदानों में आयोजित किया जाता है ।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला:

नई दिल्ली में बड़े स्तर की प्रदर्शनियाँ अथवा मेले आयोजित होते रहते हैं । नई दिल्ली के ही प्रगतिमैदान में हर वर्ष 14 नवम्बर से 28 नवम्बर तक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेले का आयोजन किया जाता है । प्रगति मैदान में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाला यह सबसे विशाल मेला होता है ।

इसका आयोजन ‘भारतीय व्यापार मेला प्राधिकरण’ द्वारा किया जाता है । विभिन्न समाचार पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं तथा टेलीविजन के माध्यम में इसका विज्ञापन दिया जाता है । जगह-जगह बड़े-बड़े बैनर भी लगाए जाते हैं साथ ही कई स्थानों पर टिकट भी मिलते हैं ।

इसका प्रचार करने के लिए आकाश में एक विशाल गैस का गुब्बारा उड़ता रहता है जिस पर ‘विश्व व्यापार मेला’ लिखा होता है । इस प्रदर्शनी की मुख्य विशेषता यह होती है कि इसमें वे सभी वस्तुएँ प्रदर्शित होती हैं जिनका प्रयोग सभी देशों द्वारा समान रूप से किया जाता है जैसे-कपड़े, मशीने, जूते, जेवर, कास्मैटिक्स, घरेलू साज-सज्जा का सामान, पुस्तकें, खिलौने, टी.वी., रेडियो, इत्यादि ।

यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि इस मेले में सभी कुछ मिलता है । इन वस्तुओं का निर्माण छोटे व बड़े उद्योगपतियों द्वारा होता है । इसीलिए इन उद्योगों से सम्बन्धित प्रदर्शनी ‘औद्योगिक प्रदर्शनी’ कहलाती है ।

व्यापार मेले का आँखों देखा वर्णन:

इस वर्ष मैं अपने मित्रों के साथ दिल्ली में आयोजित ‘औद्योगिक प्रदर्शनी’ देखने गया था । हम लोग सुबह 11 बजे बस द्वारा प्रगति मैदान पहुँच गए । प्रदर्शनी में प्रवेश करने के लिए हमने टिकट पहले ही खरीद रखे थे । प्रवेश के लिए कई द्वार थे तथा हम गेट नं. 2 से अन्दर चले गए ।

अन्दर घुसकर तो हम सभी दंग रह गए क्योंकि यह मेला बहुत विशाल जगह में आयोजित किया गया था । हमें दूर से अनेक मोटे-मोटे नाम लिखे दिखाई दिए-दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, केरल, जापान, अमेरिका, पाकिस्तान, जन्द्व ब काश्मीर इत्यादि ।

विभिन्न मण्डपों का वर्णन-हम इन रंगीनियों में खोए हुए आगे बढ़ रहे थे कि अचानक जर्मनी का मण्डप दिखाई पड़ा । हम इसके अन्दर चले गए । वहाँ स्टीम प्रैस तथा बुनाई की मशीन मुझे बहुत अच्छी लगी । एक लड़की बुनाई की मशीन से नए-नए डिजाइन की बुनाई करके दर्शकों को मोहित कर रही थी ।

इस मण्डप से निकलकर हम हरियाणा के मण्डप में चले गए । हरियाणा का मण्डप कई मंजिला बना हुआ था । उसमें कृषि से सम्बन्धित अनेक वस्तुएँ थीं इसलिए वहाँ किसान लोग अधिक आए हुए थे । वहाँ हमें एटलल कम्पनी की साइकिल बहुत अच्छी लगी ।

वहाँ पर हमने चाट तथा गोले गप्पे भी खाए । तत्पश्चात् हम पंजाब के मण्डप में गए वहाँ पर तो माहौल बहुत रंगीन था । कई नर्तक नर्तकियों झगड़ा कर रहे थे । सरसों के साग तथा मक्की की रोटी की सुगन्ध दूर तक फैल रही थी । हमने वहाँ से अचार-मुरब्बे खरीदे और बाहर आ गए ।

वहाँ से निकलकर हम पाकिस्तान के मण्डप में गए जहाँ से मैंने अपनी दीदी के लिए पाकिस्तानी कढ़ाई का सूट खरीदा । वहाँ पर ‘सफेद संगमरमर’ का बहुत सामान मिल रहा था । हम बस देखकर खुश हो गए क्योंकि वह सामान बहुत कीमती था इसलिए हमने कुछ नहीं खरीदा ।

इसके बाद हम बारी-बारी से केरल, दिल्ली, यूपी, हिमाचल आदि के मण्डपों में गए तथा मेरे मित्रों ने खरीदारी भी की । सामने एक मण्डप दिखाई दे रहा था जिसमें दूर से ही घूमने वाले खिलौने दिखाई पड़ रहे थे । मैंने अपने छोटे भाई के लिए वहाँ से कई खिलौने खरीदे ।

सभी खिलौने नवीन किस्म के थे । जापान की गुड़िया तो अनेक मुद्राओं देखने को मिली । इस मण्डप में बच्चों की बहुत भीड़ थी तथा खाने-पीने का भी बहुत किस्म का सामान उपलब्ध था । इस प्रदर्शनी में हमने फ्रांस, रूस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों की वस्तुएँ भी देखी । बीच-बीच में हम खाते-पीते रहे ।

तत्पश्चात् हम किताबों-वाले परिसर में पहुँच गए । यहाँ भारत के कोने-कोने से आए प्रकाशकों तथा अनेकों विदेशी प्रकाशकों ने पुस्तकें प्रदर्शित कर रखी थी । हम ऑटोमोबाइल के परिसर में भी गए जहाँ नई-नई गाड़ियों को देखकर हमारी आँखें खुली की खुली रह गई ।

मारूति, हौंडा, टाटा आदि कम्पनियों ने सुन्दर-सुन्दर लड़कियों को जानकारी देने के लिए नियुक्त किया हुआ था । हम सभी ने अपने परिवारजनों के लिए मी खरीदारी की । मैंने अपने लिए एक टी-शर्ट तथा एक नई किस्म का पैन खरीदा तथा अपने पापा के लिए एक कैलकुलेटर लिया ।

औद्योग्फ्रि प्रदर्शनियों की उपयोगिता:

अथक परिश्रम करने के पश्चात् व्यक्ति, व्यक्तिगत तथा सामाजिक रूप से विश्राम एवं मनोरंजन दोनों चाहता है । अपने पुराने मित्रों परिचितों आदि से मिलकर उसका मन हल्का हो जाता है । इन मेलों में वह अपने मित्रों के साथ कुछ समय व्यतीत कर पाता है ।

इसके अतिरिक्त आधुनिक मेलों ब प्रदर्शनियों में नवीनतम वस्तुओं का प्रदर्शन किया जाता है । चाहे हम बे सभी वस्तुएं न खरीद पाए, लेकिन हमारा ज्ञानवर्धन तो होता ही है । हमें नई-नई चीजों की जानकारी मिलती है । इन व्यापार मेलों के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ होती है क्योंकि इससे आयात-निर्यात में वृद्धि होती है ।

छोटे-बड़े उद्योग एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में बढ़िया किस्म का सामान प्रदर्शित करते हैं साथ ही ग्राहकों को एक ही छत के नीचे अपनी रुचि की वस्तु आसानी से उपलब्ध हो जाती है । अत: प्रत्येक देश और जाति में इन मेलों ब प्रदर्शनियों का धार्मिक, ऐतिहासिक व सामाजिक महत्व अवश्य होता है ।

उपसंहार:

श्री आरएन गौड़ ने इन प्रदर्शनियों तथा मेलों की उपयोगिता इस प्रकार स्पष्ट की है”:

”भारत की संस्कृति में सुंदर यदि मेलों का मेल न होता । तो निस्वय लई भार्स्त मानव जीवन भी खेल न होता ।।

अर्थात् ये मेले हर किसी के लिए आवशक है । इनसे मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्धन भी होता है । इन औद्योप्तीक प्रदर्शनियों द्वारा अनेक वस्तुओं का विज्ञापन होता है जिससे निर्यात व व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है ।

इन मेलों के माध्यम से अनेक राष्ट्र एक दूसरे के समीप आते हैं, जिनसे उनके मध्य परस्पर मैत्री भाव तथा सहयोग की भावना पैदा होती है । एक दूसरे की संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है । अत: इन मेलों का हमारे जीवन में अभूतपूर्व महत्त्व है ।

अचानक हमारी दृष्टि घड़ी पर गई तो देखा शाम के सात बज चुके थे । हम घूमते-धूमते थक भी चुके थे अत: वापसी के लिए हम मुख्य द्वार पर आ गए तथा बस पकड़कर घर वापस आ गए । घर में सभी को सामान दिखाया, खाना खाया और सो गया । रात भर मैं ‘ट्रेड फेयर के ही सपने देखता रहा ।


Hindi Nibandh (Essay) # 13

आध्रुनिक युग में खेलों का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Game in the Modern Age in Hindi

प्रस्तावना:

जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए, मनुष्य का शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास आवश्यक है । मानसिक विकास के लिए अध्ययन करना बहुत जरूरी है, बौद्धिक विकास के अभाव में मनुष्य पशु के समान मूढ़ हो जाता है तथा शारीरिक विकास के अभाव में मनुष्य का शरीर रोग-अस्त एवं शिथिल हो जाता है ।

हमारा शारीरिक विकास अच्छे खान-भान, उचित रहन-सहन तथा खेल-कूद पर ही निर्भर करता है । बिना खेलकूद के जीवन अधूरा रह जाता है क्योंकि कहा भी गया है, ”सारे दिन काम करना तथा खेलना नहीं, होशियार को भी मूर्ख बना सकता है । स्वस्थ शरीर में ही क्ते दिमाग निवास करता है ।

जब मस्तिष्क स्वस्य तथा विवेकपूर्ण होगा तो आत्मिक उन्नति स्वत: ही हो जाएगी ।” अत: जीवन में खेलों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व-हर व्यक्ति के जीवन में स्वास्थ्य का सबसे अधिक महत्त्व है । सेहत ही सबसे बड़ा धन है क्योंकि गया हुआ पैसा दोबारा कमाया जा सकता है, लेकिन यदि सेहत ही अच्छी नहीं होगी, तो फिर व्यक्ति पैसा कमाने योग्य भी नहीं रहेगा ।

स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति खई इस धरती के सब सुख भोग सकता है । स्वस्थ व्यक्ति में अदम्य साहस, उत्साह तथा धैर्य आ जाता है । स्वास्थ्य से आत्मविश्वास आता है तथा आत्मविस्वास से हृदय सदैव प्रफुल्लित रहता है । अच्छे स्वास्थ्य का जीवन में क्या महत्त्व है इसको ध्यान में रखते हुए खेलना-कूदना अति आवश्यक है ।

खेलों का जीवन के महत्त्व-खेलों से जीवन में अनेक उत्तम गुणों का विकास होता है । खेलों से हमारा शरीर चुस्त, तन्दुरुस्त तथा फुर्तीला होता है । शारीरिक क्षमताओं के विकास के लिए खेल-कूद अति आवश्यक है । सुडौल शरीर खेलों से ही बनता है ।

खेल कूद से हमारी कार्य क्षमता तो बढ़ती ही है साथ-साथ अनेक सामाजिक, मानसिक एवं राष्ट्रीय गुणों का भी विकास होता हैं । पारस्परिक सहयोग-भावना, मैत्री भाव, साहस, धैर्य कार्यक्षमता, कर्तव्यनिष्ठा, लगन, न्यायप्रियता, उत्साह, धैर्य स्वाभिमान आदि गुणों का विकास खेलों से ही होता है ।

कुशल नेतृत्व तथा अनुशासन जैसे राष्ट्रीय गुणों के निर्माण में भी खेलों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । अत: प्रत्येक बालक को शुरुआत से ही खेलों का महत्त्व समझना चाहिए ताकि आगे चलकर उसका जीवन स्वयं के लिए तथा समाज व देश सभी के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके ।

खेलों के प्रकार-खेल मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं । प्रथम प्रकार के खेल घर बैठे खेले जाते हैं जैसे-शतरंज, कैरम बोर्ड, ताश, चौपड, लूडो, सौंप-सीढ़ी इत्यादि । इन खेलों से शारीरिक विकास तो नहीं होता, परन्तु बौद्धिक विकास अवश्य होती है साथ ही मनोरंजन भी अवश्य होता है ।

ये खेल खाली समय व्यतीत करने का सबसे अच्छा साधन होते हैं । दूसरे प्रकार के खेल खुले मैदान में खेलेजाते हैं जैसे-बैडमिंटन, क्रिकेट, टेनिस, ष्ठबॉल, टेबल-टेनिस, बॉस्केट-बाल इत्यादि । इन खेलों से हमारा शारीरिक तथा मानसिक, दोनों प्रकार का विकास होता है ।

ये खेल मनोरंजन का भी सबसे उत्तम साधन है । इन खेलों के अतिरिक्त ऊँची-लम्बी कूद, रस्सी कूदना, तैराकी, घुड़सवारी, मुक्केबाजी, कुश्ती, लाठी चलाना आदि को भी खेलों क्तईर श्रेणी में गिना जा सकता है । आजकल इन खेलों का बहुत प्रचलन है ।

खेल-कूद के नियम-हर कार्य को करने के कुछ नियम होते हैं उसी प्रकार खेलों को खेलने के भी कुछ नियम होते हैं । यदि इन नियमों की उपेक्षा की जाए तो वे लाभ के स्थान पर हानि पहुँचाते हैं । भोजन खाने के तुरन्त बाद खेलना हानिकारक होता है, किन्तु खेलने के बाद हल्का जलपान अवश्य करना चाहिए ।

खेलों का चुनाव अपनी उम्र, इच्छा तथा सामर्थ्य के अनुसार ही करना स्वच्छ, ताजा तथा हल्का भोजन खाना चाहिए । दूध, दही, हरी सब्जियों तथा फलों का सेवन करना चाहिए । रोज सुबह मालिश करके स्नान करना चाहिए तथा कुछ देर ईश्वर का भी ध्यान करना चाहिए ।

खिलाड़ी को ‘सादा जीवन तथा उच्च बिचार’ वाला होना चाहिए । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलों का क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस, हाँकी आदि खेलों के अन्तर्राजीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय मैचों का अयोजन होता रहता है । इन से यह तथ्य सक्षम।ने आता है कि पूरा विश्व ही आज खेलों की अच्छा साधन बन चुके हैं ।

विजयी खिलाड़ियों को काफी अच्छा पैसा तथा उपहार आदि दिए जाते हैं जिससे खेलों का विकास होता है । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अनेक भारतीय खिलाड़ियों ने हमारे देश का नाम रोशन किया है । इन खिलाड़ियों में क्रिकेट के सचिन, सौरभ, महेन्द्र सिंह धोनी, कुंबले, लीनटेनिस में नन्दन बाल राधिका कृष्णन, बैंडनइमप्टन में सैयद मोदी, मधुमिता बिष्ट एथलेटिक्स में पीढी, ऊषा कुस्ती में दास सिंह, शतरंज में अनुपमा अभयंकर तथा बिस्वनायन आनंद निशानेबाजी में अभिनव बिंद्रा तथा टेनिस में सानिया मिर्जा आदि नाम मुख्य हैं ।

आदर्श खिलाड़ी के गुण-खेल खिलाड़ी की अपनी आत्मा होती है तथा खेल की भावना उसकी आत्मा का मृगार होती है । अच्छे खिलाड़ी में आपसी सहयोग, संगठन, अनुशासन एवं सहनशीलता कूट-कूटकर भरी होती है । वह संघर्षशील होता है तथा पराजय को भी हंसते-हसते स्वीकार कर लेता है । अच्छा खिलाड़ी तो पराजय से ही आगे बढ़ने की सीख लेता है । अच्छा खिलाड़ी मर्यादित रहकर अपने कर्तव्य का पालन करता है ।

उपसंहार:

खेलों से निःसन्देह मानव में उत्साह, धैर्य स्कूर्ति अनुशासन तथा संघर्ष की भावना पैदा होती है । खेलों से ही हमारा जीवन सम्पन्न तथा खुशहाल बनंता है । इसलिए हर व्यक्ति को खेलों को अपने जीवन का हिस्सा अवश्य बनाना चाहिए ।


Hindi Nibandh (Essay) # 14

पर्वतारोहण: एक दुस्साहसपूर्ण शौक पर निबन्ध | Essay on Mountaineering : An Hazardous Hobby in Hindi

प्रस्तावना:

मनुष्य तथा प्रकृति का सम्बन्ध एक दूसरे के साथ बहुत गहरा है । मनुष्य ने सदा प्रकृति के संसर्ग में ही आनन्द की प्राप्ति की है । प्रकृति का प्रत्येक सौन्दर्य चाहे वे हरे भरे उद्यान हो या रेतीले सुनसान रास्ते, मानव ने खुशी ही पायी है ।

इसीलिए प्रकृति तथा मानव का आपसी सम्बन्ध अथाह हे । अपने इसी प्रकृति सम्बन्ध के कारण मनुष्य पर्वतों से भी प्रेम करने लगा तथा पर्वतारोहण का शौकीन बन बैठा । परन्तु पर्वतारोहण कोई आम शौक नहीं है, अपितु एक दुस्साहसी तथा हिम्मतवाला मनुष्य ही पर्वतारोही बन सकता है साथ ही जिसे खतरों से खेलने में आनन्द आता हो, वही इस चुनौती को स्वीकार कर सकता है ।

पर्वतारोहण का अर्थ:

पर्वतों के शिखरों पर चढ़ना ही पर्वतारोहण कहलाता है । पर्वतारोहण का अर्थ मसूरी, दार्जिलिंग, शिमला यांकास्पीर की पक्की सड़कों पर चढ़ाई करना नहीं है, अपितु ऐसे पर्वतों पर चढ़ाई करना है जहाँ विधिवत मार्ग न होकर उँचे-ऊँचे पहाड़ मार्ग में रास्ता रोके खड़े हो ।

यदि पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ से ढकी हो तो पर्वतारोहण और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है । पर्वतारोहण का शौक बहुत दुर्गम एवं दुसाध्य है । कठिन एवं भयंकर मार्गो को पार कर सीधी ऊँचाई पर शिखर तक पहुँचना निःसन्देह जोखिम भरा कार्य है ।

पर्वतारोहण के लिए की जाने वाली तैयारियाँ:

पर्वतासेहण पर जाने से पहले मौसम की जानकारी अवश्य होनी चाहिए । पर्वतारोहण अकेले नहीं, अपितु पूरे समूह के साथ किया जाता है । समूह में एक भूगोलबेता भी होना चाहिए, जो पहाड़ पर चढ़ने का मार्ग-दर्शन कर सके ।

पर्वतों पर वायु का दबाव कम हो जाता है इसलिए साँस लेने में परेशानी होती है इसके लिए ऑक्सीजन गैस का सिलेंडर साथ में होना चाहिए । सन्देश भेजने के यन्त्र तथा भोजन रखने के डिब्बे, खाना बनाने के लिए चूल्हा तथा सभी बीमारियों से सम्बन्धित कुछ दवाईयाँ अवश्य होनी चाहिए ।

हवा, पानी तथा बर्फ से बचाव के लिए विशेष प्रकार के कपड़े तथा जूते होने चाहिए । रहने के लिए तम्बू तथा पहाड़ों के मानचित्र भी साथ में ले जाना न भूले । ऊपर चढ़ने के लिए रस्सी तथा खूटियों, बर्फ काटने की कुल्हाड़ी, फावडे आदि भी साथ में होने चाहिए ।

इस सारे सामान को ढोने के लिए गाडियाँ तथा प्रशिक्षित कुली भी चाहिए । यदि कैमरा, दूरबीन आदि साथ में हो तो भी अच्छा रहता है । कोई ऐसा व्यक्ति भी साथ में अवश्य होना चाहिए जिसे थोड़ी बहुत डॉक्टरी भी आती हो ।

विश्व-विख्यात पर्वतारोही:

विश्व भर में अनेक ऐसे साहसी पर्वतारोही हुए हैं, जिनकी वीरता की गाथाएँ आज भी सभी की जुबान पर हैं । इनमें अंग्रेज पर्यटक हाबर्ड बैरी, सर जॉर्ज एवरेस्ट, जनरल चूस, कप्तान हिलेरी, इर्विन ओब्र तथा मैतोतई आदि प्रमुख है ।

भारतीय पर्वतारोहियों में बचेन्द्रीपाल तथा शेरपा तेनसिंह प्रमुख हैं । अब तो जैसे पर्वतारोहण युवा वर्ग के लिए विशेष आकर्षण का विषय बन चुका है, तभी तो कितने ही युवा प्रतिवर्ष हिमालय की दुर्गम चोटियों पर पहुँच जाते हैं ।

अब तो युवतियाँ भी युवाओं की भाँति ही पर्वतारोहण करने लगी हैं । वे भी स्वयं को पुरुषों की ही भाँति निडर एवं साहसी साबित कर रही हैं ।

हिमालय की प्रमुख चोटियों पर विजय:

हिमालय की उच्चतम चोटी ‘एवरेस्ट’ पर अनेक बार विश्व के कुछ साहसी लोगों ने आरोहण करने का प्रयास किया है, किन्तु ये कई बार असफल ही हुए हैं । 29 मई, 1953 में कर्नल हंट के नेतृत्व में कर्नल हंट तथा शेरपा तेनसिंह ने ‘एबरेस्ट’ पर पहला कदम रखा था । ये दोनों बीस मिनट तक ‘एबरेस्ट शिखर’ पर रुके थे ।

नीलकंठ शिखर के आरोहण का प्रारम्भ ब्रिटिश पर्वतारोही श्री मीड ने सन् 1913 ई. में किया था । इसके बाद सन् 1937,1947 एवं 1951 में भी कुछ पर्वतारोहियों ने भगवान शिव के मस्तक को छूने का प्रयास किया था, किन्तु असफल रहे थे ।

पहला भारतीय पर्वतारोहण दल सन् 1959 ई. में एयर वायस मार्शल एस.एन. गोयल के नेतृत्व में नीलकंठ के शिखर पर चढ़ने के लिए निकला, दूसरा दल सन् 1961 ई. में गया, जिसका नेतृत्व युवा कप्तान नरेन्द्र कुमार ने किया था ।

यकायक बर्फ गिरने लगी, जिससे पूरे दल का साहस टूटने लगा किन्तु ओपी. शर्मा ने हिम्मत नहीं हारी तथा दो शेरपाओं के साथ करीब 440 फीट की चढ़ाई चढ गए । वहीं पहुँचकर सबसे पहले उन्होंने शिवजी की उपासना की ।

उसके बाद तो दुर्गम शिखरों पर विजय प्राप्त करने की होड़ सी लग गई । आज तो साहसी वीरों ने ‘कंचनजंगा’ पर भी विजय प्राप्त कर ली है ।

पर्वतारोहण के दौरान होने बाली कठिनाइयाँ:

अब तक पर्वतारोहण करते समय कितने ही वीर हिम-समाधि ले चुके है कितने ही व्यक्ति तो बर्फ की अधिकता के कारण मार्ग में ही गायब हो गए, कितनों को तूफानी-बर्फानी हवाएँ उड़ाकर मिट्टी में मिला गई । पर्वतारोहण कोई बच्चों का खेल नहीं है ।

पर्वतों में रास्ता खोजना, बर्फ काट-काट कर रास्ता बनाना, रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ना, बर्फीली हवाओं को सहना, ठण्ड में तम्बू में रहना, स्वयं भोजन बनाना, रात्रि में भयंकर अन्धकार को चुनौती रूप में लेना, अचानक तेज बारिश आ जाने पर अपनी तथा साथियों के सामान की रक्षा करना बहुत ही कठिन कार्य है ।

इन सबसे अधिक यदि कोई साथी बीमार हो जाए या फिर भावनात्मक रूप से कमजोर पड़ जाए तो उसे सम्भालना बहुत दूभर हो जाता है । पर्वतारोही तो अपनी जान हथेली पर लेकर चढ़ता है यदि उसे अपनी मंजिल मिल जाती हे तो वह उसकी किस्मत तथा हिम्मत का मीठा फल होता है ।

उपसंहार:

पर्वतारोहण के लिए विशेष प्रशिक्षण लेना होता है इसके अतिरिक्त मनुष्य को शारीरिक शक्ति के अतिरिक्त मानसिक रूप से भी दृढ़ इच्छाशक्ति वाला होना आवश्यक है क्योंकि जो खतरों से डर गया, वह पहले ही मर गया ।

इसके अतिरिक्त पर्वतारोहियों में त्याग, समर्पण तथा मैत्री भाव भी होना चाहिए जिससे रास्ते में वे एक-दूसरे की सहायता कर सकें । तभी तो ऐसा माना जाता है कि पर्वतारोहण का शौक एक ओर तो दुस्साहसपूर्ण कार्य है, वहीं दूसरी ओर यह बहुत मंहगा तथा सामूहिक एकता पर निर्भर शौक है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 15

नई शिक्षा प्रणाली पर निबन्ध | Essay on New Education Policy in Hindi

प्रस्तावना:

उचित शिक्षा ही किसी समाज अथवा राष्ट्र की जागृति का मूल आधार है । शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य नैतिक, मानसिक एवं शारीरिक सभी दृष्टियों से सुयोग्य, सदाचारी, स्वाबलम्बी तथा सुनागरिक बनाना है अर्थात् व्यक्ति का सर्वांगीण विकास शिक्षा द्वारा ही सम्भव है ।

शिक्षा के अभाव में मनुष्य के चरित्र का विकास असम्भव है । इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति महात्मा गाँधी ने कहा था, ”शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक अथवा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास से है । अत: शिक्षा एक ऐसा उपकरण है जिसके माध्यम से व्यक्ति समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य को समझता है तथा जिससे सामाजिक उत्थान एदं राष्ट्र निर्माण के कार्य सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित ढंग से किए जाते हैं ।”

प्राचीन कालीन शिक्षा-प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा का स्थान सर्वोपरि रहा है । उस समय शिक्षक ही राज्य एवं राष्ट्र के सर्वशक्तिमान माने जाते थे तथा प्रशासक वर्ग एवं अधिकारी गण भी उनकी चरण धूलि से अपने मस्तक को पवित्र करते थे ।

आज का युग तो मशीनी युग है । नई-नई तकनीके सामने आ रही हैं । आज पूरा विश्व यान्त्रिक सभ्यता एवं वैज्ञानिक परीक्षणों की आग में झुलस रहा है । ऐसे वातावरण में तो शिक्षा का महंत्त्व कई गुना बढ़ जाता है ।

अंग्रेजी शासन काल में शिक्षा का स्वरूप:

अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करने के साथ ही हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति को बदल कर अंग्रेजी शिक्षा को आधार बनाया । उन्होंने हमारे देश की भोली-भाली जनता का फायदा उठाया तथा ‘मैकाले’ की शिक्षा का भार हमारे सिर पर डाल दिया ।

लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के सन्दर्भ में कहा था, ”मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस शिक्षा प्रणाली से भारत में एक ऐसा शिक्षित वर्ग बन जाएगा, जो रक्त और सा से तो भारतीय होगा परन्तु रुचि, विचार एवं वाणी से पूर्णतया अंग्रेज होगा ।”

इस अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों को केवल ‘बाबू’ एवं ‘लिपिक’ बना दिया । इस शिक्षा प्रणाली से हम भारतीयों को जो हानि उठानी पड़ी उससे भारतीयता तिलमिला उठी । इस शिक्षा पद्धति ने हमारे मौलिक सिद्धान्तों, मानसिक शक्ति एवं आध्यात्मिक जनता का प्रयास किया ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् शिक्षा पद्धति:

भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय नेताओं ने शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करने का निश्चय किया । इस उद्देश्य से अनेक आयोगों की स्थापना की गई । इस दिशा में सबसे सराहनीय कदम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने उठाया तथा उन्होंने अंग्रेजों की दूषित शिक्षा पद्धति को दूर करने के लिए ‘बेसिक शिक्षा पद्धति’ पर बल दिया तथा 1948 में बेसिक शिक्षा समिति का निर्माण किया । बेसिक शिक्षा से अभिप्राय शिक्षाकाल में भी विद्यार्थी का अपने माता-पिता पर भार स्वरूप न रहकर आत्मनिर्भर होना था ।

परन्तु यह पद्धति अधिक सफलता न पा सकी । सन् 1964-1966 में प्रसिद्ध ‘कोठारी आयोग’ की स्थापना की गई । इस आयोग नेपुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ औद्योगिक, तकनीकी एवं वैज्ञानिक शिक्षा पर जोर डालने के लिए 10 +2 में +3 (15 वर्षीय) शिक्षा का कार्यक्रम बनाया ।

इसके अनुसार दसवीं के पश्चात् दो सालों तक स्कूलों में पढ़ाई होगी, जिसमें सामान्य शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा के माध्यम से युवक व युवतियों को इस योग्य बनाया जाएगा कि वे अपने पैरों पर खड़े होकर कोई कार्य कर सकें ।

नई शिक्षा पद्धति:

शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अधिक प्रयास हमारे भूतपूर्वक प्रधानमन्त्री स्व. राजीव गाँधी ने किए, जिन्होंने प्रचलित शिक्षा प्रणाली के गुण दोषों को समझते हुए नई शिक्षा पद्धति लागू कर एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का प्रबन्ध करने का विचार बनाया जो स्वयं में पूर्ण हो तथा शिक्षित व्यक्ति को सम्पूर्णता का अहसास कराए ।

21 अप्रैल, 1986 को उन्होंने इस नई शिक्षा पद्धति का प्रारुप संसद में पेश किया, जिसके अनुसार बिना धर्म, जाति, लिंग अथवा वर्ग के भेदभाव के सभी विद्यार्थियों को राष्ट्रीय स्तर पर एक समान शिक्षा देने की व्यवस्था की गई ।

इस शिक्षा नीति को जीवन पर आधारित बनाया गया था । इसे जीवनानुकूल होने पर बल दिया गया । इसके लिए प्रधानमन्त्री ने एक विशेष मन्त्रालय बनाया, जिसका नाम ‘मानव संसाधन एवं विकास’ मन्त्रालय रखा गया ।

इस नई शिक्षा नीति के कारण ही सम्पूर्ण देश में 10 +2 शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन कर उसे जनपयोगी बनाया गया । अनुसूचित जातियों एवं पिछड़ी जातियों को विशेष सुविधाएँ दी गई । इस शिक्षा नीति के प्रचार प्रसार क्रे लिए आकाशवाणी, दूरदर्शन, कम्प्यूटर आदि का उपयोग किया जा रहा है ।

वर्तमान समय में सम्पूर्ण देश में केन्द्रीय विद्यालय, जवाहर नवोदय विद्यालय आदि नई शिक्षा नीति की ही देन है । इन विद्यालयों में सरकारी संसाधन प्राप्त है । आज विद्यार्थी पहले के समान ही विनयी, चरित्रवान, परिश्रमी, आज्ञाकारी एवं जीवन में सफलता प्राप्त करने वाला बनेगा ।

गुरु एवं शिष्य के सम्बन्ध मधुर होंगे । इस नीति के अन्तर्गत व्यवसायिक पाठ्‌यक्रम भी लागू किए गए हैं जिससे शिक्षा के पश्चात् सुगमता से रोजगार प्राप्त हो सके । इस नीति के तहत परीक्षा-प्रणाली में भी परिवर्तन आया है ।

पहले की भाँति आज का विद्यार्थी रटे-रटाए प्रश्नोत्तर लिखने तक सीमित नहीं रह गया है, अपितु विद्यार्थियों के व्यवहारिक अनुभव को भी परीक्षा का आधार बनाया गया है । इससे प्रत्याशी अपने व्यवहारिक स्तर के मूल्यांकन के आधार पर कोई भी पद, व्यवसाय या उच्चतम अध्ययन को चुनने के लिए आजाद होगा ।

उपसंहार:

अतः यह बात तो निश्चित है कि नई शिक्षा नीति हमारे देश के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है । इससे छात्र छात्राओं में जागरुकता, नवीन चेतना, स्वावलम्बन, कर्त्तव्यनिष्ठा एवं आत्मविश्वास का संचार हुआ है । जब देश का युवा इतने गुणों की खान होगा, तो देश तो उन्नति के शिखर पर अवश्य ही पहुँचेगा ।


Hindi Nibandh (Essay) # 16

ऋतुराज बसन्त पर निबन्ध | Essay on Spring : The King of Seasons in Hindi

प्रस्तावना:

भारतवर्ष अनेकता में एकता का देश है तभी तो यहाँ प्रत्येक दो मास के अन्तराल पर एक नई ऋतु का आगमन होता है । केवल भारत देश में ही छ: ऋतुओं का सौन्दर्य निहारा जा सकता है ।

बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त तथा शिशिर ऋतुएँ पूरे वर्ष हमारे तन-मन की प्यास बुझाती हैं । ये ऋतुएँ सौन्दर्य के साथ-साथ अपने साथ अनेक लाभकारी वस्तुएँ भी लेकर आती हैं । इन सभी ऋतुओं में बसन्त ऋतु की महिमा अपरम्पार है तथी तो इसे ऋतुराज ‘बसन्त’ अथवा ‘मादकता’ तथा ‘उल्लास’ की ऋतु भी माना जाता है ।

बसन्त ऋतु का शुभारम्भ:

भारतीय गणना के अनुसार इसका समय चैत्र से वैसाख माह तक होता है । चैत्र तथा वैसाख के दो महीने मशाह कहलाते हैं । प्राचीन परम्परा के अनुसार इस ऋतु का प्रारम्भ माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् बसन्त पंचमी से ही माना गया है ।

इस ऋतु में प्रकृति के सभी अंग मस्ती में झूम उठते हैं । इस ऋतु में न तो अधिक सर्दी होती है न अधिक गर्मी । सूर्य उत्तरायण में होता है और उसकी सीधी किरणे भारत भूमि पर पड़ती है अत: सर्दी समाप्त होने वाली होती है ।

बसन्त ऋतु में अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य:

इस ऋतु में प्रकृति का सौन्दर्य अपने चरम पर होता है । प्रकृति का रूप अत्यन्त भव्य, मधुमय तथा मादक हो जाता है । प्रकृति के कण कण में नवजीवन का संचार हो जाता है । वन उपवनों में हर तरफ फूलों पर मँडराती हुई तितलियाँ तथा मधुपान करने को आतुर भ्रमर अद्वितीय लगते हैं ।

अपने खेतों में लहलहाती फसलों को देखकर किसान खुशी से झूम उठते हैं । धरती के इन पुत्रों के लिए माँ धरती सोना उगलती है । अपने परिश्रम का फल प्रत्येक किसान अपनी औँखों के सामने देखकर फूला नहीं समाता ।

खेतों में चारों ओर सरसों के पीले फूल पीली चादर ओढ़े प्रतीत होते हैं । धरती तो एकदम नई नवेली दुल्हन जैसा मृगार कर लेती है । हंसों की पंक्ति तो उड़ती हुई इतनी मनभावन लगती है मानो श्वेत मुक्तमाला आकाश में उड़ी चलीजा रही हो । हर तरफ रंग-बिरंगे फूल पूरी धरतीको शृंगारमय कर देते हैं ।

बसन्त ऋतु की महिमा:

बसन्त ऋतु प्राकृतिक एवं आन्तरिक मादकता की ऋतु है । इस ऋतु में मानव मन सहज ही उत्कंठित हो उठता है । वृक्ष फलों से लद जाते हैं सरोवरों में कमल खिल उठते हैं तथा बाग-बगीचे फूलों की सुगन्ध से वातावरण को और भी अधिक आलोकित कर देते हैं ।

इस ऋतु में हर व्यक्ति में काम करने की रुचि बढ़ जाती है । बच्चों एवं नवयुवकों में उल्लास भर जाता है तथा वृद्धों में भी नई उमंग आ जाती है । बौराए आम, वृक्षों पर कोयल की कूक मन को प्रफुल्लित कर देती है । ऋतुराज को अनुराग, प्रेम तथा स्नेह का प्रतीक तथा कामदेव का सखा माना जाता है ।

पौराणिक कथाओं के अनुसार देवो की प्रेरणा से जब कामदेव भगवान शंकर की तपस्या भंग करने के लिए कैलाश पर्वत पर गया था, उस समय बसन्त भी उनके साथ था ताकि सारा वातावरण सौन्दर्ययुक्त बना रहे । कवियों की दृष्टि से भी बसन्त ऋतु अत्यन्त प्रेरणादायक, उत्साहवर्द्धक एवं रोचक ऋतु हैं । सुमित्रानन्दन पन्त बसन्त की कल्पना इस प्रकार करते हैं:

”सौरभ की शीतल ज्वाला से, फैला उर-उर में मधुर वाह । आया बसन्त, भरा पूथ्वी पर, स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह।।”

‘कुमार सम्भव’ में कालिदास ने तथा ‘रामचरित मानस’ में गोस्वामी तुलसीदास ने बसंत ऋतु का बहुत अनुपम वर्णन किया है । जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ बसंत ऋतु की ही महिमा का बखान कर रही है-

“नई कोपल में से कोकिल, कभी किलकारेगा सानन्द । एक क्षण बैठ हमारे पास, मिला दोगे मदिरा मकरंद ।”

इनके अतिरिक्त देव, पद्याकर, सेनापति आदि के बसन्त-विषयक वर्णन अति उत्तम हैं । यह मादक ऋतु तो बड़े-बड़े योगियों, साधु-तपस्वियों की तपस्या तक को भंग कर देती हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मानव जीवन में हर्षोल्लास, रस तथा मस्ती भरने वाली ऋतु केवल बसन्त ऋतु ही है । इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बसन्त ऋतु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।

इस ऋतु में नए रक्त का संचार होता है, जिससे-अनेक रोग अपने आप नष्ट हो जाते हैं । चिकित्सा-विशेषज्ञों का यह मतु है कि यदि इस ऋतु में मनुष्य सन्तुलित आहार तथा उचित व्यायाम करता रहे तथा प्रातःकाल का भ्रमण करे तो कोई रोग उसके निकट नहीं आ सकता । अत: सौन्दर्य तथा स्वास्थ्य दोनों की दृष्टि से बसन्त ऋतु अवर्णनीय है ।

बसन्त ऋतु के मुख्य त्योहार:

बसन्त ऋतु में कई महत्त्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं । इस ऋतु का आरम्भ ही ‘बसन्त पंचमी’ से होता है । हिन्दुओं का प्रसिद्ध पर्व ‘होली’ इस ऋतु में ही आता है । रामनवमी, बैशाखी पर्व भी इसी ऋतु में आते हैं तथा विक्रम संवत् का आरम्भ भी बसन्त काल में ही होता है । लोग इस दिन को शुभ मानकर अपने महत्त्वपूर्ण कार्य इसी दिन प्रारम्भ करना चाहते हैं ।

उपसंहार:

ऋतुराज बसन्त, सृष्टि में नवीनता का प्रतिनिधि बनकर आती है तभी तो प्रकृति भी रुप यौवन सम्पन्न होकर इस ऋतु का इठलाते हुए यह कहकर स्वागत करती है:

”तुम आओ तुम्हारे लिए वसुधा ने हृदय पर मंच बना दिए हैं पथ में हरियाली के सुन्दर-सुन्दर पाँवडे भी बिछवा दिए हैं, चारों ओर पराग भरे सुमनों के नए बिखा लगवा दिए हैं, ऋतुराज तुम्हारे ही स्वागत में सरसों के दिए जलवा दिए हैं ।

निःसन्देह इस ऋतु के आगमन से सारे विश्व में नवजीवन का संचार होता है । जीवन में जो स्थान यौवन का है वही स्थान ऋतुओं में ‘बसन्त ऋतु’ का है । बसन्त आगमनपर सारी दिशाएँ हरी-भरी, रंगीन तथा मदमस्त हो उठती है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 17

वर्षा ऋत पर निबन्ध | Essay on Rainy Season in Hindi

प्रस्तावना:

भारतवर्ष में हर वर्ष छ: ऋतुओं का आवागमन होता है-बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा शरद, हेमन्त एवं शिशिर । हमारे देश की जलवायु बहुत विविधता लिए हुए हैं इसीलिए हर दो माह के पश्चात् एक नई ऋतु आ जाती है । इन सभी ऋतुओं में ‘वर्षा ऋतु’ बहुत महत्त्वपूर्ण है तथा प्राय: ‘ऋतुओं की रानी’ के नाम से जानी जाती है ।

वर्षा ऋतु का शुभारम्भ:

वर्षा ऋतु का शुभ आगमन सावन भादो में उस समय होता है जब सूर्य देवता की तीव्र किरणों से त्रस्त प्राणी तथा वनस्पति त्राहि त्राहि कर रहे होते हैं । नदी, नाले, कुएँ, तालाब सभी सूख जाते हैं तथा प्रकृति मानो वैधव्य धारण कर लेती है ।

पशु-पक्षी एक-एक बूँद पानी के लिए तरस जाते हैं । कृषक भी जब आने वाले अकाल की चिन्ता से चिन्तित इन्द्र देवता के आगमन की प्रार्थना करने लगते हैं तथा इन्द्र देवता को मनाने के लिए तरह-तरह के गीत गाते हैं:

“काले मेघा पानी दे, पानी दे गुडधानी दे । बरसो राम झडाके से या बुढ़िया मर गई फाके से ।”

ऐसे हाखकर में धरती, प्रकृति तथा प्राणियों की प्यास तथा गर्मी शान्त करने के लिए वर्षा ऋतु का शुभ आगमन जीवनदायी प्रतीत होता है । वर्षा ऋतु को ‘चौमासा’ कहते हैं क्योंकि वर्षा ऋतु लगभग आषाढ़ मास से अश्विन् माह तक चलती है ।

वर्षा ऋतु का सुस्वागत:

वर्षा ऋतु के आगमन के साथ हवा का तेज झोंका भी बन उपवनों सहित नदी नालों को भी अपनी मस्त व्यार से मदमस्त डालता है । सभी जीवजन्तु पशु-पक्षी, धरती-अम्बर खुले हृदय से वर्षा-ऋतु का स्वागत करते हैं ।

कालेकाले बादल छा जाते हैं, शीतल वायु मन को तृप्त करने लगती है तथा कभी-कभी आकाश में चमकती बिजली भय भी पैदा कर देती है परन्तु ज्यों ही टप-टप की आवाज के साथ बारिश की बूंदइ धरती पर पड़ने लगती है तो मेड़को की टर्र-टर्र, झींगुरों की झंकार, जुगनुओं की चमक-दमक से काली रात में भी रोशनी तथा खुशी छा जाती है ।

एक ओर वर्षा की ये बूंदइ पपीहे की प्यास बुझाती है तो दूसरी ओर सूखे पड़ गए पेड़-पौधों में भी नव-जीवन का संचार कर देती है तभी तो धरती माँ का तप्त चल शीतल एवं सुहावनी हरियाली से सज-धज जाता है ।

वर्षा ऋतु का अनुपम सौन्दर्य जहाँ संगीत-प्रेमियों को मुक्त कण्ठ से मल्हार गाने के लिए आमन्त्रित करता है वही दूसरी ओर कवियों को भी लेखनी तथा कागज लेकर कुछ लिखने के लिए प्रेरित करता है । महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ में वर्षा ऋतु का वर्णन इस प्रकार किया है-

”वर्षाकाल मेध नभ छाये । गर्जन लागत परम सुहायो ।। दामिनी दमक रही धन माही । खल की प्रीति यथा चिर नाही ।।”

वर्षा ऋतु का स्थ्य आकर्षण बारिश की आँख मिचौली होती है । इसके आवागमन के विषय में अनेक मौसम-विशेषज्ञ पूर्वाभास करते हैं, किन्तु कभी-कभी उनकी भविष्यवाणियाँ भीगलत साबित हो जातीहै । कभीकभी बादल मुमडुसुमड्‌कर आते हैं लेकिन बिना बरसे ही लौट भी जाते हैं, तथा कभी-कभी मौसम एकदम साफ होता है और फिर भी मेघ बरस जाते हैं ।

कभी-कभी सूर्य देवता भी चमक रहे होते हैं और मेघ देवता भी बरस रहे होते हैं और कभीकभी तो इतना बरसते है कि लगता है आज भगवान अपने ये नल बन्द करना ही भूल गए हैं । वर्षा ऋतु की यह आँख मिचौली सभी का मन मोह लेती है और हमें सोचने पर विवश कर देती है कि कहाँ तो हम एक-एक बूँद के लिए तरस रहे थे और अब जहाँ देखो वहाँ पानी ही पानी दिखाई पड़ता है ।

सावन की सुगंध-सावन का महीना तो जैसे पागल प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए ही बना है । मन्द-मन्द समीर चलती है तो लताओं तथा पुष्पों की सेज सी बिछ जाती है, वही प्रेम में पागल युवतियों का हृदय झूमने गाने लगता है । ऐसे सुहावने मौसम में प्रेम की विरह में पागल नारी तो और भी बेहाल हो उठती हे ।

वर्षा ऋतु का आगमन भारतीय कृषकों के लिए सबसे सुखद वरदान होता है । गाँवों का तो दृस्प ही परिवर्तित हो जाता है । बोआई तथा निराई का काम प्रारम्भ हो जाता है । थोड़े ही दिनों में खेतों में धान, ज्वार, बाजरा तथा मक्का आदि’ की फसल लहलहाने लगती है लगता है धरती माँ ने हरी चादर ओढ़ ली है ।

इस ऋतु में खाल-बाल अपने पशुओं को सरोवरों में छोड्‌कर बागों में आनन्द मनाते हैं । वर्षा ऋतु का सबसे अधिक आनन्द बच्चे लेते हैं तथा पानी में कागज की नाव चलाते हैं तो कभी छप-छप कर सारे गीले हो जाते हैं ।

वर्षा म्स के त्योहार-वर्षा ऋतु के इसी मौसम में पेड़ों में झूले पड़ जाते हैं क्योंकि हिन्दुओं का प्रसिद्ध त्योहार ‘तीज’ एवं भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक ‘रक्षाबन्धन’ भी वर्षा ऋतु में ही आते हैं । तीज सावन मास के शुक्त पक्ष की तृतीया को तथा रक्षाबन्धन पूर्णिमा को मनाते हैं । सभी सखी-सहेलियाँ मिलकर सावन के गीत गाती हैं तथा हृदय को पल्लवित कर देने वाली वर्षा-ऋतु का पूर्ण आनन्द लेती हैं ।

वर्षा ऋतु की हानियाँ:

एक ओर जहाँ वर्षा हमें जल, भोजन तथा शीतलता प्रदान करती है, वहीं दूसरी ओर हमें अनेक दुखों का भी सामना करना पड़ता है । इस मौसम में अनेक बीमारियाँ जैसे-दें, मलेरिया, आन्त्रशोध आदि फैल जाते हैं क्योकि कीड़े-मकोड़े तथा मच्छर-मक्खियाँ हर तरफ अपना साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं ।

झुग्गी-झौपड़ियों में पानी भर जाता है और गरीब लोगों का जीवन दुश्वार हो जाता है । अधिक वर्षा से बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है, जिससे अनगिनत लोग बेघर हो जाते हैं तथा धन की भी बहुत हानि होती है । कभी-कभीं तो पूरे के पूरे गाँव भी बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं, पशु बह जाते हें, पुल टूट जाते हैं मकान गिर जाते हैं अर्थात् हर तरफ त्राहि-त्राहि मच जाती है ।

उपसंहार:

वर्षा ऋतु का स्वागत हमें इसके लाभों को मस्तिष्क में रखते हुए करना चाहिए क्योंकि वर्षा के बिना तो हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं । वर्षा ऋतु तो वास्तव में जीवनदायिनी है । हमें तो देवी से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि इन्द्र देवता इतना अधिक न बरसे कि सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाए बस ‘ऋतुओं की रानी’ बनकर ही हमारे में आए तथा हम सबकी प्यास बुझा जाए ।


Hindi Nibandh (Essay) # 18

ग्रीष्म ऋतु पर निबन्ध | Essay on Summer Season in Hindi

प्रस्तावना:

भारतवर्ष के जनमानस पर प्रकृति देवी की विशेष कृपा है कि यहाँ छ: ऋतुएँ-बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त तथा शिशिर हर वर्ष आती है । ऐसा सुन्दर ऋतु चक्र किसी अन्य देश में तो सोचा भी नहीं जा सकता । अन्य देश या तो बहुत ठंडे है या फिर बेहद गर्म ।

सभी ऋतुएँ अपने साथ अनेक बहुमूल्य पदार्थों का खजाना लेकर आती है । ग्रीष्म ऋतु का भी ऋतु-क्रम में विशेष महत्त्व है । यह ऋतु ज्येष्ठ तथा आषाढ़ (मई व जून) के महीनों में आती है । इस ऋतु के प्रारम्भ होते ही बसन्त की कोमलता एवं मादकता समाप्त हो जाती है तथा सुगन्धित पवन का स्थान ‘साँय-साँय’ की आवाज करने वाली ‘लू’ ले लेती है ।

बसन्त के उन्माद तथा मादकता का स्थान आलस्य एवं क्लान्ति ले लेती है । गला प्यास से सूखने लगता है तथा पूरा शरीर पसीने से नहाया रहता है । सुबह सात बजे ही ऐसा लगता है मानो दोपहर के बारह बज रहे हो ।

कविवर सुमित्रानन्दन पन्त निसली ने ग्रीष्म ऋतु का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है:

“ग्रीष्म त्तापमय लू की लपटों की दोपहरी । झुलसाती किरणों की वर्षो की आ ठहरी ।।”

कवि बिहारी ने भी गर्मी की तपन का वर्णन इस प्रकार किया है:

“बैठि रही अति सघन वन, पैठि सदन तन माँह । देखि दुपहरी जेठ की, छाहौ चाहती छाँह ।।”

गर्मी की प्रवलता का उल्लेख:

ग्रीष्म ऋतु के ताप का चर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता, वरन इसे तो बस महसूस किया जा सकता है । गर्मी की प्रबलता से धरती पर रहने वाले सभी नर-नारी, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे व्याकुल हो उठते हैं । अगवान र्च्छदव सुबह जल्दी उठकर चले आते हैं और देर सांयकाल उक जाने का नाम नहीं लेते । ऐसा प्रतीत होता है मानो सूर्य भगवान भी परशुराम के समान दिन भर क्रोधाग्नि बरसाकर सांयकाल अन्धकार में लीन हो जाते हें ।

गर्मियों में दिन लम्बे तथा राते बहुत छोटी होती हैं । ग्रीष्म की दोपहरी में गर्मी से व्याकुल प्राणी बैर-विरोध की भावना को भूल एक साथ पड़े रहते हैं । सड़के तवे क्तई भांति तप जाती है लगता है जैसे वे ताप से पिघल ही जाएगी-

“बरसा रहा है, रवि अनल भूतल तवा-सा जल रहा । है चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना ढल रहा ।।”

रेतीले प्रदेशों जैसे राजस्थान आदि में तो स्थिति और भी भयानक हो जाती है क्योंकि वहाँ धूल भरी आन्धियाँ चलती है । ऐसी कड़कती गर्मी में अमीर लोग तो घरों में छिप जाते हैं परन्तु किसानों तथा मजदूरों को तो तब भी काम पर जाना पड़ता है ।

ग्रीष्म ऋतु से बचाव के उपाय:

व्यक्ति अपने बचाव का रास्ता ढूँढ ही लेता है । साधारण आय वाले लोग अपने घरों में बिजली के पंखे लगाकर गर्मी से बचते हैं तो धनवान लोग अपने घरों में कूलर तथा वातानुकूलित आदि लगवाकर अपना बचाव करते हैं ।

समर्थ व्यक्ति ऐसी गर्मी में पहाड़ी इलाकों जैसे मसूरी, नैनीताल, शिमला, श्रीनगर आदि स्थानों पर चले जाते हैं । प्यास बुझाने के लिए लोग ठंडे पेय पीते हैं तथा ठंडी वस्तुएं जैसे कुल्की, आइस्कीम आदि खाते हैं ।

ऐसे मौसम में क्टे तथा स्वादिष्ट फल जैसे खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूजा, लीची, आड़ू, आलू-बुखारे आदि भी कुछ राहत देते हैं । इन दिनों तो बर्फ से बनी चीजे खाने में अच्छी लगती हैं तथा सूती व हल्के रंगों के कपड़े पहनने में आरामदेह होते हे ।

ग्रीष्म ऋतु की उपयोगिता:

ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जिसकी उपयोगी न हो । गर्मी दुखदायी है, परन्तु फसलें तो सूर्य के ताप से ही पकती हैं । गर्मी से कई प्रकार के विषैले कीटाशु मच्छर मक्खी आदि नष्ट हो जाते हैं । ग्रीष्म ऋतु अपने साथ वर्षा ऋतु के आगमन की आशा लेकर आती है ।

लगता है कभी तो दिन का हृदय पिघल जाएगा तथा पर्वत से अजस, जलधारा धरती को तृप्त करने निकल पड़ेगी । नदियाँ पानी से भर जाएगी तथा सभी की प्यास शान्त होगी । ग्रीष्म ऋतु में ही बच्चों की छुट्‌टियाँ पड़ जाती है इससे उन्हें अपने मित्रों तथा रिस्तेदारों से मिलने का अवसर मिल जाता है ।

ग्रीष्म ऋतु हमें दुखों को सहने की शक्ति भी देती है । इससे हमें प्रेरणा मिलती है कि मनुष्य को कष्टों तथा दुखों से घबराना नहीं चाहिए, वरन् उनका सामना भी पूरी हिम्मत से करना चाहिए । रात के बाद सुबह अवश्य आती है इसी प्रकार गर्मी के बाद वर्षा भी होगी, तब सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएँगे ।

इस प्रकार ग्रीष्म ऋतु तो नारियल की भांति है जो बाहर से तो सख्त है किन्तु भीतर से कोमल है । सूर्य की तीव्र किरणें ऊर्जा का साधन बनकर ऊर्जा के संकट को समाप्त करने में सहायता देती है ।

उपसंहार:

ग्रीष्म ऋतु से बचाव के लिए गलियों, बाजारों, सड़कों आदि पर शीतल छायादार पेड़ लगाए जा सकते हैं । स्थान-स्थान पर क्खे पानी की प्याऊ लगवाकर जन-सेवा की जा सकती है । ग्रीष्म ऋतु तो हमें कष्ट सहने की अद्‌भुत शक्ति प्रदान करती है ।

वह हमें संकेत देती है कि कठोर संघर्ष के पश्चात् ही शान्ति एवं उल्लास का आगमन होता है । धरती माता भी तो इस ताप को झेलती है, फिर हम मनुष्य तो धरो में छिपकर भी रह सकते हैं इसलिए इस ताप की उग्रता को भी हँसकर झेलना चाहिए । कवि रहीम जी ने कहा भी है:

”जैसी परी सों सहि रहे, कह रहीम यह देह । धरती पर ही परत है, शीत छाँव अस मेह ।।”


Hindi Nibandh (Essay) # 19

पुस्तकालय की उपयोगिता पर निबन्ध | Essay on Utility of Library in Hindi

भूमिका:

जिस प्रकार सून्तुलित अहार तथा उचित व्यायाम से हमारी देह हष्ट-पुष्ट होती है उसी प्रकार मानसिक विकास के लिए अध्ययन का बड़ा महत्व है । शिक्षा के अभाव में न तो व्यक्ति का मानसिक एवं बौद्धिक विकास सम्भव है और न ही वह आधुनिक युग में भौतिक सम्पन्नता ही प्राप्त कर सकता है ।

ज्ञान के अभाव में तो मनुष्य पशु के समान मूढ़ इधर-उधर विचरता रहता है । ज्ञान प्राप्त करने के कई साधन हैं जैसे- सत्संग, टेशाटन तथा सटग्रंथों का अध्ययन इत्यादि । पुस्तकों को ही ज्ञान प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन माना गया है । अकालय वह स्थान है जहाँ कोई भी मनुष्य विस्तृत एवं नवीनतम ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।

पुस्तकालय का अर्थ एवं प्रकार:

पुस्तकालय शब्द ‘पुस्तक + आलय’ नामक दो शब्दों के मेल से बना है जिसका अर्थ है पुस्तकों का घर अथवा पुस्तकों का मन्दिर । पुस्तकालय में विभिन्न क्षेत्रों जैसे साहित्य, विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि अनगिनत विषयों की पुस्तकें संग्रहित करके पाठकों हेतु रखी जाती हैं ।

पुस्तकालय के प्रकार:

पुस्तकालय कई प्रकार के होते हैं । प्रथम प्रकार के पुस्तकालय स्कूल, कलेजी तथा विश्वविद्यालयों में होते हैं । इन पुस्तकालयों से केवल छात्र तथा अध्यापक ही लाभान्वित होते हैं । छात्रों को शिक्षा प्रसार और ज्ञान वृह्न में इन पुस्तकालयों से बहुत सहायता मिलती है विशेषकर निर्धन छात्र जो पुस्तके खरीदने में असमर्थ होते हैं वे इन पुस्तकालयों से बहुत लाभान्वित होते हैं ।

दूसरेप्रकार के पुस्तकालय ‘निजी पुस्तकालय’ होते हैं । विद्या प्रेमी धनवान लोग लाखों रुपए खर्च करके अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार पुस्तकें संग्रहीत करते हैं । इन पुस्तकालयों से केबल कुछलोग ही लाभ उठा पाते हैं । अधिकतर वकील, प्रवक्ता, डॉक्टर इत्यादि उच्च शिक्षित व्यक्ति ऐसे पुस्तकालय अपनी बड़ी-बड़ी कोठियों में बनवाते हैं ।

तीसरे प्रकार के पुस्तकालय ‘राजकीय पुस्तकालय’ होते हैं जिन पर सरकार का नियन्त्रण रहता है । पे पुस्तकालय बड़े-बड़े भवनों में होते हैं लेकिन जनसाधारण को इन पुस्तकालयों से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि कुछ सीमित व्यक्तियों तक खई इन पुस्तकालयों की पहुँच होती है ।

चौथे प्रकार के पुस्तकालय ‘सार्वजनिक पुस्तकालय’ होते हैं । सबसे अधिक लाभ इन पुस्तकालयों से होता है क्योंकि कोई भी इन पुस्तकालयों में जाकर अध्ययन कर सकता है । चाहे तो वहाँ बैठकर या फिर पुस्तके लाइब्रेरियन से निकलवाकर घर लाकर पड़ी जा सकती हैं ।

इस तरह के पुस्तकालय काफी विशाल होते हैं तथा अधिकतर सभी विषयों पर पुस्तकें यहाँ संग्रहीत की जाती हैं । यहाँ से कार्ड बनाकर एक दो दिन, पूरे सप्ताह या पन्द्रह बीस दिनों के लिए भी पुस्तकें ले जायी जा सकती हैं ।

सार्वजनिक पुस्तकालयों में वाचनालय भी बने होते हैं । पाँचवे प्रकार के पुस्तकालय ‘चल पुस्तकालय’ होते हैं । हमारे देश में ऐसे पुस्तकालय कम ही पाये जाते हैं । इन पुस्तकालयों का स्थान चलती-फिरती गाड़ी में होता है । इस प्रकार के पुस्तकालय अलग-अलग स्थानों पर जाकर जनता को नवीन साहित्य की जानकारी देते हैं ।

पुस्तकालयों के लाभ:

पुस्तकालयों के अनगिनत लाभ हैं । ये ज्ञान का अनन्त भंडार है । पुस्तकालय एक ऐसा माध्यम है, जहाँ ज्ञान की निर्मल धारा सदैव बहती रहती है । रामचन्द्र शुक्ल ने पुस्तकालयों की उपयोगिता के विषय में कहा था- ”पुस्तकों के द्वारा हम किसी महापुरुष को जितना जान सकते हैं, उतना उनके मित्र तथा पुत्र भी नहीं जान सकते ।”

एक ही स्थान पर विभिन्न भाषाओं, धर्मों, विषयों, वैज्ञानिकों आविष्कारों तथा ऐतिहासिक तथ्यों से सम्बन्धित पुस्तकें केवल पुस्तकालय में ही उपलब्ध होती हैं । पुस्तकालय के द्वारा हम आत्मशुद्धि एवं आत्म-परिष्कार कर सकते हैं । एकान्त एवं शान्त वातावरण में अध्ययन करके कोई भी व्यक्ति ज्ञान रूपी मणियाँ आसानीसे प्राप्त कर सकता है ।

आज की महँगाई के कारण या फिर पैसे की कमी के कारण भी हम सभी पुस्तकें नहीं खरीद सकते । पुस्तकालयों के माध्यम से नाममात्र का शुल्क देकर अथवा मुक्त सदस्यता प्राप्त करके मनचाही पुस्तकों का अध्ययन किया जा सकता है ।

पुस्तकालयों के कारण ही उच्च शिक्षा तथा किसी भी विषय में विशेष योग्यता जैसे पी-एच.डी. तथा डी.लिट् आदि की उपाधि प्राप्त करने वाले विद्यार्थी अपना अधिकांश समय इन्हीं पुस्तकालयों में बिताते हैं । अध्ययन के साथ-साथ पुस्तकालयों में जाकर हमारा पर्याप्त मनोरंजन भी होता है ।

यहाँ हम अपने अवकाश के क्षणों का सदुपयोग कर सकते हैं । पुस्तकालय में बैठने से अध्ययन वृत्ति को बढ़ावा मिलता है साथ ही गहन अध्ययन भी होता है । तभी तो गाँधी जी ने पुस्तकों तथा पुस्तकालयों की महत्ता के विषय में कहा था, ”भारत के प्रत्येक घर में, चाहे छोटा ही क्यों न हो, पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए ।”

पुस्तकालय के कायदे-कानून:

पुस्तकालय सामाजिक महत्त्व कास्थान होता है, जिसके कुछ नियम होते हैं तथा एक सभ्य नागरिक होने के नाते हमें उन नियमों का अवश्य पालन करना चाहिए । हमें पुस्तकालय में शान्तिपूर्वक बैठकर अध्ययन करना चाहिए ।

पुस्तक समय पर लौटानी चाहिए तथा उसके पेपर इत्यादि नहीं फाड़ना चाहिए, न ही उन पर पैन या पैंसिल से कुछ भी लिखना चाहिए । पुस्तक को जिस दराज में से निकाला हो, उसी में ठीक प्रकार से वापस रखना चाहिए ।

उपसंहार:

आज हमारे देश में अनेक पुस्तकालय है लेकिन दूसरे देशों जैसे इंग्लैण्ड अमेरिका तथा रुस की तुलना में ये बहुत कम हैं । इंग्लैण्ड के ब्रिटिश म्यूजियम में लगभग 50 लाख से अधिक पुस्तकें हैं । अमेरिका में वाशिंगटन कांग्रेस पुस्तकालय विश्व का सब्रसे विशाल पुस्तकालय है जिसमें 4 करोड़ से अधिक पुस्तकें हैं तथा 1400 समाचार-पत्र एवं 26,000 पत्रिकाएँ आती हैं ।

रुस का विशालतम पुस्तकालय ‘लेनिन पुस्तकालय’ मास्को में है । भारत का सबसे बड़ा पुस्तकालय कोलकाता का ‘राष्ट्रीय पुस्तकालय’ है, जहाँ लगभग दस लाख पुस्तकें हैं । इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि पुस्तकालयों का महत्त्व देवालयों की ही भाँति है क्योंकि ये सरस्वती माँ के मन्दिर हैं । हमारी सरकार को इनके विकास तथा उत्थान के लिए और भी अधिक प्रयास करने चाहिए ताकि हमारे भारतवासी अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित कर सकें ।


Hindi Nibandh (Essay) # 20

परिश्रम का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Labour in Hindi

प्रस्तावना:

जो प्रयत्न किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी व्यक्ति द्वारा किया जाता है वही परिश्रम कहलाता है । मनुष्य की उन्नति की राह उसके द्वारा किया गया परिश्रम ही तय करता है ।

कोई भी कार्य केवल मनोरथ से ही पूरे नहीं होते, अपितु उनको पूरा करने के लिए उद्यम की बहुत आवश्यकता होती है । आधुनिक युग के बड़े-बड़े नगर, भव्य भवन, राजमार्ग, कल-कारखाने आदि सभी कुछ मानव के परिश्रम का ही फल है ।

परिश्रम की आवश्यकता:

जीवन में सफलता की कुंजी परिश्रम ही है, इसलिए हर क्षण हमें परिश्रम की आवश्यकता होती है । खाना भी मुँह में स्वयं नहीं चला जाता, चबाना पड़ता है । लेकिन जो व्यक्ति कोई भी कार्य करना ही नहीं चाहता, ऐसा आलसी, अनुद्योगी तथा अकर्मण्य व्यक्ति कहीं भी सफलता नहीं पा सकता ।

उसी मानव का जीवन सार्थक माना जा सकता है, जिसने अपने तथा अपने राष्ट्र के उत्थान हेतु परिश्रम किया हो । अनेक संघर्षों तथा उद्यमों के पश्चात् ही सफलता मनुष्य के कदम चूमती है, तभी तो कहा भी गया है कि:

“उद्यमेन ही सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै: । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।

अर्थात् उद्योग से ही मनुष्य की कार्य सिद्धि होती है केवल मनोरथ मात्र से कुछ भी नहीं होता । सोते हुए सिंह के मुँह में मृग स्वयं नहीं घुसते । लक्ष्मी भी आलसी से दूर भागती है । भाग्यवादी व निराश व्यक्ति के लिए सांसारिक सुख पाना दुर्लभ है । यदि हमें संसार में सम्पूर्ण आनन्द की तलाश है, तो परिश्रम तो करना ही पड़ेगा ।

परिश्रम करने से हमारी शक्ति क्षीण नहीं होती, वरन् हमारी शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक शक्तियों में तीव्रता आती है तथा जीवन आत्म-विश्वास से परिपूर्ण हो जाता है । परिश्रम ही तो सफलता का प्रमुख रहस्य, पराक्रम का सार एवं उन्नति का प्रथम अध्याय है ।

परिश्रम का महत्त्व:

जीवन में परिश्रम की महत्ता से भला कौन इंकार कर सकता है । परिश्रम में तो वह ताकत होती है जो निर्धन को धनी, रैक को राजा बना दे । परिश्रमी व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता रहता है तथा कोई भी बाधा उसके रास्ते में काँटे नहीं विछा पाती ।

सफलता भी उधमी व्यक्ति का ही वरण करती है तथा आलसी व्यक्ति से दूर भागती है । श्रम साधक व्यक्ति अपनी कठिन तपसाधना के द्वारा मनोवांछित यश तथा वैभव को प्राप्त करके अपने आस-पास के समाज को सखेरित करता है ।

एक निर्धन छात्र भी अपने परिश्रम के बल पर ही परीक्षा में अव्वल स्थान तो प्राप्त करता ही है, साथ ही उच्चपद पर पहुँचकर अपने परिवार तथा समाज के मस्तक को भी ऊँचा करके सबके लिए आदर्श बनता है । सच्चा परिश्रमी यदि असफल भी हो जाए, तो उसे पश्चाताप नहीं होता, वरन् उसके मन में तो इस बात का सन्तोष रहता है कि उसने अपनी सामर्थ्य अनुसार मेहनत तो की है, अब फल देना तो ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है ।

परिश्रम के लाभ:

परिश्रम करने सें आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है, हृदय पवित्र होता है, सच्चे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा मनुष्य उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचता है । हमारा इतिहास उद्यमी लोगों की सफलता के गुणगानों से भरा पड़ा है । अमेरिका तथा जापान जैसे देशो की सफलता का रहस्य उनके द्वारा किया जाने वाला अनवरत परिश्रम ही है ।

परिश्रम करने से मनुष्य के अन्तःकरण की शुद्धि होती है तथा सांसारिक दुर्बलताएँ तथा वासनाएँ उसे नहीं सताती । परिश्रमी व्यक्ति को यश तथा धन दोनों मिलते हैं । यदि शारीरिक श्रम करने वाला व्यक्ति शारीरिक तौर पर घुस-तन्दुरुस्त रहता है तो मानसिक श्रम करने वाला व्यक्ति भी पीछे नहीं रहता । बीमारी ऐसे व्यक्तियों के पास भी नहीं भटकती ।

परिश्रमियों के सच्चे उदाहरण:

संसार में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने कठिन परिश्रम द्वारा अपने जीवन को उज्जवल बनाया है । बाबर, शेरशाह, नेपोलियन, सिकन्दर आदि सभी प्रारम्भ में सामान्य व्यक्ति ही थे, लेकिन असाधारण तो वे अपने कार्यों के कारण बने थे ।

कोलम्बस ने अपने कठोर तथा अथक परिश्रम के बल पर अमेरिका की खोज की थी । शिवाजी की सफलता का रहस्य उनकी घोर परिश्रमशीलता ही थी, जबकि उनका पुत्र सम्भाजी आलस्य के कारण ही असफल हुआ था ।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नेताजी सुभाषचन्द बोस, महात्मा गाँधी, तिलक, भगत सिंह, हिटलर, अब्राहिम लिंकन, गोखले आदि न जाने कितने नाम मेहनत के बल पर ही यश की पराकाष्ठा को छू पाए थे । बड़े-बड़े धनाढ्‌य जैसे रिलायंस युप, टाटा, बिडला आदि ने रातों की नींद तथा दिन का चैन खोकर ही इतनी सफलता प्राप्त की है ।

रूस, इंग्लैण्ड, अमेरिका, जापान, जर्मनी जैसे देश आज श्रम के कारण ही शिखर पर हैं । मनुष्य की चन्द्रमा सहित अन्य ग्रहों की यात्रा के मूल में उसके निरन्तर परिश्रम की ही सुगन्ध हैं । कठिन तथा अथक परिश्रम के बल पर ही आज मनुष्य ने अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों से विश्व-निर्माता ब्रह्मा का स्थान पा लिया है ।

उपसंहार:

कविवर सुमित्रानन्दन ने तो चींटी को ही श्रम का प्रतीक माना हे- ”दिन भर में वह मीलो चलती, अथक कार्य से कभी न हटती ।” यदि मनुष्य चींटी की ही भाँति जीवन में परिश्रम के महत्त्व को समझे तो कर्म में हमारी आस्था और भी दृढ़ हो जाती है ।

परिश्रम ही तो जीवन का सार है । इसके बिना मानव मृत प्राय: होता है । तुलसीदास जी ने कहा भी है- ”सकल पदारथ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं ।” अर्थात् इस संसार में दुनिया भर के पदार्थ हैं, लेकिन कर्म करने वाला व्यक्ति ही उन्हें प्राप्त कर सकता है ।

जब प्रकृति ही हर समय अपने कार्य में तत्पर रहती है, जब सूर्य, चन्द्रमा, तारे निस्वार्थ भाव से हमारी सेवा करते रहते हैं, तो फिर हम तो मानव हैं, हमें तो और भी अधिक परिश्रम करना चाहिए । ईश्वर भी परिश्रमी का ही साथ देता है, उसी से स्नेह करता है । परिश्रम ही तो ईश्वर की सच्ची साधना है, जिससे इहलोक तथा परलोक दोनों सुधर जाते हैं तभी तो किसी ने कहा भी है:

“आलस्यो हि मनुष्याणां शरीरस्यो महान रिपु: ।” अर्थात् आलस्य मनुष्य के शरीर का सबसे बड़ा दुश्मन है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 21

विज्ञापनों का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Advertisement in Hindi

प्रस्तावना:

आधुनिक समय का आर्थिक तथा सामाजिक ढाँचा विज्ञापनों पर आधारित है । विभिन्न वस्तुओं के निर्माता अपनी वस्तुओं का विक्रय बढ़ाने के लिए विज्ञापनों पर आश्रित हैं ।

इसीलिए विज्ञापन कला के विशेषज्ञों तथा विज्ञापनों पर आज का निर्माता असीम धनराशि खर्च करता है, क्योंकि विज्ञापन जितना आकर्षक एवं प्रभावी होगा, वस्तुओं की बिक्री उतनी ही अधिक होगी तथा उत्पादक भी लाभ पा सकेगा ।

आज तो सुई से लेकर बड़े-बड़े विमानो को भी विज्ञापन की सहायता लेनी पड़ती हैं । यदि यह कहा जाए कि आज का युग विज्ञान तथा विज्ञापन का युग है, तो अतिशयोक्ति न होगी ।

अर्थ एवं स्वरूप:

जब समाचारपत्रों में सर्वसाधारण के लिए कोई सूचना प्रकाशित की जाती है, तो उसको विज्ञापन कहते हैं । यह सूचना नौकरियों से सम्बन्धित हो सकती है, खाली मकानों को किराए पर उठाने के सम्बन्ध में हे ।

सकती है, या किसी औषधि, शेम्पु, साबुन आदि के प्रचार से सम्बन्धित हो सकती है । शादी ब्याह से लेकर पहेली प्रतियोगिता तक, अचार-मुरब्बे से लेकर जन्म घुट्टी तक जितनी भी प्रचार सम्बन्धी सूचनाएँ समाचारपत्रों में प्रकाशित होती है, वे सभी विज्ञापन की ही श्रेणी में आती है ।

अत: विज्ञापन वह विक्रय कला है जो वस्तुओं तथा विचारों की सूचना देती है एवं विक्रय व्यवस्था में मदद करती है ।

विज्ञापन-जगत का शुभारम्भ:

कई साल पहले जब समाचारपत्रों का अभाव था, तब विज्ञापन शब्द के बारे में लोग जानते भी नहीं थे । किसी भी वस्तु के गुण का गुणगान मौखिक परम्परा के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे, तीसरे, चौथे तक पहुँचती-पहुँचती अपना क्षेत्र तैयार कर लेती थी ।

उस समय लोगों की आवश्यकताएँ भी अधिक विस्तृत नहीं थी, वे थोड़े में ही सन्तोष कर लेते थे किन्तु विज्ञापन की तीव्र प्रगति के साथ-साथ हमारी आवश्यकताएँ भी निरन्तर बढ़ रही हैं तथा हमारे रहन-सहन का स्तर भी बढ़ रहा है । इसी के परिणामस्वरूप विज्ञापनों का शुभारम्भ हुआ ।

विज्ञापन के कार्यक्षेत्र:

विज्ञापन एक प्रभावशाली कला है, जिसका सर्वाधिक विकास विकसित देशों में हुआ है । भारतवर्ष में विज्ञापन यूरोप की देन है । विज्ञापन का कार्यक्षेत्र भी बहुत विस्तृत है । सर्वप्रथम यह एक व्यवसायिक कला है । उत्पादक विज्ञापन द्वारा ही अपने उत्पादन की गुणवत्ता का प्रचार जन साधारण के बीच करता है तथा ग्राहक के बीच माध्यम का कार्य विज्ञापन ही करते हैं ।

आज कितनी ही वस्तुओं का ज्ञान तो हमें विज्ञापनों द्वारा ही प्राप्त होता है । विज्ञापन व्यवसायिक के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी होते हैं तभी तो नयी-नयी बीमारियों तथा उनके निवारण की जानकारी हमें विज्ञापनों द्वारा प्राप्त होती है ।

विज्ञापन के माध्यम:

विज्ञापन देने के लिए अलग-अलग माध्यम अपनाएँ जाते हैं । सर्वप्रथम समाचारपत्रीय विज्ञापन प्रकाशित किए जाते हैं, जिनमें पत्र-पत्रिकाएं एवं समाचार-पत्रों का विशेष स्थान है । विज्ञापन बोर्डों, बाह्मा विज्ञापन पोस्टरों, स्टेशनो तथा स्टीमरो द्वारा तथा बस एवं रेलगाड़ियों द्वारा भी विज्ञापन प्रकाशित किए जाते हैं ।

इन सबके अतिरिक्त मनोरंजक साधन जैसे रेडियो, टेलीविजन, वीडियो फिल्मे, नाटक, संगीत, मेले, दूरदर्शन आदि भी विज्ञापन के साधन हैं लेकिन इन सबमें टेलीविजन की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन जनसाधारण पर सबसे अधिक प्रभाव छोड़ते हैं ।

आधुनिक समय में विज्ञापन-कला का महत्त्व:

किसी भी देश के राष्ट्रीय जीवन-निर्माण में विज्ञापन महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । विज्ञापनों के उचित प्रयोग से विभिन्न वस्तुओ के निर्माता ग्राहकों के सम्पर्क में आते हैं । उन्हें नए-नए ग्राहक बनाने का अवसर मिलता है, जिससे उनकी ख्याति में वृद्धि होती है तथा उनके उत्पादन की स्थायी माँग बढ़ती है ।

इन विज्ञापनो से उत्पादक को ही लाभ नहीं पहुंचता, वरन् उपभोक्ता वर्ग को भी विज्ञापन से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं । विज्ञापन से उपभोक्ताओं के ज्ञान में वृद्धि होती है और उनके पास अपनी पसन्द की वस्तु चुनने की पूरी छूट होती है । वे सही मूल्य पर अपनी रुचि के अनुरूप वस्तुएँ खरीद पाते हैं । विज्ञापन समाज के लिए भी बहुत लाभकारी है ।

विभिन्न विचित्र मुद्राओं के चित्र, आकर्षक भावपूर्ण शैली, लालसा एवं कौतूहल उत्पन्न करने वाले ढंग बरबस ही हमें मोह लेते हैं । विज्ञापनों से ही मुख्य उत्पादकों के अतिरिक्त कई लोगों की रोजी-रोटी चलती है । विज्ञापनों से समाज के रहन-सहन में भी सुधार आता है तथा सभ्यता का भी विकास होता है ।

विज्ञापन की हानियाँ:

विज्ञापन से लाभ के अतिरिक्त हानियाँ भी हैं । सच्चाई एवं ईमानदारी के अभाव में विज्ञापन देश की समृद्धि एवं सर्वसाधारण की उन्नति में, विश्वास में, व्यवहार में एक प्रकार की दुविधा सी पैदा कर देते हें । कुछ लोगों का विचार है कि विज्ञापन कोरा अपव्यय है । यह धन तथा समय दोनों की बर्बादी है ।

कभी-कभी विज्ञापनों से प्रेरित होकर लोग बेमतलब की वस्तुएँ भी खरीद लेते हैं; विशेषकर ग्रहणियाँ तो इन विज्ञापनों के मोहजाल में बहुत जल्दी फँस जाती है । बच्चे भी विज्ञापन देख देखकर फालतू के खिलौने, खाने की वस्तुएँ आदि खरीदने की जिद करते हैं, जो सेहत तथा पैसे दोनों की बरबादी है । अश्लील विज्ञापनों से समाज में नैतिकता का पतन होता है ।

उपसंहार:

कुछ कमियों के होते हुए भी आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में विज्ञापनों का बहुत महत्त्व है । विज्ञापन से ही हमारे व्यापार को गौरवशाली स्वस्थता मिलती है । राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार-विस्तृत करने हेतु विज्ञापन नितान्त आवश्यक है । भारत जैसे विकासशील राष्ट्र मे तो इन विज्ञापनों की महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 22

नारी शिक्षा का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Women’s Education in Hindi

प्रस्तावना:

शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है । मानवीय संसाधनों के सम्पूर्ण विकास, परिवार एवं राष्ट्र के सुधार, बच्चों के चरित्र-निर्माण, पति के आर्थिक सहयोग एवं स्वयं के उत्थान हेतु नारी-शिक्षा का बहुत महत्त्व है ।

एक पुरुष की शिक्षा का अर्थ एक व्यक्ति विशेष की शिक्षा है जबकि एक नारी की शिक्षा का अर्थ एक पूरे परिवार की शिक्षा है । नारी-शिक्षा का महत्त्व-नारी शिक्षा का प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्व है फिर चाहे वह बेटी, बहन, माँ या पत्नी ही क्यों न हो । बहन व बेटी के रूप में शिक्षित नारी अपने परिवार की आर्थिक मदद कर सकती है ।

शिक्षित नारी जागरुक भी होती है इसलिए वह कोई भी अनैतिक कार्य करने के विषय में नहीं सोचती । तीसरे वह अपने भाई तथा पिता पर बोझ नहीं बनती क्योंकि वह अपने पैरों पर खड़ी होकर आसानी से सुयोग्य पति का वरण कर सकती है ।

शिक्षित पत्नी तो परिवार के लिए वरदान होती है । वह सुख, शान्ति व ऐश्वर्य की वर्द्धक होती है । वह कलह की विरोधिनी बनकर घर में प्यार व खुशी का सागर बहाती है । शास्त्रों में भी श्रेष्ठ पत्नी के छह प्रमुख लक्षण बताए गए हैं:

”कार्येषु मन्त्री, करनेशू दासी, भोन्येषु माता, रंनेशू रम्भा । धर्मानुकूला, क्षमयाधरित्री, भार्या च षाड्‌गुण्यवतीह दुर्लभा ।।”

‘कार्येषुमन्त्री’ का अर्थ है, जो स्त्री पति के कामकाज में मन्त्री के समान उसे सही सलाह दे सकती हो, जिससे पति सही निर्णय ले सके । यह कार्य एक सुशिक्षित नारी ही कर सकती है, कारण बौद्धिक विकास एवं उचित निर्णय की क्षमता अध्ययन करने से ही आती है ।

‘करनेसु दासी’ अर्थात् पति की सेवा सुमुग्षा एक दासी के समान कुशलतापूर्वक कर सके । शिक्षा के अभाव में वह सेवा के अर्थ एवं महत्व को न समझते हुए अपना अधिकतर समय लड़ाई-झगड़े में ही व्यतीत कर देंगी । ‘भोज्येषु माता’ अर्थात् माँ के समान स्वास्थ्यवर्द्धक, स्वादिष्ट एवं रुचिकर भोजन वाली पत्नी ही अच्छी पली कहलाने का अधिकार रखती है । ‘रमणेषु रम्भा’ का अर्थ हुआ कि पत्नी बिस्तर पर पति को एक अप्सरा की भाँति सुख दे सके ।

अशिक्षित नारी पति की भावनाओं को कभी नहीं समझ सकती कि किस समय उसे किस वस्तु की आवश्यकता है । ‘धर्मानुकूला’ अर्थात् अच्छी पत्नी वही है जो धर्म अधर्म का अन्तर समझती हो तथा धर्म के अनुसार आचरण करती है । यहाँ तात्पर्य ऐसी स्त्री से है जो समय आने पर पति को उसका धर्म समझाए तथा स्वयँ भी सही रास्ते पर चले ।

‘क्षमयाधरित्री’ अर्थात् उसमें क्षमादान का गुण अवश्य हो । उसमें धरती के समान सहनशीलता हो । एक परिवार में साथ-साथ रहते हुए झगड़े होते ही हैं परन्तु समझदार पत्नी दूसरे की गलती को क्षमा करने के लिए विशाल हृदय की मल्लिका होती है । यह गुण अध्ययन बुद्धि से ही विकसित हो सकता है तथा ‘बुद्धि’ तो शिक्षा से ही आती है ।

इस प्रकार पत्नी के रूप में एक स्त्री बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । वह विवाह करके एक नए वातावरण में नए-नए लोगों के साथ रहती है । जब तक वह अपने पति के विचारों को ही नहीं समझेगी, तब तक वह परिवार को एक सूत्र में नहीं बाँध सकती तथा यह कार्य एक सुशिक्षित, समझदार एवं सुयोग्य नारी ही कर सकती है ।

वह जोड़ने में विश्वास रखती है, न कि तोड़ने में । माता के रूप में तो नारी शिक्षा का महत्त्व कई गुना बढ़ जाता है क्योंकि बच्चे माँ जैसे ही बनते हैँ । माँ ही बच्चों की सही परवरिश करती है, पिता तो अधिकतर समय काम के सिलसिले में बाहर ही व्यतीत करते हैं ।

इस दिशा में नारी बच्चों की प्रथम ‘गुरु’ होती है । माँ के संस्कारों का प्रतिबिम्ब बच्चों में प्रदर्शित होता है । माँ के व्यवहार, संस्कार आदि का सीधा प्रभाव बच्चे पर पड़ता है । एक शिक्षित माता ही बच्चों के कोमल एवं उर्वर मन-मस्तिष्क में उन समस्त संस्कारों के बीज बो सकती है, जो आगे चलकर उसमें सामाजिक, आत्मिक एवं राष्ट्रीय उत्थान के लिए परमावश्यक है ।

हमारे वेद-पुराण ऐसी अनुभूत माताओं के चमत्कारों से भरे पड़े हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को समाज में विशेष स्थान दिलवाया । अभिमम्मु ने माँ के गर्भ में ही चक्रथूह को तोड़ने की शिक्षा ले ली थी । शिवाजी को ‘शिवा’ बनाने में उनकी माता जीजाबाई का विशेष योगदान था । अत: माताओं का शिक्षित होना देश, समाज, परिवार, राष्ट्र सभी के लिए हितकर है ।

माता, पत्नी, बेटी, बहन के अतिरिक्त एक शिक्षित नारी ही अच्छी बहू अच्छी भाभी एवं दूसरे रिश्ते भलीभाँति निभा पाती है । वह जानती है कि समाज में रिश्ते कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं । वह सबका दिल जीतकर एक आदर्श उपस्थित करती है ।

अशिक्षित नारी की दयनीय स्थिति:

अशिक्षित नारी स्वयं को समाज के नियम-कायदों के अनुकूल नहीं ढाल सकती । वह अपने को नितांत अकेला पाती है क्योंकि अशिक्षित नारी में न तो आत्मविश्वास होता है, न ही आत्मनिर्भरता, न आत्मसंयम होता है, न ही आत्मसम्मान । ये गुण तो शिक्षा द्वारा ही विकसित होते हैं ।

अशिक्षित नारी तो अंधविश्वासों, कुरीतियों, जादू-टोनो, बुराईयाँ आदि की उपासिका होती है । अशिक्षित नारी का जीवन सर्वत्र अन्धकारमय होता है । अशिक्षित नारी सदैव विवाह पूर्व पुत्र पिता तथा भाईयों पर बोझ बनकर रहती है, तो विवाह पश्चात् पति, सास-ससुर की अवहेलना झेलती है तथा बुढापे में बच्चों के तिरस्कार की पात्र बनती है ।

कारण वह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती इसीलिए वह इस दुनिया में सम्मान पाने के लिए शिक्षित होना आवश्यक है । शिक्षित नारी की सम्मानीय स्थिति-शिक्षित नारी प्रत्येक स्थान पर सम्मान की पात्र बनती है । वह कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों के स्थान पर वैज्ञानिक तथ्यों पर विश्वास करती है तथा प्रगति की राह पर अनवरत अग्रसर रहती है ।

नारी शिक्षा का ही परिणाम है कि आज प्रत्येक सरकारी व निजी संस्थान में नारियाँ बड़ी कुशलतापूर्वक कार्यरत हैं । वे प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता प्रमाणित कर रही हैं । शिक्षित नारी अपना पारिवारिक जीवन स्वर्गमय बना कर देश, समाज व राष्ट्र की प्रगति में पुरुष के कन्धे से कन्या मिलाकर आगे बढ़ रही है ।

आज की शिक्षित नारी नौकरी कर अपने परिवार की आर्थिक सहायता कर रही है, अध्यापिका बनकर राष्ट्र को शिक्षित कर रही है, नर्स बनकर आहतों को राहत पहुँचा रही है, लिपिक बनकर कार्यालय कार्य संचालन में सहयोग दे रही है तो विधिवेता बनकर समाज को न्याय प्रदान कर रही है ।

उपसंहार:

आज हमारी सरकार भी नारी शिक्षा के महत्त्व को भली-भाँति समझ चुकी है तभी तो आज मुक्त कंठ से यही नारा लगाया जा रहा है:

“पढ़ी लिखी लड़की, रोशनी घर की ।।”


Hindi Nibandh (Essay) # 23

जीवन में अनुशासन का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of the Worth of Discipline in Life in Hindi

प्रस्तावना:

मानव को विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता है क्योंकि चरित्रबल, विवेकशीलता, कर्त्तव्यनिष्ठा एवं अनुशासनप्रियता जैसे गुण मानव में ही पाए जाते हैं । अनुशासन एक सद्‌वृत्ति है, एक जीवन-दर्शन है तथा सभ्य जीवन की पहचान है ।

अनुशासन किसी कानून अथवा अंकुश से नहीं, अपितु स्वेच्छा द्वारा जाग्रत होता है । निःसन्देह यह स्वाधीनता की स्थिति है । अनुशासन नियमों का परिमार्जित स्वरूप है जिसके पालन से मनुष्य में व्यवहारिकता आती है । अनुशासन एक संस्कार है, जिसका निर्माण उसके सामाजिक परिवेश में ही होता है ।

अनुशासन का तात्पर्य:

अनुशासन दो शब्दों अनु+शासन के मेल से बना है । ‘अनु’ उपसर्ग है जिसका अर्थ है ‘पश्चात्’ । ‘शासन’ शब्द संस्कृत की शात्’ धातु से निर्मित है जिसका अर्थ शासन करना होता है । अनुशासन से तात्पर्य है उच्च सत्ताओं की आज्ञाओं का निर्विवाद पालन करना एवं उनका उल्लंघन करने पर दण्ड को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना ।

अनुशासन ‘आत्मिक’ एवं ‘बाह्मा’ दो प्रकार होता है । उघत्मिक ‘अनुशासन’ में व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अनुशासन में रहकर आचरण करता है जबकि बाह्मा अनुशासन किसी बाहरी सत्ता के भय अथवा दण्ड द्वारा स्वीकार किया जाता है । इस प्रकार आत्मिक अनुशासन ही बेहतर है क्योंकि जो कार्य अपनी इच्छानुसार किया जाता है वही कार्य सर्वोत्तम होता है ।

मानव-जीवन में अनुशासन का महत्त्व:

मानव को प्रत्येक कदम पर अनुशासित जीवन जीना पड़ता है । व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन आदि अनुशासन में रहकर जिए जाए तो वे मानव जीवन में स्थायित्व तथा उन्नति लाते हैं । सामाजिक संस्थाओं में तो अनुशासन का महत्त्व कई गुना बढ़ जाता है ।

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनुशासन आवश्यक है । अनुशासन सुव्यवस्था का मूल तल है । व्यक्तिगत स्तर पर जो व्यक्ति अनुशासन में न रहते हुए अपने स्वार्थों के लिए अपनी इच्छा से जीता है, वह प्रत्येक कदम पर विषम परिस्थितियों का सामनों करता है ।

ऐसा व्यक्ति समाज में न तो सम्मान पाता है न ही प्रतिष्ठा । ऐसा व्यक्ति समाज व राष्ट्र की प्रगति में भी बाधक बनता है परन्तु जिस व्यक्ति के जीवन में अनुशासन होता है, वह बड़ी से बड़ी बाधा को भी हंसकर झेल जाता है ।

जिस प्रकार किसी भी विद्यालय की स्थिति का ज्ञान वहाँ के विद्यार्थियों की अनुशासनप्रियता द्वारा पता चलता है, उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र अथवा समाज के चरित्र का अध्ययन उसके नागरिकों को देखकर किया जा सकता है ।

अनुशासन का दूसरा नाम ‘मर्यादित आचरण’ है अर्थात् दूसरों की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए शुभाचरण करना ही अनुशासन है । उदाहरणतया, किसी के बीमार होने पर शोर न करना, कूड़ा-करकट, इधर-उधर न फेंकना, सभी के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना आदि अनुशासनप्रियता के ही उदाहरण हैं । कोई व्यक्ति कितना भी बलशाली, धनवान या सत्ता सम्पन्न क्यों न हो, उसके उत्कर्ष का मार्ग अनुशासन द्वारा ही प्रशस्त होता है ।

प्रकृति में अनुशासन:

यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो हम पाएंगे कि आकाश से लेकर पाताल तक सभी स्थानों पर अनुशासन का महत्त्व है । पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, सूर्य-चन्द्रमा, धरती-अम्बर सभी अनुशासन में रहकर कार्य करते हैं । लघुतम चीटियों को पंक्तिबद्ध चलता देखकर, हाथी को महावत की आज्ञा का पालन करते हुए देखकर अनुशासन का ध्यान आ जाता है ।

आकाश में पक्षीगण मालाकार होकर उड़ते हैं । दिन रात का क्रम, यथासमय ऋतु परिवर्तन, सूर्य-चन्द्रमा, नक्षत्रों आदि का उदयास्त भी अनुशासन का महत्व प्रदर्शित करते हैं । इस बात को जयशंकर प्रसादजी ने इस प्रकार शब्दबद्ध केया है:

“सिर नीचा कर जिसकी सत्ता सब करते स्वीकार यहाँ । मौन भाव से प्रवचन करते, जिसका वह अस्तित्व कहाँ ।।”

अर्थात् यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् किसी न किसी अनुशासन में बँधा अपना जीवनयापन कर रहा है । यदि कभी भी ये सभी नियमों का उल्लंघन करना प्रारंभ कर दें, दिन के बाद रात ही न हो या फिर चन्द्रमा उदय ही नहीं हो, तो सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा या शायद फिर कोई भी जी ही नहीं पाएगा ।

विद्यार्थी एवं अनुशासन:

यूँ तो हमारे सम वन में अनुशासन का स्थान सर्वोपरि है, परन्तु विद्यार्थी जीवन में अनुशासन नियम है । प्राचीनकाल में तो आश्रमों एवं गुरुकुलों की शिक्षा में विद्यार्थियों को कठोर नियमों का पालन करना पड़ता था । आज चाहे शिक्षा पद्धति कितनी भी परिवर्तित क्यों न हो गई हो, परन्तु जीवन को सरल, सुन्दर बनाने के लिए अनुशासन में रहना आज भष्ट्री बेहद आवश्यक है ।

चरित्र का निर्माण अनुशासन से ही होता है क्योंकि चरित्रहीन व्यक्ति को मृतप्राय है । विद्यार्थी जीवन ही उसके भावी जीवन की आधाराशिला है इसीलिए शिक्षा ग्रहण, करते समय ही उसे अपने भीतर अनु-शासन जैसे गुणों का विकास करना चाहिए । अनुशासित व्यक्ति ही अपने जीवन को सुचारू रूप से चला सकता है ।

आध्नुनिक विद्यार्थी में व्याप्त अनुशासनहीनता:

आज विद्यार्थियों में बढ़ती अनुशासनहीनता एक चिन्ता का विषय बन चुका है जिसके पीछे अनेक कारण हैं । आधुनिक शिक्षा पद्धति, जोकि अंग्रेजों की देर है, अनुशासनहीनता का एक मुख्य कारण है । दूसरे आज शिक्षण-संस्थाएं राजनीति के अखाड़े बन चुकी हैं ।

आज विभिन्न राजनैतिक दल विद्यार्थियों, को अनुशासनहीनता के गर्त मे गिरा रहै है । नित्य प्रति समाचार पत्रों में छात्रों की अनुशासनहीनता जैसे बलात्कार, हत्या, शिक्षकों के साथ मार काट, साथियों की हत्या, लूटपाट आदि के किस्से पढने को निलते है, जिन्हें राढूकर बहुत दुख व लज्जा होती है ।

इस सबके लिए शिक्षा-पद्धति के साथ-साथ माता-पिता का उदासीनपूर्ण रवैया व उनका न्नखा जीवन भी उत्तरदायी है । आज के माता-पिता बचपन में ही बच्चों त्हो समय नहीं दे पाते है, उन्हें अंक-संस्कार नहीं दे पाते है जिसका परिणाम नैतिक कार्यों के रूप में सामने उघता है ।

इसके अतिरिक्त बढ़ती बेरोजगारी, भविष्य हही अनिश्चितता, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार, विद्यालयों में शिक्षकों की गुटबाजी, राजनीतिज्ञों की’ स्वाथ, उपता, घरेलू व सामाजिक; वातावरण, सस्ती फिल्म व सस्ता साहित्व, फैशन, आधुनिकता आदि भी विद्यार्थियों में फैलती अनुशासनहीनता के लिए उत्तरदायी है ।

अनुशासनहीनता दूर करने के उपाय:

निरन्तर बढ़ती अनुशासनहीनता को देखते हुए ही नेहरुजी ने कहा था, “छात्रों में जो अतिरिक्त शक्ति है, यदि उसे दूसरे साधनों की और मोड़ दिया जाए, तो अनुशासनहीनता की समस्या सुलझ सकती हे ।”

कारण साफ है, यह बढ़ती हुई अनुशासनहीनता समाज को प्रगति तथा हित मैं बाधक है । यदि विद्यार्थी ऐसे ही अनुशासनहीन बना रहा तथा उसे सही मार्गदर्शन नहीं मिला, तो लोकतन्त्र का भविष्य तो निश्चित तौर पर संकट में पड़ जाएगा । शिक्षण संस्थाओं में व्याप्त वातावरण को सुधारने की दिशा में ठोस प्रयत्न किए जाने चाहिए ।

छात्रों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास किया जाना चाहिए, शिक्षा को रोजगार से जोड़कर बेकारी की समस्या को दूर किया जाना चाहिए तथा इसके साथ ही नैतिक शिक्षा को भी बढ़ाव दिया जाना चाहिए । शिक्षण-संस्थाओं में अनुशासन सम्बन्धी गोष्ठियाँ आयोजित की जानी चाहिए जिनमें महापुरुषों की जीवनियों पर प्रकाश डाला जाए ।

साथ ही विद्यार्थियों को उत्तम साहित्य एवं अच्छे चलचित्र के प्रति प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि शिक्षकों एवं माता-पिता को भी अपनी जिम्मेदारी का सही पालन करना चाहिए ।

उपसंहार:

अनुशासन एक अमूल्य पूंजी है । अनुशासन के बिना जीवन बिना पतवार की नाव के समान है, जो कभी भी डूब सकती है । अनुशासन ही जीवन का सच्चा सार है, सफलता की कुंजी है, चरित्र का आभूषण एवं राष्ट्र का गौरव है ।

अत: ‘जिस प्रकार हम अपने शरीर को अलंकृत करने के लिए आभूषण पहनते हैं, इसी प्रकार अपने जीवन को’ अलंकृत करने के लिए हमें अनुशासन रूपी आभूषण ग्रहण करना चाहिए ।

Essay 24

समाचार-पत्रों की उपयोगिता पर निबन्ध | Essay on Utility of News Paper in Hindi

प्रस्तावना:

समाचार-पत्रों में विभिन्न समाचार विभिन्न स्थानों से संग्रहीत कर प्रकाशित किए जाते हैं । आज समाचार-पत्र हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं ।

अखबारों के द्वारा ही संसार भर के समाचारों को सबसे सुगम व सस्ते तरीके से जाना जा सकता है । सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ यदि अखबार मिल जाए, तो दिन की शुरुआत ही मजेदार लगती हैं । समाचार-पत्र ही संसार का दर्पण तथा संसार भर में घटित घटनाओं का विश्वसनीय दस्तावेज है ।

समाचार-पत्रों का जन्म-समाचार-पत्रों का जन्मस्थान इटली है । सर्वप्रथम 17 वीं शताब्दी में इटली के ‘वेनिस’ शहर में समाचार-पत्र का आरम्भ हुआ था । धीरे-धीरे अरब, मिल, स्पेन आदि देशो में इसका प्रचार-प्रसार होने लगा ।

भारत में अंग्रेजो के आगमन के पश्चात् सबसे पहले ‘इंडिया गजेट’ नामक समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था । ईसाई पादरिट ने ‘समाचार दर्पण’ समाचार-पत्र निकाला । हिन्दी का सबसे पहला समाचार-पत्र उदत्त मार्तण्ड कोलकाता से प्रकाशित हुआ ।

इसके पश्चात् राजाराम मोहनराय ने- ‘कौमुदी’ एवं ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने प्रयनगदक्है नामक पत्र निकाले । इसे बाद तो जैसे समाचार-पत्रों की बाढ़ सी आ गयी, तथा अनेक भाषाओं में समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगे ।

समाचार-पत्रों के प्रकार:

आज के समय में अनेक प्रकार के समाचार पत्र प्रकाशित किए जा रहे हैं जैसे-दैनिक, अर्द्धसाप्ताहिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, छमाही एवं वार्षिक इत्यादि । इन सभी में दैनिक समाचार-पत्र सबसे-अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि इनसे नित्य प्रति के समाचारों, घटनाओं, क्रीड़ा-कौतुको और आमोद-प्रमोदो की नवीनतम जानकारी प्राप्त होती रहती है ।

साथ ही देशकाल एवं पात्र का ध्यान रखते हुए सम्पादकीय टिप्पणियों का भी समावेश रहता है । दैनिक समाचार-पत्र विभिन्न नगरों व महानगरो में विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में छपते हैं । नबथासन टाइम्स, हिन्दुस्तान टाइम्स, बीर अर्जुन, ही द्विफल, दी इकोनोमिक टाइम्स, आदि प्रमुख समाचार-पत्र हैं ।

इन अखबारों में धार्मिक, आर्थिक, साहित्यिक, राजनैतिक, व्यापारिक विषयों से सम्बन्धित समाचार छपते है । यहाँ तक इन में फैशन, खेलकूद, खेल-जगत, बाल जगत, फिल्मों आदि से सम्बन्धित सूचनाएँ भो छपती है । इन समाचार-पत्रों में समाचारों के साथ-साथ समाचारों की आलोचना तथा प्रत्यालोचना भी प्रस्तुत की जाती है ।

‘रविवारीय’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ आदि प्रमुख साप्ताहिक हिन्दी समाचार-पत्र है । पाक्षिक तथा मासिक समाचार-पत्रों में अधिकतर कहानियाँ, लेख, कविता, निबन्ध आदि छपते हैं ।

समाचार-पत्रों का छपाई कार्य:

समाचार-पत्रों के आश्चर्यमय प्रचार-प्रसार में ‘मुद्रणयंत्र’ के मूख्य भूमिका है । यदि मुद्रणयँत्र । चनाविष्कार न हुआ होता तो इतनी अधिक संख्या. में, इतने सुन्दर, आकषक एवं सस्ते समाचार-पत्रों के प्रकाशन की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकते था ।

अब इसकी सहायता से समाचार-पत्रों की 40-45 हजार प्रतियाँ या उससे कही आधिक प्रतियाँ घंटे भर में छाप दी जाती हैं । विभिन्न समाचार-पत्रोंके संवाददाता तथा समाचार-एजेंसियाँ देश-विदेश में फैले हुए हैं । वे देश-विदेश से अपने-अपने समाचार-पत्र के कार्यालयों में समाचार भेजते हैं ।

इसके पश्चात् ये समाचार दूरभाष, डाक, तार और टेलीप्रिन्टर से कार्यालयों में पहुँचते हैं । फिर समाचार-पत्रों के सम्पादक एवं सह-सम्पादक उन समाचारों को कीट-छाँटकर इन्हें कम्पोजिंग के लिए भेजते हैं । तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी कशीनो पर ये छपते हैं । यह सारा काम रात भर चलता रहता है तथा सुबह होते ही समाचार-पत्र पाठकों के हाथ में पहुँच जाते हैं समाचार-पत्रों का महत्त्व-आज के लोकतान्त्रिक युग में समाचार-पत्रों से सभी को लाभ पहुँच रहा है ।

ये मात्र 2-4 रुपए में विश्व भर से परिचित कराते हैं । इन समाचार-पत्रों से हर देश के समाचार हमें दूसरे ही दिन प्राप्त हो जाते हैं । समाचार-पत्रों में समाचारों के अतिरिक्त ऐसे गहन विषयों पर भी प्रकाश डाला जाता है, जिनके अध्ययन से हमें ज्ञान-विज्ञान की अनेक बातें मालूम होती रहती है ।

कम पढ़े-लिखे लोगों के लिये उनके ज्ञान को बढ़ाने में समाचार-पत्रों का विशेष महत्त्व है । समाचार-पत्रों के द्वारा सर्वसाधारण के बीच भी शिक्षा के विस्तार में अधिक सहायता मिलती है । उच्च-शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को भी समाचार-पत्रों में नए-नए तत्त्वों, नए-नए विचारों एव आविष्कारों की अनेक तथ्यपूर्ण बाते पढ़ने को मिलती हैं तथा अपने ज्ञान विस्तार का सुअवसर प्राप्त होता है ।

किसी नवीन नियम, कानून अथवा संविधान का प्रचार सर्वसाधारण के बीच समाचार-पत्रों के माध्यम से किया जाता है । देश की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक तथा आर्थिक समस्याओं पर प्रकाश डालने तथा उनके समाधान के पहलुओं पर विचार करने में समाचार-पत्रों का विशेष योगदान है ।

किसी सरकार के अन्याय तथा अत्याचारो का पर्दाफाश इन्हीं के माध्यम से होता है । देश की बीमारी तथा शिक्षा व्यवस्था की समालोचना तथा उनके निराकरण तथा सुधार की योजना समाचार-पत्रों में ही स्थान पाती है । समाचार-पत्रों से हानियाँ-जीवन के हर क्षेत्र में समाचार-पत्रों से लाभ ही दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु समाचार-पत्रों से कुछ हानियाँ भी हैं ।

कितने ही समाचार-पत्र झूठी खबर छाप-छापकर जाति-विद्वेष तथा साम्प्रदायिकता की कलहाग्नि प्रज्वलित कर देते हैं, जिससे लोग एक दूसरे के जानी दुश्मन बन बैठते है । सम्पादक की कलम विष तथा अमृत दोनों की ही वर्षा कर सकती है । कभी-कभी पैसे के लालच में समाचार-पत्र अश्लील विज्ञापन तथा घृणास्पद कहानियों को स्थान देकर पाठकों की मनोवृत्ति को कलुषित करते हैं ।

उपसंहार:

पत्रकारिता एक बड़ी ही पवित्र वृत्ति है । किसी पत्रकार, पत्र-सम्पादक अथवा संचालन की पवित्रता तथा न्याय-निष्ठा देश को नैतिकता की ओर अग्रसर करने की ताकत रखती है । समाचार-पत्रों को पढ़ने से हमारे संकीर्ण विचार दूर हो जाते हैं । अत: समाचार-पत्रों की ताकत, महत्त्व तथा उपादेयता आधुनिक युग के मानव के लिए वरदान है । ये सरकार तथा जनता के बीच सम्पर्क सूत्र का कार्य करते हैं ।


Hindi Nibandh (Essay) # 24

विद्युत शक्ति का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Electricity in Hindi

प्रस्तावना:

विज्ञान के प्रत्येक चमत्कार ने मनुष्य को अचम्भित किया है, परन्तु विद्युत तो एक ऐसा चमत्कार है, जिसके बिना हम आज अपने जीवन की कल्पना भी कर सकते । यह तो एक ऐसा चमत्कारिक शक्ति का प्रमाण है, जिससे हर मनुष्य का दैनिक जीवन प्रभावित हुआ है ।

विद्द्युत का उत्पादन:

विद्युत उत्पादन का प्रथम श्रेय तो वैज्ञानिकों को ही जाता है, क्योंकि उनके आविष्कारों से ही हम विद्युत उत्पादन मे समर्थ हो पाए हैं । प्राचीन काल में आकाश में बादलों के टकराने से उत्पन्न चमक को देखकर मानव ने ऐसी ही चमक तिनके को रेशम अथवा ऊन के साथ लड़कर उत्पन्न किया था ।

ADVERTISEMENTS:

यह तो केवल घर्षण पर आधारित चमक थी । इसके पश्चात् सन् 1880 ई. में बोला ने विद्युत को दो विभिन्न धातुओं के थोड़े खट्‌टे पानी में रगड़ने के रूप में खोज की । इसके बाद इसे बैटरी तथा सैल का नाम दे दिया गया । पुन: ‘ओर्सटिड’ तथा ‘फैराडे’ ने चुम्बकीय विधुत की खोज की । इसके पश्चात् ‘डायनेमो’ की खोज की गई जो आधुनिक विधुत शक्ति का मुख्य स्रोत है ।

आज विश्वत-शक्ति का उत्पादन बड़े ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाकर तथा वहीं से पानी को अति तीव्र गति से नीचे गिराकर किया जाता है । यह प्रणाली बहुत सफल सिद्ध हो रही है क्योंकि इस विधि से हम अधिक मात्रा में विधुत शक्ति पा सकते हैं ।

विद्युत की उपयोगिता तथा लाभ:

आज मनुष्य निरन्तर प्रगति की राह पर अग्रसर है और ‘विद्द्युत’ रूपी हथियार हर कदम पर उसका जीवन सुगम तथा सरल कर रहा है । आज तो घर या बाहर दोनों जगह विद्युत सबसे उपयोगी वस्तु बन गई है, जिसने असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया है ।

सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग तो विधुत का यह है कि इसने हमारे जीवन को प्रकाशमय कर दिया है । घर, बाहर, दफ्तर, दुकान हर ओर उजाला ही उजाला हो जाता है । बटन दबाते ही हम अपना मनचाहा कार्य विद्युत प्रयोग से पूरा कर लेते हैं ।

हमारे उद्योग, कल-कारखाने, कृषि सभी विधुत से प्रभावित है । विद्युत के बल पर आज हमारे उद्योग-धन्धे पहले की अपेक्षा अधिक उत्पादन कर रहे हैं तथा कृषि के उत्पादन में तीव्र प्रगति हो रही है । पहले खेतों की सिंचाई का कार्य बैल करते थे परन्तु अब वियुत चालित नलकूपों से खेतों की सिंचाई में बहुत सुगमता आ चुकी है । हमारे दैनिक कार्य विधुत के प्रयोग से बड़े ही सुगम हो चुके हैं ।

आज की ग्रहिणी एक साथ कई कार्यों को करती है, उसका जीवन इतना व्यस्त जो हो चुका है । आज एक तरफ बिजली के चालित कपड़े धोने की मशीन चलती रहती है, तो दूसरी तरफ रवाना पकता रहता है । फ्रिज, कूलर, एयरकंडीशनर, मिक्सर, हेयर हायर, टोस्टर, ओवन, माइक्रोवेव, कुकिंग रेंज तथा और भी न जाने कितने उपकरण हमारी सुख-सुविधाओं के लिए ही बने हैं, लेकिन सारा कमाल तो वियुत का ही है ।

मनोरंजन के क्षेत्र में आज टेलीविजन, कम्प्यूटर आदि हमारी मदद कर रहे हैं तो चिकित्सा के क्षेत्र में तो विद्युत-चालित मशीनों जैसे अस्ट्रसाउंड मशीन, एक्स-रे मशीन, कैट-स्कैन तथा और भी न जाने कितनी मशीनों ने डॉक्टरो का कार्य भी आसान कर दिया है और हम भी समय रहते बीमारियों का इलाज कराने में सक्षम हो रहे हैं ।

गर्मी हो या सर्दी, आधुनिक विधुत चालित उपकरण हमारे लिए वरदान साबित हो रहे हैं । आज हर गाँव, हर शहर में विधुत ने अपना सिक्का जमाया हुआ है और आगे भी तरक्की की राह पर अग्रसर है ।

यदि विधुत शक्ति न होती:

यह सोचकर तो हमारा हृदय काँप उठता है कि यदि विद्द्युत रूपी वरदान हमारे पास न होता तो क्या होता ? इसके बिना तो हमारा जीवन अधूरा है, हम पंगु हैं । विश्रुत के न होने । पर हमें अनगिनत कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा ।

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यदि ग्रीष्म ऋतु में वेद्युत न हो तो, न तो पंखे, कूलर, एयरकंडीशनर चल पाएँगे और न ही फ्रिज का ठंडा-ठंडा पानी मिल पाएगा । सर्दियों में न तो गीजर चल पाएगा तो हमें सारा काम ठँडे पानी से ही करना पड़ेगा तथा हीटर न चलने पर कमरा ठंडा रह जाएगा तथा हम सर्दी में ठिठुरते रहेंगे ।

विद्यार्थियों के लिए तो जैसे सख्तसे बड़ा संकट उत्पन्न हो जाएगा । वे कम्प्यूटर के बिना ‘अपना प्रोजेक्ट कैसे तैयार करेंगे, इन्टरनकँ’ के दिना आधुनिक जानकारी कैसे हासिल करेंगे’ और सबसे बड़ी बात उलँधेरे में कैसे पढ़ेंगे विद्युत के बिना हम रेडियो, टैलीविजन, बेतार का तार आदि सुविधाओं से वंचित रह जाएँगे । अब तो रेलगाड़ियाँ भी विधुत चालित है, तो हम यात्रा कैसे करेंगे ।

बिना एक्सरे, अल्ट्रासेकेंड के डॉक्टर कैसे काम चलाएंगे, कितने ही बीमार लोग इन सबके अभाव में समय से पहले हो मर जाएँगे । इसके अतिरिक्त और १ग्ईा न जाने कितनी परेशानियों हमारे सामने करें फैलाकर खड़ी हो जाएगी, जिनका सामना करने का अब हममें साहस नहीँ रह गया है ।

उपसंहार:

वास्तव में आज के सभ्य सराज बरी धुरी विद्युत ही है । हम सभी आज पूर्ण रूप से विद्युत पर आश्रित है । यदि बिजली न हो तो शायद हमारा जौवन आधा ही रह जाएगा तथा हमारे जीवन की, गति बहुत धीमी हो जाएगी ! हम जिस सुख-सुविधा सम्पन्न जीवन के आदो हो चुके हैं वह यदि हमारे हाथों से छिन जाए तो हम अपनी जिन्दगी से ही परेशान होने लगेंगे ।

आज तकनीकी तथा वैज्ञानिक विकास में विद्युत की सहायता से मानव रोज नए प्राकृतिक रहस्यों को खोल रहा हैं अत: वेष्टित आज हमारे जीवन में रोटी, कपड़ा तथा मकान जितना ही महत्त्वपूर्ण हो गई है । आज हम ऐशो-आराम में रहने के आदी हो चुके है । यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि विद्युत विज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण देन है, जिसके लिए मनुष्य हमेशा उनका आभारी रहेगा ।

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